Thursday, February 25, 2010

आपने यह कथा जरूर सुनी होगी

विनय बिहारी सिंह


कथा है कि एक बार पार्वती जी ने भगवान शिव से कहा कि पृथ्वी पर लोग, इतने दुखी रहते हैं और आप उनके लिए कुछ नहीं करते। कुछ तो कीजिए। भगवान शिव ने कहा कि मैं तो करना चाहता हूं लेकिन पीड़ित लोग ध्यान नहीं देते। आखिर मैंने उन्हें फ्री विल यानी स्वतंत्र इच्छा शक्ति दी है। अब अगर वे इस फ्री विल का सदुपयोग न करें तो मैं क्या कर सकता हूं। माता पार्वती ने कहा कि इसका प्रमाण क्या है। आप मेरे साथ पृथ्वी लोक में चलिए और मेरे सामने किसी की मदद कीजिए। भगवान तैयार हो गए। दोनों एक वृद्ध दंपति के रूप में पृथ्वी पर आए और देखा कि सामने से एक व्यक्ति चला आ रहा है। भगवान ने उसके रास्ते में सोने की मुहरों वाली एक थैली इस तरह रख दी कि कुछ मुहरें बाहर निकली दिख जाएं। वह आदमी चला आ रहा था अपनी धुन में मस्त। जब थैली के पास आने का समय आया तो उसके मन में आया कि देखें अंधे लोग किस तरह रास्ते में चलते होंगे। उसने आंखें बंद की और चलने लगा। इस तरह सोने की थैली वाली जगह आंख बंद किए हुए ही गुजर गया। भगवान ने मां पार्वती से कहा- देख लिया। अब मैं क्या करूं। यह तो एक उदाहरण है। लेकिन मैं हजार तरह से लोगों की मदद करता हूं। फिर भी लोग दिमाग उस तरफ नहीं ले जाते। वे छोटे- छोटे सुखों के लिए इस तरह हाय हाय करते हैं कि बड़े सुख उनके हाथ से फिसल जाते हैं। मां पार्वती ने पूछा- इसका कारण क्या है। भगवान ने कहा- लोग खुद को शरीर मान कर चलते हैं इसीलिए वे दुखी रहते हैं। एक बार वे यह मान लें कि वे शरीर नहीं हैं। शरीर उनका है। वे तो सच्चिदानंद आत्मा है। बस काम बन जाएगा। तब वे इंद्रियों के दास नहीं रहेंगे। तब वे तमाम इंद्रियों को सुख पहुंचाने के बदले आत्मा को सुख पहुंचाने की कोशिश करेंगे। अभी तो होड़ है कि आज यह खाएं तो कल वह खाएं। आज यह पहनें तो कल वह पहनें। आज यहां घूमने जाएं तो कल वहां घूमें। आज इससे मिलें तो कल उससे मिलें। मनुष्य का सारा जीवन इंद्रियों की संतुष्टि और हजार हजार इच्छाओं की पूर्ति में ही बीत जाता है। अंत में जब मरता है तो भी असंतुष्ट ही मरता है। मां पार्वती ने कहा- मुझे इन दुखी संतानों से प्यार है। लेकिन ये समझते क्यों नहीं। भगवान ने कहा- इतने वेद, पुराण और उपनिषद हैं। गीता है। रामचरितमानस है। ईश्वर प्राप्त ऋषि मुनि हैं। उनकी बातें सुन कर या इन धार्मिक ग्रंथों का सार तत्व जान कर मनुष्य दुखों से छुटकारा पा ही सकता है। मां पार्वती ने समर्थन में सिर हिलाया।

भक्ति यानी पूर्ण समर्पण

विनय बिहारी सिंह'


भक्ति का अर्थ है पूर्ण समर्पण। एक भक्त से मुलाकात हुई। वे मां काली को ही अपना सर्वस्व मानते हैं। उनकी भक्ति अद्भुत है। काले रंग की चीज देखते ही वे कहते हैं- जय मां काली। वे कहते हैं जो भोजन उनके पेट में जाता है, वह वे नहीं, मां काली खाती हैं। जो कपड़ा वे पहनते हैं वह वे नहीं मां काली पहनती हैं। जो काम वे करते हैं वह मां काली की शक्ति से होता है। जब वे सोते हैं तो कहते हैं- आंख बंद करते ही अंधेरा हो जाता है। वहां भी मां काली हैं क्योंकि अंधेरा तो काला ही होता है। क्या गजब है। उनसे मिल कर जितनी देर बात कीजिए वहां से हटने का मन नहीं करता। वे कोई न कोई प्रसंग उठा देते हैं और उस प्रसंग के केंद्र में होती हैं मां काली। कभी कभी वे मां काली के भजन सुमधुर कंठ से गाते हैं। कुछ अच्छा खाने को मिलता है तो वे मां काली को धन्यवाद देते हैं। क्या गजब की भक्ति है। वे कहते हैं- एक सेकेंड भी मैं मां काली से अलग नहीं हो सकता। उन्होंने ही तो अपनी तरफ आकर्षित किया है। मां काली की गोद में सिर रख कर सोने का आनंद क्या होता है,, यह वही जान सकता है जो मां का भक्त है। दूसरे लोग उस आनंद की कल्पना भी नहीं कर सकते। मां हर प्राणी को प्यार करती हैं। मनुष्य चूंकि सबसे बुद्धिमान है इसलिए उससे उम्मीद है कि वह भी मां के प्यार का सार्थक उत्तर देगा। लेकिन कई लोग मां की तरफ देखते भी नहीं । मां उनकी तरफ देख रही हैं। उन्हें प्यार से बुला रही हैं। लेकिन वह व्यक्ति न देख रहा है न सुन रहा है। उसे तो सांसारिक चीजों के प्रति आकर्षण है। वह समझता है कि सांसारिक वस्तुओं के इकट्ठा कर लेने से वह सुखी हो जाएगा। लेकिन सच्चाई यह है कि उसकी भूख बढ़ती जाती है बढ़ती जाती है और मरते दम तक वह सांसारिक वस्तुओं के पीछे भागता रहता है। न इच्छाओं का कोई अंत है और न मनुष्य को कभी चैन है। मनुष्य एक ही सूरत में आनंद और पूर्णता मिल सकती है। वह जब ईश्वर से जुड़ जाए। ईश्वर से कनेक्ट हो जाए। लेकिन ज्यादातर लोग ईश्वर से कनेक्ट होने के लिए धैर्य नहीं रख पाते। वे थोड़ी देर भी शांत नहीं रह पाते। जबकि दिमाग की चंचलता ही हमारी सारी परेशानियों की जड़ है। दिन में या रात में जब कभी समय मिले थोड़ी देर ठहर कर शांत हो जाइए और सोचिए कि हम इस दुनिया में आए क्यों हैं। सिर्फ अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए। हाय हाय करने के लिए या इस संसार से सीख लेने के लिए कि कोई अपना नहीं है। अपने हैं तो सिर्फ ईश्वर ही। कम से कम उन्हें रोज नमस्कार तो कर लें। यह तभी तो होगा जब हम शांत होंगे।

Wednesday, February 24, 2010

वे कहते हैं- अभी नहीं उम्र ढलने के बाद भगवान को याद करेंगे

विनय बिहारी सिंह


\ एक बार सत्संग चल रहा था। तभी एक युवा बिल्डर आए। बिल्डर यानी वे कोलकाता में फ्लैट्स बना कर बेचने का व्यवसाय करते हैं। उनकी बहुत प्रतिष्ठा है। तब उनसे कहा गया- आप भी सत्संग में शामिल हो कर आनंद रस पीजिए। वे बोले- अभी तो समय नहीं है। इसके अलावा मैं बूढ़ा तो हुआ नहीं हूं। इसलिए भगवान के बारे में सोचने का अभी समय नहीं है। तभी एक सत्संगी ने पूछा- आप किसी काम से यहां आए हैं? ?? शायद। वे बोले- हां,,, आप सत्संगियों में से एक व्यक्ति के पास ईँट का भट्ठा है। मैं वहां से ईंट लेता हूं। उन्हें पेमेंट करने आया हूं। संबंधित व्यक्ति को रुपए देकर वे फिर बोले- अच्छा आग्या दीजिए। मैं भी उम्र होने पर भगवान को याद करने की कोशिश करूंगा। अभी तो जवान हूं। यह काम करने का समय है। सबने उनकी बात धैर्य से सुनी। लेकिन सभी आश्चर्य में थे। भगवान को याद करने के लिए क्या किसी उम्र का इंतजार करना होता है??। मनुष्य का तो जन्म ही इसलिए हुआ है कि वह ईश्वर से सामिप्य स्थापित करे। उन्हें जाने। मनुष्य जीवों में सबसे विकसित प्राणी है। ईश्वर ने उसकी रीढ़ में छह चक्र दिए हैं। उन्हें पूर्ण रूप से खोलने के लिए ही तो मनुष्य का जन्म हुआ है। कुछ लोग तो अपने बच्चों को उनके होश संभालते ही ध्यान, इत्यादि की शिक्षा देने लगते हैं। ताकि वह बड़ा हो कर स्थिर बुद्धि वाला हो सके। उसे ध्यान करने में तब कोई दिक्कत नहीं होगी। बचपन से जिन लोगों ने ध्यान और धारणा या प्राणायाम का अभ्यास किया है, बड़े होने पर वे सिद्ध हो जाते हैं। बचपन को कुछ लोग कच्चा घड़ा कहते हैं। आकार जैसा गढ़ा जाएगा, वे वैसे ही हो जाएंगे। अगर जीवन भर आपका मन सांसारिक प्रपंचों में फंसा रहा तो बुढ़ापे में वे अचानक कैसे ईश्वर के प्रति आसक्ति महसूस करेंगे। कई लोग तो ध्यान करते समय यही सोचते रहते हैं कि आज खाने में क्या बन रहा है। यानी वहां भी भोजन ही दिमाग पर हावी है। हां कुछ लोग हमेशा ऐसे रहे हैं जो बुढ़ापे के बावजूद गहरी आसक्ति के साथ ईश्वर से जुड़े हैं। लेकिन उनकी संख्या बहुत ही कम है। ज्यादातर लोग बुढ़ापे में भी नाती- पोतों के मोह में फंसे रहते हैं या उस समय भी यही आसक्ति रहती है कि क्या खाएं, किससे मुलाकात करें। अपने दिल की बात किससे कहें। यह बात दिमाग में बिल्कुल ही नहीं आती कि ईश्वर ही हम सबके मालिक हैं। यह संसार उन्हीं का है। हम तो महज अपनी इच्छाओं के चलते इस धरती पर आए हैं। अब और इच्छाएं पालने का कोई अर्थ नहीं है। नहीं। अब कोई इच्छा नहीं है। सिर्फ एक इच्छा को छोड़ कर- भगवान से मिलना है। अब सिर्फ भगवान चाहिए और कुछ नहीं। जिस क्षण यह समझ में आ जाए, बस हमारा काम बन गया। लेकिन यह अचानक नहीं होगा। जीवन भर इसका अभ्यास करना पड़ेगा। यह नहीं कि भगवान को याद करने के लिए बुढ़ापे का इंतजार किया जाए। भगवान तो हमेशा हमारी ओर देख रहे हैं और इंतजार कर रहे हैं कि हम कब उनकी ओर प्यार भरी नजर से देखें। कब हम जानें कि वही हमारे माता- पिता, भाई, और सब कुछ हैं। वही हमारे मालिक हैं।

Tuesday, February 23, 2010

विश्वास कैसे हो कि हमारी प्रार्थना सुनी जा रही है

विनय बिहारी सिंह


कभी कभी जब हम भगवान से किसी चीज की प्रार्थना करते हैं तो किसी किसी के मन में आता है कि पता नहीं भगवान हमारी प्रार्थना सुन भी रहे हैं कि नहीं। अगर आप दिल की गहराई से प्रार्थना कर रहे हैं और आपको पूरा विश्वास है कि भगवान आपकी बात मानेंगे तो तय मानिए कि आपका काम होगा। यह सभी संतों ने कहा है। ,,,,, गहरी भक्ति और पूर्ण विश्वास की जरूरत है। हमारे सभी ग्रंथ और ऋषि- मुनियों ने इस बात की पुष्टि की है। लेकिन यह प्रार्थना किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं होनी चाहिए। किसी को कष्ट पहुंचाने के लिए नहीं होनी चाहिए। क्योंकि तब आपकी बात नहीं सुनी जाएगी। लेकिन अगर आप किसी शुभ काम के लिए प्रार्थना कर रहे हैं तो निश्चित मानिए, आपका काम होगा ।

Monday, February 22, 2010

उधो मन नाहीं दस बीस

विनय बिहारी सिंह

कथा है कि वृंदावन से जब श्रीकृष्ण मथुरा चले गए तो गोपियां उनकी अनुपस्थिति के कारण व्याकुल रहने लगीं। जब उनकी व्याकुलता चरम पर पहुंची तो श्रीकृष्ण ने उद्धव को गोपियों के पास भेजा ताकि वे उन्हें समझा- बुझा कर शांत रहने को कहें। यहां यह जिक्र करना जरूरी है कि गोपियां पूर्व जन्म में ऋषि थीं। इन ऋषियों को भगवान कृष्ण के साथ लीला करने की इच्छा हुई तो उन्होंने प्रार्थना की कि अगले जन्म में वे गोपी बनना चाहते हैं ताकि भगवान के साथ वे रासलीला कर सकें। उनकी इच्छा पूरी हुई।.............. बात चल रही थी, गोपियों की व्याकुलता की। उद्धव परम विद्वान थे। उनके तर्क के सामने लोग घुटने टेक देते थे। इसलिए पूरे आत्मविश्वास के साथ वे गोपियों के पास गए और उन्हें समझाया कि कृष्ण भी तुम्हें हर पल याद करते हैं। लेकिन फिलहाल मथुरा में रहना उनके लिए बहुत जरूरी है। फिर उन्होंने मन की विभिन्न अवस्थाओं पर प्रवचन दिया और ग्यान की अनेक बातें कहीं। गोपियों ने कहा- उधो मन नाहीं दस बीस। एक हुतो सो गयो श्याम संग, को आराधे ईस।। यानी हे उद्धव, मन तो दस- बीस नहीं होता। एक ही होता है और वह श्याम यानी भगवान कृष्ण ले गए हैं। तो आप मन को लेकर जो प्रवचन दे रहे हैं, उसका कोई मतलब नहीं है। उद्धव जैसा विद्वान व्यक्ति निरुत्तर हो गया। फिर गोपियों ने प्रेम की वृहद व्याख्या की। जीवन में पहली बार उद्धव अवाक हो कर गोपियों का प्रवचन सुन रहे थे। गोपियों ने कहा कि कृष्ण के बिना उनके जीवन का कोई अर्थ ही नहीं है। कि अनन्य प्रेम का सुख आप क्या जानें। आप ग्यान की बात कह रहे हैं और हम प्रेम की बात करते हैं। अनन्य प्रेम से ही ग्यान मिलता है। इसके अलावा जो ग्यान है, वह निरर्थक है। जहां प्रेम है वहां बुद्धि मत लगाइए उद्धव। जिस दिव्य प्रेम को आप जानते नहीं, उस पर मत बोलिए। उद्धव को लगा कि उनका सारा ग्यान निरर्थक है। ग्यान तो गोपियों के पास है। गोपियों ने कहा- हमारे शरीर, हमारे मन और हमारी आत्मा कृष्ण के हवाले हो चुके हैं। फिर आप किसे समझाने आए हैं? कई बार तो लगता है कि हम और कृष्ण एक ही हैं। हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। जो हैं वे कृष्ण ही हैं। हमारा नाम भी कृष्ण ही है। सिर्फ कृष्ण, कृष्ण औऱ कृष्ण। गोपियों की बात सुन कर उद्धव भाव विभोर हो गए। उन्होंने एक एक गोपी के पैर छुए। चरण धूलि ली और वहां से प्रेम से सराबोर मथुरा लौटे और भगवान श्रीकृष्ण से कहा- मैं हार गया और गोपियां जीत गईँ। मैं उन्हें नहीं समझा सकता। भगवान ने कहा- यही महसूस कराने के लिए तो उद्धव मैंने आपको भेजा था। गोपियां दिव्य प्रेम में दिन- रात डूबी रहती हैं। उनके संपर्क में जो भी आएगा, वह भी सराबोर हो जाएगा। ये गोपियां मानों मेरा ही अंश हैं।

Saturday, February 20, 2010

नदी जब समुद्र हो जाती है

विनय बिहारी सिंह

रमण महर्षि समेत सभी ऋषियों ने कहा है कि नदी जब समुद्र में मिल जाती है तब उसकी पहचान खत्म हो जाती है और वह समुद्र बन जाती है। समुद्र में मिलने के बाद वह न गंगा रह जाती है और न गोदावरी, न हुगली और न ही सोन। सारी नदियां समुद्र से मिलते ही समुद्र बन जाती हैं। ईश्वर के साथ मिलने पर भी यही होता है। योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के एक सन्यासी स्वामी निर्वाणानंद जी ने एक बार मुझसे कहा था- ध्यान में सोचना कुछ नहीं होता। ध्यान तो ईश्वर में लय का नाम है। वे जापान मूल के हैं। वे कहते हैं- ईश्वर इंद्रिय, मन और बुद्धि के परे हैं। इसलिए वे न तो बातचीत से मिलेंगे और न ही सोचने से। वे तो बस अनन्य भक्ति और गहरे ध्यान से मिलेंगे। जो भक्त निरंतर भगवान में ही रहता है। सोते, जागते, उठते, बैठते उसे हर जगह, हर क्षण भगवान ही दिखते और सुनाई देते हैं। जैसे श्री अरविंद के साथ हुआ था। श्री अरविंद आजादी के आंदोलन के दौरान जेल में बंद कर दिए गए थे। जेल में ही अचानक वे श्रीकृष्ण के भक्त बन गए। जबकि उन्हें तनहाई में रखा गया था। जेल की सलाखें कृष्ण, जेल के परिसर में लगे पेड़- पौधे कृष्ण और जेल का अधिकारी कृष्ण। सब कुछ कृष्णमय हो गया था। जब वे जेल से छूटे तो गहरी साधना में डूब गए और श्रीकृष्ण के अन्यतम भक्त के रूप में जाने गए। अगर ईश्वर की कृपा प्राप्त करनी है औऱ तमाम दुखों के पार जाना है तो भगवान के प्रति गहरी आसक्ति की जरूरत है। अन्यथा मन अगर जहां तहां बंदर की तरह कूदेगा तो फिर आध्यात्मिक रस नहीं मिल पाएगा। फिर आप झुंझला कर कहेंगे- कुछ भी तो नहीं होता पूजा-पाठ से। सब ढकोसला है। दोष पूजा- पाठ या ध्यान का नहीं है। दोष हमारा है। अगर हम गहरे ध्यान में नहीं डूबते या हृदय से पूजा नहीं करते तो झुंझलाने से क्या फायदा। प्रेम और भक्ति से ईश्वर को पुकारने से ही सारा काम हो जाता है। और पुकारने का मतलब यह भी नहीं है कि चिल्लाया जाए। मन ही मन पुकारना पर्याप्त है। भगवान अंतर्यामी हैं। वे जानते हैं कि किसके दिल में क्या है। ज्योंही उन्हें पता चलता है कि अमुक व्यक्ति उन्हें दिल से पुकार रहा है, बस वे उसे तुरंत अपनी उपस्थिति का अहसास करा देते हैं।

Friday, February 19, 2010

यह नवधा भक्ति क्या है?

विनय बिहारी सिंह

आज खूब सवेरे एक परिचित सज्जन आए। कहा- पिछले दिनों एक परिचित की स्वाभाविक मृत्यु देखी। वह दृश्य दिमाग से उतरता नहीं है। क्या करूं? जिस व्यक्ति को देखा, वह अंतिम सांसे गिन रहा था। सांस उल्टी चल रही थी और घर्र- घर्र की आवाज निकल रही थी। अचानक सांस रुक गई। प्राण तो अदृश्य होता है। वह कब निकला, पता ही नहीं चला। तब लगा कि इस शरीर में ईश्वर की कृपा से ही प्राण रहते हैं। इस प्राण के मालिक हैं ईश्वर। वे सर्वशक्तिमान हैं। यह ब्रह्मांड उन्हीं का बनाया है। इस ब्रह्मांड का एक एक जीव, एक एक वस्तु उन्हीं की निर्मिति है। मैंने कहा कि आप इतनी सुबह कैसे आए? वे बोले- जब मैं सो नहीं पा रहा हूं और यह सब बातें मुझे बार- बार महसूस हो रही हैं तो आखिर यह किसके साथ शेयर करूं? किससे कहूं? मुझे लगा आपसे कहूं। मैंने उनके इस सोच का स्वागत किया। उनसे पूछा कि क्या वे अपने परिचित की मृत्यु के पहले इतनी गहराई से ये सब चीजें सोचते थे। उन्होंने कहा- नहीं। ये सब बातें दिमाग में आती ही नहीं थीं। अब तो मैं उस क्षण के बारे में ही सोचता रहता हूं कि जब मेरे परिचित के प्राण निकले तो मैं कुछ महसूस क्यों नहीं कर पाया। क्या मनुष्य का प्राण इतना सूक्ष्म है? तब समझ में आया कि सूक्ष्म प्राण वाला मनुष्य बेकार में लंबी- लंबी डींगें हांकता है। उसके वश में तो कुछ भी नहीं है। सब कुछ ईश्वर के हाथ में है। ईश्वर सर्वशक्तिमान है। उन्होंने हाथ जोड़ कर सामने लगे ईश्वर के फोटो को प्रणाम किया और कहा- हे ईश्वर मुझे सद्बुद्धि दीजिए ताकि मैं आपकी याद हमेशा अपने दिल में बनाए रखूं। आप सर्वशक्तिमान हो कर भी अदृश्य रहते हैं। फिर वे मेरी ओर मुड़ कर बोले- ईश्वर ने मनुष्य का प्राण कैसे बनाया होगा? मैंने कहा- इसका उत्तर तो ईश्वर ही दे सकते हैं। क्योंकि इस सृष्टि में अनेक प्रश्नों के उत्तर मनुष्य नहीं दे सकता। इसे ही ईश्वरीय लीला कहते हैं। मनुष्य ही क्या, किसी भी जीव के प्राण अदृश्य हैं। कब हमारे भीतर प्राण प्रवेश करता है और कब हमारे शरीर से निकल जाता है, इसका ग्यान हमें कभी हो ही नहीं सकता। हमारा ग्यान सीमित है। भले ही हम कहें कि हमारा ग्यान बहुत समृद्ध है लेकिन ऐसे प्रश्नों के उत्तर हम दे ही नहीं सकते। उन्होंने पूछा- अच्छा यह बताइए, अगर हम ईश्वर की कल्पना भगवान राम के रूप में करें तो क्या वे उसी रूप में हमें दर्शन देंगे? मैंने कहा- सभी संतों ने तो यही कहा है। आप जिस रूप में ईश्वर को याद करेंगे, वे उसी रूप में दर्शन देंगे। अगर आप उन्हें निराकार या ज्योति के रूप में देखना चाहेंगे तो वे उसी रूप में हाजिर होंगे। लेकिन ईश्वर उसी को दर्शन देते हैं जो उनका अनन्य भक्त होता है। इसे ही कुछ संत अनन्य भक्ति कहते हैं। अनन्य यानी कोई दूसरा नहीं। तो आप भी अगर राम के रूप, उनके गुणों और उनकी लीलाओं का ध्यान करते हुए उनमें आसक्त हो जाएंगे तो वे अवश्य दर्शन देंगे। ऋषियों की बातें गलत नहीं हो सकतीं। फिर उन्होंने कहा- उन्होंने अपने परिचित को चिता पर जलते हुए देखा तो लगा कि यह शरीर एक दिन जल कर राख हो जाने वाला है। लेकिन हैरानी यह है कि इसमें न जाने कितनी कामना- वासनाएं छुपी हुई हैं। ये कैसे खत्म होंगी? मैंने कहा कि इसका जवाब भी तो ऋषियों ने दे रखा है। ऋषि पातंजलि ने इसके लिए ही तो यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की बात कही है। योग के इन आठ नियमों का अगर पालन किया जाए तो हमारे भीतर की सारी कामना- वासनाएं जल कर राख हो जाएंगी। जो बची- खुची होंगी वे नवधा भक्ति से खत्म हो जाएंगी। उन्होंने पूछा- यह नवधा भक्ति क्या है? मैंने कहा- इसका उत्तर भी हमारे ऋषियों ने दे रखा है। भगवान राम ने इसी नवधा भक्ति का उपदेश दिया था। नवधा भक्ति है- संतों का संग करना, भगवान की कथा सुनना, गुरु सेवा, प्रभु का गुणगान, मंत्र जाप, शील और सज्जनता का पालन (सबमें ईश्वर का वास है,यह महसूस करना), संतों को ईश्वर का प्रतिनिधि मानना, जो कुछ मिल जाए उसमें संतोष करते हुए, आगे बढ़ने के लिए ईमानदारी से प्रयत्न करते रहना, छलहीन व्यवहार और नौंवां है- ईश्वर में संपूर्ण भरोसा। ईश्वर में शरणागति। लेकिन कुछ अन्य विद्वान ईश्वर का चिंतन, मनन, आत्म निवेदन, कथा सुनने, कथा कहने, ईश्वर के रूप, उनके गुण, उनकी लीलाओं के स्मरण, प्रार्थना, भजन और जाप को भी नवधा भक्ति कहा है। घी का लड्डू चाहे जैसे खाएं, अच्छा ही लगेगा।

Wednesday, February 17, 2010

हम अपने बारे में कितना जानते हैं?

विनय बिहारी सिंह

हां यह बहुत ही रोचक तथ्य है। हम कई बार मान लेते हैं कि अमुक विषय की हमें बहुत जानकारी है। या कई चीजें हमारे कंट्रोल में हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। मसलन हम अपने शरीर के बारे में ही कितना जानते हैं? या हम अपने बारे में ही कितना जानते हैं? कई लोग अपने निर्भय होने की डींग खूब हांकते हैं। लेकिन अगर किसी सुनसान अंधेरे स्थान से गुजरना पड़े तो बस वे डर से सिकुड़े रहते हैं और कोई आवाज हुई नहीं कि बस उनका मानो हार्ट फेल हो गया। इसी तरह कुछ लोग ईमानदारी पर लंबा- चौड़ा भाषण देते हैं लेकिन वे ट्रेनों में बिना टिकट यात्रा कर खुश होते हैं। यह क्या है? क्या अनेक लोग दोहरा जीवन नहीं जीते? इसीलिए आदि शंकराचार्य ने कहा है- सोचिए कि यह दुनिया कैसे और क्यों बनी? ये चांद, सितारे और सूर्य कैसे बने। मनुष्य के जन्म का मकसद क्या है वगैरह वगैरह। हम जो भोजन करते हैं उसके पचने में हमारी तो कोई भूमिका होती नहीं। हमारा वश सिर्फ खाने में है। पचाने का काम हम नहीं करते। तो कौन करता है? ऋषियों ने कहा है कि भोजन पचाने और उससे पोषक तत्व निकालने का काम ईश्वर करता है। वह जीवों पर दयालु है। फिर भी हम न जाने कितने प्रपंचों में पड़े रहते हैं और समझते हैं कि सब कुछ हम्हीं कर रहे हैं। हमारे भोजन से जो रस बनता है उसे रक्त में मिला कर हमारे शरीर को कौन पौष्टिक बनाता है। या हमारे शरीर में जो इंडोक्राइन ग्लैंड्स हैं वे कैसे अपने हारमोन हमारे रक्त में स्रावित कर हमें स्वस्थ बनाए रखती हैं? क्या कभी हम यह सब सोचते हैं? आप कहेंगे कि इन सब बातों को सोच कर क्या होगा? क्या फायदा है? संपूर्ण प्रकृति और अपने शरीर को इससे तुलना करके समझ में आता है कि ईश्वर किस तरह हमारे ऊपर लगातार नजर रख रहे हैं। किस तरह वे हमारे शरीर को चला रहे हैं। लेकिन अगर हम प्राकृतिक कामों में जरा भी छेड़छाड़ करते हैं तो इसका बुरा परिणाम हमें भोगना पड़ता है। जैसे मान लीजिए मैंने लंबे समय तक खूब तेल- मसाले वाली चीजें खाईं। रोज घी- तेल में डूबी वस्तुएं खाईं और जब पेट या लीवर खराब हो गया तो भगवान को याद किया- हे भगवान मेरे ही साथ ऐसा क्यों हो रहा है। मुझे बचाओ। स्वस्थ करो। लेकिन इसके लिए भी हमें परहेज करना पड़ेगा, दवा खानी पड़ेगी। ठीक इसी तरह अगर हमने साफ पानी नहीं पीया तो तरह तरह की पेट की बीमारियां घेर लेंगी और कई बार समझ ही नहीं पाते कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है। इसलिए बहुत जरूरी है कि दुनिया जहान के बारे में जानने के पहले हम सबसे पहले अपने बारे में जानें। बस, ज्योंही अपने बारे में जानेंगे, ईश्वर की सत्ता महसूस करने लगेंगे। इसीलिए वह प्रसंग बार- बार याद आता है जब एक व्यक्ति ने एक ऋषि से पूछा- ईश्वर है, इसका प्रमाण क्या है? कई बार मुझे शक होता है कि ईश्वर जैसी कोई चीज है दुनिया में। ऋषि ने जवाब दिया- आप हैं? उस व्यक्ति ने पूछा- क्या मतलब? ऋषि ने पूछा- आपका अस्तित्व है? उस व्यक्ति ने जवाब दिया- बिल्कुल है। मैं हूं और आपसे बात कर रहा हूं। ऋषि ने पूछा- मुझसे बात करने की शक्ति आपको किसने दी? किसने इस लायक बनाया कि आप मुझसे प्रश्न कर सकें? प्रश्न पूछने वाला व्यक्ति असमंजस में पड़ गया। ऋषि ने कहा- जिसने आपको जीवन दिया। सोचने समझने की ताकत दी। भोजन दिया और आपको सांस दी उसी का नाम ईश्वर है।

Tuesday, February 16, 2010

टूटे शीशे में मुंह दिखाई कैसे देगा?

विनय बिहारी सिंह

एक संत ने कहा है- जैसे तालाब के पानी को चंचल कर दिया जाए तो चांद का अक्स या छाया उसमें दिखाई नहीं देगी ठीक उसी तरह अगर शीशा टूटा हुआ है तो उसमें आपका चेहरा टुकड़े- टुकड़े में दिखाई देगा। आपका चेहरा उसमें विकृत दिखेगा। हालांकि आपका चेहरा बिल्कुल ठीक है लेकिन टूटा शीशा उसे टेढ़ा- मेढ़ा दिखाएगा। ठीक उसी तरह अगर आपका दिमाग चंचल है और हृदय अपवित्र है तो आपको यकीन ही नहीं होगा कि ईश्वर है। क्योंकि दिमाग तो टूटा हुआ है। उसके शीशे में कोई भी तस्वीर विकृत हो कर ही दिखाई दे रही है। इसलिए भगवान भी विकृत ही दिखाई देगा। यानी वह कहेगा- भगवान- वगवान कुछ नहीं होता। अगर होता तो क्या दुनिया में इतने कष्ट होते? उसे यह समझ में नहीं आता कि ये कष्ट खुद उसके बुलाए हुए हैं। उसी के कर्मों का फल वह भोग रहा है। संतों ने तो कहा ही है, वेद और पुराणों में भी है कि मनुष्य अपने कर्मों का फल ही भोगता है। ईश्वर ने उसे स्वतंत्र इच्छा शक्ति दी है। वह इसके कारण जो जी में आता है करता है और फिर उसका फल भोगता है। जो संतुलित ढंग से जीवन यापन करते हैं वे दुख नहीं पाते। और जो ईश्वर की शरण में रहते हैं, उनका तो कहना ही क्या है। वे हमेशा ही आनंद में गोते लगाते रहते हैं। उन्हें किसी चीज से मतलब नहीं होता। वे तो बस एक ही बात जानते हैं- ईश्वर उनका है और वे ईश्वर के हैं। बस। काम बन गया। वे जो कुछ भी करते हैं- ईश्वर के लिए। गीता में इसी को कर्म योग का नाम दिया गया है। अपने जीवन के सारे काम ईश्वर को समर्पित करते चलो। लेकिन हां, बुरे काम ईश्वर को समर्पित न करें। सिर्फ अच्छे काम ही ईश्वर को अर्पित करें। अन्यथा जिन बुरे कर्मों को आप ईश्वर को समर्पित करेंगे वे हजार गुना बढ़ कर आपके पास लौट आएंगे। इसलिए अच्छे कर्म ही ईश्वर को सौंपिए। ताकि वे ही हजारगुना बढ़ कर आपके पास वापस आएं। कथा है कि भीम ने एक बार चाहा कि अनजाने में किए गए अपने बुरे कर्मों को वह भगवान कृष्ण को दे दे। लेकिन युधिष्ठिर ने ऐसा करने से मना किया और कहा- ऐसा मत करो भीम। कृष्ण को तुम जो भी सौंपोगे, वह हजारगुना हो कर तुम्हारे पास लौट आएगा। भीम ने अपने बड़े भाई की बात मान ली। युधिष्ठिर ने कहा- भीम, श्रीकृष्ण को तुम साधारण व्यक्ति मत समझो। वे लीला कर रहे हैं और इसके बहाने लोगों को संदेश भी दे रहे हैं। वे पूर्ण ईश्वर के रूप हैं। वे पूर्ण ब्रह्म हैं। शैव लोग भगवान शिव को पूर्ण ब्रह्म कहते हैं। यह भी कथा है कि एक बार ब्रह्मा और विष्णु ने भगवान शिव का आदि- अंत पता करने की कोशिश की। लेकिन वे शिव जी का थाह नहीं पा सके। उन्होंने कहा- भगवान शिव अनंत हैं। उनका आदि और अंत कोई नहीं पा सकता।

Monday, February 15, 2010

एक रुपए में किसी चीज से पूरा कमरा भर की कला

विनय बिहारी सिंह

एक सन्यासी के पास दो युवक शिष्य बनने गए। सन्यासी ने उन्हें एक रुपया दिया और कहा कि इससे बाजार से कोई ऐसी चीज खरीद कर लाओ जिससे पूरा कमरा भर जाए। पहले युवक ने सोचा- एक रुपए में कबाड़ी के यहां से ढेर सारा कचरा मिल जाएगा और कमरा भी भर जाएगा। लेकिन दूसरा युवक ध्यान करने बैठ गया। सोचा- आठ आने में मोमबत्ती और आठ आने में अगरबत्ती मिल जाएगी। मोमबत्ती से पूरे कमरे में प्रकाश भर जाएगा और अगरबत्ती से पूरे कमरे में सुगंध भर जाएगी। दोनों युवक शाम को सन्यासी के पास पहुंचे। दूसरे युवक ने अपने कमरे में मोमबत्ती और अगरबत्ती जला दी। सचमुच प्रकाश और सुगंध से कमरा दिव्य हो गया। सन्यासी बहुत खुश हुए। लेकिन पहले युवक के कमरे में जाते ही उन्हें कचरे की दुर्गंध मिली। उन्होंने नाक पर रुमाल रखा और कचरा तुरंत साफ करने को कहा। फिर कमरा धुलवाया और उसमें भी अगरबत्ती जलवाई। पहले युवक को वहां से तुरंत चले जाने को कहा। दूसरे युवक को उन्होंने अपना शिष्य बना लिया। सन्यासी ने पहले शिष्य से कहा- ठीक इसी तरह हमारा मन है। इसमे अगर अच्छी चीजें रखी जाएंगी तो जीवन सुखमय और सुगंधित होगा, लेकिन अगर इसमें नासमझी से कचरा डालने लगेंगे तो जीवन बदतर होता जाएगा। हम जाने अनजाने अपने दिमाग में न जाने कितने कचरे भरते रहते हैं। कभी टीवी देख कर तो कभी कोई तथाकथित जासूसी किताबें पढ़ कर। कुछ लोगों को तो ऐसे प्रोग्राम या ऐसी किताबें पढ़ने में बड़ा सुख मिलता है। लेकिन इसका हमारे दिमाग पर कितना खराब असर पड़ता है, यह हम नहीं समझ पाते क्योंकि यह असर इतना सूक्ष्म होता है कि जब इसका रिजल्ट आता है तब पता चलता है। इसीलिए बीच बीच में यह मंथन जरूरी है कि हमें क्या कुछ पढ़ना और देखना (टेलीविजन) है । एक सज्जन ने पूछा कि तो क्या हम आपकी तरह दिन रात धार्मिक किताबें ही पढ़ते रहें? आपकी इसमें रुचि हो सकती है, सबकी तो नहीं हो सकती। मैंने कहा कि मैं तो यह कभी नहीं कहता। आप साहसी लोगों की जीवनी पढ़िए, रचनात्मक लोगों के बारे में पढ़िए। सफल लोगों की कहानी पढ़िए। कुछ अच्छी चीजें दिमाग में जाएंगी तो आपका चिंतन भी उसी तरह का होगा। अन्यथा हमेशा दुखी लोगों के बारे में पढ़ते रहेंगे तो खुद ही दुखी हो जाएंगे और आपका चिंतन भी उसी तरह का होगा।

Saturday, February 13, 2010

बहुत आनंदमय बीती महाशिवरात्रि

विनय बिहारी सिंह

महाशिवरात्रि का पर्व खूब आनंदमय बीता। वैसे तो हर साल यह दिन और रात हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। लेकिन इस साल तो जैसे सोना में सुगंध था। विशाल मंदिर परिसर में बैठे हुए हम कई लोग विभिन्न साधकों की शिव स्तुति सुन रहे थे। ढोलक, बांसुरी और हारमोनियम पर भी साधक ही थे। जैसे- जैसे रात गहरा रही थी, मानो हम सब पर एक आध्यात्मिक नशा गहराता जा रहा था। इसमें शिव मंत्र, भजन और वाद्य यंत्रों का सामंजस्य ऐसा बन रहा था कि जैसे सब कुछ हमारे भीतर गहरे उतरता जा रहा था। कुछ लोग शिव के मोहक भजन सुन कर चुपके से रो रहे थे। लेकिन मुझे कुछ भी असहज नहीं लगा क्योंकि रोने वालों में मैं भी था। जिस भजन पर हम कुछ लोग रोए वह था- शिव, शिव, शिव शंभो, शंकर महादेव।........ वचन दिया था आने का, अब तक नहीं आए भगवन।। यह मेरे जीवन का चकित करने वाला अनुभव था। भाव विभोर भजन सुनते हुए मेरी आंखों से आंसू गिर रहे हैं, यह पहली बार हुआ। लेकिन यह सहज था, इसलिए मैंने भी खुद को नहीं रोका। जो हो रहा है, हो। मेरे आनंद में कमी नहीं आनी चाहिए। यह भी समझ में आया रोने के बाद गहरी शांति और आनंद का बोध होता है। एक मस्ती सी छा जाती है। लगता है अनंत महादेव भगवान शिव के भीतर ही मैं हूं और वे मेरे भीतर हैं। यानी हम और वे एक ही हैं। अन्य कोई चीज तो है ही नहीं। इसके बाद हम सबने श्वेत धवल शिवलिंग का दर्शन और प्रणाम किया। फिर आया प्रसाद पाने का क्षण। प्रसाद पा कर सुख से रात बीती। काश हर रात शिवरात्रि होती। शिवरात्रि के पहले से ही पता नहीं क्यों ऐसा माहौल बन जाता है कि बार- बार भगवान शिव की तरफ ही बार- बार ध्यान जाने लगता है। सिर पर जटा जूट यानी ब्रह्मलोक। ललाट के ऊपर चंद्रमा यानी अत्यंत शांत मन। गले में सर्प यानी कुंडलिनी का सहस्रार चक्र में मिल जाना। डमरू यानी ऊं ध्वनि। त्रिशूल यानी सत्व, रज और तम के परे भगवान शिव। न कुछ लिखने पढ़ने का मन करता है औऱ न ज्यादा बात करने का। बस जहां आदिदेव का स्मरण है, आनंद है। मेरे कुछ मित्रों ने भी श्रद्धा से शिवरात्रि मनाई। शिवरात्रि के दिन वे लोग सुबह सुबह ही शिव मंदिर में बेलपत्र, फूल और फल चढ़ाने पहुंच गए थे। फिर दिन भर व्रत और रात को सूजी की खीर जिसमें अत्यधिक किशमिश और अन्य सूखा फलों का मिश्रण था। फिर रात भर भगवान शिव की कथा का श्रवण। इसमें मार्कंडेय पुराण का पाठ भी शामिल है। लेकिन उन्होंने संस्कृत वाला अंश छोड़ कर सिर्फ अर्थ वाला हिस्सा पढ़ा। इस तरह पाठ जल्दी हो गया और कुछ और भजन और श्लोक पाठ का आनंद भी मिला। कुछ अन्य लोगों ने सुबह शिव मंदिर में जल चढ़ाया और फिर अपने कामकाज में लग गए। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्हें शिवरात्रि के दिन कोई फर्क नहीं पड़ा। उनके लिए क्या शिवरात्रि और क्या अन्य दिन। सब एक बराबर। यह अपने- अपने जीने का ढंग है।

Tuesday, February 9, 2010

एक यूरोपियन साधु से मुलाकात

विनय बिहारी सिंह

मैं योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के दक्षिणेश्वर (कोलकाता) स्थित आश्रम में खड़ा था। तभी एकदम लाल रंग की लुंगी और कुर्ता पहने एक यूरोपियन साधु को देखा। इच्छा हुई बातचीत करनी चाहिए। उनके ललाट पर लाल रंग का टीका था। आंखें नीली, त्वचा अत्यंत गोरी। बातचीत से और स्पष्ट हो गया। मैंने पूछा कि वे किस संप्रदाय के साधु हैं? उन्होंने बताया- किसी संप्रदाय के नहीं। मैंने पूछा- तो यह लाल रंग का कपड़ा क्यों? उन्होंने कहा- मैं मां काली का भक्त हूं। इस संसार में उनके अलावा मेरा कोई नहीं। मैंने पूछा- आप किस देश के हैं? वे बोले- किसी देश का नहीं। मां काली ही मेरा देश हैं। मैंने पूछा- मां काली को आपने कब जाना? उन्होंने कहा- बचपन से ही उन्हें जानता हूं। (अब जाकर वे थोड़े खुले) मेरा जन्म ईसाई धर्म वाले परिवार में हुआ। लेकिन मैं होश संभालते ही मां काली को खोजने लगा। संयोग से भारत आने का सौभाग्य मिला और मां काली का दर्शन पाकर मुझे लगा- अहा, मां तो यहां हैं। फिर उन्होंने मुझसे पूछा- यह जादुई आकर्षण क्या पूर्व जन्म के किसी संबंध के कारण है। मैंने कहा- बिल्कुल। मैंने पूछा- आपने किसी संप्रदाय से दीक्षा ली हुई है? वे बोले- हां, मैं स्वामी शिवानंद के आश्रम से दीक्षा ले चुका हूं। लेकिन मैं फिर एक जगह दीक्षा लेना चाहता हूं। मैंने पूछा- आप दुबारा कहां दीक्षा लेने वाले हैं? उन्होंने कहा- मैं नाथ संप्रदाय से दीक्षा लेने की सोच रहा हूं। फिर उन्होंने और भी बातें कीं जो यहां लिखना नहीं चाहता क्योंकि वे उनकी साधना से संबंधित हैं और किसी की साधना के बारे में बिना उनकी अनुमति के बताना उचित नहीं है। लेकिन उनकी बातचीत से लगा कि वे संतुष्ट नहीं है। भगवान को पाने के लिए अत्यंत छटपटाहट है, बेचैनी है। इसीलिए वे कोई और गहरी और प्रभावकारी साधना की तलाश में है। हालांकि वे एक सीमा तक वे पहुंच चुके हैं। लेकिन उससे वे संतुष्ट नहीं हैं। उनकी बातें बहुत प्यारी और मोहक थीं। उन्होंने कुछ जानकारियां चाहीं। मेरे पास जितनी जानकारी थी, उन्हें दे दी। वे प्रसन्न दिखे और ज्योंही उनसे विदा लेकर मैं पीछे मुड़ा उन्होंने फिर थैंक यू कहा। लेकिन रह रह कर वे याद आ रहे हैं। उनकी मां काली के प्रति गहरी भक्ति अद्भुत है। ऐसी भक्ति बहुत कम लोगों में होती है। उन्होंने कहा- मै सांस भी मां काली की कृपा से ले रहा हूं। मैं उनकी बातों से सुख पा रहा था। सोच रहा था- इतनी भक्ति मेरे भीतर भी होनी ही चाहिए। तभी काम बनेगा। वे मां काली के प्रेम से ओत- प्रोत थे।

Saturday, February 6, 2010

कहीं इस आदत के शिकार आप भी तो नहीं

विनय बिहारी सिंह

पिछले वृहस्पतिवार को इंटीग्रेटेड आंको थिरैपी के एक कार्यक्रम में जाने का मौका मिला। वहां एलौपैथिक डाक्टरों से लेकर होमियोपैथ और आयुर्वेद तक के डाक्टरों ने एक स्वर में यही कहा कि सिगरेट और गुटका तो जहर हैं ही, सुरती और जर्दा भी बेहद खतरनाक हैं। तंबाकू कैंसर को जन्म देता है। इससे पीड़ित मनुष्य दर्द से जब छटपटाता है तो हृदय कांप जाता है। इसके एक दिन पहले कोलकाता के आमरी अस्पताल के डाक्टर केएम मंदाना और निजी शल्य चिकित्सक डाक्टर विकास अगरवाल से भेंट हुई। इन लोगों ने कहा कि हमने बार- बार कहा है कि सिगरेट और गुटका जहर है। लेकिन हमारे मना करने के बावजूद लोग धड़ल्ले से इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। बच्चों तक को गुटका खाने की लत लग गई है। गांवों में महिलाएं भी गुटका खा रही हैं। कोई रोकने वाला नहीं है। समझाने वाला नहीं है। इससे दांत तो गंदे होते ही हैं, स्वास्थ्य भी चौपट होता है। उन्होंने बताया कि किस तर ३५ साल के एक नौजवान व्यक्ति की जीभ काट देनी पड़ी क्योंकि वह २० साल से तंबाकू का सेवन कर रहा था और उसकी जीभ का पिछला हिस्सा पूरी तरह कैंसर की चपेट में था। उन्होंने ऐसे ही कई उदाहरण दिए जो हृदय विदारक हैं। तब सवाल उठता है कि लोग क्यों ऐसी जानलेवा आदतों के गुलाम हो गए हैं। सभी डाक्टरों का कहना है कि ऐसे लोगों में इच्छा शक्ति नहीं होती। वे समझते हैं कि सिगरेट या गुटका उनसे ज्यादा बलवान है। वे उनके आगे हार मान लेते हैं। जो लोग दृढ़ता के साथ एक बार ठान लेते हैं कि वे अब तंबाकू की ओर देखेंगे भी नहीं, वे तो इसे छोड़ने में सफल हो जाते हैं लेकिन जो शुरू में तो दृढ़ता के साथ प्रण करते हैं लेकिन दो- चार दिन बाद कमजोर पड़ जाते हैं, उनका सिगरेट या गुटका पीछा नहीं छोड़ता। प्रकृति का नियम है कि हमला हमेशा कमजोर पर ही पहले होता है। अगर आपका शरीर कमजोर है तो बीमारी सबसे पहले आपको ही घेरेगी। अगर आपका मन कमजोर है तो सबसे पहले गुस्सा, तनाव, घबराहट, डर और चिंता आपको ही सबसे पहले दबोचेंगे। ऋषियों ने कहा है कि ईश्वर पर भरोसा कीजिए और उसे साथ लेकर अपने मन को दृढ़ करते रहिए। फिर आपको कोई चिंता नहीं। मन और शरीर को पुष्ट रखना बहुत जरूरी है। आप कोई भी काम इन्हीं दोनों की मदद से करते हैं। इसीलिए आत्ममंथन कर देखना चाहिए कि कहीं हमारा मन या शरीर कमजोर तो नहीं है। अगर है तो उसे दूर करने के उपाय करना चाहिए। अन्यथा कमजोरी भी हमारे मन में स्थाई घऱ बना लेगी। तब आप उसे बार- बार भगाएंगे और वह बार- बार आपके भीतर लौट आएगी। ऐसा न हो इसके लिए दृढ़ बन कर डटे रहिए।

Friday, February 5, 2010

राक्षस की जान तोते में

विनय बिहारी सिंह

बचपन में मां से एक कहानी सुनी थी। जब बड़ा हुआ तो इसका अर्थ समझ में आया। मेरे बचपन में गांवों में मनोरंजन का साधन खेल- कूद, रविवारीय परिशिष्ट वाले अखबार, कार्टून की किताबें और मां या दादी की कहानियां हुआ करती थीं। उस समय मेरे गांव में टीवी तो दूर की बात थी, इक्का- दुक्का लोगों के पास ही रेडियो था। मैं रात को सोते वक्त रोज मां से कहानियां सुनाने की जिद करता था। लेकिन वे रोज कहानियां नहीं सुना पाती थीं और कहानी सुनाने की रट के कारण मुझे डांटती भी थीं। लेकिन मुझ बच्चे का मन मां की मुग्धकारी कहानियों में लगा रहता था। हफ्ते में दो- तीन दिन कहानी सुनने का आनंद मैं ले ही लेता था। मां की मृत्यु मेरे बचपन में ही हुई थी। लेकिन उनकी कहानियां मुझे आज तक सोचने और चिंतन करने को प्रेरित करती हैं। मेरे बचपन में जो कार्टून के पात्र थे उनमें मैंड्रेक और फैंटम के इर्द- गिर्द कहानियां घूमती थीं। मैंड्रेक विलक्षण जादूगर था और फैंटम गजब का शक्तिशाली और हमेशा मास्क पहने रहता था। ये कहानियां ब्रिटेन की थीं जो हिंदी में रूपांतरित हो कर हम तक पहुंचती थीं। उस जमाने में कोई भारतीय पात्रों को कार्टून बनाने वाले लोग नहीं थे। बचपन की याद ताजा करते हुए जब मैं जब हैरी पाटर के कारनामों की कथा एक बच्चे की किताब से पढ़ी तो पता चला कि यह हैरी पाटर हमारे जमाने के मैंड्रेक का ही दूसरा संस्करण है। हू-ब-हू तो नहीं लेकिन एक हद तक। सॉरी, यह ब्लाग परिवार के अनुभव सुनाने के लिए नहीं है। तो बात हो रही थी, राक्षस की। राक्षस बहुत ही शक्तिशाली था और एक राजा की प्रजा को तंग करता रहता था। राजा ने उससे युद्ध किया और तब उसे समझ में आया कि राक्षस को हराना बहुत मुश्किल है। तभी गुप्तचर ने राजा को सूचना दी कि राक्षस के प्राण तो तोते में अंटके रहते हैं। बस क्या था। राजा ने उस तोते का पता लगाया और तोते को मार डाला। ज्योंही तोते के प्राण निकले, राक्षस के भी प्राण निकल गए। यह कहानी विस्तार में अत्यंत ही रोचक है। जब मैं बड़ा हुआ तो पाया कि यह तो आसक्ति की कथा है। तोता मनुष्य की आसक्तियों का प्रतीक है। जैसे- जैसे आसक्ति होगी, वैसे वैसे हम राक्षस के चंगुल में रहेंगे। जिस चीज में हम आसक्त रहते हैं, उसे अगर नुकसान हो जाए तो हमारे प्राण छटपटाने लगते हैं। इसीलिए ऋषियों ने कहा है आसक्ति हमें गुलाम बनाती है। जैसे उस राक्षस को गुलाम बनाए हुए थे, वरना तो वह बहुत शक्तिशाली था। क्या हमें अपनी आसक्तियों का आत्मनिरीक्षण नहीं करना चाहिए?

Wednesday, February 3, 2010

कबीर की बातें याद करें तो ही अच्छा

विनय बिहारी सिंह

सैकड़ो वर्ष पहले कबीर ने जो बातें कहीं, उन्हें फिर से पढ़ कर हमें नई रोशनी मिल सकती है। ऊपरी वेशभूषा पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा है- मन ना रंगाय, रंगाय जोगी कपड़ा। दाढ़ी बढ़ाय, जोगी होय गैले बकरा।। यानी गेरुआ कपड़ा पहनने से कुछ नहीं होगा, मन ईश्वर में रंगा होना जरूरी है। मन चंचल हो और आपने खूब साफ सुथरा सुंदर कपड़ा पहना हो, सोने के पलंग पर सो रहे हों तो उससे अच्छा तो वह है जो कम संसाधनों में रहता है लेकिन उसका मन शांत, तनाव रहित और उत्साह से भरा हो। कबीरदास ने कहा है- सब धऱती कागद करूं........ यानी समूची पृथ्वी अगर कागज के रूप में इस्तेमाल करूं, समूचे समुद्रों को स्याही के रूप में और समूचे जंगलों को कलम के रूप में इस्तेमाल करूं, तो भी गुरु की महानता का वर्णन नहीं कर सकता। क्योंकि गुरु साधना के पथ पर आपको संभालता है। अन्यथा आपने अगर कोई व्रत लिया तो आपका आवारा मन हो सकता है उस व्रत को तोड़ने के लिए बार- बार ललचाए। ज्योंही आप व्रत तोड़ देंगे, माया या डिलूजन या शैतान बहुत खुश। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- मम माया दुरत्यया। यानी मेरी माया बहुत बलवान है। लेकिन जो मेरी शरण में रहता है, उसके पास माया फटकती भी नहीं है। कबीरदास ने कहा है- काहें रे नलिनी तू कुम्हलानी, जल में जनम, जल में वास। जल में नलिनी तोर निवास.... यानी अरे मनुष्य ईश्वर के अंश हो कर तुम क्यों उदास और तनावग्रस्त रहते हो। ईश्वर तो तुम्हारे भीतर हैं। बाहर भी हैं। तुम तो ईश्वर से ओतप्रोत हो। सिर्फ महसूस करने भर की देर है। एक बार अत्यंत शांत हो कर ईश्वर की शरण में जाइए तब पता चलेगा कि इससे कितना आनंद मिलता है।

Tuesday, February 2, 2010

रमण महर्षि को फिर याद करते हुए

विनय बिहारी सिंह

आइए, एक बार फिर रमण महर्षि को याद करें। वजह? जितनी बार उन्हें याद करेंगे, सुखद अनुभव होगा। शुरूआती दिनों में जब रमण महर्षि वीरूपाक्ष गुफा में साधना रत थे तो वहां भक्त जाते रहते थे। हर वक्त भक्तों की टोली वहां रहती ही थी। रमण महर्षि जब स्नान करने जाते थे तो उनके दर्शन हो जाते थे। भोजन इत्यादि तो दिन में एक बार ही करते थे या वह भी नहीं। भोजन उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं था। स्वाद की तो बात ही छोड़ दीजिए। एक बार कुछ भक्त इकट्ठे थे। रविवार का दिन था। तभी पास से शेर के दहाड़ने की आवाज आई। भक्त डर गए। वे जोर- जोर से अपने साथ ले गई थाली बजाने लगे, शोर करने लगे। दरअसल नजदीक के तालाब में शेर पानी पीने आया था। थोड़ी देर बाद शेर के दहाड़ने की आवाज फिर आई। जब भक्त देर तक थाली बजाते रहे तो रमण महर्षि ने कहा- तुम लोग डरते क्यों हो? किस बात का डर है। यह तो इन्हीं पशुओं का साम्राज्य है। हम तो इनके अतिथि हैं। वे हमें नुकसान नहीं पहुंचाते। वे बिल्कुल मित्र की तरह रहते हैं। देखो, जब शेर पानी पीने आता है तो मुझे बताता है- वह पानी पीने आ गया। फिर जब पानी पी लेता है तो कहता है- अब वह जा रहा है। दो बार दहाड़ कर अक्सर वह यही कहता है वह। तब भक्तों ने पूछा कि क्या यह सच है कि एक सांप आपके शरीर पर आ कर चढ़ जाता है और आपके शरीर पर रेंगना उसे अच्छा लगता है? रमण महर्षि ने कहा- हां, यह सच है। लेकिन अब वह सांप नहीं आता। वह जब मेंरे पैर पर चढ़ता था तो मुझे गुदगुदी लगती थी और मैं पैर खींच लेता था। लेकिन वह थोड़ी देर मेरे शरीर पर रेंग कर अपने आप चला जाता था। लेकिन अब उसने आना बंद कर दिया है। एक बार किसी भक्त से रमण महर्षि ने कहा था- यहां कई महान आत्माएं रहती हैं। वे विभिन्न रूपों में मुझसे मिलने आती हैं। रमण महर्षि अत्यंत मृदु स्वभाव के थे। वे हमेशा यही कहते थे- जब कभी तुम्हें किसी आध्यात्मिक बात में कनफ्यूजन हो, अपने आप से पूछो- मैं कौन हूं? इस प्रश्न को तलाशते हुए ही ईश्वर के करीब पहुंचा जा सकता है। रमण महर्षि एक मामूली कौपीन छोड़ कर कोई कपड़ा नहीं पहनते थे। कौपीन लंगोट जैसा होता है। वे वैराग्य के प्रतीक थे। वे किसी वस्तु से बंधे नहीं थे। आसक्ति उनमें थी ही नहीं। भक्तों से वे कहते थे- भय, क्रोध, लोभ, मोह और तमाम कामनाएं ईश्वर प्राप्ति की राह में बाधाएं हैं। आप निर्विकार अपने शांत स्वरूप आइए, ईश्वर से संपर्क हो जाएगा। नींद में तो हम यह भी नहीं जानते कि किस बिस्तर पर सोए हैं, हमने क्या खाया है या हमारी पहचान क्या है। हम तो बेसुध होकर सोते हैं। जगने के बाद ईश्वर से संपर्क के लिए नींद वाली मानसिक अवस्था में आ जाइए। यानी- कुछ भी सोचना बंद कीजिए। महसूस कीजिए कि आप ईश्वर के अंश हैं। बस ईश्वर से संपर्क हो जाएगा। दिमाग मत लगाइए। श्रद्धा और भक्ति के साथ ईश्वर में लीन हो जाइए।

Monday, February 1, 2010

त्याग किसे कहते हैं?

विनय बिहारी सिंह

एक साधक ने पिछले दिनों प्रश्न किया कि त्याग क्या है? किसका त्याग? एक वरिष्ठ सन्यासी ने कहा- काम, क्रोध, मद, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष का त्याग सबसे पहले जरूरी है। गीता के तीसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- काम ही इंद्रियों के माध्यम से हमें बंधन में डालता है और मुक्ति नहीं हो पाती। शास्त्रों ने भी कहा है- मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्ष्यो।। मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है। इसलिए मन को नियंत्रित करें। मन कैसे नियंत्रित होगा? उत्तर मिला- अभ्यास से। एक गाय को बहुत लंबी रस्सी से बांधा गया था। वह बहुत उपद्रवी थी। वह चारो ओर घूमती और उछल- कूद करती रहती थी। उसके मालिक ने रस्सी थोड़ी छोटी कर दी। गाय तब भी उछल कूद करती थी, लेकिन कम। धीरे- धीरे गाय के मालिक ने रस्सी बिल्कुल छोटी कर दी। इतनी छोटी कि गाय मुश्किल से खड़ी होती थी। तब वह उछल कूद क्या करती। चुपचाप खड़ी रहती थी। मन बिल्कुल इसी तरह का है। उसे जितनी छूट दी जाएगी, वह उतना ही कूदेगा, जहां- तहां बेकार में भ्रमण करेगा। सन्यासी ने कहा- जब आप ध्यान करने बैठिए तो मन बिल्कुल ईश्वर के रूप पर ही रखिए। शुरू में ईश्वर के सुंदर रूप पर ध्यान केंद्रित करिए। जब भी मन इधर- उधर जाए, आप मन को वापस खींच कर ईश्वर के रूप पर ले आइए। धीरे- धीरे आपका मन भी गाय की तरह स्थिर हो जाएगा। तब तो ईश्वर का अनुभव भी प्रारंभ हो जाएगा। सन्यासी ने कितनी सुंदर बात कही। सचमुच अभ्यास से कुछ भी संभव है। लेकिन कई लोग पहले ही डर जाते हैं कि उनका मन स्थिर नहीं होगा। एक बार मन को दृढ़ कर लिया तो बस कोई भी रचनात्मक काम हो कर रहेगा। मुख्य वस्तु है ईश्वर में ध्यान। ईश्वर से प्रेम। इस प्रेम से कुछ भी संभव है।