\ एक बार सत्संग चल रहा था। तभी एक युवा बिल्डर आए। बिल्डर यानी वे कोलकाता में फ्लैट्स बना कर बेचने का व्यवसाय करते हैं। उनकी बहुत प्रतिष्ठा है। तब उनसे कहा गया- आप भी सत्संग में शामिल हो कर आनंद रस पीजिए। वे बोले- अभी तो समय नहीं है। इसके अलावा मैं बूढ़ा तो हुआ नहीं हूं। इसलिए भगवान के बारे में सोचने का अभी समय नहीं है। तभी एक सत्संगी ने पूछा- आप किसी काम से यहां आए हैं? ?? शायद। वे बोले- हां,,, आप सत्संगियों में से एक व्यक्ति के पास ईँट का भट्ठा है। मैं वहां से ईंट लेता हूं। उन्हें पेमेंट करने आया हूं। संबंधित व्यक्ति को रुपए देकर वे फिर बोले- अच्छा आग्या दीजिए। मैं भी उम्र होने पर भगवान को याद करने की कोशिश करूंगा। अभी तो जवान हूं। यह काम करने का समय है। सबने उनकी बात धैर्य से सुनी। लेकिन सभी आश्चर्य में थे। भगवान को याद करने के लिए क्या किसी उम्र का इंतजार करना होता है??। मनुष्य का तो जन्म ही इसलिए हुआ है कि वह ईश्वर से सामिप्य स्थापित करे। उन्हें जाने। मनुष्य जीवों में सबसे विकसित प्राणी है। ईश्वर ने उसकी रीढ़ में छह चक्र दिए हैं। उन्हें पूर्ण रूप से खोलने के लिए ही तो मनुष्य का जन्म हुआ है। कुछ लोग तो अपने बच्चों को उनके होश संभालते ही ध्यान, इत्यादि की शिक्षा देने लगते हैं। ताकि वह बड़ा हो कर स्थिर बुद्धि वाला हो सके। उसे ध्यान करने में तब कोई दिक्कत नहीं होगी। बचपन से जिन लोगों ने ध्यान और धारणा या प्राणायाम का अभ्यास किया है, बड़े होने पर वे सिद्ध हो जाते हैं। बचपन को कुछ लोग कच्चा घड़ा कहते हैं। आकार जैसा गढ़ा जाएगा, वे वैसे ही हो जाएंगे। अगर जीवन भर आपका मन सांसारिक प्रपंचों में फंसा रहा तो बुढ़ापे में वे अचानक कैसे ईश्वर के प्रति आसक्ति महसूस करेंगे। कई लोग तो ध्यान करते समय यही सोचते रहते हैं कि आज खाने में क्या बन रहा है। यानी वहां भी भोजन ही दिमाग पर हावी है। हां कुछ लोग हमेशा ऐसे रहे हैं जो बुढ़ापे के बावजूद गहरी आसक्ति के साथ ईश्वर से जुड़े हैं। लेकिन उनकी संख्या बहुत ही कम है। ज्यादातर लोग बुढ़ापे में भी नाती- पोतों के मोह में फंसे रहते हैं या उस समय भी यही आसक्ति रहती है कि क्या खाएं, किससे मुलाकात करें। अपने दिल की बात किससे कहें। यह बात दिमाग में बिल्कुल ही नहीं आती कि ईश्वर ही हम सबके मालिक हैं। यह संसार उन्हीं का है। हम तो महज अपनी इच्छाओं के चलते इस धरती पर आए हैं। अब और इच्छाएं पालने का कोई अर्थ नहीं है। नहीं। अब कोई इच्छा नहीं है। सिर्फ एक इच्छा को छोड़ कर- भगवान से मिलना है। अब सिर्फ भगवान चाहिए और कुछ नहीं। जिस क्षण यह समझ में आ जाए, बस हमारा काम बन गया। लेकिन यह अचानक नहीं होगा। जीवन भर इसका अभ्यास करना पड़ेगा। यह नहीं कि भगवान को याद करने के लिए बुढ़ापे का इंतजार किया जाए। भगवान तो हमेशा हमारी ओर देख रहे हैं और इंतजार कर रहे हैं कि हम कब उनकी ओर प्यार भरी नजर से देखें। कब हम जानें कि वही हमारे माता- पिता, भाई, और सब कुछ हैं। वही हमारे मालिक हैं।
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