Tuesday, May 4, 2010

पंचाग्नि क्रिया और शुद्धिकरण

विनय बिहारी सिंह

मेरे एक साथी ने हरिद्वार के एक साधु का फोटो भेजा है। इसमें साधु कड़ी धूप में पंचाग्नि के बीच बैठा है। पंचाग्नि क्या है? साधु के चारो ओर पांच अलावों जैसे पांच अलग- अलग उपले के ढेर जल रहे थे। बीच में साधु बैठ कर जाप कर रहे थे। कड़कड़ाती धूप का उनके ऊपर असर नहीं हो रहा था। हमारे साथ गए साथी ने उनसे बात करनी चाही लेकिन उन्होंने बात करने से मना कर दिया। साधु ने कहा- अपनी साधना के बारे में मैं कोई बात नहीं करना चाहता। वैष्णव संप्रदाय के अनेक लोग पंचाग्नि तपस्या करते हैं। एक जानकार साधु ने बताया- यह बाहर और भीतर की मैल को जला कर राख कर देने की क्रिया है। इससे चित्त शुद्ध होता है। लेकिन यह गुरु के निर्देश में की जाने वाली क्रिया है। उनसे पूछा गया- क्या साधु को कड़कड़ाती धूप और अपनी चारो तरफ जल रही आग से कष्ट नहीं होता? इससे साधक विचलित नहीं होता? तो जानकार साधु ने जवाब दिया- इसके लिए पहले से ही अपने शरीर को अभ्यस्त करना पड़ता है। जब शरीर सर्दी या गर्मी का अभ्यस्त हो जाए तो फिर कड़ी धूप में अभ्यास करना पड़ता है। जब यह अभ्यास सिद्ध हो जाए तब पंचाग्नि क्रिया की जाती है। अन्यथा कोई व्यक्ति शरीर के दाह से एक मिनट में ही साधना छोड़ कर भाग जाएगा। साधु ने बताया- साधारण मनुष्य अपनी इंद्रियों का गुलाम बना रहता है। करेंट चला गया तो गर्मी का रोना लेकर आदमी हाय- हाय करने लगता है। कड़कड़ाती सर्दी पड़ने लगी तो लोगों में कंपकंपी शुरू हो जाती है। बारिश में भींग गए तो छींक आएगी और नाक बहने लगेगी। यानी हमारा शरीर इतना कमजोर है कि हमेशा सुरक्षा चाहता है। इसके ठीक विपरीत साधक धीरे- धीरे अपने शरीर को साधता है। वह जानता है कि इस शरीर को जितना आराम दिया जाएगा, वह इसका आदी होता जाएगा। इसे जितना अनुशासित किया जाएगा, यह वैसा ही बन जाएगा। इसलिए साधक ज्यादा झमेले नहीं पालते। वे इंद्रियों के गुलाम नहीं बनते। नाश्ता आने में देर होते ही कई लोग चिल्लाने लगते हैं। कुछ भोजन में विलंब बर्दाश्त नहीं करते। यह भी एक तरह से शरीर के प्रति हमारी गुलामी ही है। मित्र का कहना है कि साधु से बातें करना बहुत रोचक अनुभव रहा। वे बोले- हम चाहे पारिवारिक व्यक्ति हों या साधु, हमें अपने शरीर को हमेशा साधे रखना चाहिए। अपनी जीभ को नियंत्रित रखना चाहिए। अन्यथा हमेशा कुछ न कुछ खाने की ही इच्छा होती रहेगी और हमारा सारा ध्यान खाने पर ही केंद्रित रहेगा। शरीर को साध लिया तो बहुत आराम है। आपको एक वक्त खाना नहीं भी मिले तो कोई बात नहीं। आप आराम से रह सकते हैं। लेकिन यह धीरे धीरे करना होगा। एकदम से अचानक करने से आप बीमार पड़ सकते हैं। शरीर को साधना है तो धीरे- धीरे इसे अभ्यस्त बनाइए। अगर आप रोज चार रोटी खाते हैं और दो रोटी कम करना चाहते हैं तो यह आसान है। अचानक एक दिन आप एक रोटी कम खाने लगते हैं और धीरे धीरे इसके आदी भी हो जाते हैं। फिर कुछ दिनों बाद आप फिर एक रोटी छोड़ते हैं और अब आप रात को सिर्फ दो ही रोटी खाने लगते हैं। इस तरह धीरे धीरे आपका आत्मविश्वास या विल पावर भी बढ़ता है और आपका शरीर अभ्यस्त भी होता जाता है। साधु की ये बातें अच्छी लगीं। सचमुच हम इंद्रियों के गुलाम क्यों रहें। इंद्रियां हमारी गुलाम क्यों न रहें?

No comments: