Monday, May 31, 2010

एक आदमी ने आत्महत्या की, सैकड़ों प्रभावित हुए


विनय बिहारी सिंह

मेट्रो रेल के एक स्टेशन- शोभा बाजार पर ट्रेन के सामने कूद कर एक व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली। यह कोलकाता महानगर की घटना है। आत्महत्या से दुखों का अंत नहीं होता। कुछ लोगों को भ्रम होता है कि जान दे देने से तनाव का अंत हो जाता है। लेकिन पहले घटना जान लें फिर इसके परिणामों पर चर्चा करेंगे। मेट्रो रेल की पटरियों के पैरलल एक थर्ड लाइन होती है। उसमें बिजली का हाई वोल्टेज करेंट होता है। मेट्रो रेल की पटरियों पर कूदने वाला व्यक्ति ट्रेन से कटता ही है, उसे हाई वोल्टेज करेंट भी लगता है। ऐसा भी हुआ है कि कूदने वाले व्यक्ति को बचा लिया गया है। ड्राइवर ने ब्रेक लगा दिया और कूदने वाला व्यक्ति थर्ड लाइन के संपर्क में नहीं आया। लेकिन ज्यादातर मामले में मौत हो जाती है। अब आत्महत्या करने वाला तो रेल पटरी पर कूद गया। ट्रेन जहां की तहां ठप। ट्रेनों की आवाजाही बंद हो गई। कई सौ लोग जहां के तहां फंसे रहे। दमदम मेट्रो स्टेशन पर भारी भीड़ थी। जाहिर है जब ट्रेन नहीं चल रही थी तो विभिन्न जगहों पर जाने वाले लोग जुटते जा रहे थे। भीड़ बढ़ती जा रही थी। मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा था। राहत की बात यह थी कि मुझे टिकट नहीं लेना था। मेरे पास स्मार्ट कार्ड था। सारे यात्रियों के चेहरे पर परेशानी झलक रही थी। किसी को कार्यालय जाना था, किसी को किसी से मिलना था तो किसी को मीटिंग में जाना था। सब बेहाल थे। एक व्यक्ति ने आत्महत्या की और इतने लोगों को परेशान कर गया। जब स्टेशन से लाश हटाई गई और ट्रेनें चलने लगीं तब जा कर लोगों को राहत मिली। लेकिन हर ट्रेन में भारी भीड़।
आत्महत्या करने वाले ने समझा होगा कि उसे दुखों से छुटकारा मिल जाएगा। लेकिन संतों ने कहा है कि ऐसा होता नहीं है। आत्महत्या करने वाली आत्माएं बहुत समय तक भटकती रहती हैं। उन्हें सूक्ष्म लोक में भी कष्ट और परेशानी रहती है। इसीलिए कहा जाता है कि आत्महत्या पाप है। कभी भी आत्महत्या की बात नहीं सोचनी चाहिए। यह ईश्वर के नियम में दखल देना है और इसका परिणाम बहुत दुखद होता है।

Saturday, May 29, 2010


ईश्वर को समर्पित

मित्रों,
साध्वी इंग्रिड हेंजलर ने इस ब्लाग के लिए एक बहुत ही सुंदर कविता भेजी है। उनकी कविता ईश्वर के प्रेम से सराबोर है।
यह कविता पहले अंग्रेजी में और फिर अनूदित रूप में हिंदी में आपके सामने है। मुझे यह कविता इतनी सुंदर लगी कि इसे आपको पढ़वाने से रोक नहीं सका। हम ईश्वर के रास्ते में सांसारिक आकर्षणों में खो जाते हैं और भूल जाते हैं कि हम ईश्वर की तरफ यात्रा कर रहे थे। रंग- विरंगे रिश्ते, चीजें और अन्यान्य आकर्षण हमें नचाते रहते हैं। आप सभी जानते हैं कि इंग्रिड ईश्वर प्रेम के अलावा कुछ जानती ही नहीं। उनका रोम- रोम, उनका मन, उनकी आत्मा और उनका संपूर्ण अस्तित्व ईश्वरमय है। उनकी सांसें ईश्वर को समर्पित हैं। सबसे पहले अंग्रेजी में यह कविता, फिर उसके नीचे हिंदी में।

Lost once more

Ingrid Henzler


lost once more

in the beauty

of leaves

in golden trees

in the infinite sky


Incarnations

I roamed

I searched

Divine love

and almost

reached

my goal


Dying

I surrender

I dissolve

in the water

becoming one

with You

and all


So much love

that it hurts


It hurts

like needles

it burns

like a fire

but

I have

no choice

I have given

myself

to love

खो गई एक बार फिर

इंग्रिड हेंजलर


खो गई एक बार फिर
पत्तियों के सौंदर्य में
सुनहरे पेड़ों में
अनंत आकाश में

जन्म जन्मांतर से
घूम रही हूं मैं
खोज रही हूं मैं
दिव्य प्रेम
और लगभग
पहुंच जाती हूं
अपने लक्ष्य तक

मर रही हूं
शरण में हूं तुम्हारे
घुल जाती हूं
पानी में
एक हो जाती हूं
तुम्हारे साथ
और बस

इतना प्रेम
कि देता है यह कष्ट

देता है यह कष्ट
सुई की तरह
जलाता है यह
आग की तरह
लेकिन
मेरे पास
नहीं है कोई विकल्प

मैंने सौंप दिया है
खुद को
प्यार के हवाले।।

(अंग्रेजी से अनुवाद- विनय बिहारी सिंह)


Friday, May 28, 2010

जितना ध्यान करेंगे, फायदा उतना ही होगा

विनय बिहारी सिंह


गहरा ध्यान करने से आप आनंद में रहते हैं। जीवन में आने वाली समस्याओं को सकारात्मक ढंग से देखते और हल करते हैं। अगर आपको किसी ने गुस्से में बोल भी दिया तो आप उत्तेजित नहीं होते और गुस्से में उफनते व्यक्ति को शांत करने की कोशिश करते हैं। लेकिन शर्त यह है कि ध्यान में दिमाग इधर- उधर न जाए। ध्यान एकदम ईश्वर में ही रहे। आपकी चेतना का केंद्र ईश्वर हो। अन्य कुछ भी नहीं। मन स्थिर न रहने से वह जहां- तहां घूमता रहता है और ऐसे कथित ध्यान का कोई लाभ नहीं होता। ध्यान का एक ही अर्थ है- मन का ईश्वर में लय हो जाए। अगर ईश्वर के साथ आपकी चेतना जुड़ गई तो फिर बाहर या भीतर की डिस्टर्ब करने वाली चिंतन लहरें अपने आप समाप्त हो जाती हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- मेरी माया को पार करना बहुत कठिन है लेकिन मेरा भक्त इसे आसानी से पार कर लेता है। जो भक्त भगवान में रमा हुआ है, उसका माया या डिलूजन या शैतान क्या बिगाड़ सकता है। सबके मालिक तो भगवन ही हैं। यह माया भी उन्हीं की बनाई हुई है। अगर आप उनकी शरण में हैं तो फिर कोई आपको छू नहीं सकता। आप अत्यंत सुरक्षित हैं। आपको किसी बात का डर नहीं है। बस शर्त एक ही है- आप भगवान को जोर से पकड़े रहें। कुछ दिनों बाद भगवान आपको जोर से पकड़ लेंगे। तब आप भगवान को नहीं पकड़ेंगे, भगवान आपका हाथ पकडेंगे।
भगवान तो ऐलान कर चुके हैं- मेरी शरण में आओ और निश्चिंत हो कर जीवन जीयो। लेकिन हम हैं कि उनकी ओर ध्यान ही नहीं देते। हमें लगता है कि जीवन में जो कुछ हो रहा है कोई मनुष्य कर रहा है या हम कर रहे हैं। ईश्वर का ध्यान ही नहीं है। जब हमारी चेतना में ईश्वर आकर स्थाई रूप से बैठ जाएंगे, हमारा जीवन अत्यंत सुखी और शांत हो जाएगा। यही तो मनुष्य की चाहत है।

Wednesday, May 26, 2010

एक रोचक कथा


विनय बिहारी सिंह


एक सुखी किसान था। यथा समय उसकी पत्नी ने एक सुंदर से बच्चे को जन्म दिया। दोपहर का समय था। तभी उसके सोने के कमरे में एक जहरीला सांप घुसा। किसान वहीं खाना खा कर आराम कर रहा था। उसकी नजर सांप पर गई। उसने लाठी उठाई। सांप तुरंत वापस मुड़ा और घर से बाहर निकल गया। किसान ने सांप का पीछा किया। थोड़ी दूर पर ही वह सांप भयानक भैंसे में बदल गया। वह पास के ही धान के खेत में कूदने लगा और उतनी दूर की फसल को नष्ट कर दिया। तभी उसके सामने दूसरा भैंसा आया। उस भैंसे से रूप बदले भैंसे ने जबर्दस्त लड़ाई की और उसे मार डाला। फिर वह रूप बदलने वाला भैंसा आगे बढ़ा। दस कदम बाद वह एक सुंदर स्त्री के रूप में बदल गया। अब पीछा कर रहे किसान से रहा नहीं गया। वह उस स्त्री का रूप धरे मायावी के पास गया और बोला- मैं लगातार तुम्हारा पीछा कर रहा हूं। तुमने अब तक तीन रूप बदले। आखिर तुम हो कौन? स्त्री हंसी और बोली- मैं काल हूं। मेरा कोई एक रूप नहीं है। जिस रूप में जिसकी मृत्यु लिखी है, उसे उसी रूप में मैं ले जाती हूं। किसान ने पूछा- तुमने सांप के रूप में मेरे घर में घुस कर भी कोई नुकसान नहीं किया। ऐसा क्यों? स्त्री बोली- वह तो तुम्हें अपना पीछा करने के लिए मैंने किया। अगर तुम्हारे घर में नहीं घुसी होती तो तुम मेरा पीछा कैसे करते? किसान बोला- लेकिन मैं तुम्हारा पीछा करूं, इसमें तुम्हारा लाभ क्या है? काल रूपी स्त्री बोली- लाभ है। तुम ईश्वर के अत्यंत गहरे भक्त हो। तुम्हें मैं यह बताने आई हूं कि काल किसी भी रूप में आता है। कोई भी जगह और परिस्थिति तब तक निरापद नहीं है, जब तक ईश्वर का स्मरण न हो। जहां ईश्वर का स्मरण, जप और दिल से पूजा होती है, वहां मैं भी ईश्वर के चरणों में लेटी रहती हूं। क्योंकि भक्त पर ईश्वर की कृपा होती है। तुम्हारे मन में कभी- कभी शंका होती थी, इसलिए मुझे तुम्हारे पास आना पड़ा। किसान ने पूछा- लेकिन ईश्वर इतने निष्ठुर क्यों हैं कि दर्शन नहीं देते? काल ने कहा- निष्ठुर कहां हैं। वे तो तुम्हारे दिल में बैठे हैं। तुम्हारी एक- एक गतिविधि को सुन और देख रहे हैं। वे तुम्हारे धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं। आखिर वे तुम्हारे अराध्य हैं। तुम्हारे साथ लुका- छुपी का खेल नहीं करेंगे? वे तुम्हें देख रहे हैं। तुम और सजग होओ, और रिसेप्टिव होवो। वे तो हमारी हर सांस में हैं। किसान बोला- क्या तुम भी ईश्वर भक्त हो? काल रूपी स्त्री बोली- मैं तो ईश्वर का चाकर हूं। उनका सेवक। किसान बोला- तुम भी तो कभी- कभी अत्यंत निष्ठुर से हो जाते हो। काल रूपी स्त्री बोली- नहीं। मनुष्य के कर्तव्य निष्ठुर हैं तो उसे फल भी कई गुना निष्ठुर मिलते हैं। मैं तो कुछ नहीं करती। मनुष्य खुद ही अपने कर्मों का फल भोगता है। मनुष्य भोग

नहीं भोगता, भोग ही मनुष्य को भोगते हैं।


(साध्वी इंग्रिड ने इस ब्लाग पर अपनी कविता पढ़ कर मुझे संदेश भेजा है-
ईश्वर को इतना प्यार करो कि सारे दुख और सारी चिंताएं
उसमें गल जाएं। वह पवित्र प्रेम ही तो मनुष्य की पूंजी है।)

Tuesday, May 25, 2010

ईश्वर के लिए विरह

मित्रों
आज मैं जर्मनी की एक बहन इंग्रिड हेंजलर की अनूदित कविता आपको पढ़वाना चाहता हूं जो
उनकी पुस्तक नास्टाल्जिया फार गॉड ( ईश्वर के लिए विरह ) से ली गई है। वे उच्च कोटि की साधक हैं और उत्कृष्ट कवयित्री, चित्रकार और लेखिका भी हैं। उन्होंने मुझे अपने इस ब्लाग पर यह कविता डिस्प्ले की अनुमति दी है। मैंने जितनी बार भी उनसे बातें की हैं, मुझे उनके साध्वी होने का आभास मिला है। वे ज्यादातर इटली के असीसी में रहती हैं जहां सेंट फ्रांसिस ने जीसस क्राइस्ट का साक्षात दर्शन किया था। परमहंस योगानंद जी ने

`सेंट फ्रांसिस से मुलाकात की थी।
इंग्रिड हेंजलर के फोटो के साथ उनकी यह कविता आपको अच्छी लगेगी-

गिरना

इंग्रिड हेंजलर


मैं गिर रही हूं, सदा गिर रही हूं
बहुत काले और ठंडे गह्वर में
कहां है प्रकाश, कहां है उसका चेहरा
जो दिखाता है मुझे प्रेम और आशा?

क्या तुम नहीं सुनते मेरा मौन रोदन?
इतनी बार मैंने पुकारा तुम्हें
मैंने तुम्हारे हृदय को खटखटाया और मारा हथौड़ा
लेकिन बंद है दरवाजा, घुस नहीं सकती मैं

आंसुओं से भरा है मेरा चेहरा
इतनी प्यासी है मेरी आत्मा
कब, ओह.... कब देखूंगी प्रकाश
कब होऊंगी मैं धन्य, उसके आने पर...?

Monday, May 24, 2010

ईश्वर से हमारी दूरी

विनय बिहारी सिंह

रमहंस योगानंद जी ने कहा है- ईश्वर हमसे दूर नहीं हैं। उन्होंने तो हमें अपने स्वरूप में बनाया है। लेकिन हम अपनी सोच के कारण उनसे दूर हो गए हैं। ईश्वर से हमारी कोई दूरी है ही नहीं। वे तो हमारे दिल में विराजते हैं। लेकिन फिर भी अगर हम उन्हें महसूस नहीं कर सके तो इसमें हमारा ही दोष है। परमहंस जी ने कहा है- ही इज नियरेस्ट आफ दि नियर एंड डियरेस्ट आफ दि डियर। वे नजदीक से भी नजदीक हैं औऱ प्रियतम से भी प्रिय हैं। क्या अद्भुत बात है। हां, ईश्वर हमारे दिल में हैं। लेकिन हमारा दिमाग तो इतना चंचल है कि ईश्वर को महसूस नहीं कर पाता।
गीता के छठवें अध्याय में अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कहा है- यह मन बड़ा चंचल और मथ देने वाला है। इसे नियंत्रित करना मैं वायु को नियंत्रित करने जैसा दुष्कर मानता हूं। भगवान कृष्ण ने स्वीकार किया है- हां अर्जुन, तुम ठीक कहते हो। यह मन सचमुच चंचल है। लेकिन अभ्यास और वैराग्य से इसको काबू में किया जा सकता है। अभ्यास अत्यंत लाभकारी है। वैराग्य यानी पांचों इंद्रियों को नियंत्रण में लाना। भले ही यह एक दिन में न हो, लेकिन हार नहीं माननी चाहिए। लगे रहना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि लिखना आसान है और करना मुश्किल। लेकिन आप प्रयोग करके देखिए इस नियंत्रण का कितना सुख मिलता है।
मां आनंदमयी ने कहा है- दुनिया यानी दो को लेकर। यानी सुख- दुख, मान- अपमान, सर्दी- गर्मी। लेकिन ईश्वर के राज्य में सब कुछ एक ही है। सुख ही सुख है, वहां दुख नहीं है। बस हमें करना यही है कि जीते जी ही ईश्वर से संबंध जोड़ लेना है। योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के पूज्यवर स्वामी शांतानंद जी कहते हैं- आपके जीवन का आधार ही प्यार होना चाहिए। सिर्फ मनुष्य से ही नहीं, पशु- पक्षी, आकाश, पेड़- पौधे सबसे प्यार कीजिए। सजीव- निर्जीव सबसे। आपको यही प्यार कई गुनी मात्रा में लौट कर मिलेगा। जो देंगे वही आपको मिल जाता है लेकिन उसकी मात्रा बढ जाती है। जो बोते हैं, वही तो काटते हैं।

Saturday, May 22, 2010

शांति का दरवाजा

विनय बिहारी सिंह


परमहंस योगानंद जी के गुरु स्वामी श्री युक्तेश्वर जी कहते थे कि गीता को पढ़ना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि उसके अर्थ को गहराई से जानना। अगर एक श्लोक का अर्थ और उसका मनन चार दिन, छह दिन चले तो भी अच्छा है।
अच्छी तरह उसका सार तत्व जानना जरूरी है। मशीन की तरह गीता का पाठ न करें।
यह बात बार- बार याद आती है। यही बात पातंजलि योग सूत्र पर भी लागू होती है। जैसे- चित्तवृत्तियों को खत्म करना ही योग है (योगश्चित्तिवृत्ति निरोधः)। इसके लिए जरूरी है कि दिमाग में चल रही तमाम अनावश्यक हलचलों को बंद कर दिया जाए। यह तभी संभव है जब हमें महसूस हो कि हमारे दिमाग में हजार- हजार फालतू चीजें चलती रहती हैं जिनका कोई अर्थ नहीं है। ऐसी फालतू चीजों को बर्दाश्त करना हमारी आदत सी बन गई है।दिमाग की अनावश्यक बातों को खत्म करने का एक ही उपाय है कि उन्हें भगवान के चरणों पर रख कर हम उन्हें भूल जाएं। अनावश्यक चिंताएं, अनावश्यक तनाव यह कह कर भगवान के चरणों में डालें कि हे भगवान आप ही हमारे मालिक हैं। हमें संभालिए। बस, हमारे लिए शांति का दरवाजा खुल जाएगा।

Friday, May 21, 2010

(courtsy-bbc hindi service)

कृत्रिम ज़िंदगी

बनाने का दावा

मरीका में वैज्ञानिक पहली सिंथेटिक कोशिका बनाने में कामयाब हुए हैं. शोधकर्ताओं ने कंप्यूटर के ज़रिए चार रसायनों की मदद से एक कोशिका बनाई है.

साइंस पत्रिका में छपे इस शोध को मील का पत्थर बताया जा रहा है हालांकि आलोचकों का कहना है कि सिंथेटिक जीव से कई तरह के खतरे भी हैं.

शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि वे बैक्टिरीया की कोशिकाएँ बनाने में कामयाब हो पाएँगे जिससे दवाईयाँ और ईँधन बन सकेगा और ये कोशिकाएँ ग्रीनहाउस गैसों भी sokh सकेंगी.

शोध टीम की अगुआई डॉक्टर क्रेग वेंटर ने की. उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर पहले सिंथेटिक बेक्टिरियल जीनोम बनाया था और एक बैक्टिरिया से दूसरे में जीनोम प्रतिरोपित किया था.

अपनी नई उपलब्धि पर उन्होंने कहा, "इससे नई आद्योगिक क्रांति आ सकती है. अगर हम इन कोशिकाओं का इस्तेमाल कामकाज में कर पाए तो फ़ैक्ट्रियों वगैरह में तेल पर निर्भरता कम हो जाएगी और वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड भी कम हो सकती है."

नाखुश हैं आलोचक

इससे नई आद्योगिक क्रांति आ सकती है. अगर हम इन कोशिकाओं का इस्तेमाल कामकाज में कर पाए तो फ़ैक्ट्रियों वगैरह में तेल पर निर्भरता कम हो जाएगी और वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड भी कम हो सकती है

डॉक्टर क्रेग वेंटर

डॉक्टर वेंटर की टीम कई ईंधन और दवा कंपनियों के साथ काम कर रही है ताकि बैक्टिरिया के ऐसे क्रोमोसोम बनाए जा सकें जिससे नई दवाइयाँ और ईंधन बन सके.

लेकिन कई आलोचकों का कहना है कि सिंथेटिक जीवों के फ़ायदों को बढ़ा चढ़ा कर बताया जा रहा है.

ब्रिटेन की जीनवॉच संस्था की डॉक्टर हेलन कहती हैं कि सिंथेटिक बैक्टिरिया का इस्तेमाल ख़तरनाक हो सकता है.

उनका कहना है कि अगर आप वातावरण में नए जीव छोड़ देंगे तो इससे फ़ायदे के मुकाबले नुकसान ज़्यादा होगा क्योंकि आपको नहीं पता कि ये वातावरण में किस तरह के बदवाल करेंगे.

लेकिन डॉक्टर वेंटर ने कहा है कि इस काम की नैतिकता को लेकर उठने वाले सवालों को वे दरकिनार नहीं कर रहे हैं.

Thursday, May 20, 2010


इच्छा, भय और क्रोध

विनय बिहारी सिंह

गीता के पांचवे अध्याय में भगवान कृष्ण ने कहा है कि इच्छा, भय और क्रोध पर विजय पाने वाला ही भक्त कहे जाने लायक है। गीता पाठ के बाद एक युवक ने पूछा- बिना इच्छा के मनुष्य का जीवन क्या काठ की तरह नहीं हो जाएगा? उसे कहा गया- इच्छा और जरूरत में फर्क है। ऐसे अनेक लोग हैं जो अपनी पागल इच्छाओं के कारण जीवन भर बेचैन रहते हैं। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- ईश्वर को पाते ही आपकी इच्छाएं खत्म हो जाएंगी क्योंकि आप उस समय पूर्ण आनंद में रहेंगे। अब कैसी इच्छा? इसी तरह है- भय। ज्यादातर लोगों में भय डेरा डाले बैठा रहता है। किस चीज का भय? कुछ खो देने का भय। क्या खो देने का भय? किसी को धन खोने का भय है तो किसी को इज्जत खोने का भय, किसी को रिश्ते खोने का भय है तो किसी को नौकरी खोने का भय। किसी को जीवन खोने का भय है तो किसी को कुछ और खोने का भय। इस भय से मुक्ति कैसे मिलेगी? इसका उत्तर परमहंस योगानंद जी ने दिया है- ईश्वर को पकड़ लीजिए। भय आपसे ही भय खाने लगेगा। और अंतिम नरक है- क्रोध। जब हमारे मन लायक कुछ नहीं होता तो क्रोध आता है। यानी हमारी इच्छाएं पूरी नहीं होतीं तो क्रोध आता है। क्रोध से हमारा मानसिक संतुलन गड़बड़ हो जाता है। उत्तेजना होती है। मुंह से अनाप- शनाप निकल सकता है। कई लोग तो भयानक रूप से उग्र हो जाते हैं और मार- पीट या हत्या तक कर बैठते हैं। यह है- क्रोध। इसे गीता में भगवान कृष्ण ने नरक का द्वार कहा है। इन दुर्गुणों से जो बच गया, उसे भगवान क्यों नहीं प्रेम करेंगे? वे तो अपनी दोनों बाहें फैला कर हमें प्रेम करने को आतुर हैं। हम्हीं तमाम तरह के दुर्गुणों के कीचड़ लपेटे खुद को उनसे अलग किए हुए हैं। मन निर्मल कर, कीचड़ को धो कर ईश्वर के पास जाने में जो सुख है, वह अवर्णनीय है।

Wednesday, May 19, 2010

अगर स्थूल रूप में ही मन लगे

विनय बिहारी सिंह

एक प्रसंग मैं लिखना भूल गया था। उसे पूरा करना जरूरी लगा। जब सन्यासी नए भक्त से बातचीत कर रहे थे तो वहीं एक और भक्त भी खड़े थे। उन्होंने भी एक प्रश्न किया- मैं भगवान शिव का अनन्य भक्त हूं। लेकिन ध्यान में मेरा मन कभी शिव जी के रूप पर तो कभी ज्योतिर्लिंग पर टिका रहता है। जैसे वह शिवलिंग न हो कर ज्योति हो। इससे आगे मैं जा ही नहीं पा रहा हूं। तो क्या करूं? कई साल हो गए। मैं कैसे सूक्ष्म में जाऊं?
संन्यासी- कोई बात नहीं। आप इसी ज्योति पर ही दृढ़ता से टिके रहिए। या शिव जी के ही रूप पर टिके रहिए। इसमें डूबे रहने का भी आनंद अद्भुत है। शिव जी ही आपको आगे ले जाएंगे। अगर आप जहां हैं वहीं रहते हैं तो भी आनंद कम नहीं होगा। उनकी कृपा बरसती रहेगी। आपको बस, भगवान से संबंध जोड़ना है। किसी भी तरह। चाहे ज्योति के रूप में, चाहे शिव जी के चेहरे के रूप में। आप देखिए, शिव जी कितने दयालु और भक्त वत्सल हैं। आशीर्वाद देने के लिए उनका हाथ हमेशा उठा रहता है। वे अभय देने वाले हैं। भक्तों को अत्यंत प्रेम करने वाले हैं। आप किसी के प्रति मन में खराब भावना मत लाइए। सबको ईश्वर की संतान के रूप में देखिए औऱ शिव जी के प्रेम रूप में डूबे रहिए। आपका काम हो जाएगा। जो स्थूल में रहते हैं, उनका भी कल्याण होता है। बस अनन्यता चाहिए। इस बात का दुख कभी मत करिए कि मैं तो स्थूल में ही रह गया। सूक्ष्म में कैसे जाऊं। आपका काम है अनन्य भक्ति, जप और ध्यान। बाकी काम अपने आप होगा। भक्ति के रास्ते में किसी बात को लेकर तनाव में नहीं रहना चाहिए। आप अपनी ओर से अनन्य भक्ति कोशिश कीजिए। बाकी भगवान खुद संभालेंगे। आप ऐसा कभी मत सोचिए कि क्या पता भगवान मेरी सुनेंगे भी कि नहीं। भगवान तो २४ घंटे आपको देख और सुन रहे हैं। बस दिखाई नहीं देते। जब आप भक्ति के चरम पर पहुंचेंगे तो दिखाई भी देंगे। महसूस भी होंगे। लेकिन हड़बड़ मत कीजिए। धैर्य रखिए और साधना गहरी करते जाइए।

Monday, May 17, 2010

एक सन्यासी और नए भक्त का संवाद

विनय बिहारी सिंह

कल एक सन्यासी और नए भक्त के बीच बहुत ही रोचक बातचीत हुई।
भक्त- दस मिनट तक तो ध्यान ठीक लगता है, लेकिन इसके बाद मन भटकने लगता है।
सन्यासी- क्यों? भगवान तो प्रेम के भंडार हैं। उनसे मन हट कर संसार की तरफ जाना तो भगवान से दूर जाना है।
भक्त- हां, लेकिन क्या करूं। मन एक जगह ठहरता नहीं।
सन्यासी- जन्म जन्मांतर से तो मन संसार में रहा है। अचानक भगवान में तो लगेगा नहीं। इसके लिए अभ्यास जरूरी है।
भक्त- मन कैसे लगेगा?
सन्यासी- अभ्यास से। मन बार- बार ईश्वर के ध्यान से भागेगा। आप उसे बार- बार भगवान में लगाएंगे। इसमें परेशान नहीं होना है। धैर्य और लगन से भगवान पर ध्यान रखने से आपको सफलता मिल ही जाएगी।
भक्त- कितना समय लगेगा?
सन्यासी- जैसी गहरी आपकी भक्ति होगी, उसी के हिसाब से आप आगे बढ़ेंगे। कब सफलता मिलेगी, यह सोचना भी ठीक नहीं है। साधना में धैर्य बहुत जरूरी है। समय का ख्याल मत कीजिए। लगे रहिए। भगवान को अपने जीवन का केंद्र बना लीजिए।
भक्त- मैं यह जानता हूं कि भगवान ही हमारे मालिक हैं। लेकिन फिर भी उन पर ध्यान नहीं लग रहा है।
सन्यासी- मन कहां लगता है? वहां लगता है, जहां अच्छा महसूस हो। प्रिय लगे। एक बार दिल और दिमाग यह जान ले कि भगवान से प्रिय कोई नहीं है, बस ध्यान लगने लगेगा। आप भगवान से संबंध बनाइए। तब और ज्यादा ध्यान लगेगा। जिससे जितना प्रगाढ़ संबंध बनता है, उस पर ध्यान उतना लगता है। दिन रात भगवान के बारे में सोचिए। कभी उनके चेहरे के बारे में। कभी उनकी शक्ति के बारे में। कभी उनकी लीलाओं के बारे में। उनके बारे में धार्मिक ग्रंथों में जो कथाएं लिखी हैं वह भी भक्ति के साथ पढ़िए। लेकिन यह शुरूआती प्रयोग है। ज्यादा भौतिक वस्तुओं पर ध्यान देंगे तो सूक्ष्म में नहीं उतर पाएंगे। भगवान के भौतिक रूपों में कुछ ही दिन रहिए। फिर आप निराकार में चले जाएंगे। भगवान सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वग्याता हैं। वे किसी रूप, नाम या स्थान से बंधे नहीं हैं। वे सबकी आत्मा के रूप में हर मनुष्य या हर जीव में हैं। लेकिन शुरू में भगवान को पकड़ने के लिए उनके स्थूल रूप पर ही ध्यान करना चाहिए। पहले कोई रूप और नाम चुन लीजिए- जैसे राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा या काली या गणेश जी। कोई एक नाम और रूप। उसी को लेकर रहिए। उसी में रमें रहिए। बाद में वही रूप निराकार और सर्वव्यापी हो जाएगा।
आप लगे रहिए। एक प्रेमी की तरह। ईश्वर से प्रेम करना यानी अपनी मुक्ति।

Saturday, May 15, 2010

खीरा में होता है पोटैशियम

विनय बिहारी सिंह

आइए आज कुछ खाने- पीने की बातें करें। कई लोग खीरा खाना पसंद नहीं करते। लेकिन यह बहुत ही फायदेमंद सब्जी है। लेकिन इसे कुछ लोग फल भी कहते हैं। इसमें बहुत ज्यादा पोटैशियम की मात्रा होती है। नतीजा यह है कि खीरा उन लोगों के लिए रामबाण का काम करता है जो हाई या लो ब्लड प्रेसर के शिकार हैं। जिन्हें पेशाब में जलन होती है या पीला पेशाब आता है उन्हें तो खीरा जरूर खाना चाहिए क्योंकि यह प्राकृतिक रूप से डाइयूरेटिक होता है। इससे पेशाब खुल कर होता है। खीरा में सल्फर और बहुत ज्यादा सिलिकान होता है। इससे हमारे बालों की वृद्धि और उनकी चमक बरकरार रहती है। अगर खीरे और गाजर के रस को बराबर मात्रा में मिला कर पीया जाए तो गठिया का दर्द यानी जोड़ों का दर्द या जोडों के जाम होने की बीमारी से राहत मिलती है। जिनके नाखून कमजोर हों या फट जाते हों उन्हें उन पर खीरे का रस लगाना चाहिए और खीरे का रस पीना भी चाहिए। इसका रस तो उनके लिए भी बहुत फायदेमंद है जिन्हें एसिडिटी, गैस, जी मिचलाने की बीमारी है। खीरे का रस उनके लिए भी अत्यंत लाभकारी है जो एक्जिमा से पीड़ित हैं या जिन्हें गठिया है।
एक बात और। आजकल सलाद में कच्चा पपीता, हरी मिर्च और नींबू खाने का चलन बढ़ा है। इस सलाद में पिसी हुई काली मिर्च, नींबू का रस और हल्का सा सेंधा नमक डाल दें तो इसका स्वाद बढ़ जाता है। आजकल सभी खाने- पीने के मामले में बहुत सतर्क हैं, इसलिए यह चर्चा अच्छी ही है। लेकिन अगर आपको अध्यात्म के इस ब्लाग पर ऐसी चर्चा पसंद न आए तो कृपया अपनी राय जरूर दीजिएगा।

Thursday, May 13, 2010

हमारा जन्म क्यों हुआ है?


विनय बिहारी सिंह

क्या हमारे दिमाग में यह प्रश्न उठता है कि हमारा जन्म क्यों हुआ है? आइए इस पर बात करें। कई लोग तो कुछ देर सोचते हैं और फिर कहते हैं- चाहे जिस वजह से हुआ हो। अब पैदा हो ही गए हैं तो जीवन का आनंद लेते हैं। .... लेकिन इससे मूल प्रश्न खत्म नहीं होगा। आखिर भगवान ने हमें यूं ही तो इस पृथ्वी पर भेजा नहीं है। महात्माओं ने कहा है- हमारा जन्म ईश्वर को पाने के लिए हुआ है। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- मनुष्य का जन्म भगवान को प्राप्त करने के लिए हुआ है। लेकिन जरा देखो तो, लोग कामिनी और कांचन में फंसे हुए हैं। यानी इच्छाओं के समुद्र में गोते लगा रहे हैं और इच्छा है कि खत्म ही नहीं हो रही है। बढ़ती ही जा रही है, बढ़ती ही जा रही है। तो फिर क्या करें? सारी इच्छाएं मार दें और चुपचाप बैठ कर माला जपें? नहीं। इस संसार में हमें जो जिम्मेदारी मिली है उसे रुचि के साथ पूरा करें। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- संसार का काम करो लेकिन संसार के हो कर न रहो। जैसे कोई कर्मचारी किसी के घर काम करता है तो घर के मालिक के बेटे को कहता है- यह मेरा राजा है, मेरा दुलारा है। लेकिन मन ही मन जानता है कि मेरा दुलारा तो मेरी पत्नी की गोद में खेल रहा होगा। रामकृष्ण परमहंस इसी तरह के रोचक उदाहरणों से लोगों को समझाया करते थे। वे अपने देश के विलक्षण संत थे। गूढ़ से गूढ़ बातों को साधारण ढंग से समझा देते थे। तो उन्होंने कहा- मनुष्य का जन्म ईश्वर को पाने के लिए हुआ है। जब भी मनुष्य को कोई तकलीफ या तनाव हो, समझना चाहिए वह ईश्वर से दूर है। लेकिन जब वह शांति और आनंद में मस्त है तो समझना चाहिए कि वह ईश्वर की गोद में है। इसका क्या मतलब? रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि आप जीवन के संकटों को अटल मान कर मत चलिए। ये संकट आते हैं और चले जाते हैं। इस संसार में कुछ भी स्थाई नहीं है। आपका दिल दुख गया है, लेकिन उसका घाव भी धीरे- धीरे भर जाएगा। समय इतना बलवान है कि किसी सगे संबंधी की मृत्यु से लगा घाव भी धीरे धीरे भर जाता है। तो ये संकट आते हैं और चले जाते हैं। परेशानियां आती और चली जाती हैं। बस हमें चाहिए कि हम धैर्य बनाए रखें। अपना संतुलन न खोएं। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- ये परेशानियां हमें सबक सिखाने के लिए आती हैं। लेकिन परेशानियों के समय भी ईश्वर हमारा साथ नहीं छोड़ते। वे हमेशा हमें सुरक्षा के घेरे में रखते हैं।

Wednesday, May 12, 2010

सन २३०० में पृथ्वी के बहुत गर्म होने की आशंका


विनय बिहारी सिंह

आस्ट्रेलिया और अमेरिका के वैग्यानिकों ने गहन अध्ययन के बाद कहा है कि सन २३०० तक पृथ्वी का तापमान इतना बढ़ जाएगा कि शायद किसी प्राणी के रहने लायक न रहे । उनका कहना है कि गर्मी ७ डिग्री सेल्सियस ज्यादा होती जाएगी। भारत के कुछ विशेषग्य पहले से कहते आए हैं कि आने वाली शताब्दी में हो सकता है धरती तवे की तरह जलने लगे और इस पर चलना खुद को आग के हवाले करना हो। ऐसी स्थिति में हवा भी आग की तरह गर्म और झुलसा देने वाली होगी। बिजली की हालत और खराब रहने की भविष्यवाणी की ही जा चुकी है। लोग घरों में भी रहेंगे तो उबलने की ही हालत में रहना पड़ेगा। मनुष्य और अन्य प्राणियों का जीवन खत्म होने लगेगा। इस आशंका को कुछ लोग नकार रहे हैं। लेकिन पृथ्वी का तापमान जिस गति से बढ़ रहा है, उसके हिसाब से वैग्यानिकों की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता। हम औऱ आप 2300 तक जीवित नहीं रहेंगे। लेकिन हमारी आने वाली पीढ़ी इस ताप को झेलने के लिए मजबूर होगी। एक वैग्यानिक का कहना है कि धीरे- धीरे हमारा ही शरीर बढ़ती गर्मी को सहन करने लायक हो रहा है लेकिन एकदम से सात डिग्री सेल्सियस की दर से गर्मी बढ़ी तो शरीर की त्वचा और कोशिकाएं इसे एडाप्ट नहीं कर पाएंगी। नतीजा यह होगा कि लोगों की तबियत खराब होगी या मृत्यु होगी। बहरहाल, यह खबर हमें बताती है कि वायु प्रदूषण कम करने के लिए हमारी सरकारें जितना भी कर सकती हैं करना चाहिए। जैसे कारों का कम प्रयोग। साइकिल के चलन को बढ़ावा और कार्बन का उत्पादन और कम करने की कोशिश।

Tuesday, May 11, 2010

नींद में भी तो मृत्यु जैसी ही हालत होती है

विनय बिहारी सिंह

एक प्रश्न आया है कि आपने गीता का जो प्रसंग उठाया है, वह ठीक है लेकिन नींद भी लगभग मौत की तरह ही है। इसमें पता नहीं चलता कि हम कहां सोए हैं और किस हालत में हैं। हां, बिल्कुल ठीक है यह। नींद के बाद हम इसीलिए तो तरोताजा अनुभव करते हैं। तरोताजा इसलिए कि हमारा दिमाग और हमारी इंद्रियां पूरी तरह आराम कर चुकी होती हैं। सोते समय दिमाग शांत रहता है। आप नींद में कुछ सोचने की स्थिति में रहते ही नहीं। पूर्ण आराम की अवस्था है यह। सारी चिंताएं, सारे तनाव आप भाड़ में झोंक देते हैं और चैन की नींद सोते हैं। लेकिन ज्योंही नींद खुलती है, समूचे संसार के प्रपंच हमारे दिमाग में सक्रिय हो जाते हैं। नींद में जाने के पहले आपका अंतिम चिंतन जो भी होगा नींद खुलने के बाद आपका पहला चिंतन भी वही होगा। जैसे मान लीजिए आपने रात को सोते हुए किसी भावी यात्रा के बारे में सोचा तो सुबह उठते ही सबसे पहले आपके दिमाग में वही बात आएगी। संत कहते हैं कि मरने से पहले भी जो बात और जो वातावरण आपके दिमाग में रहती है आपका जन्म भी उसी माहौल में होता है। तो नींद हमें बताती है कि हम जाग्रत अवस्था में भी अनावश्यक चिंतन न करें। शांत और स्थिर बुद्धि हो कर अपना काम करें और उसके फल की चिंता न करें। ज्यों ही फल की चिंता करेंगे, आपका तनाव बढ़ जाएगा। आपने सही ढंग से अपना काम किया। पूरी मेहनत और ईमानदारी के साथ। बस आपका कर्तव्य पूरा हो गया। अब अगला कदम बढ़ाइए। फल भगवान के जिम्मे छोड़ दीजिए। आप देखेंगे कि इस तरह आपका तनाव कम हो जाता है। रमण महर्षि तो कहते थे कि हमें जाग्रत अवस्था में भी नींद की अवस्था जैसे ही शांत और ईश्वरोन्मुखी रहना चाहिए। जाग्रत निद्रावस्था। इसका मतलब यह नहीं कि आप चलते हुए किसी वाहन से टकरा जाएं या कहीं गिर पड़ें। नहीं। इसका अर्थ है दिमाग उसी तरह शांत रहे जैसे नींद के समय रहता है। बिल्कुल शांत और तनाव रहित। यह आसान नहीं है। लेकिन रमण महर्षि कहते थे- अभ्यास करने से यह संभव हो जाता है।

Saturday, May 8, 2010

जन्म से पहले और मृत्यु के बाद

विनय बिहारी सिंह

भगवान कृष्ण ने गीता के दूसरे अध्याय में कहा है कि जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। और जिसकी मृत्यु होती है, उसका जन्म निश्चित है। सिर्फ हम जन्म और मृत्यु के बीच ही शरीर में रहते हैं। जन्म के पहले और मृ्त्यु के बाद अदृश्य रहते हैं। लेकिन हमारा वजूद रहता है। सूक्ष्म शरीर में अपनी प्रवृत्तियों के साथ अपनी प्रबल कामनाओं के साथ। आदि शंकराचार्य ने कहा है- पुनरपि जन्मम, पुनरपि मरणम। जननी जठरे पुनरपि शयनम।। यानी हमारा बार- बार जन्म होता है। हमारी ही प्रवृत्तियों के कारण यह जन्म मरण का क्रम चलता रहता है। न हमारी इच्छाएं मरती हैं और न हम मुक्त हो पाते हैं। इसीलिए ऋषियों ने कहा है कि यह मान कर चलना चाहिए कि सब कुछ ईश्वर का है। हम ईश्वर के सेवक हैं। उनकी जो इच्छा हमारे साथ करें। बस मैं उन्हें प्रेम करता हूं। वे हमारे पिता हैं, माता हैं, भाई और मित्र हैं। वही हमारा जीवन पार लगाएंगे। बस हमें मैं पन से परहेज करना है। हमारे भीतर अहंकार नहीं आना चाहिए। मैंने किया, मैं नहीं होता तो यह काम नहीं होता, मैं इतना बड़ा आदमी हूं.... वगैरह वगैरह। सच्चाई यह है कि करने वाला तो ईश्वर है। लेकिन आप कोई खराब काम करके यह नहीं कह सकते कि करने वाला ईश्वर है। क्योंकि वहां आपने अपने फ्री विल का इस्तेमाल किया है। और उसकी प्रतिक्रिया होगी और आपको इसका फल भी मिलेगा। वह बात अलग है। यहां तो ईश्वर की सृष्टि की बात हो रही है। आप अपने जीवन में बार- बार महसूस करते हैं कि कोई शक्ति है जो हमें चला रही है। हम उस शक्ति के आगे लाचार हैं। कभी- कभी हमारे जीवन में चमत्कार जैसी स्थितियां भी आती हैं। लेकिन हम फिर भूल जाते हैं कि इस ब्रह्मांड के मालिक का ही यह काम है। हम तो अपनी समस्याओं और सीमित दृष्टियों से मिलने वाले इन पुट में ही व्यस्त रहते हैं कि लगता है- यही हमारी दुनिया है। लेकिन अगर हमारे जीवन में सब कुछ है और भगवान की जगह नहीं है तो हमारा जीवन व्यर्थ है। जिसने हमारा जीवन दिया, हमारा पोषण कर रहा है, हम उसी को भूल जाएंगे तो फिर हमारे जैसा कृतघ्न कौन होगा? परमहंस योगानंद ने कहा है- ईश्वर को अपने जीवन का ध्रुवतारा बनाए बिना हम शांति का जीवन नहीं जी सकते। हम अपने चारो तरफ ईश्वर की लीला देख रहे हैं लेकिन उसकी तरफ हमारी निगाह क्यों नहीं जाती? जिसके घर में रहते हैं, उसकी याद नहीं आती, जिसका दिया भोजन करते हैं उसे भूल जाते हैं। जिसने हमें आमदनी का जरिया दिया है उसे हम कैसे भूल जाते हैं? इससे ईश्वर को कोई फर्क नहीं पड़ता। वे तो सर्वशक्तिमान हैं, सर्वग्य हैं सर्वग्याता हैं। उन्हें किस चीज की जरूरत है? ईश्वर को याद न करने से हमारा काम बिगड़ता है। हम कूप मंडूक बने रहते हैं। अपनी ही दुनिया में गाफिल। और एक दिन अचानक इस दुनिया से हमारे जाने का समय आ जाता है। हमारा मन तो संसार में ही रमा रहता है। नतीजा यह है कि फिर हमें लौट कर किसी के घर जन्म लेना पड़ता है और फिर संसार की चक्की में पिसने का दौर शुरू हो जाता है। इससे छुटकारा पाने के लिए भगवान कृष्ण ने कहा है-
सर्व धर्मान परित्यज्ये, मा मेकम शरणम व्रज।।
यानी मेरी शरण में आओ। सब ठीक हो जाएगा। भगवान ने उपाय बता दिया। फिर भी अगर हम न करें तो भगवान क्या कर सकते हैं?

Friday, May 7, 2010

आत्मा अचिंत्य है

विनय बिहारी सिंह

गीता के दूसरे अध्याय में भगवान कृष्ण ने कहा है कि यह आत्मा न किसी शस्त्र से काटी जा सकती है, न आग से जलाई जा सकती है, न जल से भिंगोई जा सकती है और हवा से सुखाई जा सकती है। यह अचिंत्य है। यानी आत्मा मन और बुद्धि के परे है। भगवान ने अर्जुन से कहा है- अगर तुम विपक्ष में खड़े लोगों के शरीरों के नाश की बात सोच कर दुखी हो रहे हो तो जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को त्याग कर नए कपड़े पहनता है, ठीक उसी तरह आत्मा भी शरीर के पुराने होने पर नए शरीर को धारण करती है। इसलिए तुम युद्ध करो। अर्जुन कहता है कि इन लोगों को मारने से तो अच्छा है मैं भीख मांग कर जीवन यापन कर लूं। वह भगवान से गिड़गिड़ाता हुआ कहता है- मैं तो यह भी नहीं जानता कि वे जीतेंगे या हम जीतेंगे। फिर युद्ध करने का अर्थ क्या है। हे भगवान कृष्ण मैं आपका शिष्य हूं और आपकी शरण में हूं। कृपया मुझे रास्ता दिखाइए। अर्जुन खुद को भगवान का प्रपन्न शिष्य कहता है। तब भगवान आत्मा और शरीर की व्याख्या करते हैं जिसकी चर्चा ऊपर की गई है। भगवान कहते हैं- आत्मा अचिंत्य है। यानी आपका दिमाग आत्मा की सूक्ष्मता को पकड़ नहीं सकता। आत्मा, ईश्वर का प्रतिरूप है। गीता उच्च कोटि की पुस्तक है। महर्षि वेद व्यास ने इसे लोगों के हित के लिए लिखा। महर्षि रमण कहते थे- गीता का नियमित पाठ करना चाहिए। गीता को उपनिषद कहा जाता है। इसके पाठ से मनुष्य के भीतर का अंधेरा छंट जाता है। इस दुनिया को देखने का नजरिया बदल जाता है। कैसा भोजन करना चाहिए। कैसा व्यवहार करना चाहिए। कैसा चिंतन होना चाहिए- यह समूची जानकारी हमें गीता से मिलती है। आत्मा को कोई हानि नहीं पहुंचा सकता। फिर हम क्यों डरें? सिर्फ और सिर्फ भगवान की शरण में रहते हुए हमें भय और तनाव क्यों होना चाहिए? महात्माओं ने कहा है- भय, चिंता, तनाव, आलस्य, अति भोजन करना, अनियमित जीवन और ईश्वर से विमुख रहना- ये सब विनाश के लक्षण हैं। इनसे बच कर रहना चाहिए। जब आप ईश्वर की शरण में चले गए और अर्जुन की तरह शरणापन्न हो कर ईश्वर की तरफ मदद के लिए देख रहे हैं। तो वे इसका उत्तर अवश्य देंगे। इसमें संदेह नहीं। हां, अगर आपकी दृढ़ निष्टा ईश्वर में नहीं है तो फिर आपकी प्रार्थना या पूजा पाठ का कोई अर्थ नहीं है।

Thursday, May 6, 2010

अर्जुन का विषाद

विनय बिहारी सिंह

गीता का पहला अध्याय पढ़ते हुए आज एक बार फिर बहुत अच्छा लगा। अर्जुन भगवान कृष्ण से अपना रथ दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करने के लिए कहते हैं। भगवान रथ को वहां ले जाते हैं। अर्जुन कहता है- मैं युद्ध नहीं करूंगा। अगर मुझे तीनों लोकों का साम्राज्य भी मिल जाए तो मैं यह युद्ध नहीं करूंगा। पृथ्वी पर राज्य करने की तो बात ही छोड़ दीजिए। मैं अपने ही लोगों को कैसे मारूं? और फिर २८ वें श्लोक से लेकर ४६ वें श्लोक तक अर्जुन भगवान के सामने तर्क पर तर्क देता जाता है। भगवान चुप हैं। वे सिर्फ अर्जुन को सुन रहे हैं। चाहते तो बीच में बोल सकते थे। लेकिन नहीं वे अर्जुन को सुन रहे हैं औऱ अर्जुन कह रहा है कि उसका मुंह सूख रहा है, त्वचा में जलन हो रही है, हाथ कांप रहे हैं। वह युद्ध करने की मनःस्थिति में नहीं है। अंतिम श्लोक में संजय, धृतराष्ट्र को बताते हैं कि अर्जुन अपना धनुष रख कर रथ के पीछ बैठ गया। अब दूसरे अध्याय में भगवान कृष्ण, अर्जुन से कहते हैं- तुम्हें असमय में यह कायरता क्यों आ गई अर्जुन? तुम बुद्धिमानों जैसे वचन भी बोलते हो और युद्ध भी नहीं करना चाहते। पहला अध्याय पढ़ते हुए मुझे अठारहवें अध्याय की याद आई। इसमें अर्जुन से भगवान पूछते हैं- तुमने मेरी बातें सुनीं। क्या तुम्हारा संशय मिटा? तो अर्जुन कहते हैं- हां, भगवान मेरा मोह नष्ट हो गया। मुझे स्मृति आ गई यानी मुझे अपने अमरत्व की बात याद आ गई। लेकिन इसके लिए भगवान को अपना विश्वरूप दर्शन कराना पड़ा। कर्मयोग, ग्यानयोग और भक्तियोग के अलावा विभूतियोग और अन्य कई योगों की व्याख्या करनी पड़ी। तब अर्जुन कहते हैं- मेरा मोह नष्ट हो गया भगवन। और जब भगवान अपना दुर्लभ दर्शन कराते हैं तो अर्जुन वहां भी डर जाते हैं। वे कहते हैं- आपको देख कर अन्य लोग तो भयभीत हो ही रहे हैं, मैं भी भयभीत हूं। आप अपना वही रूप दिखाइए- सिर पर मुकुट, अपने चारो हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल का फूल। मैं आपका वही मोहिनी रूप देखना चाहता हूं। और भगवान अर्जुन के मनचाहे रूप में प्रकट होते हैं। यही उनका स्वाभाविक रूप है। भगवान कहते हैं- मेरा जो रूप तुमने देखा, वह अन्य लोगों के लिए दुर्लभ है। लेकिन यह दुर्लभ रूप मेरे भक्तों के लिए उपलब्ध है। यानी भगवान कहते हैं कि उनके भक्तों के लिए उनका कोई भी रूप दुर्लभ नहीं है। भक्त सबसे उच्च स्तर पर हैं। भगवान ने गीता में जगह जगह कहा है- मैं अपने भक्तों का योग, क्षेम खुद वहन करता हूं। उनकी रक्षा खुद करता हूं। उन्हें चिंता नहीं करनी चाहिए।

Wednesday, May 5, 2010

आनंद ही ब्रह्म है

विनय बिहारी सिंह

एक बार एक ऋषि ने अपने पुत्र को यह बताने को कहा कि ईश्वर क्या हैं? तुम्हारी समझ क्या है? तुम ईश्वर को किस रूप में व्याख्यायित करोगे? पुत्र की शिक्षा पूर्ण हो चुकी थी। वह इसका उत्तर देने के लिए हिमालय में चला गया और वहां एक गुफा में बैठ कर ध्यान करने लगा। एक वर्ष बाद वह अपने पिता के पास लौटा और बोला- अन्न ही ब्रह्म है। क्योंकि अन्न ही हमारे शरीर को पुष्ट करता है। पिता इस उत्तर से दुखी हुए और कहा कि वापस जाओ। तुम्हारा उत्तर शरीर तक ही सीमित है। तुम शरीर हो? या यह शरीर तुम्हारा है? जाओ वापस जाओ। पुत्र फिर गुफा में लौटा और तपस्या करने लगा। एक साल बाद जब वह लौटा तो उसने पिता से कहा- पिता जी, सांस ही ब्रह्म है। बिना श्वांस के हम जीवित नहीं रह सकते। पिता फिर बहुत दुखी हुए। वे बोले- पुत्र, तुम देह या मन या बुद्धि नहीं हो। देह, मन या बुद्धि तुम्हारी हो सकती है। लेकिन यह तुम नहीं हो सकते। यह घर तुम्हारा हो सकता है। लेकिन तुम घर नहीं हो सकते। जाओ, वापस जाओ। शोध करो। पुत्र फिर वापस गुफा में लौट गया। गहन तपस्या की। फिर पिता के पास लौटा और बोला- पिता जी, आनंद ही ब्रह्म है। पिता बहुत खुश हुए। उन्होंने कहा- हां बेटा। अब तुमने ठीक समझा। सच्चिदानंद ही ब्रह्म हैं। सत, चित्त, आनंद। हृदय व मन निर्मल हो तो ईश्वर की कृपा बरसती है। तब आनंद का साम्राज्य स्थापित होता है। क्योंकि जहां ईश्वर हैं, वहां आनंद होगा ही। सांसारिक आनंद तो मिथ्या है।

Tuesday, May 4, 2010

पंचाग्नि क्रिया और शुद्धिकरण

विनय बिहारी सिंह

मेरे एक साथी ने हरिद्वार के एक साधु का फोटो भेजा है। इसमें साधु कड़ी धूप में पंचाग्नि के बीच बैठा है। पंचाग्नि क्या है? साधु के चारो ओर पांच अलावों जैसे पांच अलग- अलग उपले के ढेर जल रहे थे। बीच में साधु बैठ कर जाप कर रहे थे। कड़कड़ाती धूप का उनके ऊपर असर नहीं हो रहा था। हमारे साथ गए साथी ने उनसे बात करनी चाही लेकिन उन्होंने बात करने से मना कर दिया। साधु ने कहा- अपनी साधना के बारे में मैं कोई बात नहीं करना चाहता। वैष्णव संप्रदाय के अनेक लोग पंचाग्नि तपस्या करते हैं। एक जानकार साधु ने बताया- यह बाहर और भीतर की मैल को जला कर राख कर देने की क्रिया है। इससे चित्त शुद्ध होता है। लेकिन यह गुरु के निर्देश में की जाने वाली क्रिया है। उनसे पूछा गया- क्या साधु को कड़कड़ाती धूप और अपनी चारो तरफ जल रही आग से कष्ट नहीं होता? इससे साधक विचलित नहीं होता? तो जानकार साधु ने जवाब दिया- इसके लिए पहले से ही अपने शरीर को अभ्यस्त करना पड़ता है। जब शरीर सर्दी या गर्मी का अभ्यस्त हो जाए तो फिर कड़ी धूप में अभ्यास करना पड़ता है। जब यह अभ्यास सिद्ध हो जाए तब पंचाग्नि क्रिया की जाती है। अन्यथा कोई व्यक्ति शरीर के दाह से एक मिनट में ही साधना छोड़ कर भाग जाएगा। साधु ने बताया- साधारण मनुष्य अपनी इंद्रियों का गुलाम बना रहता है। करेंट चला गया तो गर्मी का रोना लेकर आदमी हाय- हाय करने लगता है। कड़कड़ाती सर्दी पड़ने लगी तो लोगों में कंपकंपी शुरू हो जाती है। बारिश में भींग गए तो छींक आएगी और नाक बहने लगेगी। यानी हमारा शरीर इतना कमजोर है कि हमेशा सुरक्षा चाहता है। इसके ठीक विपरीत साधक धीरे- धीरे अपने शरीर को साधता है। वह जानता है कि इस शरीर को जितना आराम दिया जाएगा, वह इसका आदी होता जाएगा। इसे जितना अनुशासित किया जाएगा, यह वैसा ही बन जाएगा। इसलिए साधक ज्यादा झमेले नहीं पालते। वे इंद्रियों के गुलाम नहीं बनते। नाश्ता आने में देर होते ही कई लोग चिल्लाने लगते हैं। कुछ भोजन में विलंब बर्दाश्त नहीं करते। यह भी एक तरह से शरीर के प्रति हमारी गुलामी ही है। मित्र का कहना है कि साधु से बातें करना बहुत रोचक अनुभव रहा। वे बोले- हम चाहे पारिवारिक व्यक्ति हों या साधु, हमें अपने शरीर को हमेशा साधे रखना चाहिए। अपनी जीभ को नियंत्रित रखना चाहिए। अन्यथा हमेशा कुछ न कुछ खाने की ही इच्छा होती रहेगी और हमारा सारा ध्यान खाने पर ही केंद्रित रहेगा। शरीर को साध लिया तो बहुत आराम है। आपको एक वक्त खाना नहीं भी मिले तो कोई बात नहीं। आप आराम से रह सकते हैं। लेकिन यह धीरे धीरे करना होगा। एकदम से अचानक करने से आप बीमार पड़ सकते हैं। शरीर को साधना है तो धीरे- धीरे इसे अभ्यस्त बनाइए। अगर आप रोज चार रोटी खाते हैं और दो रोटी कम करना चाहते हैं तो यह आसान है। अचानक एक दिन आप एक रोटी कम खाने लगते हैं और धीरे धीरे इसके आदी भी हो जाते हैं। फिर कुछ दिनों बाद आप फिर एक रोटी छोड़ते हैं और अब आप रात को सिर्फ दो ही रोटी खाने लगते हैं। इस तरह धीरे धीरे आपका आत्मविश्वास या विल पावर भी बढ़ता है और आपका शरीर अभ्यस्त भी होता जाता है। साधु की ये बातें अच्छी लगीं। सचमुच हम इंद्रियों के गुलाम क्यों रहें। इंद्रियां हमारी गुलाम क्यों न रहें?

Monday, May 3, 2010

एक दादी मां की कथा

विनय बिहारी सिंह


शाम का वक्त था। एक दादी मां कोई कपड़े को सुई से सिल रही थीं। अचानक उनकी सुई हाथ से छूटी और कहीं खो गई। उन्होंने बहुत खोजा लेकिन सुई मिली ही नहीं। तभी उनके कमरे में एक व्यक्ति आया और पूछा कि वे क्या खोज रही हैं। दादी मां ने कहा- सुई। तो उस व्यक्ति ने कहा- अंधेरे में सुई कैसे मिलेगी? प्रकाश में खोजिए। दादी मां बाहर सड़क पर गईं। वहां लैंप पोस्ट का प्रकाश था। वे सुई वहीं खोजने लगीं। थोड़ी देर बात एक और आदमी आया और उसने पूछा- दादी मां क्या खोज रही हैं? दादी मां ने कहा- सुई। उस आदमी ने पूछा- सुई कहां खो गई? दादी मां ने कहा- मेरे कमरे में। तो उस आदमी ने हंस कर कहा- दादी मां, सुई तो कमरे में खोई है। आप लैंप पोस्ट के नीचे क्यों खोज रही हैं। कमरे में जाइए, वहां प्रकाश कीजिए और तब सुई ढूंढिए। एक सन्यासी ने यह कथा सुनाते हुए कहा- ठीक दादी मां की तरह हमारा भी हाल है। हम ईश्वर को बाहर बाहर ही खोज रहे हैं। जबकि वह है हमारे अंदर। अंदर खोजने से ही वह मिलेगा क्योंकि वह वहीं है। अंदर कैसे जाएंगे? ध्यान के माध्यम से।
जो ध्यान बाहर की दुनिया में लगा रहता है, उसे मोड़ कर भीतर ले जाना है। आंखें बंद कीजिए और महसूस कीजिए कि बंद आंखों का अंधेरा ईश्वरीय प्रकाश का साम्राज्य है औऱ आप उसमें प्रवेश कर रहे हैं। इसी अमुभव का आनंद लीजिए। जब भीतर ईश्वर को पुकारेंगे तो वह जरूर आएगा। बस पुकार गहरी और दिल से होनी चाहिए। वह तो हमारी पुकार के इंतजार में बैठा है।


प्रकाश की गति से चलने वाले उपग्रह की भविष्यवाणी


स्टीफन हाकिंग ने एक और रहस्य को खोला है। उन्होंने कहा है कि आने वाले दिनों में प्रकाश की गति से चलने वाले उपग्रह को तैयार किया जा सकेगा। आप जानते ही हैं कि प्रकाश की गति ध्वनि की गति से भी तेज होती है। आज तक हम सुपरसोनिक विमान को ही जानते थे। अब प्रकाश की गति से चलने वाला कोई उपग्रह तैयार हो जाएगा तो एकदम नए युग की शुरूआत हो जाएगी। हमने पढ़ा है कि जिस दिन मनुष्य प्रकाश की गति से चलने लगेगा, वह विग्यान के पहले शिखर को छू लेगा। कहा जा रहा है कि स्टीफन हाकिंग अभी थ्यौरी बना रहे हैं। लेकिन हाकिंग का कहना है कि जैसे उन्होंने कहा था कि इस पृथ्वी के अलावा अन्य ग्रहों पर भी जीव रहते हैं। इन जीवों को एलियंस कहते हैं और इनसे मनुष्य अगर संपर्क न रखे तो ही अच्छा है और इस बात पर बहुत तरह के विचार आए। ठीक उसी तरह उनके इस नए वक्तव्य पर भी तरह तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। सबसे तीखी प्रतिक्रिया तो यह है कि प्रकाश की गति से अगर मनुष्य अंतरिक्ष में जाता है तो उसके पहले उसे जमीन पर अपने शरीर को साध लेना पड़ेगा। क्या इसके लिए अभी कोई प्रयोगशाला बनी है? स्टीफन हाकिंग इस प्रश्न को खारिज कर देते हैं। उनका कहना है कि जब चांद पर जाने के पहले वैग्यानिकों को जमीन के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त रहने की स्थिति में जीने का आदी बनाया जा सकता है तो प्रकाश की गति से चलने के लिए शरीर को उपयुक्त बनाना क्या मुश्किल है? मुझे हाकिंग का तर्क ठीक लगता है। हालांकि एलियंस वाली बात पर अभी कुछ पक्का सबूत सामने नहीं आया है। लेकिन संभव है भविष्य में इससे जुड़ा कोई सबूत आ भी जाए। बहरहाल प्रकाश की गति से चलने वाले वाहन की बात सुन कर मेरी तरह आप भी उत्सुकता से जहां कहीं रपट मिले पढ़ ही रहे होंगे। चूंकि मैं विग्यान का छात्र रहा हूं, इसलिए अंतरिक्ष संबंधी कोई भी शोध गहरी रुचि जगाता है।