Saturday, February 20, 2010

नदी जब समुद्र हो जाती है

विनय बिहारी सिंह

रमण महर्षि समेत सभी ऋषियों ने कहा है कि नदी जब समुद्र में मिल जाती है तब उसकी पहचान खत्म हो जाती है और वह समुद्र बन जाती है। समुद्र में मिलने के बाद वह न गंगा रह जाती है और न गोदावरी, न हुगली और न ही सोन। सारी नदियां समुद्र से मिलते ही समुद्र बन जाती हैं। ईश्वर के साथ मिलने पर भी यही होता है। योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के एक सन्यासी स्वामी निर्वाणानंद जी ने एक बार मुझसे कहा था- ध्यान में सोचना कुछ नहीं होता। ध्यान तो ईश्वर में लय का नाम है। वे जापान मूल के हैं। वे कहते हैं- ईश्वर इंद्रिय, मन और बुद्धि के परे हैं। इसलिए वे न तो बातचीत से मिलेंगे और न ही सोचने से। वे तो बस अनन्य भक्ति और गहरे ध्यान से मिलेंगे। जो भक्त निरंतर भगवान में ही रहता है। सोते, जागते, उठते, बैठते उसे हर जगह, हर क्षण भगवान ही दिखते और सुनाई देते हैं। जैसे श्री अरविंद के साथ हुआ था। श्री अरविंद आजादी के आंदोलन के दौरान जेल में बंद कर दिए गए थे। जेल में ही अचानक वे श्रीकृष्ण के भक्त बन गए। जबकि उन्हें तनहाई में रखा गया था। जेल की सलाखें कृष्ण, जेल के परिसर में लगे पेड़- पौधे कृष्ण और जेल का अधिकारी कृष्ण। सब कुछ कृष्णमय हो गया था। जब वे जेल से छूटे तो गहरी साधना में डूब गए और श्रीकृष्ण के अन्यतम भक्त के रूप में जाने गए। अगर ईश्वर की कृपा प्राप्त करनी है औऱ तमाम दुखों के पार जाना है तो भगवान के प्रति गहरी आसक्ति की जरूरत है। अन्यथा मन अगर जहां तहां बंदर की तरह कूदेगा तो फिर आध्यात्मिक रस नहीं मिल पाएगा। फिर आप झुंझला कर कहेंगे- कुछ भी तो नहीं होता पूजा-पाठ से। सब ढकोसला है। दोष पूजा- पाठ या ध्यान का नहीं है। दोष हमारा है। अगर हम गहरे ध्यान में नहीं डूबते या हृदय से पूजा नहीं करते तो झुंझलाने से क्या फायदा। प्रेम और भक्ति से ईश्वर को पुकारने से ही सारा काम हो जाता है। और पुकारने का मतलब यह भी नहीं है कि चिल्लाया जाए। मन ही मन पुकारना पर्याप्त है। भगवान अंतर्यामी हैं। वे जानते हैं कि किसके दिल में क्या है। ज्योंही उन्हें पता चलता है कि अमुक व्यक्ति उन्हें दिल से पुकार रहा है, बस वे उसे तुरंत अपनी उपस्थिति का अहसास करा देते हैं।

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