Wednesday, August 12, 2009

एक संत का पछताना

विनय बिहारी सिंह

घटना ५६ साल पुरानी है। साधुओं का एक दल मध्य प्रदेश में यात्रा कर रहा था। उनमें से एक साधु बीमार हो गए। उन्हें बार- बार दस्त होने लगी। इतनी दस्त हुई कि वे शक्तिहीन से हो गए। साधुओं का दल उन्हें वहीं छोड़ कर आगे बढ़ गया। जिस गांव में उनकी तबियत खराब हुई, उसमें बंजारे रहते थे। एक बंजारे की बेटी ने उनकी बहुत सेवा सुश्रुषा की। उस गांव के वैद्य की दवा से धीरे- धीरे वे स्वस्थ हो गए। साधु युवा थे। उन्होंने बंजारे की बेटी से विवाह कर लिया औऱ घर जमाई बन कर वहीं रहने लगे। दो वर्षों के भीतर ही उन्हें एक बेटा भी हो गया। वे गृहस्थ जीवन में इतने रम गए और अपने बच्चे से इतना प्यार करने लगे कि उनका उनका सारा ध्यान, जप और संतुलन खत्म हो गया। इस तरह कई वर्ष बीत गए। तभी उस रास्ते से जा रहे एक दिव्य संत से उनकी भेंट हुई। गृहस्थ बने साधु ने परिक्रमा करने वाले संत से अपने जीवन के बारे में बताया और कहा कि मैंने सोचा था वैवाहिक जीवन में स्वर्ग का सुख है। लेकिन इस जीवन तो और भी ज्यादा तनाव है। साधु जीवन छोड़ कर बहुत अफसोस हो रहा है। अब लगता है साधु रह कर साधना में जो आनंद आता था, वह अन्य किसी भी जीवन में दुर्लभ है। संत ने उन्हें सांत्वना दी और कहा- आप गृहस्थ जीवन को भी धन्य कर सकते हैं। यहां भी आप ईश्वर के रस का आनंद ले सकते हैं बशर्ते ईश्वर के लिए आपके भीतर तड़प हो। आप ईश्वर के अलावा जहां भी सुख तलाशेंगे, आपको निराशा ही हाथ लगेगी। असली सुख, आनंद और दिव्यानुभूति ईश्वर में ही है। अब पछताने से कोई लाभ नहीं है। गृहस्थ जीवन बुरा नहीं है। इसी में रह कर आप संत का जीवन जी सकते हैं। अपनी स्त्री औऱ बच्चों को भी ईश्वर की दिव्यता के बारे में बताइए। घर का वातावरण पवित्र और ऊर्जावान बना दीजिए। इसीलिए तो पुराने जमाने में कहा जाता था कि विवाहित जीवन है- गृहस्थाश्रम। शादी करना कोई पाप नहीं है। आपको ईश्वर ने परिवार इसलिए दिया है क्योंकि आपको इसकी जरूरत थी। अब आप पिता और पति धर्म का पालन कीजिए और हमेशा याद रखिए कि मनुष्य का जन्म ईश्वर को पाने के लिए ही हुआ है। मनुष्य का शरीर और उसके मेरुदंड में स्थित छह चक्र वरदान की तरह मिले हैं। इनका साधना में इस्तेमाल कीजिए और ईश्वर से साक्षात्कार कर सच्चिदानंद बन जाइए।