Monday, May 24, 2010

ईश्वर से हमारी दूरी

विनय बिहारी सिंह

रमहंस योगानंद जी ने कहा है- ईश्वर हमसे दूर नहीं हैं। उन्होंने तो हमें अपने स्वरूप में बनाया है। लेकिन हम अपनी सोच के कारण उनसे दूर हो गए हैं। ईश्वर से हमारी कोई दूरी है ही नहीं। वे तो हमारे दिल में विराजते हैं। लेकिन फिर भी अगर हम उन्हें महसूस नहीं कर सके तो इसमें हमारा ही दोष है। परमहंस जी ने कहा है- ही इज नियरेस्ट आफ दि नियर एंड डियरेस्ट आफ दि डियर। वे नजदीक से भी नजदीक हैं औऱ प्रियतम से भी प्रिय हैं। क्या अद्भुत बात है। हां, ईश्वर हमारे दिल में हैं। लेकिन हमारा दिमाग तो इतना चंचल है कि ईश्वर को महसूस नहीं कर पाता।
गीता के छठवें अध्याय में अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कहा है- यह मन बड़ा चंचल और मथ देने वाला है। इसे नियंत्रित करना मैं वायु को नियंत्रित करने जैसा दुष्कर मानता हूं। भगवान कृष्ण ने स्वीकार किया है- हां अर्जुन, तुम ठीक कहते हो। यह मन सचमुच चंचल है। लेकिन अभ्यास और वैराग्य से इसको काबू में किया जा सकता है। अभ्यास अत्यंत लाभकारी है। वैराग्य यानी पांचों इंद्रियों को नियंत्रण में लाना। भले ही यह एक दिन में न हो, लेकिन हार नहीं माननी चाहिए। लगे रहना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि लिखना आसान है और करना मुश्किल। लेकिन आप प्रयोग करके देखिए इस नियंत्रण का कितना सुख मिलता है।
मां आनंदमयी ने कहा है- दुनिया यानी दो को लेकर। यानी सुख- दुख, मान- अपमान, सर्दी- गर्मी। लेकिन ईश्वर के राज्य में सब कुछ एक ही है। सुख ही सुख है, वहां दुख नहीं है। बस हमें करना यही है कि जीते जी ही ईश्वर से संबंध जोड़ लेना है। योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के पूज्यवर स्वामी शांतानंद जी कहते हैं- आपके जीवन का आधार ही प्यार होना चाहिए। सिर्फ मनुष्य से ही नहीं, पशु- पक्षी, आकाश, पेड़- पौधे सबसे प्यार कीजिए। सजीव- निर्जीव सबसे। आपको यही प्यार कई गुनी मात्रा में लौट कर मिलेगा। जो देंगे वही आपको मिल जाता है लेकिन उसकी मात्रा बढ जाती है। जो बोते हैं, वही तो काटते हैं।

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