विनय बिहारी सिंह
उपनिषदों में कहा गया है- मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयो। यानी मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। मन ही हमें भरमाता रहता है और तरह- तरह की कामनाएं पैदा करता रहता है। यानी- यह भोजन करता तो कितना आनंद आता? अमुक से मिलता तो क्या ही अच्छा होता। या यह ड्रेस पहनता तो कितना अच्छा लगता? या अमुक जगह घूमने जाता तो कितना अच्छा होता। हजार- हजार कामनाएं। लेकिन जब आप वह शौक पूरा कर लेते हैं तो मन वहीं नहीं रुकता। फिर कोई कामना लेकर आपको बेचैन करने लगता है। यानी कामनाओं का अंत नहीं है। जब तक जीवन है तब तक कामनाएं हैं। तो फिर इन कामनाओं पर लगाम कैसे लगाई जाए? विवेक से। एकमात्र उपाय विवेक ही है। हमें जितनी जरूरत है, उसी से काम चलाएं। अपनी इच्छाओं को बेलगाम न होने दें। जैसे भोजन बनाने के लिए हर वस्तु की एक निश्चित मात्रा होती है, तभी स्वादिष्ट भोजन बनता है, उसी तरह मन को भी ईश्वर पर केंद्रित करने से अनावश्यक लोभ और कामनाएं खत्म होने लगती हैं। तब आपको लगता है कि यह शरीर भी तो आपका अपना नहीं है। इसे ईश्वर ने आपको दिया है- आपके माता- पिता के माध्यम से। जब यह शरीर ही हमारा नहीं है तो इस पर जरूरत से ज्यादा ध्यान देने का मतलब क्या है? क्यों न हम उस मालिक पर ध्यान दें, जिसने यह शरीर दिया है। आप भगवान से कह सकते हैं- हे भगवान, जैसे आपने यह मेरा शरीर दिया है, उसी तरह कृपा करके दर्शन भी दीजिए। यह शरीर तो एक दिन छोड़ना ही पड़ेगा। चाहे यह कितना भी सुंदर क्यों न हो। तो जब इसे मैं सदा अपने साथ नहीं रख सकता तो फिर जरूरत से ज्यादा आसक्ति क्यों? हे भगवान आप ही मेरे साथ हमेशा रहेंगे। चाहे जीवन में या मृत्यु के बाद। हे प्रभो, दर्शन दीजिए। बस भीतर से गहरी श्रद्धा से की जाने वाली आपकी पुकार को भगवान अनसुनी नहीं कर सकते।
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