Saturday, July 31, 2010

भगवान शिव ने जब भक्त को दीक्षा दी

विनय बिहारी सिंह


भगवान का एक अनन्य भक्त दिन रात प्रार्थना करता रहता था- हे भगवान दर्शन दीजिए। अब और प्रतीक्षा नहीं कर सकता। आपके दर्शन बिना एक- एक क्षण कष्टकारी लगता है। दर्शन दीजिए भगवान, कृपा करके दर्शन दीजिए। उस भक्त का दिल और दिमाग भगवान शिव की भक्ति से ओतप्रोत था। उसके बाल भगवान शिव की जटा की तरह हो गए थे। सोने से पहले वह कहता था- भगवान, अगर नींद आ जाएगी तो यह मत समझिए कि मैं आपसे दूर हूं। मेरी नींद भी आप ही हैं। इसलिए मैं आपकी गोद में ही सो रहा हूं। क्या गजब की भक्ति थी। एक बार वह केदारनाथ और बद्रीनाथ की तीर्थयात्रा पर गया। उस जमाने में साधनों की कमी थी। दुर्गम पहाड़ी रास्ता। वह चलता जा रहा था और ओम नमः शिवाय का जाप करता जा रहा था। केदारनाथ, बद्रीनाथ के दर्शन करने के बाद वह लौट रहा था। अचानक उसे एक अन्य पहाड़ी की तरफ जाने की इच्छा हुई। आगे रास्ता सुनसान था। आगे बढ़ कर उसने देखा कि एक शिला पर एक दिव्य साधु बैठे हुए हैं। जटा मोहक है। चेहरा देदीप्यमान है और वे चुपचाप बैठे हुए हैं। भक्त को न जाने क्यों इस साधु में एक आकर्षण महसूस हुआ। उसने दिव्य साधु के पैर छुए और उनके पैरों के पास बैठ गया। साधु ने उसका नाम और पता- ठिकाना पूछा। भक्त ने बताया कि वह केदारनाथ- बद्रीनाथ की यात्रा पर आया था। फिर भक्त ने साधु से पूछा- बाबा, भगवान शिव के दर्शन कैसे होंगे। क्या वे मुझ साधारण व्यक्ति को दर्शन देंगे। मुझे तो भगवान शिव के दर्शन के बिना अपना जीवन बेकार लगता है। साधु बोले- भगवान शिव का दर्शन कर क्या करोगे? वे तो हर जगह हैं। सर्वत्र व्याप्त हैं। भक्त बोला- नहीं बाबा, पता नहीं क्यों भगवान शिव के दर्शन के बिना प्राण छटपटा रहे हैं। मैं उनका भक्त हूं। अगर आप उनका दर्शन करा दें तो बड़ी कृपा होगी। साधु हंसे औऱ बोले- ऐसे तो शिव जी के दर्शन नहीं होंगे। तुम्हें किसी गुरु से दीक्षा लेनी पड़ेगी। साधना करनी पड़ेगी। यह ठीक है कि तुम्हारे अंदर गहरी श्रद्धा है। लेकिन किसी सिद्ध पुरुष से दीक्षा ले लो। फिर अवश्य शिव जी तुम्हें दर्शन देंगे। भक्त बोला- बाबा, अब गुरु कहां से ढूंढूं। आप ही मेरे गुरु बन जाइए। साधु बोले- तो ठीक है। सामने एक झरना बह रहा है। वहां नहा कर आओ। भक्त झरने के पानी में प्रेम से नहा आया। दिव्य साधु ने उसे दीक्षा दी। पूरे तीन घंटे बीत गए। फिर वे वहां से चले गए। भक्त ध्यान कर रहा था। उसे सुनाई पड़ा- तुमने साक्षात शिव जी के दर्शन कर लिए। उनसे दीक्षा भी ले ली। जब उसने आंखें खोलीं तो साधु गायब थे। भक्त ने रात उसी चट्टान पर बिताई। वह तो शिव जी में ही जीता था, सांस लेता था। अगले दिन सुबह उठ कर यह कह कर रोने लगा- भगवन, दर्शन तो दे दिया। लेकिन मैं समझ नहीं पाया कि आप ही शिव जी हैं। ठीक से प्रणाम भी नहीं कर पाया। मन- प्राण से आपको निहार भी नहीं सका। बातें भी नहीं कर सका। एक बार और दर्शन दीजिए। तभी उसने देखा उसके ठीक सामने एक स्थान पर वही साधु हवा में खड़े हैं और उसकी तरफ देख कर हाथ हिला कर उसे प्रस्थान करने के लिए कह रहे हैं। यानी बस इसी तरह दर्शन होते रहेंगे। भक्त बोला- ठीक है भगवन। आपकी लीला। आप जैसा चाहें, वैसे ही सही। लेकिन मेरे दिल से आप नहीं निकल सकते। मेरी रुद्राक्ष की माला में भी आप ही हैं। मेरे हृदय में भी आप ही हैं। मैं आपके बिना रह ही नहीं सकता

Friday, July 30, 2010

जब राधा को अहंकार हो गया

विनय बिहारी सिंह

बहुत ही पुरानी कथा है। राधा, भगवान कृष्ण की सबसे प्रिय शिष्या थीं। राधा की एक एक सांस भगवान कृष्ण के लिए थी। लेकिन एक बार उन्हें अहंकार हो गया कि भगवान उन्हें सबसे ज्यादा चाहते हैं। यह बात भगवान को मालूम हो गई। हम जिस क्षण कोई संकल्प लेते हैं या कुछ सोचते हैं भगवान जान जाते हैं। आखिर वे सर्वव्यापी हैं, सर्वशक्तिमान हैं और सर्वग्याता हैं। तो राधा का अहंकार चूर करने के लिए भगवान उनके पास आए और कहा- राधा, चलो हम और तुम वन में सैर करें। राधा तो खुशी से झूम उठीं। भगवान का यह प्रस्ताव किसी को भी आनंद से सराबोर कर देगा। भगवान और राधा वन में चलते गए, चलते गए, चलते गए। राधा थक गईं। एक सुंदर सी जगह देख कर राधा ने कहा- भगवन, क्यों न यहीं बैठ कर बातें करें। भगवान बोले- नहीं। चलो इससे भी अच्छी जगह ढूंढ़े। वहीं बैठेंगे। फिर भगवान चलते गए, चलते गए, चलते गए। वे बातें नहीं करते थे, बस चलते जा रहे थे। राधा चलते चलते बोलीं- अब मुझसे चला नहीं जाता। भगवान ने कहा- तो तुम मेरे कंधे पर बैठ जाओ। किसी के लिए भी इससे बड़ा सम्मान और क्या हो सकता है कि भगवान खुद उसे अपने कंधे पर बिठाएं। राधा भगवान के कंधे पर बैठ कर अहंकार से और फूल गईँ। भगवान समझ गए। अचानक भगवान गायब हो गए। राधा धड़ाम से जमीन पर आ गईँ। अब उन्हें समझ में आया- भगवान उनके अहंकार के कारण ही अदृश्य हो गए। वे एकदम से रोने लगीं। धाराधार आंसू बहे जा रहे थे। वे भगवान से प्रार्थना करने लगीं- भगवन, अब मेरे मन में अहंकार का स्थान नहीं है। कृपया दर्शन दीजिए। काफी प्रार्थना के बाद भगवान कृष्ण प्रकट हुए और राधा से प्रेम से बातें की। राधा या अन्य गोपियां पू्र्व जन्म में ऋषि थीं। ऋषि के रूप में उन लोगों ने भगवान से प्रार्थना की थी कि वे लोग उनके साथ अगले जन्म में मित्र के रूप में रहना चाहते हैं। इससे लाभ यह होगा कि भगवान के साक्षात दर्शन होंगे और उनकी प्रिय बातें सुनने को मिलेंगी। साधना के उच्च स्तर पर रहने वाले इन ऋषियों की बातें भगवान कैसे नहीं मानते। सो इस जन्म में उनका जन्म गोपिकाओं के रूप में हुआ। ये गोपिकाएं जन्म से ही उच्च कोटि की अवस्था में थीं।

Thursday, July 29, 2010

मनुष्य का शरीर किन तत्वों से बना

विनय बिहारी सिंह


महात्मा गांधी ने सात अप्रैल १९४६ के हरिजन सेवक में लिखा है-
मनुष्य का भौतिक शरीर पृथ्वी, पानी, आकाश, तेज और वायु नाम के पांच तत्वों से बना है, जो पंचमहाभूत कहलाते हैं। इनमें से तेज तत्व शरीर को शक्ति पहुंचाता है। आत्मा उसको चैतन्य प्रदान करती है। इन सबमें सबसे जरूरी चीज हवा है। आदमी बिना खाए कई हफ्तों तक जीवित रह सकता है, पानी के बिना भी वह कुछ घंटे बिता सकता है। लेकिन हवा के बिना तो कुछ ही मिनटों में उसकी देह का अंत हो सकता है। इसलिए ईश्वर ने हवा को सबके लिए सुलभ बनाया है। अन्न और पानी की तंगी कभी- कभी पैदा हो सकती है, हवा की कभी नहीं। ऐसा होते हुए भी हम बेवकूफों की तरह अपने घरों के अंदर खिड़की और दरवाजे बंद करके सोते हैं और ईश्वर की प्रत्यक्ष प्रसादी सी ताजी और साफ हवा से फायदा नहीं उठाते। अगर चोरों से डर लगता है तो रात में अपने घरों के दरवाजे और खिड़कियां बंद रखिए, लेकिन खुद अपने को उनमें बंद रखने की क्या जरूरत है?
साफ और ताजी हवा पाने के लिए आदमी को खुले में सोना चाहिए। लेकिन खुले में सोकर धूल और गंदगी से भरी हवा लेने का कोई मतलब नहीं। इसलिए आप जिस जगह सोएं, वहां धूल और गंदगी नहीं होनी चाहिए। धूल और सरदी से बचने के लिए कुछ लोग सिर से पैर तक ओढ़ लेने के आदी होते हैं। यह तो बीमारी से भी बदतर इलाज हुआ। दूसरी बुरी आदत मुंह से सांस लेने की है। नथनों की राह फेफड़ों में पहुंचने वाली हवा छन कर साफ हो जाती है और उसे जितना गरम होना चाहिए उतनी गरम भी वह हो लेती है।
जो आदमी जहां चाहे वहां और जिस तरह चाहे उस तरह थूक कर, कूड़ा- करकट डाल कर या गंदगी फैला कर या दूसरे तरीकों से हवा गंदी करता है, वह कुदरत का गुनाहगार है। मनुष्य का शरीर ईश्वर का मंदिर है। उस मंदिर में जाने वाली हवा को जो गंदी करता है वह मंदिर को बिगाड़ता है। उसका रामनाम लेना फजूल है।
- हरिजन सेवक में गांधी जी के विचा

Wednesday, July 28, 2010

सब्जियों में जहरीला रसायन

विनय बिहारी सिंह

सब्जियों को तरोताजा रखने और पैदावार बढ़ाने के लिए आक्सीटोसिन नाम के रसायन का इस्तेमाल किया जा रहा है। यह सूचना केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है। आक्सीटोसिन गर्भवती महिलाओं को कुछ खास स्थिति में दी जाने वाली दवा है। लेकिन इसका इस्तेमाल सब्जियों की पैदावार बढ़ाने और उन्हें तरोताजा रखने में किया जा रहा है। खासतौर से महानगरों में इसका इस्तेमाल ज्यादा हो रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि आक्सीटोसिन से युक्त सब्जियां खाने से स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ता है। संभव है इससे कैंसर या अल्सर हो जाए। यही नहीं इससे शरीर में विभिन्न तरह की गड़बड़ियां भी पैदा होती हैं। आमतौर पर हम सभी स्वास्थ्य की दृष्टि से हरी सब्जियां ज्यादा खाते हैं। लेकिन इस रिपोर्ट के बाद अनेक लोगों ने प्रश्न पूछना शुरू कर दिया है कि आखिर अब क्या खाएं। अगर हर फायदे वाली चीज में नुकसान का तत्व भरा जा रहा है तो मनुष्य क्या करे? एक विशेषग्य ने कहा है कि यह समाज का विकास नहीं विनाश है। कई जगहों पर लोगों ने प्रतिरोध दर्ज कराया है लेकिन अभी कहीं से ऐसे रसायनों पर रोक की खबर नहीं मिली है।
नए दांत उगाने में मदद करने वाली जेल- इस्राइल के वैग्यानिकों ने ऐसी जेल बनाई है जिसे कीड़ा खाए दांतों पर लगाने से खराब दांत झड़ जाएंगे और नए चमकीले दांत निकल आएंगे। इससे दांतों को किसी रसायन से भरने की परंपरा का अंत हो जाएगा। देखना है भारत में यह जेल कब तक आता है।

Tuesday, July 27, 2010

मैं ही संपूर्ण संसार का मूल
कारण हूं- भगवान श्रीकृष्ण


गीता के सातवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- मैं संपूर्ण संसार का मूल कारण हूं। क्योंकि संसार मुझसे ही उत्पन्न होता है और मुझमें ही लीन होता है। हे धनंजय (अर्जुन) मेरे सिवाय इस इस संसार का दूसरा कोई कारण नहीं है। जैसे सूत की बनाई हुई मणियां सूत के धागे में ही पिरोई जाती हैं तो उस माला में सूत ही सूत है, ऐसे ही संपूर्ण संसार में मैं ही मैं हूं। हे कुंतीनंदन, जल में मैं रस हूं, सूर्य और चंद्रमा में प्रकाश मैं हूं, संपूर्ण वेदों में प्रणव (ओंकार) मैं हूं, आकाश में शब्द मैं हूं, मनुष्यों में पुरुषार्थ मैं हूं, पृथ्वी में पवित्र गंध मैं हूं, अग्नि में तेज मैं हूं, संपूर्ण प्राणियों की जीवनी शक्ति मैं हूं और तपस्वियों का तप मैं हूं। हे पार्थ, संपूर्ण प्राणियों का अनादि बीज मुझे ही जान। बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वी पुरुषों का तेज (प्रभाव) मैं हूं। हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन , बलवानों में कामना और आसक्ति रहित (सात्विक) बल मैं हूं और तो क्या कहूं, जितने भी सात्विक, राजस और तामस भाव हैं, वे सब मुझसे ही होते हैं, ऐसा समझ। परंतु मैं उनसे सर्वथा अतीत, निर्लिप्त हूं।

Monday, July 26, 2010

राम नाम से निश्चित सहायता

विनय बिहारी सिंह


आज महात्मा गांधी के लिखे एक महत्वपूर्ण लेख का छोटा सा अंश पढ़ने को मिला। इस आनंददायक लेख को आप भी पढ़ें।
महात्मा गांधी ने लिखा है- इसमें कोई शक नहीं कि रामनाम सबसे ज्या और निश्चित सहायता करता है। अगर दिल से उसका जप किया जाए तो वह हर एक बुरे ख्याल को तुरंत दूर कर सकता है। और जब बुरा ख्याल मिट गया, तो उसका बुरा असर होना संभव नहीं है। अगर मन कमजोर है, तो बाहर की सारी सहायता बेकार है, और अगर मन पवित्र है, तो भय क्यों? इसका यह मतलब हरगिज नहीं समझना चाहिए कि एक पवित्र मन वाला आदमी सब तरह की छूट लेते हुए भी बेदाग बचा रह सकता है। ऐसा आदमी खुद ही अपने साथ कोई छूट न लेगा। उसका सारा जीवन ही उसकी भीतरी पवित्रता का सच्चा सबूत होगा। गीता में ठीक ही कहा है कि आदमी का मन ही उसे बनाता है और वही उसे बिगाड़ता भी है। मिल्टन कहता है- मनुष्य का मन ही सब कुछ है, वही स्वर्ग को नरक और नरक को स्वर्ग बना देता है।
एक अन्य जगह पर गांधी जी कहते हैं- प्रार्थना केवल शब्दों की या कानों की कसरत नहीं है। वह किसी निरर्थक मंत्र या सूत्र का जप नहीं है। अगर राम नाम आत्मा को जाग्रत न कर सके, तो आप उसका कितना भी जप क्यों न करें, सब व्यर्थ जाएगा। यदि आप शब्दों के बिना भी हृदय से भगवान की प्रार्थना करें तो वह उस प्रार्थना से कहीं अच्छी है जिसमें शब्द तो बहुत हैं, परंतु हृदय नहीं है। प्रार्थना उस आत्मा की मांग के स्पष्ट उत्तर में होनी चाहिए, जो हमेशा उसकी भूखी रहती है।..... मैं अपने और अपने साथियों के अनुभव से यह कहता हूं कि जिसने प्रार्थना के चमत्कार का अनुभव किया है, वह भोजन के बिना तो कई दिनों तक रह सकता है, लेकिन प्रार्थना के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता क्योंकि प्रार्थना के बिना आंतरिक शांति नहीं मिलती।

Friday, July 23, 2010

हां, उन्होंने भगवान को देखा है


विनय बिहारी सिंह


कुछ लोग प्रश्न पूछते हैं कि क्या सचमुच साधु- संतों ने भगवान को देखा है? इसका उत्तर है- हां। साधारण बुद्धि कहती है कि हम किसी मनुष्य का स्थूल शरीर देखते हैं लेकिन वह क्या सोच रहा है, इसे हम नहीं जानते। चूंकि हमारी इंद्रिय आंख उसे उसका ठोस शरीर में देख रही है इसलिए हम जानते हैं कि वह मोटा, पतला, लंबा, ठिगना, सामान्य, सुंदर, असुंदर, सामान्य या सामान्य कद- काठी का है। हालांकि सुंदर और असुंदर की जो धारणा है वह सूक्ष्म स्तर पर खत्म हो जाती है। जो भीतर से सुंदर और स्वस्थ है यानी मन और बुद्धि से जो सुंदर है वही सुंदर कहलाने का अधिकारी है। तो किसी का शरीर हम देख सकते हैं लेकिन वह क्या सोच रहा है, यह हम नहीं जान सकते। क्योंकि उसका सोचना सूक्ष्म है। सूक्ष्म चीजें हमें दिखाई नहीं देतीं, लेकिन उनका अस्तित्व होता है। यह प्रमाणित हो चुका है। फूल हमें दिखाई देता है लेकिन उसकी गंध दिखाई नहीं देती। हालांकि गंध फिर भी हमारी इंद्रिय नाक सूंघ कर महसूस कर सकती है। लेकिन आपके भीतर किस तरह के विचार चल रहे हैं, इसे सामान्य व्यक्ति नहीं जान सकता। लेकिन यह सच है कि आपके भीतर विचार चल रहे हैं। उन विचारों के फलस्वरूप आप काम करते हैं जिनका परिणाम दिखाई देता है। जैसे आप घर बनाने के बारे में सोच रहे हैं। घर की डिजाइन के बारे में सोच रहे हैं। तो फिर वह सोच तभी दिखेगी जब आप घर बना कर तैयार करेंगे। घर बन कर तैयार हुआ और लोग आपकी तारीफ करते हैं कि वाह, क्या घर है। छोटा है लेकिन कितना सुंदर? लेकिन कई सोच स्थूल रूप में प्रकट नहीं होती। कई लोग तो अपने विचार छुपाने में माहिर होते हैं। ऊपर से हंसते रहते हैं और जिस व्यक्ति से हंस- हंस कर बातें करते हैं उसे भीतर से कोसते रहते हैं। विषयांतर न हो इसलिए आइए ईश्वर को देखने की बात पर वापस आएं। ईश्वर ने ही यह संसार बनाया है। वही इसे चला रहे हैं। वे इतने सूक्ष्म हैं कि इंद्रिय, मन या बुद्धि उसे देख नहीं सकती। हर चीज का एक नियम है। ईश्वर को भी देखने का एक नियम है। वे इतने सहज नहीं हैं और बहुत सहज भी हैं। बस जरूरत है गहरे ध्यान की। सिद्ध महात्मा या साधु गहरे ध्यान में उतरते हैं और ईश्वर को अपनी आत्मा से पुकारते हैं। चूंकि उन लोगों की कोई इच्छा नहीं है सिवाय ईश्वर से मिलने के। उनका अंतःकरण शुद्ध है। इसलिए ईश्वर सूक्ष्म होते हुए भी भक्त के लिए स्थूल रूप में प्रकट होते हैं।
एक भजन है न- प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर, प्रभु को नियम बदलते देखा।।
यह प्रबल प्रेम ही ईश्वर तक पहुंचने और उन्हें देखने का एकमात्र सूत्र है। जब तक उनके लिए दिन रात की तड़प नहीं होगी, उन्हें देखना मुश्किल ही नहीं असंभव है

Thursday, July 22, 2010

वापसी की रथयात्रा

विनय बिहारी सिंह


कल यानी २१ जुलाई को भगवान कृष्ण, बलराम और उनकी बहन सुभद्रा की वापसी की रथयात्रा थी। इसे पश्चिम बंगाल में उल्टी रथयात्रा कहते हैं। पिछले १३ जुलाई को रथयात्रा थी। इसमें कृष्ण, बलराम और सुभद्रा अपनी मौसी के घर गए और वहां सात दिन रह कर वापस अपने घर कल लौटे। तेरह तारीख को तो पुरी (उड़ीसा) में लाखों लोग रथ यात्रा में शामिल होते हैं। मान्यता है कि भगवान का रथ खींचने से जन्म- मरण से मुक्ति मिल जाती है। लेकिन यह प्रतीकात्मक मान्यता है। इसका अर्थ है कि मनुष्य अगर मनुष्य अपने इंद्रिय, मन और बुद्धि से परे जाकर भगवान की शरण में जाए तो वह जन्म- मरण से छुटकारा पा लेता है। यह बात गीता में भी कही गई है। एक साधु ने बताया कि भगवान कृष्ण अपने भाई और बहन के साथ मौसी के घर सात दिन क्यों रहते हैं? मौसी का घर यानी सहस्रार चक्र। सहस्रार चक्र में बहुत देर तक रहेंगे तो दुनिया की देखभाल कौन करेगा। इसलिए भगवान सात दिन ही रह कर वापस चले आते हैं। बिना भगवान के यह दुनिया कैसे चलेगी? अगर भगवान सहस्रार चक्र में आनंद से स्थाई रूप से रहेंगे तो संसार में हम लोगों को कौन देखेगा। इसलिए सात दिन बाद वे वापस लौट आते हैं। यही है रथयात्रा का महत्व। परमहंस योगानंद ने कहा है कि जब आप ध्यान कीजिए तो ईश्वर में पूरी तरह डूब जाइए। फिर ईश्वर के अलावा आपको कुछ दिखना ही नहीं चाहिए। इसके बाद अगर आप काम करते हैं तो काम में ऐसे डूबिए कि उसमें कोई कमी न रह जाए। लेकिन जैसे ही काम से मुक्त होइए, भगवान को याद कीजिए। वह तो हर क्षण हमारे साथ है। हम्हीं उसे कुछ देर के लिए भुला देते हैं। वह हमारे हृदय के भीतर है और बाहर भी। वह तो सर्वत्र है। हम अगर उसकी शरण में नहीं जाते हैं तो फिर जीना व्यर्थ है। संसार की कोई भी वस्तु हमें सुख नहीं दे सकती। संसार का कोई भी व्यक्ति हमें आनंद नहीं दे सकता। संसार से हमें कोई आनंद मिल ही नहीं सकता क्योंकि आनंद तो भगवान में है। वह कहीं और कैसे मिल सकता है। संसार में सुख का आभास भर मिलता है। असली सुख नहीं।

Wednesday, July 21, 2010

(courtesy- BBC HINDI SERVICE)

लाखों की जान ले लेगा एस्बेस्टस

ऐस्बेस्टस

कई देशों में त्वचा की बीमारियों के लिए इसे ज़िम्मेदार ठहराया जाता है

दुनिया भर के वैज्ञानिकों, डॉक्टरों और कार्यकर्ताओं को डर है कि अगले एक दशक में विकासशील देशों में लाखों लोग एस्बेस्टस का उपयोग करने की वजह से मारे जाएँगे.

खोजी पत्रकारों की संस्था 'इंटरनेशनल कन्सोर्टियम ऑफ़ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स' और बीबीसी ने संयुक्त रुप से की गई छानबीन में पाया है एस्बेस्टस से कैंसर होने की आशंका के बावजूद दुनिया भर में इसका बड़ी मात्रा में उत्पादन हो रहा है.

हालांकि एस्बेस्टस कनाडा सहित दुनिया के क़रीब 50 देशों में प्रतिबंधित है लेकिन इन देशों की कंपनियाँ अभी भी चीन, भारत और मैक्सिको जैसे विकासशील देशों को एस्बेस्टस का निर्यात कर रहे हैं.

इन कंपनियों का कहना है कि वे जो एस्बेस्टस निर्यात कर रहे हैं वह 'व्हाइट एस्बेस्टस' है और अपेक्षाकृत सुरक्षित है.

'व्हाइट एस्बेस्टस' का उपयोग निर्माण और अन्य उद्योगों में होता है.

छानबीन से यह भी पता चला है कि अभी भी इस कैंसरकारी तत्व के प्रचार के लिए लाखों डॉलर खर्च किए जाते हैं.

विवाद

इस बात को लेकर एक वैज्ञानिक बहस चल रही है कि क्या एस्बेस्टस का उपयोग अभी भी किया जा सकता है.

विकासशील देशों में एस्बेस्टस अभी भी अग्निरोधक छतों के निर्माण, पानी के पाइप और भवन निर्माण में कई जगह एक सस्ते और लोकप्रिय सामग्री के रुप में उपयोग में लाया जाता है.

इस खनिज बचाव करने वालों का कहना है कि इस समय सिर्फ़ व्हाइट एस्बेस्टस का उपयोग किया जाता है. उनका कहना है कि अगर व्हाइट एस्बेस्टस का सावधानीपूर्वक उपयोग किया जाए और यह बहुत अधिक मात्रा में शरीर के भीतर ना जाए तो यह हानिकारक नहीं होता.

वैज्ञानिक शोधों का हवाला देकर वे कहते हैं कि व्हाइट एस्बेस्टस वैसा हानिकारक नहीं होता जैसे कि ब्लू एस्बेस्टस और ब्राउन एस्बेस्टस होते हैं.

सांस की बीमारियों और कैंसर के सबूत मिलने के बाद ब्लू एस्बेस्टस और ब्राउन एस्बेस्टस को दुनिया भर में प्रतिबंधित कर दिया गया है.

लेकिन बहुत से कार्यकर्ता और वैज्ञानिक विश्व स्वास्थ्य संगठन का हवाला देकर एस्बेस्टस का विरोध कर रहे हैं.

उनका कहना है व्हाइट एस्बेस्टस में भी कैंसरकारी तत्व हैं और इससे फेफड़े के कैंसर के अलावा कई तरह का कैंसर हो सकता है.

उल्लेखनीय है कि व्हाइट एस्बेस्टस पर यूरोपीय संघ ने प्रतिबंध लगा रखा है लेकिन भारत, चीन और रूस में अभी भी इसका प्रयोग होता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक शीर्ष वैज्ञानिक का कहना है कि अब व्हाइट एस्बेस्टस के खनन और उपयोग पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए.

Monday, July 19, 2010

चैतन्य महाप्रभु ने अपनी पत्नी
को स्पर्श से ही ठीक कर दिया


विनय बिहारी सिंह

चैतन्य महाप्रभु कृष्ण प्रेम में आनंदित थे। वैराग्य के वे उदाहरण माने जाते हैं। उनकी पत्नी थी विष्णुप्रिया। सन्यास के पहले वे मां से अनुमति लेना चाहते थे। मां पहले तो तैयार नहीं हुईं। उन्होंने चैतन्य महाप्रभु की शादी कर दी। तो भी चैतन्य महाप्रभु को कोई फर्क नहीं पड़ा। वे सबमें कृष्ण को ही देखते थे। ईश्वर उन्हें इस तरह आकर्षित करते थे कि रात में उठ कर वे हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे गाने लगते थे। मां ने जब देखा कि चैतन्य महाप्रभु पूरी तरह ईश्वर प्रेम में लीन हैं और उन्हें संसार में वापस लाना असंभव है तो उन्होंने उन्हें संन्यास की अनुमति दे दी। यह उन दिनों की बात है जब चैतन्य महाप्रभु नाम मात्र का गृहस्थ जीवन जी रहे थे। उनकी पत्नी मैके से घर आई और अपनी सास को प्रणाम कर ज्योंही अपने कमरे में जाने लगी उन्हें चौखट में ठेस लग गई। पैर के अंगूठे से खून बहने लगा। चैतन्य महाप्रभु के भीतर ईश्वर का करेंट हर वक्त दौड़ता रहता था। वे वहीं खड़े थे। वे अचानक झुके और पत्नी के पैर के अंगूठे से खून साफ किया और अपने हाथ के अंगूठे से दबा दिया। दो मिनट बाद जब वे उठे तो सबने देखा उनकी पत्नी के पैर में चोट का कहीं नामो निशान नहीं है। वहां खड़ी मुहल्ले की महिलाएं चकित थीं। उस सबने एक बार फिर देखा कि चैतन्य महाप्रभु साधारण व्यक्ति नहीं है। हालांकि चैतन्य महाप्रभु चमत्कारों के प्रदर्शन में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने करुणावश अपनी पत्नी को स्वस्थ किया। उस समय उनके दिमाग में यह बात बिल्कुल ही नहीं थी कि कोई चमत्कार हो रहा है। महान लोग चमत्कार करते नहीं उनसे अनजाने में चमत्कार हो जाते हैं।

Saturday, July 17, 2010

सूरदास का विरह


विनय बिहारी सिंह


आज सूरदास की फिर याद आई। उनकी रचना दिल को छूती है। आप भी पढ़ें-


प्रभु मोरे औगुन चित न धरौ ।
सम दरसी है नाम तुम्हारौ , सोई पार करौ ॥




इक लोहा पूजा मैं राखत , इक घर बधिक परौ ॥
सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ ॥




इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ ॥
जब मिलिगे तब एक बरन ह्वै, गंगा नाम परौ ॥




तन माया जिव ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ॥
कै इनकौ निर्धार कीजिये, कै प्रन जात टरौ ॥


सूरदास जी ईश्वर से कहते हैं- हे मेरे प्रभु, मेरे दुर्गुणों पर ध्यान मत दीजिए। तुम्हारा नाम समदर्शी है। तुम सबको एक समान देखते हो। मुझे मुक्त करो। इस संसार रूपी अंधकार से निकालो। एक लोहा तो पूजा में रखा जाता है। घंटी के रूप में, पूजा के पात्रों के रूप में और भगवान की मूर्ति के रूप में, और एक लोहा (धारदार हथियार) वधिक या कसाई के घर में रखा जाता है जिससे वह जानवरों की हत्या कर उनका मांस बेचता है। लेकिन इन दोनों में से किसी को अगर पारस पत्थर से छुआ दिया जाए तो वह सोना बन जाता है। पारस पत्थर यह नहीं देखता कि यह वधिक या कसाई के घर का हत्या करने वाला हथियार है। ज्योंही यह हत्या करने वाला हथियार पारस पत्थर से छुआ दिया जाता है, वह सोना बन जाता है। पारस पत्थर अच्छे या बुरे लोहे का भेद नहीं जानता। वह एक जैसा व्यवहार करता है। सूरदास कहते हैं कि भगवान आप भी तो पारस पत्थर से भी बड़े हैं। आपका स्पर्श मुझे दिव्य बना देगा। मेरा स्पर्श कीजिए। मेरे पास आइए। मुझे छुइए। मेरा आलिंगन कीजिए प्रभु। वे फिर कहते हैं- एक नदी है और एक नाला है। नाला तो गंदगी और बदबू लिए रहता है। लेकिन ज्योंही वह गंगा में मिलता है, उसका नाम गंगा हो जाता है। आप भी तो पवित्र अनंत सागर हैं नाथ, मुझे ग्रहण कीजिए। इस शरीर को माया और आत्मा को ब्रह्म कहा जाता है। सूरदास की बिगड़ी है, इसे बना दीजिए हे बिगड़ी बनाने वाले मेरे प्रभु। मेरे प्राण छटपटा रहे हैं, मुझे मुक्ति दीजिए।
सूरदास का यह विरह उनके हृदय की गहराई से निकला है। इसका पाठ हमें पवित्र कर देता है।

Friday, July 16, 2010

जब शेर रमण महर्षि को देख कर
चुपचाप वापस चला गया

विनय बिहारी सिंह

रमण महर्षि प्रेम के प्रतीक थे। उनके पास लोग मोर, गाय और अन्य पालतू जानवर छोड़ जाते थे। पहले तो वे मना करते थे कि मैं इन जानवरों को कहां रखूंगा, लेकिन लोग जब इन पालतू जानवरों को ले जाने से इंकार कर देते थे तो रमण महर्षि उन्हें प्यार से रखते थे। एक बार उनके आश्रम में रह रहे साधु जंगल में शौच करने गए। वे शौच से निवृत्त हो कर लौट ही रहे थे कि सामने एक शेर दिखा। वे तो घबरा गए। घबराहट में उन्होंने शेर की तरफ पत्थर मारा और जान लेकर भागे। अभी कुछ दूर तक वे दौड़े ही थे कि सामने से रमण महर्षि आते दिखे। उन्होंने साधु से पूछा- क्या हुआ। क्यों दौड़ रहे हैं। साधु तो बदहवास थे। वे दौड़ते हुए इतना ही बोले- शे.....र। रमण महर्षि शांत भाव से उन्हें देखते रहे। उन्होंने कहा- चलो देखता हूं कहां है यह शेर। लेकिन साधु ने उनकी बात नहीं सुनी। तब रमण महर्षि अंदर जंगल की तरफ गए। शेर ने उनकी तरफ देखा और वापस जंगल की ओर मुड़ गया। रमण महर्षि टहलने गए थे। वे आराम से टहलते रहे। सांप, बिच्छू, शेर या अन्य कोई हिंसक या विषैला जीव रमण महर्षि को नुकसान नहीं पहुंचाता था। एक सांप बहुत दिनों तक उनके पैरों पर चढ़ जाता था और फिर अपने आप उतर जाया करता था। रमण महर्षि कहते थे कि उसके चढ़ने से मेरे पैरों में गुदगुदी होती थी। लेकिन मैं कर ही क्या सकता था। वह पैर पर थोड़ा सा चढ़ता और फिर वापस मुड़ कर चला जाता था। एक दिन अचानक उसने आना बंद कर दिया।
रमण महर्षि कहते थे- हर प्राणी भगवान का ही अंश है। अगर तुम्हारे मन उसके प्रति प्रेम है तो वह तुम्हें हानि पहुंचा ही नहीं सकता। हां, अगर प्रारब्ध कुछ और है तो वह काट सकता है। लेकिन मन में भय क्यों? गीता में भगवान कृष्ण ने भी कहा है- राग, द्वेष और भय से छुटकारा मिल जाए तो मुक्ति का रास्ता प्रारंभ हो जाता है।

Thursday, July 15, 2010

मानसरोवर के पास एक दिव्य साधु से भेंट


विनय बिहारी सिंह




पुस्तक- महातीर्थ के अंतिम यात्री में एक बहुत ही रोचक प्रसंग आया है। इसमें मानसरोवर के पास एक दिव्य साधु से भेंट का प्रसंग है। इस अत्यंत ठंडी जगह पर रात बिताने के लिए जगह खोजते- खोजते लेखक विमल दे ने एक कमरे को खटखटाया। जिस साधु ने दरवाजा खोला उनका चेहरा दिव्य था। आगे वर्णन इस तरह है- कमरे के कोने में एक झोली टंगी थी जिसमें सत्तू और गेहूं रखा था। इसके अलावा अल्यूमिनियम की एक पुरानी देगची थी बाबा के पास। कैलाश से बर्फ का पिघला पानी लेकर गीउमा चु नाम की नदी मानसरोवर में आ मिली थी। उसी नदी के पानी में गेहूं उबाल कर वे एक जून भोजन करते थे। उनसे कुछ अंतरंगता बढ़ते ही मैंने पूछा- इस दारुण ठंड में आप लंगोट के सिवा कुछ नहीं पहनते, क्या यह आपकी लंबी तपस्या का फल है। वे हंस कर बोले- नहीं, यह भस्म का कमाल है। शीत से रक्षा का सबसे बड़ा हथियार है भस्म। सदाशिव चिरतुषार पर चिरकाल भस्म लगा कर ही बैठे हैं।
थोड़ा रुक कर वे फिर बोले- जीवन में सब कुछ माया है। संसार के सभी पदार्थ अग्नि से जल जाते हैं। जो बचता है वह भस्म है। भस्म ही जीवन का सार है। काम, क्रोध, लोह, मोह, मद मत्सर्य सब कुछ मन की अग्नि में जला कर राख कर दो। उसके बाद केवल भस्म बचेगा। वह भस्म जीवन का अमृत होगा। इसीलिए सदाशिव भस्म लगाए रहते हैं। वे हमसे कुछ भी नहीं चाहते। यदि हम भी वह भस्म लगा सकें तो हमें कोई पाप स्पर्श नहीं कर सकता।....... बिना कारण कुछ भी नहीं होता। हमारा जन्म, सुख- दुख, सभी के मूल में है कर्म फल। यदि तुम्हारा कोई भी संकल्प नहीं है तो तुम महात्मा हो। योगी कहते हैं कि जो बिना संकल्प के कैलाश दर्शन करते हैं उन्हें ही मुक्ति मिलती है।
इस पुस्तक को पढ़ कर आनंद आया। यह एक साधु स्नेह के कारण पढ़ने को मिली थी।

Wednesday, July 14, 2010

हनुमान जी को सीता जी ने
क्यों नहीं पहचाना ?

विनय बिहारी सिंह

एक व्यक्ति ने प्रश्न पूछा- सीता जी तो जगन्माता हैं। जब हनुमान जी अशोक वाटिका में सीता जी के सामने प्रकट हुए तो सीता जी ने पूछा- आप कौन हैं? जगन्माता ने हनुमान जी जैसे भक्त को कैसे नहीं पहचाना? इसके जवाब में एक संत ने कहा- आप भूल गए हैं कि सीता जी ने ही हनुमान जी को आठ सिद्धियों और नौ निधियों का वरदान दिया था। वे सब जानती थीं। लेकिन उन्हें मनुष्य लीला करनी थी। भगवान राम भी मनुष्य लीला ही कर रहे थे। अन्यथा जब राम जी वन में व्याकुल हो कर हा सीते, हा सीते कह रहे थे तो पार्वती जी ने उनकी परीक्षा ली और उनके सामने सीता जी के रूप में खड़ी हो गईं। हू ब हू सीता जी के रूप में माता पार्वती जी को देख कर भी राम उन्हें पहचान गए और कहा- माता पार्वती, आप यहां अकेले क्यों हैं? माता पार्वती सकुचा गईँ। वे समझ गईं, भगवान राम मनुष्य लीला कर रहे हैं। इसी तरह सीता जी ने हनुमान जी को पहचान लिया था। वे जानती थीं कि हनुमान जी उनके पति के अनन्य भक्त हैं। फिर भी उन्होंने न पहचानने का अभिनय किया। गीता में भी भगवान कृष्ण ने कहा है- मुझे न किसी वस्तु की जरूरत है और न ही कोई कर्तव्य करने की आवश्यकता, फिर भी मैं कर्तव्य करता रहता हूं क्योंकि कर्तव्य न करूं तो बड़ी हानि हो जाएगी। मनुष्य मेरा ही अनुसरण करते हैं। इसलिए मैं अपने कर्तव्य करता हूं। भगवान को सचमुच चाहिए ही क्या? वे तो सबके दाता हैं। कहा ही गया है कि सबके दाता राम। उन्हें बस हमारा प्यार भर चाहिए। तुलसीदास ने लिखा है- जो व्यक्ति एक बार संपूर्ण समर्पण और भक्ति से राम कह देता है वह तत्क्षण ईश्वर की कृपा का भागी बन जाता है। उसके जीवन की बाधाएं नष्ट हो जाती हैं।

Tuesday, July 13, 2010

ओटन लगे कपास

विनय बिहारी सिंह


आज एक बहुत ही पुरानी कहावत याद आ रही है- आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास।।
सच ही तो है। हम सब का मनुष्य के रूप में जन्म हुआ है ईश्वर को जानने के लिए। लेकिन हम ईश्वर को छोड़ कर सारे प्रपंचों में फंसे रहते हैं। बस ईश्वर को छोड़ कर। कोई एक घंटा किसी तरह बैठ गया पूजा- पाठ करने और उसके बाद भूल गया भगवान को। भगवान भूलने वाली चीज ही नहीं हैं। वे तो हमारी सांस के रखवाले हैं। उन्हें भूला कैसे जा सकता है। वे ही तो हमारे प्राण हैं। कई भक्त भगवान कृष्ण को प्राण कृष्ण कहते हैं। एक अन्य भक्त भगवान राम को ही प्राण राम और शिव को प्राण शिव कहते हैं। यह भी ठीक ही है। भगवान नहीं तो हमारा अस्तित्व ही नहीं है। इसीलिए उन्हें प्राण कहना उचित है। बिना भगवान को साथ लिए इस संसार में आप सुखी रह ही नहीं सकते। वे प्राण के ही नहीं हमारे समूचे जीवन के भी आधार हैं। परमहंस योगानंद ने कहा है- आपके हर प्रश्न, हर समस्या का समाधान है- भगवान। प्रभु। ईश्वर। कितनी अद्भुत व्याख्या है यह। लेकिन हम समझते हैं कि हम्हीं समस्या सुलझा लेंगे। जो कर रहे हैं, हम्हीं कर रहे हैं। न यह शरीर हमने बनाया है और न ही यह संसार। हमारा शरीर ही नहीं, पूरी सृष्टि के निर्माता हैं भगवान। उनकी शरण में जाकर अगर हम सुख से रह सकते हैं तो फिर देर किस बात की? अगर इस ग्यान के बाद मन फिर भी इधर- उधर भटक रहा है तो फिर तनाव, दुख और क्लेश उस मनुष्य पर हमला कर देंगे। एक बार ईश्वर से नाता जुड़ जाए तो बस फिर क्या है। आनंद ही आनंद

Monday, July 12, 2010

एक अनजाने व्यक्ति का प्रेम


विनय बिहारी सिंह

आज एक अपरिचित व्यक्ति ने मुझे प्रेम से बिठा कर चाय पिलाई। हुआ यह कि मेरे एक उपकरण के स्क्रू की लंबायमान घुंडी टूट गई थी क्योंकि वह प्लास्टिक की थी। वह स्क्रू बेकार हो गया था। दूसरा उसी तरह का स्क्रू नहीं मिल पा रहा था। इसलिए तय किया कि स्क्रू में लोहे की घुंडी की वेल्डिंग करा दी जाए। जैसी घुंडी तिजोरी की होती है। तिजोरी की घुंडी गोल होती है और मेरी घुंडी लंबाई में थी- ठीक अंग्रेजी के टी अक्षर की तरह। इस टी का लंबा वाला हिस्सा तो था, लेकिन ऊपर वाला हिस्सा जो किसी हिंदी के अक्षर पर लाइन खींचने जैसा होता है, वही टूट गया था। मैं वेल्डिंग की दुकान पर गया और दुकानदार से अपनी समस्या बताई। उसने बड़े आदर से कहा- काकू (चाचा) आप ठीक जगह पर आए हैं। जो काम कहीं नहीं होता, वह मैं कर देता हूं। उसने मुझे सम्मान के साथ एक स्टूल पर बिठाया और चाय मंगवा कर पिलाई। मैं लाख ना ना करता रहा, उसने कहा- जब तक आप चाय नहीं पीएंगे, आपका काम नहीं करूंगा। मैंने चाय पी ली। उसने प्लास्टिक की जगह लोहे की घुंडी इस तरह प्रेम से जोड़ दी कि वह अत्यंत मजबूत हो गया। उसने कहा- काकू मैंने ऐसा बना दिया है कि यह आपके जीवन में कभी टूटेगा ही नहीं। सच था।
उसकी दुकान अच्छी खासी चल रही थी। ग्राहक अपनी मरम्मत की हुई वस्तु ले जा रहे थे और रुपए देते जा रहे थे। उससे मैंने ज्यादा बात भी नहीं की। बस, इतना ही कहा कि लोगों ने तुम्हारी दुकान का पता बताया है औऱ कहा है कि तुम इसे ठीक कर दोगे। मुझे भरोसा है कि तुम इसे बना दोगे। पता नहीं क्यों उसे यह बात अच्छी लगी और उसने चाय पिलाए बिना मेरे स्क्रू की मरम्मत नहीं की। कोलकाता में लोग परिचितों को भी चाय पिलाने से कतराते हैं। लेकिन इस दुकानदार ने जिसकी दुकान पर मैं पहली बार गया था और जो मुझे पहचानता भी नहीं था, अत्यंत आदर के साथ मुझे चाय पिलाई। मेरे जीवन में ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं। कई अनजाने लोगों ने ऐसा व्यवहार किया है मानो वे मुझे जानते हों। जब इसका कोई कारण नहीं दिखता तो मन एक ही बात कहता है- यह ईश्वर का स्नेह है।

Saturday, July 10, 2010

(coutesy- BBC Hindi service)

सौर विमान की उड़ान सफल

सौर विमान

सौर ऊर्जा चालित विमान के पंखों पर 12,000 बैटरियाँ लगी हुई थीं

सौर ऊर्जा से उड़ान के परीक्षण पर निकला एक विमान 26 घंटे की सफल उड़ान के बाद लौट आया है.

सौर ऊर्जा चालित इस विमान के निर्माता इस विमान से धरती का चक्कर लगाना चाहते हैं और उस दिशा में ये पहला क़दम था.

इस विमान ने सूर्य की किरणों से दूर जाने पर अत्यंत कुशल सौर बैटरियों से बनी ऊर्जा के सहारे उड़ना जारी रखा.

ये विशेष विमान गुरूवार सुबह स्थानीय समयानुसार नौ बजे स्विट्ज़रलैंड की राजधानी बर्न से 50 किलोमीटर दूर पाएर्न नामक हवाई अड्डे पर उतरा..

उड़ान के दौरान विमान 8,700 मीटर या 28,543 फ़ीट की ऊँचाई तक गया.

किसी सौर ऊर्जा चालित विमान की ये अभी तक की सबसे लंबी और ऊँची उड़ान थी.

चार इंजिनों वाले इस विमान को स्विट्ज़रलैंड में लड़ाकू हवाई जहाज़ उड़ानेवाले एक पूर्व पायलट आंद्रे बॉर्शबर्ग ने उड़ाया. उड़ान में उनके साथ बर्ट्रैंड पिकार्ड सह पायलट थे.

इस विमान के 63 मीटर लंबे विशाल पंखों पर 12,000 सौर बैटरियाँ लगी हुई थीं जिन्होंने उड़ान के लिए ज़रूरी ऊर्जा बनाई.

सोलर इम्पल्स नामक एक टीम ने इससे पहले भी इस साल सौर ऊर्जा चालित विमानों का दो बार परीक्षण किया था.

लेकिन इस टीम ने इस सप्ताह हुए परीक्षण को मील का पत्थर बताया है.

सोलर इंपल्स के डिज़ाइनरों का कहना है कि इस उड़ान से साबित हो गया है कि एक विमान को चौबीसों घंटे हवा में रखा जा सकता है.

Friday, July 9, 2010

एक रोचक पुस्तक

विनय बिहारी सिंह


एक संत पुरुष की कृपा से मुझे एक बहुत पुरानी पुस्तक- महातीर्थ के अंतिम यात्री - पढ़ने का मौका मिला। इसमें भगवान शिव के बारे में जो कुछ लिखा था, उसे आपके सामने रखना अच्छा अच्छा लग रहा है। लेखक विमल दे ने लिखा है कि उनके गुरु ने बताया कि शिव और शक्ति का मिलन ही मोक्ष है। व्यक्ति या भक्त आत्मा प्रकृति और विश्वात्मा शिव के प्रतीक हैं।...... मानसरोवर के आसपास बहुत सी गुफाएं हैं। साधु- महात्मा इन गुफाओं में तपस्या करते हैं। धरती का श्रेष्ठ तीर्थ है- कैलाश खंड। यहां स्नान और जप या ध्यान करने से भगवान की कृपा बरसती है। भारत से जो लोग कैलाश आते हैं वे अल्मोड़ा हो कर ही आते हैं। इसमें अधिक समय नहीं लगता। दो तीन सप्ताह लगते हैं। जब भगवान शिव बुलाते हैं तभी व्यक्ति इस पवित्र स्थल पर आता है। मानसरोवर में डुबकी लगाने से मुक्ति मिलती है। जिनकी कृपा से त्रिभुवन में इतना सौंदर्य है उनके कैलाश में सौंदर्य का भंडार है, आनंद का भंडार है। मानसरोवर में शिव और पार्वती नहाने आते हैं। उस समय राजहंस पर बैठ कर सरस्वती आती हैं उनका दर्शन करने। रामायण, महाभारत, स्कंदपुराण आदि में मानसरोवर के गुणों का बखान मिलता है। पुराण में कहा गया है कि महाराज मांधाता ने सबसे पहले मानसरोवर का दर्शन किया था, तब से इस सरोवर का नाम मान या मानस पड़ा। वहां के लामा व तिब्बतियों का विश्वास था कि मानसरोवर के बीच भगवान बुद्ध हैं जिन पर एक अनभतत्व वृक्ष की छाया है। उस वृक्ष के फल- फूल व पत्तों में अमृत है। उसे खाने से निर्वाण लाभ होता है। जरा- व्याधि और मृत्यु से मुक्ति मिलती है। जाड़े में कोई दंडी परिक्रमा करे तो उसे भी निर्वाण लाभ होता है। इस परिक्रमा में पच्चीस- छब्बीस दिन लग जाते हैं।

Thursday, July 8, 2010

पानी पीने के फायदे

विनय बिहारी सिंह


यह तो हम पहले से ही जानते थे कि दिन भर में छह से आठ गिलास पानी पीने से हमारे शरीर के भीतर जमा वर्ज्य पदार्थ बाहर निकल जाता है। मल- मूत्र के जरिए और कई बार पसीने के जरिए। पानी पीने से कब्ज की शिकायत नहीं रहती और अगर आप एक पूरे नींबू को एक गिलास पानी में निचोड़ कर पी जाते हैं तो यह पेट और आपके नर्वस सिस्टम को शक्तिशाली बनाता है। लेकिन हाल ही में शोध से पता चला है कि पर्याप्त पानी पीने से हमारा ब्लड प्रेशर या रक्त चाप दुरुस्त रहता है और मन शांत हो जाता है। एक और शोध हुआ है। उसके मुताबिक अगर आप तनाव में हैं तो कोई मिठाई या मीठा शर्बत या अन्य कोई मीठा ड्रिंक पी लीजिए। आपको काफी राहत मिलेगी और आप शांति से किसी भी समस्या के हल के बारे में सोच सकते हैं। बहरहाल पानी पीने के फायदों में दो फायदे और जुड़ गए। पर्याप्त पानी पीने से आपका ब्लड प्रेशर बिल्कुल ठीक रहेगा और मन तरोताजा। एक और उपाय पहले से ही हम जानते हैं। अगर आप थोड़ा से बोर या थके महसूस कर रहे हों तो अपना चेहरा खूब अच्छी तरह पानी से धो लीजिए और इसके बाद कम से कम आधा गिलास पानी पी लीजिए। आप तरोताजा महसूस करेंगे।
जहां तक मीठी चीजों का प्रश्न है, चीनी नुकसान करती है, चीनी सीधे या किसी भी रूप में खाना सेहत के लिए अच्छा नहीं है। लेकिन रोज सीमित मात्रा में चीनी खाई या चाय वगैरह में पी जाए तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। कई लोग रोज १० से १२ कप चाय पीते हैं। वे चाय पीना घटा कर ७- ८ कप कर दें तो उन्हें खुद राहत महसूस होगी।

Wednesday, July 7, 2010

एक व्यक्ति के मुंह से सुनी बात


विनय बिहारी सिंह


पिछले दिनों एक ट्रेन यात्रा के दौरान एक अपरिचित से व्यक्ति ने रोचक घटना सुनाई। आप इस पर विश्वास करें या नहीं यह आप पर निर्भर है। मैंने उनकी बात जैसे सुनी ठीक उसी तरह आपको सुना रहा हूं। घटना इस प्रकार है- वे ट्रेन से वाराणसी से कोलकाता आ रहे थे। जब ट्रेन से कोलकाता उतरे तो देखा कि उनके पास जो ३ हजार रुपए थे, वे गायब हैं। गिर गए या किसी ने निकाल लिया वे नहीं जानते। ये रुपए उन्होंने बैग में एक लिफाफे में रखे थे। बैग का साथ उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। बाथरूम भी जाते तो बैग लिए जाते। हां, कुछ खाने- पीने का सामान निकालने के लिए उन्होंने जरूर वह बैग खोला और बिस्कुट इत्यादि ढूंढ़ने के लिए उन्होंने बैग का सामान दाएं- बाएं किया। वाराणसी में जहां भी गए, वहां- वहां बैग खोला और कुछ कागज- पत्र इत्यादि निकाले या रखे। बस। उनका शक था कि सामान निकालने या रखने के दौरान रुपए का लिफाफा अनजाने में कहीं गिर गया होगा। लेकिन अब वे कोलकाता स्टेशन से जाएं कैसे? वहां से उनका घर करीब २० किलोमीटर दूर है। पाकेट में एक पैसा नहीं है। खुचरा पैसे तक नहीं हैं। अब क्या होगा? वे घर की तरफ पैदल चल निकले। सुबह का वक्त था। सोचा रात होने के पहले तो वे पैदल पहुंच ही जाएंगे। रास्ते में चलते जा रहे थे और गायब हुए रुपयों के बारे में सोचते जा रहे थे। तभी उन्हें रास्ते में एक लिफाफा पड़ा हुआ मिला। हालांकि उनका लिफाफा खाकी रंग का था और यह लिफाफा सफेद था। उन्होंने उत्सुकता से उसे खोला और देखा तो दंग रह गए। उसमें तीन हजार रुपए थे। पांच- पांच सौ के नोट। उन्हें शक हुआ कि कहीं ये नोट जाली तो नहीं हैं। उन्होंने बैंक के लोगों से इसकी जांच कराई, नोट बिल्कुल असली थे। तब से वे दंग हैं। उनका कहना है कि ईश्वर बहुत दयालु हैं। मैंने उनसे कहा- जिस व्यक्ति के ये रुपए गिरे होंगे, वह भी तो वैसे ही दुखी हुआ होगा, जिस तरह आप हुए थे, तो उन्होंने कहा- हां, यह तो सच है। मुझे ये रुपए थाने में या कहीं जमा करने का विचार आया। लेकिन फिर सोचा जहां जमा करूंगा, वहां के लोग अगर बेईमान निकले तो उससे अच्छा है मैं ही क्यों न रख लूं। उनका तर्क मेरी समझ में नहीं आया। आपने जो कर्म किया उसका फल आप भोगेंगे। जो भी यह रुपया लेगा, उसका फल वह भोगेगा। रुपए तो खर्च हो जाएंगे लेकिन आपका कर्म संचित रह जाएगा। उसे आपके अलावा कोई दूसरा नहीं भोग सकता। यही तो वाल्मीकि के बारे में जो कथा है वह कहती है। साधु ने डकैत वाल्मीकि से कहा- मुझे तुम पेड़ में बांध दो, लेकिन घर जाकर अपने बीवी बच्चों से पूछो- क्या वे लोग तुम्हारे पाप में भागीदार बनेंगे? वाल्मीकि घर गए जब उन्होंने अपने बीवी, बच्चों और माता- पिता से यह प्रश्न किया तो सबने एक ही जवाब दिया- नहीं। हम तुम्हारे पाप में भागीदार नहीं हैं। तुम्हारा कर्म तुम जानो। हर आदमी अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है। तब वाल्मीकि की आंख खुली। उन्होंने डकैती करनी छोड़ दी और ऋषि बन गए।

Monday, July 5, 2010

एकांत में रहने के फायदे

विनय बिहारी सिंह

सभी साधु संतों ने महीने या दो महीने में एक बार एकांत में रहने की सलाह दी है। इससे आत्ममंथन या आत्मनिरीक्षण का मौका मिलता है। आत्ममंथन कैसे करें? एक- यह परखना चाहिए कि मेरे विचार किस तरह के हैं। मैं आजकल किन विचारों के इर्द- गिर्द घूम रहा हूं। मेरा मन कहां- कहां भटक रहा है? क्या मेरा मन ईश्वर के प्रति आकर्षित रहता है। इससे हम कहां हैं, पता चल जाता है। आत्मविश्लेषण से मनुष्य का विकास होता है। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- मनुष्य को महीने- दो महीने में एक बार किसी एकांत जगह पर जा कर चुपचाप दो- चार दिन जरूर रहना चाहिए। अगर समय हो तो यह अवधि बढ़ा कर एक हफ्ते या दो हफ्ते तक कर देनी चाहिए। वे तो कहते थे कि मनुष्य को एकांत में ईश्वर के विरह में रोना चाहिए। ईश्वर से कहना चाहिए कि भगवन, आखिर आप कब दर्शन देंगे। आंखों में आंसू भर कर दिल से प्रार्थना करने पर ईश्वर अवश्य दर्शन देते हैं। अगर रो नहीं सकें तो कम से कम दिल से प्रार्थना तो कर ही सकते हैं। पिछले रविवार को एक भक्त कह रहे थे- अब इस दुनियादारी में मन नहीं लगता। जल्दी से अपनी जिम्मेदारियां पूरी करके अब सिर्फ भगवान के लिए ही जीने का मन करता है। तभी एक पुराने भक्त ने कहा- दिन रात भगवान को पकड़े रहिए। हर क्षण भगवान के चरणों में पड़े रहिए औऱ दुनियादारी के काम भी करते रहिए। लेकिन संसार के मोह मत पालिए। यहां न कोई आपका है न आप किसी के हैं। सब बारी- बारी से इस संसार से चले जाएंगे। सारे रिश्ते नाते अस्थाई हैं। यह दिमाग में रख कर ईश्वर के लिए सारे काम करने से जीवित रहते ही मुक्ति मिल जाती है

Saturday, July 3, 2010

(COURTESY- BBC HINDI SERVICE)

सौर-विमान की उड़ान स्थगित

सौर विमान

सौर विमान पहली बार मानव पायलट के साथ 24 घंटे उड़ान भरेगा

ऐन वक़्त पर आई तकनीकी समस्याओं की वजह से सौर ऊर्जा से चलने वाले विमान को चौबीस घंटे उड़ाने की योजना को स्थगित करना पड़ा है.

स्विट्ज़रलैंड में इसके आयोजकों ने कहा है कि वे जुलाई से पहले इस विमान को 24 घंटे उड़ाएँगे क्योंकि उसके बाद सूरज की रोशनी में पर्याप्त तेज़ी नहीं रह जाएगी.

इस विमान को स्विस विमान तल से उड़ान भरनी थी और दिन भर के बाद रात में भी उडा़न भरनी थी.

एचबी-एसआईए विमान को दिन में अपने सौर पैनलों में इतनी ऊर्जा पैदा करनी है जिससे कि वह रात में आसानी से उड़ान भर सके.

लेकिन एक ट्रांसमीटर के ख़राब हो जाने की वजह से इसकी उड़ान रद्द करनी पड़ी.

विमान के आविष्कारकों में से एक बर्ट्रैंड पिकार्ड ने कहा है कि अब पायलट को अमरीका से नया ट्रांसमीटर आ जाने तक इंतज़ार करना पड़ेगा.

पिकार्ड जोख़िमभरे कार्य करने के लिए प्रसिद्ध हैं.वे 1999 में गैस भरे गुब्बारे से बिना रुके दुनिया की परिक्रमा कर चुके हैं.

ख़राबी

इस विमान को रोबोट के साथ पहले सफलता के साथ उड़ाया जा चुका है लेकिन मानव पायलट के साथ इसे पहली बार उड़ाया जाना है.

बुधवार की रात तक विमान को उड़ाने की योजना ठीक चल रही थी लेकिन ऐन वक़्त पर जर्मनी से आया एक छोटा ट्रांसमीटर ख़राब हो गया.

रात भर तकनीशियन काम करते रहे लेकिन वे इसे विमान की दूसरी मशीनों से साथ काम करने योग्य नहीं बना सके.

यह ट्रांसमीटर इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पायलट पर निगरानी रखेगा कि वह चौबीसों घंटे सजगता के साथ विमान उड़ा रहा है.

अब इसे अमरीका से मंगवाया जा रहा है.

डॉ पिकार्ड ने कहा, "हमें विमान की उड़ान को किसी और दिन के लिए स्थगित करना पड़ा है."

विशेष विमान

यह विशेष विमान कई तकनीकों की हद तक जाकर विकसित किया गया है क्योंकि आविष्कारकों को इस विमान का वज़न कम करना था.

इसके दोनों पंखों की कुल लंबाई 61 मीटर है जिस पर सौर पैनल लगे हुए हैं.

इस सौर पैनल के ज़रिए पैदा की गई बिजली की मदद से यह विमान पाँच मील की ऊँचाई तक उड़ान भरेगा और इस बीच वह बैटरी में ऊर्जा संचित करता चलेगा. इसी संचित ऊर्जा से विमान रात में उड़ान भरेगा.

बीबीसी के संवाददाता रोजर हैराबिन का कहना है कि इस उड़ान के आयोजक विमानन के क्षेत्र में कोई क्रांति करने का विचार नहीं रखते बल्कि वो लोगों को दिखाना चाहते हैं कि सूर्य में कितनी ताक़त है.

Friday, July 2, 2010

पांकाल मछली

विनय बिहारी सिंह

रामकृष्ण परमहंस आध्यात्म की बातें रोचक ढंग से कहते थे ताकि साधारण से साधारण आदमी भी उसे समझ सके। वे कहते थे- मनुष्य को पांकाल मछली की तरह रहना चाहिए। पांकाल मछली, कीचड़ में रहती है लेकिन उसकी देह में कीचड़ नहीं लगता। कारण यह है कि मछली की त्वचा फिसलन वाली होती है। वह कीचड़ में छुप जाती है, लोटपोट करती है, क्रीड़ा करती है, लेकिन कीचड़ उसके शरीर को छूता भी नहीं। रामकृष्ण परमहंस कहते थे यह संसार माया से ओतप्रोत है। माया के बीच रहो लेकिन माया से ओतप्रोत मत हो जाओ.... पांकाल मछली की तरह जब चाहो निकल सको, ऐसी स्थिति बनाए रखो। वरना माया इतनी जोर से जकड़ लेगी कि तुम छटपटाते रह जाओगे। माया मिठास लिए हुए होती है लेकिन इसके भीतर कष्ट, राग, द्वेष, द्वंद्व और दुख होता है। वे एक और उदाहरण देते थे- जैसे कटहल को काटते समय हाथ में सरसों का तेल लगा लेते हैं, उसी तरह संसार में रहते हुए ईश्वर रूपी तेल लगा कर रहना चाहिए।
जहां भगवान हैं, वहां सब कुछ सुरक्षित है। जहां राम, तहं काम नहिं, जहां काम नहिं राम।। यानी जहां राम हैं वहां कामनाएं, वासनाएं नहीं हैं और जहां कामनाएं, वासनाएं हैं वहां राम नहीं हैं। दोनों एक साथ नहीं रह सकते। या तो राम रहेंगे या काम रहेगा। क्यों न राम की जगह और विस्तारित करें और निर्मल और पवित्र, भक्ति से ओतप्रोत करें

Thursday, July 1, 2010

पिघलने की कला आनी चाहिए

विनय बिहारी सिंह

एक सन्यासी ने कहा है- ईश्वर से मिलने के लिए भक्त को ईश्वर में पिघलने की कला आनी चाहिए। कैसे? भक्त कल्पना करे कि ईश्वर एक महाप्रकाश पुंज हैं और भक्त प्रकाश पुंज बन कर उसी में पिघल रहा है। ईश्वर का प्रकाशपुंज आनंद से ओतप्रोत है। भक्त भी उसमें पिघल कर आनंद से ओतप्रोत हो रहा है।