विनय बिहारी सिंह
आज खूब सवेरे एक परिचित सज्जन आए। कहा- पिछले दिनों एक परिचित की स्वाभाविक मृत्यु देखी। वह दृश्य दिमाग से उतरता नहीं है। क्या करूं? जिस व्यक्ति को देखा, वह अंतिम सांसे गिन रहा था। सांस उल्टी चल रही थी और घर्र- घर्र की आवाज निकल रही थी। अचानक सांस रुक गई। प्राण तो अदृश्य होता है। वह कब निकला, पता ही नहीं चला। तब लगा कि इस शरीर में ईश्वर की कृपा से ही प्राण रहते हैं। इस प्राण के मालिक हैं ईश्वर। वे सर्वशक्तिमान हैं। यह ब्रह्मांड उन्हीं का बनाया है। इस ब्रह्मांड का एक एक जीव, एक एक वस्तु उन्हीं की निर्मिति है। मैंने कहा कि आप इतनी सुबह कैसे आए? वे बोले- जब मैं सो नहीं पा रहा हूं और यह सब बातें मुझे बार- बार महसूस हो रही हैं तो आखिर यह किसके साथ शेयर करूं? किससे कहूं? मुझे लगा आपसे कहूं। मैंने उनके इस सोच का स्वागत किया। उनसे पूछा कि क्या वे अपने परिचित की मृत्यु के पहले इतनी गहराई से ये सब चीजें सोचते थे। उन्होंने कहा- नहीं। ये सब बातें दिमाग में आती ही नहीं थीं। अब तो मैं उस क्षण के बारे में ही सोचता रहता हूं कि जब मेरे परिचित के प्राण निकले तो मैं कुछ महसूस क्यों नहीं कर पाया। क्या मनुष्य का प्राण इतना सूक्ष्म है? तब समझ में आया कि सूक्ष्म प्राण वाला मनुष्य बेकार में लंबी- लंबी डींगें हांकता है। उसके वश में तो कुछ भी नहीं है। सब कुछ ईश्वर के हाथ में है। ईश्वर सर्वशक्तिमान है। उन्होंने हाथ जोड़ कर सामने लगे ईश्वर के फोटो को प्रणाम किया और कहा- हे ईश्वर मुझे सद्बुद्धि दीजिए ताकि मैं आपकी याद हमेशा अपने दिल में बनाए रखूं। आप सर्वशक्तिमान हो कर भी अदृश्य रहते हैं। फिर वे मेरी ओर मुड़ कर बोले- ईश्वर ने मनुष्य का प्राण कैसे बनाया होगा? मैंने कहा- इसका उत्तर तो ईश्वर ही दे सकते हैं। क्योंकि इस सृष्टि में अनेक प्रश्नों के उत्तर मनुष्य नहीं दे सकता। इसे ही ईश्वरीय लीला कहते हैं। मनुष्य ही क्या, किसी भी जीव के प्राण अदृश्य हैं। कब हमारे भीतर प्राण प्रवेश करता है और कब हमारे शरीर से निकल जाता है, इसका ग्यान हमें कभी हो ही नहीं सकता। हमारा ग्यान सीमित है। भले ही हम कहें कि हमारा ग्यान बहुत समृद्ध है लेकिन ऐसे प्रश्नों के उत्तर हम दे ही नहीं सकते। उन्होंने पूछा- अच्छा यह बताइए, अगर हम ईश्वर की कल्पना भगवान राम के रूप में करें तो क्या वे उसी रूप में हमें दर्शन देंगे? मैंने कहा- सभी संतों ने तो यही कहा है। आप जिस रूप में ईश्वर को याद करेंगे, वे उसी रूप में दर्शन देंगे। अगर आप उन्हें निराकार या ज्योति के रूप में देखना चाहेंगे तो वे उसी रूप में हाजिर होंगे। लेकिन ईश्वर उसी को दर्शन देते हैं जो उनका अनन्य भक्त होता है। इसे ही कुछ संत अनन्य भक्ति कहते हैं। अनन्य यानी कोई दूसरा नहीं। तो आप भी अगर राम के रूप, उनके गुणों और उनकी लीलाओं का ध्यान करते हुए उनमें आसक्त हो जाएंगे तो वे अवश्य दर्शन देंगे। ऋषियों की बातें गलत नहीं हो सकतीं। फिर उन्होंने कहा- उन्होंने अपने परिचित को चिता पर जलते हुए देखा तो लगा कि यह शरीर एक दिन जल कर राख हो जाने वाला है। लेकिन हैरानी यह है कि इसमें न जाने कितनी कामना- वासनाएं छुपी हुई हैं। ये कैसे खत्म होंगी? मैंने कहा कि इसका जवाब भी तो ऋषियों ने दे रखा है। ऋषि पातंजलि ने इसके लिए ही तो यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की बात कही है। योग के इन आठ नियमों का अगर पालन किया जाए तो हमारे भीतर की सारी कामना- वासनाएं जल कर राख हो जाएंगी। जो बची- खुची होंगी वे नवधा भक्ति से खत्म हो जाएंगी। उन्होंने पूछा- यह नवधा भक्ति क्या है? मैंने कहा- इसका उत्तर भी हमारे ऋषियों ने दे रखा है। भगवान राम ने इसी नवधा भक्ति का उपदेश दिया था। नवधा भक्ति है- संतों का संग करना, भगवान की कथा सुनना, गुरु सेवा, प्रभु का गुणगान, मंत्र जाप, शील और सज्जनता का पालन (सबमें ईश्वर का वास है,यह महसूस करना), संतों को ईश्वर का प्रतिनिधि मानना, जो कुछ मिल जाए उसमें संतोष करते हुए, आगे बढ़ने के लिए ईमानदारी से प्रयत्न करते रहना, छलहीन व्यवहार और नौंवां है- ईश्वर में संपूर्ण भरोसा। ईश्वर में शरणागति। लेकिन कुछ अन्य विद्वान ईश्वर का चिंतन, मनन, आत्म निवेदन, कथा सुनने, कथा कहने, ईश्वर के रूप, उनके गुण, उनकी लीलाओं के स्मरण, प्रार्थना, भजन और जाप को भी नवधा भक्ति कहा है। घी का लड्डू चाहे जैसे खाएं, अच्छा ही लगेगा।
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