विनय बिहारी सिंह
संत कबीर बार बार मुग्ध करते हैं। उन्होंने लिखा है-
पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उन्मान
कहिबे को सोभा नहीं, देखन को परमान।।
यानी ईश्वर के बारे में ठीक ठीक कोई आंखों देखा हाल नहीं कह सकता। बस आभास ही दिया जा सकता है। असली आनंद तो देखने में है। भगवान कैसे हैं, यह देख कर ही जाना जा सकता है। हां, संत भगवान् का जो आभास देते हैं हम उसी के आधार पर भगवान् की कल्पना करते हैं। हमारे धर्म ग्रंथो में भगवान् के रूप का वर्णन है। जैसे श्रीमद भागवत में भगवान् कृष्ण के रूप के बारे में कहा गया हैअत्यन्त सुंदर शरीर, मोहक ऑंखेंजो आपकी और अत्यन्त प्यार से देखती हैं। भगवान् के गले में वन माला है, कौस्तुभ मणि की माला है, वैजयंती माला है, उनका हाथ घुटनों तक है। होठ लाल और मुस्कराते हुए। आप तो भगवान् की रूप माधुरी में खो जायेंगे। और जब वे बोलते है तो उनकी आवाज आपको मदहोश कर देती है, आप उनके प्रेम में गिरफ्तार हो जाते हैं। कहा गया है आप इसी रूप का मनन करें, चिंतन करें। आभास के ही आधार पर तो मंदिरों की मूर्तियां बनाई गई हैं। हम इन मूर्तियों को देख कर अंदाजा लगाते हैं कि भगवान राम ऐसे हैं, कृष्ण ऐसे हैं, मां काली ऐसी हैं वगैरह वगैरह। लेकिन हां, संतों ने यह भी कहा है कि आप अत्यन्त प्रेम और भक्ति के साथ किसी भी रूप में (अर्थात राम, कृष्ण या काली किसी रूप में ) भगवान को याद कीजिए, वे आपके सामने आएंगे ही। प्रेम के आकर्षण में वे दौड़ कर आते है। तब आप जान जाएंगे कि ईश्वर कैसे हैं। वे आकार वाले भी हैं और निराकार भी हैं। लेकिन जैसे जैसे हम आगे बढ़ेंगे, साधना करते जाएंगे, भगवान् अपना वास्तविक रूप बताते जाएंगे। क्या आनंद है, आगे बढ़ते जाइए, सुख पाते जाइए। असीम आनंद। लेकिन यह सहज नहीं मिलेगा, पहले साधना फिर आनंद।
2 comments:
apki post ka niyamit pathak hun - jo bhi achha lagta use mitron ko bhi shamil karata hun.
bhai rajendra ji. thanks alot for being with me. it's god's grace that you are sharing my views with your friends.
--vinay b.singh
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