Saturday, February 13, 2010

बहुत आनंदमय बीती महाशिवरात्रि

विनय बिहारी सिंह

महाशिवरात्रि का पर्व खूब आनंदमय बीता। वैसे तो हर साल यह दिन और रात हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। लेकिन इस साल तो जैसे सोना में सुगंध था। विशाल मंदिर परिसर में बैठे हुए हम कई लोग विभिन्न साधकों की शिव स्तुति सुन रहे थे। ढोलक, बांसुरी और हारमोनियम पर भी साधक ही थे। जैसे- जैसे रात गहरा रही थी, मानो हम सब पर एक आध्यात्मिक नशा गहराता जा रहा था। इसमें शिव मंत्र, भजन और वाद्य यंत्रों का सामंजस्य ऐसा बन रहा था कि जैसे सब कुछ हमारे भीतर गहरे उतरता जा रहा था। कुछ लोग शिव के मोहक भजन सुन कर चुपके से रो रहे थे। लेकिन मुझे कुछ भी असहज नहीं लगा क्योंकि रोने वालों में मैं भी था। जिस भजन पर हम कुछ लोग रोए वह था- शिव, शिव, शिव शंभो, शंकर महादेव।........ वचन दिया था आने का, अब तक नहीं आए भगवन।। यह मेरे जीवन का चकित करने वाला अनुभव था। भाव विभोर भजन सुनते हुए मेरी आंखों से आंसू गिर रहे हैं, यह पहली बार हुआ। लेकिन यह सहज था, इसलिए मैंने भी खुद को नहीं रोका। जो हो रहा है, हो। मेरे आनंद में कमी नहीं आनी चाहिए। यह भी समझ में आया रोने के बाद गहरी शांति और आनंद का बोध होता है। एक मस्ती सी छा जाती है। लगता है अनंत महादेव भगवान शिव के भीतर ही मैं हूं और वे मेरे भीतर हैं। यानी हम और वे एक ही हैं। अन्य कोई चीज तो है ही नहीं। इसके बाद हम सबने श्वेत धवल शिवलिंग का दर्शन और प्रणाम किया। फिर आया प्रसाद पाने का क्षण। प्रसाद पा कर सुख से रात बीती। काश हर रात शिवरात्रि होती। शिवरात्रि के पहले से ही पता नहीं क्यों ऐसा माहौल बन जाता है कि बार- बार भगवान शिव की तरफ ही बार- बार ध्यान जाने लगता है। सिर पर जटा जूट यानी ब्रह्मलोक। ललाट के ऊपर चंद्रमा यानी अत्यंत शांत मन। गले में सर्प यानी कुंडलिनी का सहस्रार चक्र में मिल जाना। डमरू यानी ऊं ध्वनि। त्रिशूल यानी सत्व, रज और तम के परे भगवान शिव। न कुछ लिखने पढ़ने का मन करता है औऱ न ज्यादा बात करने का। बस जहां आदिदेव का स्मरण है, आनंद है। मेरे कुछ मित्रों ने भी श्रद्धा से शिवरात्रि मनाई। शिवरात्रि के दिन वे लोग सुबह सुबह ही शिव मंदिर में बेलपत्र, फूल और फल चढ़ाने पहुंच गए थे। फिर दिन भर व्रत और रात को सूजी की खीर जिसमें अत्यधिक किशमिश और अन्य सूखा फलों का मिश्रण था। फिर रात भर भगवान शिव की कथा का श्रवण। इसमें मार्कंडेय पुराण का पाठ भी शामिल है। लेकिन उन्होंने संस्कृत वाला अंश छोड़ कर सिर्फ अर्थ वाला हिस्सा पढ़ा। इस तरह पाठ जल्दी हो गया और कुछ और भजन और श्लोक पाठ का आनंद भी मिला। कुछ अन्य लोगों ने सुबह शिव मंदिर में जल चढ़ाया और फिर अपने कामकाज में लग गए। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्हें शिवरात्रि के दिन कोई फर्क नहीं पड़ा। उनके लिए क्या शिवरात्रि और क्या अन्य दिन। सब एक बराबर। यह अपने- अपने जीने का ढंग है।

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