विनय बिहारी सिंह
एक साधक ने पिछले दिनों प्रश्न किया कि त्याग क्या है? किसका त्याग? एक वरिष्ठ सन्यासी ने कहा- काम, क्रोध, मद, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष का त्याग सबसे पहले जरूरी है। गीता के तीसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- काम ही इंद्रियों के माध्यम से हमें बंधन में डालता है और मुक्ति नहीं हो पाती। शास्त्रों ने भी कहा है- मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्ष्यो।। मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है। इसलिए मन को नियंत्रित करें। मन कैसे नियंत्रित होगा? उत्तर मिला- अभ्यास से। एक गाय को बहुत लंबी रस्सी से बांधा गया था। वह बहुत उपद्रवी थी। वह चारो ओर घूमती और उछल- कूद करती रहती थी। उसके मालिक ने रस्सी थोड़ी छोटी कर दी। गाय तब भी उछल कूद करती थी, लेकिन कम। धीरे- धीरे गाय के मालिक ने रस्सी बिल्कुल छोटी कर दी। इतनी छोटी कि गाय मुश्किल से खड़ी होती थी। तब वह उछल कूद क्या करती। चुपचाप खड़ी रहती थी। मन बिल्कुल इसी तरह का है। उसे जितनी छूट दी जाएगी, वह उतना ही कूदेगा, जहां- तहां बेकार में भ्रमण करेगा। सन्यासी ने कहा- जब आप ध्यान करने बैठिए तो मन बिल्कुल ईश्वर के रूप पर ही रखिए। शुरू में ईश्वर के सुंदर रूप पर ध्यान केंद्रित करिए। जब भी मन इधर- उधर जाए, आप मन को वापस खींच कर ईश्वर के रूप पर ले आइए। धीरे- धीरे आपका मन भी गाय की तरह स्थिर हो जाएगा। तब तो ईश्वर का अनुभव भी प्रारंभ हो जाएगा। सन्यासी ने कितनी सुंदर बात कही। सचमुच अभ्यास से कुछ भी संभव है। लेकिन कई लोग पहले ही डर जाते हैं कि उनका मन स्थिर नहीं होगा। एक बार मन को दृढ़ कर लिया तो बस कोई भी रचनात्मक काम हो कर रहेगा। मुख्य वस्तु है ईश्वर में ध्यान। ईश्वर से प्रेम। इस प्रेम से कुछ भी संभव है।
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