Thursday, September 17, 2009

राधा यानी प्रबलतम प्रेम से दौड़ी आने वाली

विनय बिहारी सिंह

इस्कान के एक सन्यासी ने मुझे ई मेल भेजा है। बहुत ही रोचक। उन्होंने लिखा है कि भगवान कृष्ण के बाएं हिस्से से राधा उत्पन्न हुई हैं और दाएं अंग से शंकर जी ( भगवान शिव)। उन्होंने लिखा है राधा का अर्थ है प्रबलतम प्रेम से दौड़ी आने वाली। रा- यानी प्रबलतम वेग से। धा- यानी दौड़ी आने वाली। उन्होंने लिखा है कि अगर हमारे हृदय में राधा का प्रेम उत्पन्न हो तो हम भगवान कृष्ण को पा सकते हैं। कहते हैं कि एक बार राधा को तनिक गर्व हो गया कि कृष्ण उन्हीं को सबसे ज्यादा मानते हैं। कृष्ण ने उनके अहंकार को चूर करने का फैसला किया। उन्होंने राधा से कहा- चलो वन में घूमें। राधा- कृष्ण घूमते रहे, घूमते रहे। राधा ने कहा- मैं तो थक गई। अब लौट चलें। कृष्ण ने कहा- नहीं, और घूमेंगे। राधा ने कहा कि उनसे चला नहीं जाता। कृष्ण ने कहा- मेरे कंधे पर बैठ जाओ। राधा कृष्ण के कंधे पर बैठ गईं। यह अद्भुत था। राधा को लगा कि यह तो सर्वोच्च स्थिति है। मै ही अकेली हूँ जिसे कृष्ण ने कंधे पर बिठाया है। जब कि किसी भी गहरे भक्त को कृष्ण कंधे पर बिठाते हैं। वे भक्त के अनन्य प्रेमी हैं। लेकिन राधा को लगा कि वे सिर्फ उन्हें ही कंधे पर बिठाए हुए। ज्योंही राधा को यह गुमान हुआ कि बस, भगवान कृष्ण गायब हो गए। राधा धरती पर आ गईं। वे एकदम से व्याकुल हो गईं और कृष्ण- कृष्ण की रट लगाने लगीं। कृष्ण को उनसे अत्यंत प्रेम था, इसमें कोई दो राय नहीं। लेकिन कृष्ण उन्हें कुछ सबक सिखाना चाहते थे। बहुत देर बाद राधा की प्रार्थना से पिघल कर वे प्रकट हुए। तब राधा ने उनसे क्षमा मांगी और कहा कि वे फिर कभी मन में अहं नहीं लाएंगी। एक भजन है न- प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर प्रभु को तुरत पिघलते देखा। एक अन्य सन्यासी ने गाया है- कृष्ण बसो मन में, राधा का प्यार बन कर। राधा का प्रेम दिव्य है। वे खुद को भी कृष्ण मानती हैं। उनका कहना है कि उनकी देह, हृदय, दिमाग और आत्मा पर कृष्ण का कब्जा है। तो फिर राधा है कहां? सब तो कृष्ण ही कृष्ण हैं। मैं भी कृष्ण और जिस वन में खड़ी हूं वह भी कृष्ण मेरे शरीर में जो हवा लग रही है वह भी कृष्ण और जिस अनंत प्रेम से मैं सराबोर हूं, वह भी कृष्ण।

1 comment:

RAJENDRA said...

bahut achchi post hai anirvachniya tattva ke baare main charcha hamesha adhuri hi rahti hai
बहुत अच्छा लगा परंतु अनिर्वाचनीय तत्त्व का विवेचन सर्वदा अधूरा ही हे - धन्यवाद