Monday, August 10, 2009

एक सन्यासी के मुंह से कबीर का अद्भुत गीत

विनय बिहारी सिंह


पिछले दिनों एक सन्यासी से भेंट हुई। उनसे संत कबीर का एक अद्भुत गीत सुना। यह गीत आपको भी सुनाना चाहता हूः

अवधू योगी जग से न्यारा।
मुद्रा निरति सुरति करि सिंगी, नाद शंडे धारा।
बसै गगन में दूनी न देखै, चेतन चौकी बैठा।
चढ़ि आकाश आसन नहिं छोड़े, पीवै महारस मीठा।
परगट कंठा मा है योगी, दिल में दरपन जोवै।
सहस इकीस छह से धागा, निचल नाकै पोवै।
ब्रह्म अगनि में काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै।
कहै कबीर सोई योगेश्वर, सहज सूनि लौ लागै।।
(अवधूत योगी संसार से अलग है। अवधूत योगी चिन्ह मुद्रा, सुरति, निरति, शिंगा तिलक माला वगैरह धारण नहीं करता। नाद या कोई शब्द उच्चारित नहीं करता, वह हृदय या मस्तिष्क कोष से निसृत नाद सुनता रहता है। इसी चैतन्य में उसे सुख मिलता है। वह गगनमंडल यानी समाधि अवस्था में रहता है और दुनिया की तरफ देखता भी नहीं। चैतन्य की चौकी पर बैठा वह अपना आसन कभी नहीं छोड़ता औऱ लगातार मधुर महारस पीते रहते हैं। वे प्रत्यक्ष रूप से ध्यान मग्न दिखें या न दिखें, वे अपने हृदय दर्पण में ईश्वर को देखते रहते हैं। वे २१, ६०० गांठ को बांध देते हैं यानी २४ घंटे में मनुष्य २१, ६०० बार सांस लेता है। वे इस सांस से मुक्ति पाकर समाधि में लीन हो जाते हैं। वे ब्रह्माग्नि में अपनी काया की आहुति देते हैं और त्रिकुटी संगम में जगे रहते हैं यानी दोनों भौहों के बीच में (भृकुटी के बीच) स्थिर हो जाते हैं। कबीर कहते हैं कि ये योगेश्वर सहज औऱ शून्य ध्यान में मग्न हो जाते हैं।)

1 comment:

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा पढ़कर.