Saturday, May 8, 2010

जन्म से पहले और मृत्यु के बाद

विनय बिहारी सिंह

भगवान कृष्ण ने गीता के दूसरे अध्याय में कहा है कि जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। और जिसकी मृत्यु होती है, उसका जन्म निश्चित है। सिर्फ हम जन्म और मृत्यु के बीच ही शरीर में रहते हैं। जन्म के पहले और मृ्त्यु के बाद अदृश्य रहते हैं। लेकिन हमारा वजूद रहता है। सूक्ष्म शरीर में अपनी प्रवृत्तियों के साथ अपनी प्रबल कामनाओं के साथ। आदि शंकराचार्य ने कहा है- पुनरपि जन्मम, पुनरपि मरणम। जननी जठरे पुनरपि शयनम।। यानी हमारा बार- बार जन्म होता है। हमारी ही प्रवृत्तियों के कारण यह जन्म मरण का क्रम चलता रहता है। न हमारी इच्छाएं मरती हैं और न हम मुक्त हो पाते हैं। इसीलिए ऋषियों ने कहा है कि यह मान कर चलना चाहिए कि सब कुछ ईश्वर का है। हम ईश्वर के सेवक हैं। उनकी जो इच्छा हमारे साथ करें। बस मैं उन्हें प्रेम करता हूं। वे हमारे पिता हैं, माता हैं, भाई और मित्र हैं। वही हमारा जीवन पार लगाएंगे। बस हमें मैं पन से परहेज करना है। हमारे भीतर अहंकार नहीं आना चाहिए। मैंने किया, मैं नहीं होता तो यह काम नहीं होता, मैं इतना बड़ा आदमी हूं.... वगैरह वगैरह। सच्चाई यह है कि करने वाला तो ईश्वर है। लेकिन आप कोई खराब काम करके यह नहीं कह सकते कि करने वाला ईश्वर है। क्योंकि वहां आपने अपने फ्री विल का इस्तेमाल किया है। और उसकी प्रतिक्रिया होगी और आपको इसका फल भी मिलेगा। वह बात अलग है। यहां तो ईश्वर की सृष्टि की बात हो रही है। आप अपने जीवन में बार- बार महसूस करते हैं कि कोई शक्ति है जो हमें चला रही है। हम उस शक्ति के आगे लाचार हैं। कभी- कभी हमारे जीवन में चमत्कार जैसी स्थितियां भी आती हैं। लेकिन हम फिर भूल जाते हैं कि इस ब्रह्मांड के मालिक का ही यह काम है। हम तो अपनी समस्याओं और सीमित दृष्टियों से मिलने वाले इन पुट में ही व्यस्त रहते हैं कि लगता है- यही हमारी दुनिया है। लेकिन अगर हमारे जीवन में सब कुछ है और भगवान की जगह नहीं है तो हमारा जीवन व्यर्थ है। जिसने हमारा जीवन दिया, हमारा पोषण कर रहा है, हम उसी को भूल जाएंगे तो फिर हमारे जैसा कृतघ्न कौन होगा? परमहंस योगानंद ने कहा है- ईश्वर को अपने जीवन का ध्रुवतारा बनाए बिना हम शांति का जीवन नहीं जी सकते। हम अपने चारो तरफ ईश्वर की लीला देख रहे हैं लेकिन उसकी तरफ हमारी निगाह क्यों नहीं जाती? जिसके घर में रहते हैं, उसकी याद नहीं आती, जिसका दिया भोजन करते हैं उसे भूल जाते हैं। जिसने हमें आमदनी का जरिया दिया है उसे हम कैसे भूल जाते हैं? इससे ईश्वर को कोई फर्क नहीं पड़ता। वे तो सर्वशक्तिमान हैं, सर्वग्य हैं सर्वग्याता हैं। उन्हें किस चीज की जरूरत है? ईश्वर को याद न करने से हमारा काम बिगड़ता है। हम कूप मंडूक बने रहते हैं। अपनी ही दुनिया में गाफिल। और एक दिन अचानक इस दुनिया से हमारे जाने का समय आ जाता है। हमारा मन तो संसार में ही रमा रहता है। नतीजा यह है कि फिर हमें लौट कर किसी के घर जन्म लेना पड़ता है और फिर संसार की चक्की में पिसने का दौर शुरू हो जाता है। इससे छुटकारा पाने के लिए भगवान कृष्ण ने कहा है-
सर्व धर्मान परित्यज्ये, मा मेकम शरणम व्रज।।
यानी मेरी शरण में आओ। सब ठीक हो जाएगा। भगवान ने उपाय बता दिया। फिर भी अगर हम न करें तो भगवान क्या कर सकते हैं?

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