Friday, May 7, 2010

आत्मा अचिंत्य है

विनय बिहारी सिंह

गीता के दूसरे अध्याय में भगवान कृष्ण ने कहा है कि यह आत्मा न किसी शस्त्र से काटी जा सकती है, न आग से जलाई जा सकती है, न जल से भिंगोई जा सकती है और हवा से सुखाई जा सकती है। यह अचिंत्य है। यानी आत्मा मन और बुद्धि के परे है। भगवान ने अर्जुन से कहा है- अगर तुम विपक्ष में खड़े लोगों के शरीरों के नाश की बात सोच कर दुखी हो रहे हो तो जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को त्याग कर नए कपड़े पहनता है, ठीक उसी तरह आत्मा भी शरीर के पुराने होने पर नए शरीर को धारण करती है। इसलिए तुम युद्ध करो। अर्जुन कहता है कि इन लोगों को मारने से तो अच्छा है मैं भीख मांग कर जीवन यापन कर लूं। वह भगवान से गिड़गिड़ाता हुआ कहता है- मैं तो यह भी नहीं जानता कि वे जीतेंगे या हम जीतेंगे। फिर युद्ध करने का अर्थ क्या है। हे भगवान कृष्ण मैं आपका शिष्य हूं और आपकी शरण में हूं। कृपया मुझे रास्ता दिखाइए। अर्जुन खुद को भगवान का प्रपन्न शिष्य कहता है। तब भगवान आत्मा और शरीर की व्याख्या करते हैं जिसकी चर्चा ऊपर की गई है। भगवान कहते हैं- आत्मा अचिंत्य है। यानी आपका दिमाग आत्मा की सूक्ष्मता को पकड़ नहीं सकता। आत्मा, ईश्वर का प्रतिरूप है। गीता उच्च कोटि की पुस्तक है। महर्षि वेद व्यास ने इसे लोगों के हित के लिए लिखा। महर्षि रमण कहते थे- गीता का नियमित पाठ करना चाहिए। गीता को उपनिषद कहा जाता है। इसके पाठ से मनुष्य के भीतर का अंधेरा छंट जाता है। इस दुनिया को देखने का नजरिया बदल जाता है। कैसा भोजन करना चाहिए। कैसा व्यवहार करना चाहिए। कैसा चिंतन होना चाहिए- यह समूची जानकारी हमें गीता से मिलती है। आत्मा को कोई हानि नहीं पहुंचा सकता। फिर हम क्यों डरें? सिर्फ और सिर्फ भगवान की शरण में रहते हुए हमें भय और तनाव क्यों होना चाहिए? महात्माओं ने कहा है- भय, चिंता, तनाव, आलस्य, अति भोजन करना, अनियमित जीवन और ईश्वर से विमुख रहना- ये सब विनाश के लक्षण हैं। इनसे बच कर रहना चाहिए। जब आप ईश्वर की शरण में चले गए और अर्जुन की तरह शरणापन्न हो कर ईश्वर की तरफ मदद के लिए देख रहे हैं। तो वे इसका उत्तर अवश्य देंगे। इसमें संदेह नहीं। हां, अगर आपकी दृढ़ निष्टा ईश्वर में नहीं है तो फिर आपकी प्रार्थना या पूजा पाठ का कोई अर्थ नहीं है।