Friday, July 2, 2010

पांकाल मछली

विनय बिहारी सिंह

रामकृष्ण परमहंस आध्यात्म की बातें रोचक ढंग से कहते थे ताकि साधारण से साधारण आदमी भी उसे समझ सके। वे कहते थे- मनुष्य को पांकाल मछली की तरह रहना चाहिए। पांकाल मछली, कीचड़ में रहती है लेकिन उसकी देह में कीचड़ नहीं लगता। कारण यह है कि मछली की त्वचा फिसलन वाली होती है। वह कीचड़ में छुप जाती है, लोटपोट करती है, क्रीड़ा करती है, लेकिन कीचड़ उसके शरीर को छूता भी नहीं। रामकृष्ण परमहंस कहते थे यह संसार माया से ओतप्रोत है। माया के बीच रहो लेकिन माया से ओतप्रोत मत हो जाओ.... पांकाल मछली की तरह जब चाहो निकल सको, ऐसी स्थिति बनाए रखो। वरना माया इतनी जोर से जकड़ लेगी कि तुम छटपटाते रह जाओगे। माया मिठास लिए हुए होती है लेकिन इसके भीतर कष्ट, राग, द्वेष, द्वंद्व और दुख होता है। वे एक और उदाहरण देते थे- जैसे कटहल को काटते समय हाथ में सरसों का तेल लगा लेते हैं, उसी तरह संसार में रहते हुए ईश्वर रूपी तेल लगा कर रहना चाहिए।
जहां भगवान हैं, वहां सब कुछ सुरक्षित है। जहां राम, तहं काम नहिं, जहां काम नहिं राम।। यानी जहां राम हैं वहां कामनाएं, वासनाएं नहीं हैं और जहां कामनाएं, वासनाएं हैं वहां राम नहीं हैं। दोनों एक साथ नहीं रह सकते। या तो राम रहेंगे या काम रहेगा। क्यों न राम की जगह और विस्तारित करें और निर्मल और पवित्र, भक्ति से ओतप्रोत करें

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