विनय बिहारी सिंह
यह लेख एक युवक के लंबे पत्र के जवाब में है। युवक ने कहा है कि उसे आज तक सच्चा प्यार नहीं मिला। यह दुनिया स्वार्थी है। उसने वैराग्य भाव में लिखा है- मुझे क्या साधु बन जाना चाहिए?
परमहंस योगानंद जी का एक भजन है-
इस दुनिया में मां मेरा कोई प्रेमी नहीं।
इस दुनिया में प्रेम को कोई जाने नही।
जहा भी है वह शुद्ध प्रेम।
जहां भी है वह सच्चा प्रेम।
वहां मेरी आत्मा जाना चाहे।।
वह शुद्ध और सच्चा प्रेम कहां है? सिर्फ भगवान में। वे हमसे बिना कुछ चाहे प्यार करते हैं। हम उनसे प्यार करें या नहीं। हम अपने आसपास देखते हैं कि एक व्यक्ति दूसरे से जब प्रेम करता है तो उसके पीछे एक अदृश्य स्वार्थ रहता है। कई बार यह स्वार्थ दृश्य भी हो जाता है। न जाने कितने युवा आज तक न जाने कितनी सुंदर युवतियों से कह चुके होंगे- मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं। लेकिन इस प्यार में भी एक स्वार्थ है। कोई न कोई छिपी हुई शर्त है। वही युवती किसी दुर्घटना के कारण अगर कुरूप हो जाती है तो प्रेमी का वही प्यार गायब हो जाता है और वह उस युवती से दूर भागता है। ऐसे न जाने कितने उदाहरण भरे पड़े हैं। इससे स्पष्ट है कि युवक को उस युवती से नहीं, उसके चेहरे से प्यार था। जरा गहरे सोच कर देखें तो यह कितना चकित करता है। मनुष्य के जीवन में न जाने कितने पाखंड हैं । जीवन के अन्य पक्षों में भी इसी तरह का स्वार्थ आपको कहीं न कहीं जरूर दिख जाएगा। तब गहरे महसूस होता है कि ईश्वर के बिना हम जी ही नहीं सकते। वे ही हमारे सच्चे प्रेमी हैं। हमारा प्यार भी उनके प्रति सच्चा होगा तो हमारा आनंद कई गुना बढ़ जाएगा। और ईश्वर तो कहते भी हैं- हम भक्तन के भक्त हमारे। यह दुनिया जैसी है, वैसी है। हम इसे बदल नहीं सकते। हां, अपने को जरूर बदल सकते हैं। क्यों पहले हम किसी से प्यार की उम्मीद करें। क्यों न खुद प्यार बांटें। संतों ने कहा है कि अगर आपके दिल में प्यार होगा तो आपको प्यार मिलेगा। लेकिन प्यार का अर्थ सिर्फ स्त्री- पुरुष का ही प्यार नहीं है। कई लोग प्यार शब्द आते ही स्त्री- पुरुष के प्यार के अलावा कुछ सोच ही नहीं पाते। यह एकांगी सोच है। प्यार आया कहां से? ईश्वर ने दिया। तब हमने जाना कि यह प्यार है। सबसे पहला प्यार हमें अपनी मां से मिलता है। क्या उस प्यार की तुलना आप किसी भी अन्य संबंध से कर सकते हैं? मां का प्यार हमें अनंत आनंद में पहुंचा देता है। मां की गोद में बच्चा खुद को शाहंशाह समझता है- एकदम सुरक्षित। इसके बाद पिता का प्यार। फिर अन्य लोगों का प्यार। ईश्वर ही मां के रूप में हमें प्यार करते हैं, पिता के रूप में प्यार करते हैं, मित्र के रूप में प्यार करते हैं। ईश्वर से प्यार करने के लिए साधु होना जरूरी नहीं है। घर पर रह कर भी ईश्वर की भक्ति (भक्ति का चरम रूप ही प्यार है) की जा सकती है। संसार का काम करते हुए भी दिल में ईश्वर को रखा जा सकता है। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- जैसे कोई नौकरानी किसी धनी व्यक्ति के बच्चे को खूब प्यार करती है, उसकी देखभाल करती है, लेकिन उसका अपना दिल घर पर छोड़ आए अपने बच्चे पर लगा रहता है, ठीक उसी तरह हम भी संसार का काम करते हुए ईश्वर को हमेशा दिल में रख सकते हैं। तीव्र वैराग्य में साधु हो सकते हैं। लेकिन साधु हो जाने पर भोजन और वस्त्र की चिंता में सारा जीवन बिताना पड़े तो वह जीवन पारिवारिक जीवन से भी बदतर हो जाएगा। सारा दिन भोजन की चिंता में बीत जाए तो फिर घर ही क्या बुरा है। धन की जरूरत पड़ ही सकती है, कहां से आएगा धन? इसलिए धन का अर्जन करते हुए मन से साधु रहना भी उत्तम अवस्था है।
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