Friday, April 30, 2010

वे सत्तर साल से निराहार हैं

विनय बिहारी सिंह

हम सब अपनी मनपसंद चीजें खाने के प्रति कितने आग्रही होते हैं। हम लोग आज क्या खाना है, इस पर सोच विचार करते हैं और कोई स्वादिष्ट डिश तैयार हो गई तो सब कुछ भूल कर उसका स्वाद लेने लगते हैं। हममें से कई लोग कोई प्रिय चीज देख कर खाने के लिए मचल जाते हैं। कुछ लोग तो खाने के लिए ही जीते हैं। भोजन के प्रति यह आग्रह कोई अपराध नहीं है। यह तो मनुष्य का स्वभाव है। लेकिन किसी का लक्ष्य इंद्रियों पर विजय पाना भी हो सकता है। प्रह्लाद जानी ने साबित कर दिया है कि भोजन और नाश्ता या चाय- काफी और स्वादिष्ट पकवान व्यर्थ हैं। सिर्फ सांस लेकर भी मजे में रह सकते हैं वे

बयासी साल के प्रह्लाद जानी ७० साल से निराहार रह रहे हैं। उन्हें भूख- प्यास नहीं लगती। लेकिन उनका शरीर कमजोर नहीं है। वे आराम से जीवन बिता रहे हैं। रहने वाले वे अहमदाबाद (गुजरात) के हैं। पिछले छह दिनों से रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन के विशेषग्यों की एक टीम उनकी निगरानी में लगी है। डाक्टरों का एक दल भी प्रह्लाद जी के शरीर की जांच पड़ताल में लगा है। रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन यानी डीआरडीओ का दल यह नुस्खा तलाशना चाहता है जिससे भूख- प्यास नहीं लगती। किस अस्पताल में प्रह्लाद जानी भर्ती हैं? स्टर्लिंग अस्पताल में। यही अस्पताल इस अध्ययन का खर्च भी दे रहा है। प्रह्लाद जानी अस्पताल की सातवीं मंजिल पर रखे गए हैं। उन पर शोध करने वाले चाहते हैं कि यह नुस्खा मिल जाए तो इसे प्राकृतिक आपदाओं के समय अपनाया जाए। यह जांच पंद्रह दिनों तक चलेगी। चौबीसो घंटे दो कैमरे प्रह्लाद जानी के कमरे में लगे रहेंगे। एक मोबाइल कैमरा बाहर- भीतर की निगरानी रखेगा। यानी प्रह्लाद जानी की हर गतिविधि पर अस्पताल नजर रखेगा। कमरे में सूरज की रोशनी को भी आने से रोक दिया गया है। कमरे से लगा बाथरूम बंद कर दिया गया है। क्योंकि प्रह्लाद जी कुछ खाते- पीते नहीं हैं तो उन्हें शौच इत्यादि की जरूरत नहीं पड़ती। खुद प्रह्लाद जी ने ही बाथरूम बंद कर देने की अपील की। कहते हैं कि प्रह्लाद जी ने सात साल की उम्र में ही घर छोड़ दिया था। इसके बाद वे माउंट आबू, विभिन्न जंगलों और नर्मदा परिक्रमा करते हुए जहां- तहां रहे। उन्हें न भूख लगती है न प्यास। इसकी वजह वे अपने तालू से निकलने वाले सत को मानते हैं।
इस संदर्भ में परमहंस योगानंद जी की आटोबायोग्राफी आफ अ योगी की याद आ रही है। उसमें एक प्रसंग है गिरिबाला का। गिरिबाला भी वर्षों से खाना- पीना छोड़ चुकी थीं। उन्होंने इसके बावजूद लंबी उम्र पाई। यह आजादी के पहले की बात है। बर्दवान के राजा ने उन्हें महीनों कमरे में बंद कर कड़ी निगरानी रखी। जांच के बाद यह बात सिद्ध हो गई कि गिरिबाला सचमुच न कुछ खाती हैं और न पीती हैं। नतीजा यह था कि उन्हें शौच इत्यादि करने की जरूरत भी महसूस नहीं होती थी। परमहंस योगानंद जी गिरिबाला से मिलने गए और उनसे लंबी बातचीत की। एक खास योग के जरिए कोई साधक अपने खाने- पीने को रोक सकता है। ऐसा तो हम सबने पढ़ा और सुना ही है। प्रह्लाद जानी का जनसत्ता के ३० अप्रैल के अंक में फोटो भी छपा है। ८२ साल के इस वयोवृद्ध की दाढ़ी- मूछें घनी हैं। आखों में चमक है।

Thursday, April 29, 2010

क्षुद्रग्रह पर मिला

पानी और बर्फ

(courtsy- bbc hindi service)

थिमिस पर पानी मिलने से वैज्ञानिक बहुत उत्साहित हैं

वैज्ञानिकों ने एक छोटे से तारे यानी एस्टेरॉइड की सतह पर बर्फ और पानी का पता लगाया है.

24 थिमिस नाम के इस तारे पर पहली बार नज़र रखी गई. यह एक बहुत बड़े पत्थर की तरह है और इसकी कक्षा सूर्य से क़रीब 480 करोड़ किमी की दूर है.

शोधकर्ताओं का कहना है कि इन परिस्थितियों में यह बर्फ स्थायी नहीं है और हो सकता है कि कुछ समय बाद वहाँ ग्रह की ही कुछ और चीज़ें आ जाएँ.

विज्ञान की पत्रिका 'नेचर' को शोधकर्ताओं ने बताया कि इस खोज से इस सिद्धांत को बल मिलता है कि पृथ्वी पर मौजूद अधिकांश पानी अंतरिक्ष से ही आया है.

पृथ्वी पर पानी

अमरीका के फ्लोरिडा के सेंट्रल यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर हम्बर्तो कैंपिंस ने कहा, ''यह बहुत दिलचस्प है कि हमने एक क्षुद्रग्रह पर बर्फ का पता लगाया, क्योंकि कई लोगों का कहना है कि पृथ्वी के शुरुआती दिनों में पानी इन्ही क्षुद्रग्रहों से आया था.''

यह बहुत दिलचस्प है कि हमने एक क्षुद्रग्रह पर बर्फ का पता लगाया, क्योंकि कई लोगों का कहना है कि पृथ्वी के शुरुआती दिनों में पानी इन्ही क्षुद्रग्रहों से आया था

प्रोफ़ेसर हम्बर्तो कैंपिंस, वैज्ञानिक

प्रोफेसर कैंपिंस ने बीबीसी से कहा, ‘''इस क्षुद्रग्रह पर पानी-बर्फ मिलने से इस सिद्धांत को और बल मिलता है.''

24 थिमिस का व्यास क़रीब दो सौ किमी है और यह कुछ बड़े क्षुद्रग्रहों में से एक है. इसकी कक्षा सूर्य और बुध की दूरी से डेढ़ गुनी अधिक है.

इस क्षुद्रग्रह की सतह के बर्फ से ढंकी होने की पुष्टि वैज्ञानिकों के दो स्वतंत्र दलों ने की है. इनमें से एक दल का नेतृत्व प्रोफेसर कैंपिंस ने किया.

इस टीम ने इस क्षुद्रग्रह पर जटिल कार्बनिक या कार्बन की अधिकता वाले पदार्थ का भी पता लगाया.

वैज्ञानिक पहले से ही क्षुद्रग्रहों पर हाइड्रेट यानी कि ऐसे पदार्थ जिनमें पानी के कण पाए जाते हों और खनिजों का पता लगाते रहे हैं लेकिन यह पहली बार हुआ है कि इन पर पानी और बर्फ का पता लगा है.

कई वैज्ञानिकों का मानना है कि बहुत अधिक तापमान और पानी से ही पृथ्वी का निर्माण हुआ है. बाद में यह लोकप्रिय सिद्धांत बन गया कि आज हमें जो पानी दिखता हैं वह पृथ्वी पर कहीं और से आया हो.

इस क्षुद्रग्रह पर बर्फ-पानी की खोज की पुष्टि करने वाली दूसरे स्वतंत्र दल के प्रमुख अमरीका के लॉरेल के जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय के डॉक्टर एंडी रिवकिन थे.

वे कहते हैं, ''धूमकेतुओं में बहुत अधिक पानी होता है और वे उसकी बहुत बड़ी मात्रा छोड़ सकते हैं, लेकिन शायद बहुत अधिक नहीं.''

डॉक्टर रिवकिन कहते हैं, ''थिमिस और उसके ग्रह-परिवार में बर्फ का पता लगने से इस बात की पुष्टि हुई है कि पृथ्वी पर पानी क्षुद्रग्रहों और धूमकेतुओं से ही आया हो.''

Wednesday, April 28, 2010

anandamayi ma ki
jis kitab ka maine jikra kiya hai uska naam hai-

sri sri mata anandamayi vachanamrit.
publisher hain-
sri sri mata anandamayi peeth nyas
18, agra- mumbai marg, indore- 452001
price- Rs. 80/
एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति

विनय बिहारी सिंह

आज आनंदमयी मां की एक किताब पढ़ रहा था। उसमें भक्तों ने उनसे प्रश्न पूछा है और उन्होंने जवाब दिया है। प्रश्नोत्तर शैली में प्रकाशित यह पुस्तक अत्यंत रोचक और गहरी जानकारी देने वाली है। एक व्यक्ति ने मां से प्रश्न किया है- ईश्वर कैसे मिलेंगे? मां कहती हैं- ईश्वर तो मिले हुए हैं, आपको उनका अनुभव इसलिए नहीं है क्योंकि आपकी आंखें माया से ढंकी हुई हैं। परदा हटेगा तो ईश्वर का सच्चिदानंद रूप दिखाई दे जाएगा। भक्त ने पूछा है- यह परदा कैसे हटेगा? मां ने उत्तर दिया है- ईश्वर की शरण में जाने से। अहं का नाश करने से। भक्त ने पूछा है- अहं का नाश कैसे होगा? मां ने उत्तर दिया है- ईश्वर की गहरी भक्ति से। भक्त ने पूछा है- भक्ति कैसे आएगी? मां ने जवाब दिया है- इतना कष्ट पा रहे हो। क्या तब भी समझ में नहीं आ रहा है कि तुम रास्ता भटक गए हो? जो रास्ता माया की तरफ जाता है, भोग की तरफ जाता है उसमें कष्ट ही कष्ट है। विषय वासना यानी विष। स्लो प्वायजन। जिस आनंद को तुम ढूंढ़ रहे हो, वह सिर्फ और सिर्फ भगवान में मिलेगा। मनुष्य सच्चा आनंद चाहता है। लेकिन आनंद की ललक में माया के जाल में फंस जाता है और छटपटाता है। फिर छूटता है और फिर माया के किसी अन्य रूप में फंसता है। फिर छटपटाने लगता है। यह काम बार- बार होता है। मंद बुद्धि व्यक्ति तब भी नहीं समझता। लेकिन चालाक व्यक्ति समझ जाता है कि यह रास्ता गलत है। असली रास्ता वही है जो भगवान की तरफ जाता है। बस वह ईश्वरोन्मुख हो जाता है। दिन रात भगवान, भगवान करता रहता है। अंत में वह मुक्त हो जाता है। एक ही चीज सच्ची है- ईश्वर। कहा भी गया है- एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति। मनुष्य बंधन में है। अपने ही बनाए बंधन में। सिगरेट पीने वालों के बारे में मां ने कहा है- तुम सिगरेट नहीं पी रहे हो। सिगरेट ही तुम्हें पी रही है। तुम अगर सिगरेट पी रहे होते तो जब चाहे तब छोड़ सकते थे। लेकिन तुम छोड़ नहीं पा रहे हो। इसका अर्थ है सिगरेट तुम्हें पी रही है। इसीलिए नहीं छूट रही है। उन्होंने जीवन को संयमित करने की सलाह दी है। कहा है कि रात में जल्दी सोना चाहिए और सुबह ब्रह्म मुहूर्त में जगना चाहिए। इससे शरीर तो स्वस्थ रहता ही है। साधना भी अच्छी होती है। जिसे कोई साधना नहीं मालूम वह राम नाम का ही जाप करे। यह जाप बहुत कारगर है।

Tuesday, April 27, 2010

इसे कहते हैं जुनून


विनय बिहारी सिंह

पिछले दिनों एक लड़की से मुलाकात हुई। बोली- मैं तो ट्रेन में बिना रिजर्वेशन के ही चढ़ गई और हरिद्वार जाकर नहा आई। मैंने पूछा- कहां ठहरी थी? बोली- कहीं नहीं। मैं १३ अप्रैल को हरिद्वार पहुंची। देखा एक पुराना बड़ा सा मकान है। उसके बाहरी बरामदे में स्नान करने आईं अनेक महिलाएं सोई हुई थीं। वहीं एक किनारे मैं भी सो गई। मेरे पास कोई कीमती सामान तो था नहीं, इसलिए चोरी का कोई डर नहीं था। सुबह होते ही एक सार्वजनिक शौचालय में फ्रेश हुई और गंगा में जाकर नहा आई। १४ अप्रैल को स्नान किया और उसी दिन ट्रेन पकड़ ली। स्नान के बाद एक जगह जलपान किया और दिन में भोजन। रात को हल्का भोजन किया और ट्रेन पकड़ ली। मैंने पूछा- तुम्हें तनिक भी संकोच नहीं हुआ कि कहां ठहरोगी, बिना रिजर्वेशन के कैसे जाओगी? वह बोली- ट्रेन में जाकर देखा कि रिजर्वेशन और बिना रिजर्वेशन सब एक हो गया है। रिजर्वेशन कोई नहीं मान रहा था। तब मुझे मालूम हुआ कि मैं अकेली नहीं हूं जिसके पास रिजर्वेशन नहीं है। मैंने पूछा- ट्रेन में पकड़े जाने का कोई डर नहीं था? वह बोली- नहीं। मैंने सोचा, जो होगा देखा जाएगा। लेकिन मैं हरिद्वार कुंभ में जरूर नहाऊंगी। मुझे सिर्फ नहाना ही दिख रहा था। कुंभ नहाने के लिए मैं कष्ट सहने को तैयार थी। एक- दो दिन मैं नहीं सोऊंगी या नहीं खाऊंगी तो क्या हो जाएगा? कम से कम नहा तो लूंगी। यही भाव मेरे मन पर छाया हुआ था। मैं कैसे चली गई और कैसे आनंद से नहा आई, यह मैं खुद नहीं जानती। मुझसे बस यह पुण्य कार्य हो गया। ईश्वर और गुरु की मेरे ऊपर कृपा रही।

Monday, April 26, 2010

दूसरे ग्रहों पर भी रहते हैं प्राणी- हाकिंग

विनय बिहारी सिंह

विख्यात वैग्यानिक स्टीफ हाकिंग ने कहा है कि दूसरे ग्रहों पर प्राणी (एलियंस) रहते हैं। लेकिन हमें उनसे संपर्क करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। अगर हम कोशिश करेंगे तो ये एलियंस हमें नुकसान पहुंचा सकते हैं। वे पृथ्वी पर अपने उपयोग की चीजें खोजने के लिए आते हैं और फिर वापस चले जाते हैं। उन्होंने कहा है कि आकाश में तमाम गैलेक्सीज हैं। इनमें से किसी खास तारामंडल में ये एलियंस रहते हैं। एक खास ध्वनि तरंग की मदद से पृथ्वी पर थोड़ी देर के लिए आए अपने साथियों से बातें करते हैं और संदेश लेते- देते हैं। उनकी अपनी दुनिया है। हाकिंग ने कहा है कि एलियंस कल्पना जगत के प्राणी नहीं हैं बल्कि उनका सचमुच अस्तित्व है। इस पर प्रश्न आया कि अगर ये एलियंस पृथ्वी के प्राणियों से परिचित हैं तो फिर उनसे संपर्क क्यों नहीं करते। हाकिंग का कहना है कि उन्हें इसकी जरूरत ही नहीं है। मनुष्य या पृथ्वी के अन्य प्राणियों की जरूरतें और उनका दिमाग अलग तरह का है। एलियंस की जो जरूरतें हैं उसका मनुष्य या पृथ्वी के किसी प्राणी से कोई लेना देना नहीं है। एलियंस का जीवन ध्वनि तरंगों और प्रकाश पर केंद्रित है। एक तरह से देखा जाए तो वे लोग सूक्ष्म ऊर्जा ग्रहण कर आनंद में रहते हैं। वे नहीं चाहते कि उन्हें किसी अन्य ग्रह का प्राणी डिस्टर्ब करे। अगर मनुष्य उनके जीवन में हस्तक्षेप करेगा तो वे कार्बन का उत्सर्जन कर सकते हैं। हानिकारक ध्वनि तरंगें छोड़ सकते हैं। हाकिंग ने तो साफ मना किया है कि एलियंस को डिस्टर्ब नहीं किया जाना चाहिए।
इस बीच अन्य वैग्यानिकों की प्रतिक्रियाएं भी आई हैं। उन्होंने कहा है कि एलियंस को लेकर पहली बार किसी विख्यात वैग्यानिक ने विस्तार से कुछ कहा है। लेकिन फिर भी जब तक एलियंस का कोई चित्र सामने नहीं आता, कोई फोटो सामने नहीं आता इस खोज पर भरोसा करना मुश्किल है। हाकिंग के समर्थकों का कहना है कि रहस्यमय जीवों की कल्पना तो कहानियों में खूब हुई है। लेकिन हाकिंग ने पहली बार उनके रहने की जगह, उनकी रासायनिक बनावट और उनके रहन- सहन के बारे में कुछ कहा है। यह खोज मील का पत्थर है। लेकिन विरोधी वैग्यानिकों का कहना है कि सबसे पहले इन एलियंस का फोटो खींचा जाए और दुनिया के सामने प्रस्तुत किया जाए। हाकिंग के समर्थकों का कहना है कि यथासमय फोटो भी उपलब्ध कराया जाएगा।

Saturday, April 24, 2010

भीषण गर्मी में लहलहाते फूल

विनय बिहारी सिंह

कल अपने दफ्तर से लौटते हुए एक पेड़ पर नजर पड़ी। हमारा दफ्तर कोलकाता के राजभवन के बिल्कुल करीब है। राजभवन के सामने यह पेड़ है जो फूलों से लहलहा रहा था। इस समय भीषण गर्मी पड़ रही है। क्या पेड़ गर्मी से अप्रभावित है? कैसे इस गर्मी में उस पर खूबसूरत फूल लदे हुए हैं? फूलों की कुछ अन्य प्रजातियां भी हैं जो गर्मी बढ़ने के साथ- साथ अपनी छटा बिखेरती हैं। हम मनुष्य गर्मी से हाय- हाय करते हैं और यहां पेड़ पर फूल लहलहा रहे हैं। आप कहेंगे कि इस गर्मी में कई पेड़ सूखे हुए भी हैं। तो इसका जवाब यह हो सकता है कि सूखे हुए पेड़ों की तरफ कोई नहीं देखता। लहलहाए पेड़ों की तरफ ही सभी देखते हैं। फूलों से लदा पेड़ हमें यह बताता है कि विपरीत परिस्थितयों में भी हमें धैर्य रखना चाहिए और खिलने के मौकों को ढूंढ़ना चाहिए। जीवन है तो दिक्कतें रहेंगी ही। सुख- दुख आएंगे ही। यही तो जीवन की रीति है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि ईश्वर ने हमें यहां क्यों भेजा है। सब कुछ चलता रहे लेकिन लक्ष्य याद रहे। हम इसलिए यहां आए हैं कि मनुष्य देह में रहते हुए ईश्वर को महसूस कर सकें। ईश्वर को पाने की कोशिश कर सकें। उससे गहन से गहनतम रिश्ता बना सकें। फूलों से लदा पेड़ सदा गर्मी, सर्दी और बरसात झेलता रहता है। एक जगह दृढ़ रहते हुए। फिर भी उस पर फूल खिलते हैं। सुगंध बिखेरते हैं। लेकिन अगर आप फूल तोड़ लेंगे तो भी पेड़ कुछ नहीं बोलेगा। आप फूल तोड़ कर ले जाइए। उससे पूजा कीजिए। उसकी महक का आनंद लीजिए। कहा भी गया है-
वृक्ष कबहुं न फल भखै। नदी न संचै नीर। परमारथ के कारने। साधुन धरा शरीर। यानी वृक्ष कभी अपना फल नहीं खाता। नदी कभी अपना जल नहीं पीती। ठीक उसी तरह साधु का शरीर परमार्थ के लिए है। दूसरों के लिए है। पर पेड़ बहुत अच्छा संदेश दे रहा है। वह इस तड़पाने वाली गर्मी में खिल कर सुगंध दे रहा है। कह रहा है- आइए, हम सब तनिक हंसे, मुस्कराएं, प्यार बाटें और खुश हों। जिंदगी के झमेंले तो चलते रहेंगे। उससे हम क्यों प्रभावित हों।

Friday, April 23, 2010

दुख में भी आनंद


विनय बिहारी सिंह


घटना चार साल पहले की है। एक दुर्घटना में मेरे बेटे की उंगली की हड्डी में दरार आ गई थी। उसे लेकर मैं एक हड्डी के डाक्टर (आर्थोपैडिक) के पास गया। वहीं एक दस साल की बच्ची आई हुई थी। उसका हाथ टूटा हुआ था और उस पर प्लास्टर चढ़ाया हुआ था ....पहले उस बच्ची को देखा जाना था। बच्ची ने डाक्टर के सामने हाथ फैलाया। मैंने देखा उसने प्लास्टर पर बहुत सुंदर से चित्र बनाए हैं। एक चित्र मिकी माउस का था। दूसरा एक पक्षी का। मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने उस बच्ची का नाम पूछा। मुझे हंसते देख वह सकुचाई। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि उसके इस चित्र पर हंसने की कौन सी बात है। मुझे समझ में आ गया कि इस बच्ची के लिए हाथ टूटना गंभीर घटना नहीं है। वह तो अपनी दुनिया में मस्त है और हाथ पर चढ़े प्लास्टर को भी कैनवास समझ कर उस पर चित्र बना रही है। यह भाव हम बड़ों में क्यों नहीं आता? बच्ची से प्यार से काफी बातें करता रहा। उसकी मां हमारी बातचीत के दौरात लगातार हंसती रही। जबकि वह बिल्कुल अपरिचित थी। क्षण भर में हमारे बीच एक सौहार्द्र का रिश्ता बन गया। मेरा बेटा युवा है। वह भी आनंद में था। मैंने डाक्टर से पूछा- हम उम्र में बड़े लोग शारीरिक कष्टों को क्यों नहीं हल्केपन से लेते, ठीक इन बच्चों की तरह? डाक्टर हंसे और कहा- हम सब जितने बड़े होते जाते हैं जीवन की घटनाओं के प्रति उतने ज्यादा संवेदनशील होते जाते हैं। इसके ठीक उल्टा बच्चे हर चीज को हवा में उड़ाते चलते हैं। कोई शारीरिक तकलीफ है तो रहे, वे खेलने निकल जाएंगे। खूब दौड़ेंगे और मस्ती में चिल्लाएंगे। फिर जरा कहीं दर्द हुआ तो रो लेंगे। दर्द ठीक हुआ तो फिर वह भाग- दौड़ और मस्ती। बच्चों से भी बहुत कुछ सीख मिलती है। अगर गौर किया जाए। पहले तो वह बच्ची हमारी हंसी पर चकित थी। थोड़ी देर बाद उसे समझ में आया कि आनंद में बनाए गए ये चित्र हम उम्रदराज लोगों को भी सुख दे रहे हैं। फिर हमारी हंसी में वह भी शामिल हो गई। उसने डाक्टर के कहने पर कागज पर कुछ और चित्र बनाए।
इसीलिए उच्चकोटि के सन्यासियों का एक लक्षण कहा गया है- बालवत। बच्चे की तरह। यानी अभी खिलौना मिला। खेला। खिलौना टूट गया तो उसे भूल गए। किसी चीज से अटैचमेंट नहीं। बस आनंद और आनंद। जो मिला खाया और नींद लगी तो सो गए। एकदम भोले भाले। उच्च कोटि के संतों का एक लक्षण यह भी है। एक दम भोला स्वभाव। मां ने मारा तो रोने लगे। फिर मां ने मना दिया तो खुश। उसी मां की गोद में सुख की नींद सो रहे हैं। क्या हम जगन्माता की गोद में निश्चिंत हो कर सोते हैं। उनका प्यार तो हर वक्त बरस रहा है। लेकिन हमें पता ही नहीं चलता। क्योंकि हमारे दिमाग में तमाम तरह का कूड़ा- करकट है। दिमाग चंचल है। शांत दिमाग हो तो जगन्माता के प्यार की बौछार समझ में आए।

Thursday, April 22, 2010


दो प्रकार की भक्ति

विनय बिहारी सिंह

पिछले दिनों एक सन्यासी ने कहा- भक्ति दो तरह की होती है। एक तो शुरू में नदी की तरह उफनती है। लगता है भगवान के दर्शन किए बिना यह आदमी जी ही नहीं सकता। दिन रात वह भगवान के लिए तड़पता रहता है। लेकिन धीरे- धीरे यह भक्ति कम होने लगती है। अंत में महीने- दो महीने बाद आप देखते हैं कि उस आदमी में भक्ति का कोई चिन्ह ही नहीं है। वह सांसारिक भोग विलास में लिप्त हो गया है। ऐसे ही लोगों के लिए कहा जाता है- भक्ति है भादो नदी..। दूसरा होता है पक्का भक्त। वह एक रस रहता है। न कभी उफनता है और कभी संसार में बुरी तरह फंसता है। उसके मन में दृढ़ विश्वास है कि भगवान को वह पाकर रहेगा। उसके जीवन का केंद्र बिंदु भगवान होते हैं। वह दिन- रात भगवान में ही जीता है। उसका हर काम भगवान के लिए होता है। कई भक्त तो ऐसे होते हैं जो गुप- चुप भगवान से प्रेम करते हैं। उन्हें देख कर आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि यह व्यक्ति भगवान का अनन्य प्रेमी है। बाहर से वह प्रकट नहीं करता कि वह भगवान से प्रेम करता है। वह चुपचाप अपना सांसारिक काम करता है और ज्योंही समय मिलता है, भगवान का स्मरण, जाप या संक्षिप्त ध्यान करता है। लेकिन कुछ लोग चाहते हैं कि उन्हें लोग भगवान के भक्त के रूप में जानें। तो भक्त भी अपने- अपने मिजाज के होते हैं। कुछ भक्त तो ऐसे होते हैं कि बस किसी काम के लिए- चाहे व्यवसाय के लिए या नौकरी के लिए या किसी दूसरे काम के लिए भगवान के चरण पकड़े रहते हैं। मान लीजिए उनका काम नहीं हुआ तो बस भगवान के प्रति खराब टिप्पणिया करने लगते हैं। यह भक्ति, भक्ति नहीं है। अगर आप सचमुच भगवान से प्यार करते हैं तो उनसे लेन- देन वाला संबंध नहीं रखेंगे। आपके मन में बस यही रहेगा- भगवान मैं आपसे प्यार करता हूं। अनकंडीशनल प्यार। इस प्यार में कोई शर्त नहीं है। सिर्फ प्यार है। वे हमारे माता, पिता, भाई, मित्र सबकुछ हैं। वे ही हमारे निर्माता हैं। वे ही हमारे मालिक हैं। वे जैसा चाहें रखें। बस इतनी ही प्रार्थना है कि वे हमें अपने से दूर न रखें। हमेशा हमें उनकी याद आती रहे। हम उनके प्यार में सराबोर रहें। बस यही एक चीज मांगनी चाहिए। उनसे यह कहना चाहिए- हे भगवान। हमें शक्ति दीजिए कि हम आपके प्यार को महसूस कर सकें। हम दिन रात आपके प्यार में डूबे रहें। हमारे भीतर आपके आशीर्वाद को महसूस करने की क्षमता हो। हम आपमें दिन रात समाए रहें। बस यही एक चीज मांगनी चाहिए। वे तो यह सब देने के लिए तैयार बैठे हैं।

Wednesday, April 21, 2010

नगा साधु

विनय बिहारी सिंह


हरिद्वार में १४ अप्रैल को विशेष स्नान की तिथि थी। हम सबने भोर में ही गंगा घाट जा कर तृप्तिदायक स्नान किया। कैंप लौटते हुए नगा साधुओं के जत्थे से भेंट हुई। सबसे आगे एक नगा साधु एक तलवार हाथ में लिए हर- हर महादेव कहते हुए लगभग दौड़ते हुए जा रहे थे। पीछे- पीछे अन्य नगा साधु उस जैकारे को दुहरा रहे थे। सब नंगे और समूचे शरीर में भस्म लगाए हुए। कहते हैं भस्म के कारण उन्हें ठंड नहीं लगती। हमारे दल के एक व्यक्ति ने पूछा- ये नगा साधु स्थायी रूप से रहते कहां हैं? इन्हें किसी बस्ती के आसपास तो देखा नहीं जाता। तभी एक अन्य व्यक्ति ने कहा- ये लोग हिमालय क्षेत्र में गुफाओं में रहते हैं। लेकिन अकेले नहीं, दल के साथ। ये मानते हैं कि शरीर आत्मा का वस्त्र है। अब औऱ क्या वस्त्र पहनना। यानी ये लोग शरीर को ही वस्त्र मानते हैं। इसलिए नंगे रहते हैं। इन्हें इसी तरह रहने का अभ्यास है। किसी भी मौसम में इन्हें वस्त्र पहनने की जरूरत नहीं पड़ती। इन्होंने शरीर को साध लिया है। तभी किसी ने बताया- जाड़े के दिनों में ये लोग धूनी जलाते हैं। यानी आग जला कर उसी पर खाना पकता है और उसी से गुफा गर्म रहती है। तभी देखा एक मामूली सी लंगोट पहने एक साधु बैठे हैं। उनके सामने धूनी जल रही है। पूरा शरीर नंगा है। सिर्फ लंगोट को छोड़ कर। उनके शरीर पर भी भभूत का लेप है। उनके साथ रहने वाले व्यक्ति ने बताया कि ये बाबा शरीर और मन के नियंत्रण के लिए एक खास योग करते हैं। ये बहुत कम खाते हैं। पानी भी बहुत कम पीते हैं। हफ्ते में दो दिन फलाहार पर रहते हैं। रात को सिर्फ दूध पीते हैं। इनके लिए राम ही ओढ़ना हैं राम ही बिछौना हैं और राम ही भोजन हैं। ये साधु बाबा राम को लेकर ही उठते बैठते हैं। उन्हीं से बातचीत करते हैं। आंखें बंद रहती हैं और चेहरे पर मुस्कान। धूनी आहिस्ते आहिस्ते जल रही थी। क्या गजब का दृश्य था। इन साधु का मानना था कि जो मैं राम के साम्राज्य में हूं तो फिर कमी किसी बात की। सब कुछ तो है मेरे पास। जब राम ही मेरे हैं तो राम का सबकुछ मेरा है। वे इसी में मग्न हैं। मुंह से राम, राम, राम निकल रहा था। संसार में इतना संतोष, इतनी तृप्ति कहीं देखी है आपने? सभी तो हाय- हाय करके दौड़ रहे हैं। किसी को कुछ चाहिए तो किसी को कुछ। और एक यह साधु बाबा हैं। एक लंगोटी पहन कर राजा की तरह रह रहे हैं। कहते हैं- जब दिल में हों राम। तो किसी दूसरी चीज का क्या है काम?

Monday, April 19, 2010

हर की पौड़ी

विनय बिहारी सिंह

हर यानी भगवान शिव और पौड़ी माने उनके चरण चिन्ह। सभी जानते हैं कि गंगा भगवान शिव की जटा से होते हुए पृथ्वी पर आई हैं। इसीलिए जहां गंगा हैं वहां भगवान शिव भी हैं। आप देश के किसी कोने में चले जाइए, गंगा के घाटों पर भगवान शिव का मंदिर मिलेगा ही। अब आते हैं हरिद्वार पर। हरिद्वार यानी हरि का द्वार। हरि कौन है? भगवान कृष्ण। यानी यह स्थान भगवान कृष्ण का द्वार है। लेकिन शैव मतावलंबी इसे हरद्वार कहते हैं। यानी भगवान शिव का द्वार। बात एक ही हुई। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कि वेद जिसे सच्चिदानंद ब्रह्मः कहते हैं, पुराण उन्हें ही सच्चिदानंद कृष्णः कहते हैं और तंत्र उन्हें ही सच्चिदानंद शिवः कहते हैं। हैं वे एक ही, अलग अलग नामों से पुकारे जाते हैं। मेरा जन्म चूंकि काशी क्षेत्र के पास पड़ता है और बचपन से ही घर में भगवान शिव की पूजा होती है तो उनमें मन रम जाना स्वाभाविक है। लेकिन बचपन से ही भगवान राम का भी फोटो घर में देखा है, इसलिए भगवान राम या कृष्ण का रूप भी उतना ही परिचित है। मुझे बचपन का एक चित्र कभी भूलता नहीं है। वह चित्र था रामेश्वरम का। भगवान राम लंका पर चढ़ाई के पहले शिवलिंग की स्थापना करते हैं और उनका अभिषेक और पूजा करते हैं। यह चित्र मुझे बचपन से मोहित करता रहा है। भगवान राम पूजा कर रहे हैं भगवान शिव की। उधर भगवान शिव ध्यान लगा रहे हैं भगवान राम की। क्या अद्भुत चित्र था। राम या शिव एक ही हैं। बस रूप अलग- अलग हैं। यही बात मुझसे एक उच्च कोटि के सन्यासी ने कहा था। फिर आनंदमयी मां भी यही कहा करती थीं। एक भक्त ने मां आनंदमयी से पूछा कि शिवरात्रि के दिन मैं लगातार भगवान कृष्ण की पूजा करती रही। वही मेरे अराध्य हैं। इसमें कोई दोष तो नहीं है? मां आनंदमयी ने जवाब दिया था- जो राम हैं, वही कृष्ण हैं और वही शिव और दुर्गा हैं। पूछने वाली स्त्री थी। मां ने कहा था- तुम्हारा पति किसी का पुत्र है और किसी का पिता, किसी का पति है तो किसी का भाई। लेकिन है वह एक व्यक्ति ही। मां आनंदमयी ने कहा- भगवान एक ही हैं। रूप उनके अनेक हैं। इसे लेकर कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। भगवान की चाहे दुर्गा रूप में पूजा कीजिए या कृष्ण रूप में वे जानते हैं कि पूजा उन्हीं की हो रही है। संसार चूंकि रूप और आकार को ही पहचानता है, इसलिए वह मनपसंद रूप की पूजा करता है। लेकिन वह पूजा जाती है भगवान के पास ही। वह एक है। तो हर की पौड़ी पर बात हो रही थी। हिंदी में जिसे पौड़ी कहते हैं पंजाबी में उसे ही पैड़ी कहा जाता है। पंजाबी लोग इसे हर की पैड़ी कहते हैं। हिंदी बोलने वाले इसे हर की पौड़ी बोलते हैं। हर की पौड़ी से भगवान शिव की विशाल मूर्ति दिखती है। यह मूर्ति गंगा नदी में ही है। लेकिन है विराट मूर्ति। हर की पौड़ी से इस मोहिनी मूर्ति की पीठ दिखती है। मुझे इस पर एक किस्सा याद आया- दक्षिण भारत में एक मंदिर है जिसमें भगवान कृष्ण की आकर्षक मूर्ति है। एक भक्त थे जिन्हें मंदिर में जाने की मनाही थी। उस जमाने में जाति प्रथा चरम पर थी। इसीलिए वे मंदिर में जा नहीं सकते थे। भगवान कृष्ण की मूर्ति की पीठ की तरफ एक खिड़की थी। भक्त वहीं खड़े हो कर कातर स्वर में भगवान कृष्ण के भजन गाया करते थे। अचानक एक दिन भगवान कृष्ण की मूर्ति पीछे की तरफ अपने आप घूम गई। भगवान तो भक्त के प्रेमी हैं। उनसे अपने भक्त की व्याकुलता बर्दाश्त नहीं हुई और उन्होंने अपना मुंह खिड़की की तरफ कर दिया। हर की पौड़ी पर अगर कोई भगवान शिव का भक्त इसी तरह से प्रार्थना करे तो शायद भगवान शिव भी अपना चेहरा उधर कर दें। गंगा स्नान के बाद केशव आश्रम (स्वामी केशवानंद का आश्रम) में मुझे एक सन्यासी के हाथों तीन मुखी रुद्राक्ष मिला। यह प्रसाद योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के स्वामी कृष्णानंद जी ने दिया। छत से नीचे उतरा आश्रम की ओर से दो- दो मिठाइयां, एक केला और एक संतरा दिया गया। इसे खा कर हम सब तृप्त हुए। आश्रम में बिताए हुए वे तीन दिन आजीवन याद रहेंगे।

Saturday, April 17, 2010

हरिद्वार में कुंभ स्नान का आनंद



विनय बिहारी सिंह


दस अप्रैल की रात को हरिद्वार में योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के कैंप में पहुंच कर बहुत सुख मिला। हमें जो रास्ता बताया गया था उसमें केशव आश्रम का नाम भी दिया गया था। हमें लगा कि यह लैंड मार्क भर है। लेकिन जैसे ही पता चला कि यह आश्रम परम पूज्य योगीराज श्यामा चरण लाहिड़ी के उच्च कोटि के शिष्य स्वामी केशवानंद का है, उस आश्रम के प्रति चुंबकीय आकर्षण बढ़ता गया। उस आश्रम के बारे में ही सोचते हुए रात गुजरी। परमहंस योगानंद जी की विख्यात पुस्तक आटोबायोग्राफी आफ अ योगी में स्वामी केशवानंद जी का श्रद्धा से उल्लेख है। अगले दिन दोपहर को कैंप से वाईएसएस के दो प्रवेशार्थी साधु केशवाश्रम जा रहे थे। अब और प्रतीक्षा असह्य थी। इसलिए मैं उन साधुओं के साथ केशवाश्रम चला गया। वहां पूज्यवर श्यामाचरण लाहिड़ी की भस्म समाधि का दर्शन पाकर मैं खुद को धन्य मान रहा था। वही थोड़ी देर सबने ध्यान किया। उसी आश्रम में जीवन में पहली बार रुद्राक्ष का पेड़ देखा और स्वामी केशवानंद जी की मूर्ति के सामने श्रद्धा से प्रणाम किया। इस आश्रम के किनारे से पवित्र गंगा नदी बहती है। वहीं हम सबने स्नान किया। फिर हर की पौड़ी गए। वहां के जल को माथे पर छिड़का। केशवाश्रम लौट कर आए तो वहां के लोगों ने हम सबके लिए फलाहार रखा था। स्वादिष्ट फल खाया। शाम को फिर हर की पौड़ी गए और गंगा की आरती देखी। साथ गए प्रवेशार्थी साधुओं ने इस आरती की वीडियो फिल्म बनाई। ये साधु पढ़े- लिखे और विद्वान हैं। उनसे पूरे दिन बातचीत चलती रही। यह बातचीत भी यादगार बन कर रह गई। साधुओं ने हमारे साथ भी अपने कैमरे से एक फोटो खिंचवाया। इन साधुओं के साथ स्नान, ध्यान और जलपान करना सुखद अनुभव था। तीन दिन गंगा स्नान हुआ। दो दिन हमारे साथ वरिष्ठ सन्यासी भी घाट तक गए और जब तक हम नहाते रहे वे वहां खड़े रहे। उनका स्नेह हमारे ऊपर लगातार बना रहा। फिर हम गए कनखल। कनखल में मां आनंदमयी की समाधि है। आटोबायोग्राफी आफ अ योगी में परमहंस जी ने मां आनंदमयी के बारे में भी लिखा है। हम सब समाधि पर गए और वहां आरती के समय उपस्थित रहे। आश्रम में जाना अत्यंत सुखद अनुभव रहा। वहां एक यूरोपीय साधु मिल गए जिनकी चर्चा मैं इस ब्लाग पर की थी। लाल लुंगी और कुर्ता पहने हुए। मैंने पूछा- आप तो नाथ संप्रदाय से दीक्षा लेने वाले थे, ले ली। उन्होंने कहा- नहीं, मैंने वेदांत परंपरा में दीक्षा ले ली। अब मुझे किसी दीक्षा की जरूरत नहीं पड़ेगी। मुझे सुन कर बहुत खुशी हुई।

Thursday, April 8, 2010

मां करुणामयी


विनय बिहारी सिंह


कल रामकृष्ण परमहंस पर केंद्रित पुस्तक रामकृष्ण वचनामृत पढ़ रहा था। अद्भुत पुस्तक है यह। मुग्धकारी। इसके लेखक हैं श्री म। इनका पूरा नाम महेंद्रनाथ गुप्त था। लेकिन अपना नाम छुपाने के लिए इन्होंने सिर्फ श्री म लिखा है। लेकिन क्या चमत्कार है- सभी लोग जानते हैं कि श्री म थे कौन। श्री म रामकृष्ण परमहंस के अत्यंत निकट के शिष्यों में से एक थे। ठीक वैसे ही जैसे स्वामी विवेकानंद थे। (यह पुस्तक रामकृष्ण मठ के पुस्तकालयों में मिल जाती है। मठ ने ही इसे प्रकाशित किया है)। श्री म एक दिन मां काली का दर्शन करने गए। तभी उनके मन में आया कि ईश्वर तो निराकार हैं। फिर मैं इस मूर्ति को श्रद्धा से प्रणाम क्यों कर रहा हूं। क्या इसलिए कि रामकृष्ण परमहंस जी साकार रूप को मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं? शायद हां। श्री म लिखते हैं- जब रामकृष्ण परमहंस इस मूर्ति के सामने झुकते हैं और अनन्य भाव से पूजा करते हैं तो मैं किस खेत की मूली हूं। फिर उन्होंने लिखा है- मां काली के बाएं हाथों में खड्ग और नरमुंड है। दाएं हाथ वरदान और अभय मुद्रा में हैं। एक तरफ मां भक्तों के लिए स्नेह, प्रेम और वात्सल्य की सागर हैं तो दूसरी तरफ बुरी शक्तियों के लिए महाकाल हैं। एक ही मूर्ति में ये दोनों रूप क्यों? ईश्वर जानें। फिर वे दूसरे प्रसंग पर आ गए हैं। अनेक लोग जानते हैं कि श्री म को मास्टर महाशय के नाम से भी जाना जाता था। वे अध्यापक थे। वे विलक्षण साधक थे। एक बार ध्यान में बैठते थे तो कब उठेंगे इसकी कोई सीमा नहीं थी। मां काली से उनका संबंध वैसा ही था जैसे अपनी मां से होता है। वे उनसे बातचीत करते थे, उनसे अपना सुख- दुख सुनाते थे। परमहंस योगानंद जी एक बार बचपन में उनसे मिलने गए और यह कह कर कि मुझे जगन्माता के दर्शन करा दीजिए फूट- फूट कर रोने लगे और उनके पैर पकड़ लिया। परमहंस जी ने उनका पैर पकड़ लिया और जिद करने लगे कि आप जगन्माता से कहिए कि वे मुझे दर्शन दें। श्री म पिघल गए और उन्होंने आश्वासन दिया कि वे उनकी बात जगन्माता तक पहुंचाएंगे। परमहंस योगानंद जी ने काफी राहत महसूस की और अपने घऱ लौट आए। फिर अपने छोटे से कमरे में गए औऱ ध्यान में बैठ गए। अचानक रात को एक अत्यंत तेज और विलक्षण प्रकाश हुआ। सामने जगन्माता खड़ी थीं। परमहंस जी ने लिखा है कि वह अद्भुत सुंदर चेहरा था। जगन्माता ने कहा- मैं तो तुम्हें हमेशा से प्यार करती आ रही हूं। हमेशा प्यार करती रहूंगी। फिर वे अदृश्य हो गईं। सुबह जब परमहंस जी श्री म के पास पहुंचे तो उनसे पूछा- जगन्माता ने मेरे लिए क्या कहा? श्री म मुस्कराए- क्या मुझे यह बात दुहरानी पड़ेगी कि जगन्माता पिछली रात को आपको आशीर्वाद देने आई थीं? परमहंस जी जानते ही थे- इस संत से कुछ भी छुपाया नहीं जा सकता। ( मित्रों मैं हरिद्वार कुंभ के लिए रवाना हो रहा हूं। अगली मुलाकात १७ अप्रैल को होगी।)

Wednesday, April 7, 2010

प्रवृत्ति और निवृत्ति



विनय बिहारी सिंह


रामकृष्ण परमहंस कहते थे- प्रवृत्ति अच्छी नहीं है। निवृत्ति ही कल्याणकारी है। यह प्रवृत्ति क्या है? जब हमारी इच्छाएं या कामनाएं हमें नचाती रहती हैं तो वह है प्रवृत्ति। मसलन हम जानते हैं कि अमुक काम बुरा है फिर भी उसे कर डालते हैं। फिर पछताते भी हैं। लेकिन अब तो जो करना था आपने कर दिया। परमहंस योगानंद ने कहा है- प्रवृत्तियां लुभाती हैं। लेकिन उनका शिकार बनना बुरा है। इसलिए निवृत्ति ही ठीक है। निवृत्ति यानी सिर्फ ईश्वर पर भरोसा। तो आप कहेंगे- क्या काम- काज बंद कर दें और ईश्वर के सहारे बैठे रहें? जी नहीं। सारे सार्थक काम, सारे प्रयास करते रहिए। लेकिन यह मान कर मत चलिए कि कुछ भी करने की ताकत आप में है। आप जो कुछ भी कर रहे हैं, वह ईश्वर की ही शक्ति के जरिए कर रहे हैं। वरना आपकी कोई अपनी ताकत नहीं है। भ्रम में रहना ठीक नहीं है। क्या आपके प्राण आपके वश में हैं? क्या आप अपनी मृत्यु रोक सकते हैं? नहीं। तब आपके वश में क्या है? कुछ नहीं। अब आप कहेंगे कि मरते तो साधु संत और ऋषि- मुनि भी हैं। जो जन्म लेगा वह तो मरेगा ही। तो इसका जवाब है- आप पाएंगे कि साधु संत अपने शरीर को छोड़ने की तिथि तय कर देते हैं। वे घोषित कर देते हैं कि अमुक दिन उनका प्राण छूटेगा। वे उस दिन शरीर को छोड़ कर ईश्वर में विलीन हो जाते हैं। लेकिन हम साधारण जीव ऐसे नहीं हैं। हमें तो यह भी नहीं पता कि हमारे प्राण कब छूटेंगे। इसका कारण है कि हम तो संसार में इस कदर लिप्त हैं कि सांसारिक प्रपंच के अलावा हमारी समझ में कुछ आता ही नहीं है। अगर हम कहते हैं कि रामकृष्ण परमहंस ने मां काली के साक्षात दर्शन किए थे। कुछ तपाक से कहते हैं- झूठ, झूठ, झूठ। क्या यह संभव है? हो ही नहीं सकता। अब आप इसका क्या जवाब देंगे। जिस आदमी ने एक अत्यंत खास किस्म का चाकलेट नहीं खाया है उससे कहिए कि ऐसा भी एक चाकलेट होता है जो मुंह में डालते ही क्षण भर में गल जाता है। तो वह विश्वास ही नहीं करेगा। वह कहेगा- धत्, डींगे हांक रहे हैं आप। रामकृष्ण परमहंस ने मां काली के दर्शन किए थे। यह सच है। जो उस स्तर का साधक है वह मां काली का दर्शन पाता है। अब कोई अत्यंत इंद्रियों के स्तर पर जीता है तो उसे हर चीज असंभव ही दिखाई देगी। मन, इंद्रियों और बुद्धि से परे हैं ईश्वर। तो कुछ लोग कहते हैं कि बुद्धि ही नकार देंगे तो समझ में क्या आएगा? इंटेलेक्चुअली आप भगवान को नहीं जान सकते। आप बड़े- बड़े ग्रंथ पढ़ लीजिए। वेद- पुराण पढ़ लीजिए। आप ईश्वर के दर्शन नहीं कर पाएंगे। कबीरदास ने तो कहा भी है- पोथी पढ़ि, पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।। कबीर ने जिस प्रेम की बात कही है वह ईश्वरीय प्रेम है। यानी आप भगवान को प्रेम कीजिए। यानी आप अपने मन और बुद्धि का लय ईश्वर में कर दीजिए। रमण महर्षि कहते थे- ईश्वर में मनोलय हुए बिना भगवान के न दर्शन होंगे न उनकी कृपा बरसेगी।

Tuesday, April 6, 2010

आपके नाम वाले हजारो लोग हैं




विनय बिहारी सिंह




कभी आपने गौर किया है कि आपके नाम के कितने लोग हैं? मैंने गौर किया है। विनय नाम वालों की संख्या हजारों में है। हो सकता है लाखों में हो। मान लीजिए आपका नाम राजीव है। अब आप राजीव नाम सर्च करके देखिए, हजारो लोग मिल जाएंगे। कल्पना कीजिए अपने ही नाम वाले दस लोगों के बीच आप रह रहे हैं। कोई पुकारता है- राजीव। आप सभी दसों लोग उसकी तरफ देखने लगते हैं। यह देख कर वह हंस देता है। आप सब भी हंस देते हैं। यही है हमारी असलियत। हमें संसार से एक नाम मिल गया है। हम उस नाम को लेकर इतने मुग्ध हैं कि उसे दिन रात सुनना और छपे हुए देखना चाहते हैं। चाहते हैं कि उसी की धुन बजती रहे। ठीक इसी तरह एक चेहरा और देह भी हमें मिली है। इस देह और चेहरे को लेकर भी अगर हम काफी मुग्ध हैं तो यह और भी गड़बड़ है। आत्ममुग्धता बहुत ही सीमित करने वाली घटना है। हम घूम- फिर कर अपने ही इर्द- गिर्द सोचते रहते हैं। देह या नाम के इर्द- गिर्द सोचते रहते हैं। या अपने पद और सम्मान के बारे में सोचते रहते हैं। नतीजा यह होता है कि सुबह से शाम हो जाती है। रात हो जाती है और हम खा- पीकर सो जाते हैं। फिर अगले दिन यही क्रम। ईश्वर, जिसने कि यह दुनिया बनाई है, हमें बनाया है, जिन चीजों के प्रति हम आकर्षित होते हैं, उन्हें बनाया है, उसकी तरफ तो ध्यान देते ही नहीं। मालिक वही है। लेकिन उसकी तरफ न देख कर उसकी तारीफ न कर, हम उसकी बनाई वस्तुओं की तारीफ करते हैं और उन्हीं पर मुग्ध होते हैं। उन्हीं पर न्यौछावर होते हैं। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कि हम बागीचे की तो खूब तारीफ करते हैं लेकिन बागीचे के मालिक की याद भी नहीं करते जिसके कारण यह बाग लहलहा रहा होता है। फूलों की खूब तारीफ करते हैं। उन्हीं की माला बनाते हैं लेकिन फूल बनाने वाले की तरफ तनिक भी ध्यान नहीं जाता। हम कई बार अंधे हो जाते हैं। एक सुगंधित हवा का झोंका आया और हम उससे निहाल हो गए लेकिन तब भी भगवान की याद नहीं आई। खूब स्वादिष्ट खाना खाया लेकिन ईश्वर को धन्यवाद देने की याद नहीं आई। किसी अच्छे व्यक्ति से मुलाकात हुई और वह दिन औऱ ज्यादा सार्थक हो गया, लेकिन ईश्वर को भूल गए। यह आम तौर पर होता है। कभी यह नहीं सोचते कि हम हैं कौन? हमारे जैसे हजारों लोग हैं। ठीक हमारे ही नाम वाले लोग पता नहीं कितने हैं। हमारी हैसियत क्या है? एक मिनट बाद हमारे शरीर से प्राण निकल जाए तो हमारी सारी हेकड़ी बंद हो जाएगी। हमारा शरीर रामनाम सत्य है बोलते हुए आग के हवाले कर दिया जाएगा। तब हमारे जलते शरीर से एक ही तरह की गंध आएगी। मांस जलने की गंध। लेकिन हम भूल कर मिथ्या आनंद खोज रहे हैं और भटक- भटक कर थक गए हैं। असली आनंद तो मिला नहीं। वह मिल भी नहीं सकता। बिना ईश्वर के कहीं आनंद है ही नहीं। ईश्वर ही का दूसरा नाम आनंद है। एक बार उनसे प्रार्थना कीजिए। वे दिखा देंगे कि आनंद किसे कहते हैं। आनंद सिर्फ ईश्वर के संपर्क से मिलता है। पिछले रविवार को मैंने योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के ब्रह्मचारी धैर्यानंद को भजन गाते हुए देख कर मुग्ध हो गया। वे हारमोनियम बजाते हुए भजन गा रहे थे- त्वमेव माता च पिता त्वमेव। और धाराधार रो रहे थे। फिर उन्होंने भजन गाया- नारायण, नारायण, श्रीमन नारायण नारायण नारायण।। धाराधार रोते जा रहे थे। गाते जा रहे थे। मैंने उनका पैर छूना चाहा औऱ कहा- आप जैसी ही भक्ति हम भी चाहते हैं। उन्होंने पैर नहीं छूने दिया। बोले- हम सब एक ही पथ के राही हैं। सोच कर देखिए तो लगता है कि यह शरीर तो हमने बनाया नहीं, इसमें प्राण हमने डाला नहीं। तो यह सब किसने किया? जाहिर है- ईश्वर ने। क्या हमें ईश्वर को प्यार नहीं करना चाहिए? उनसे बातें कर मेरा रोम रोम तृप्त हो गया।

Monday, April 5, 2010

युवकों को हो रहा है ब्रेन स्ट्रोक


विनय बिहारी सिंह


आल इंडिया इंस्टीच्यूट आफ मेडिकल साइंसेस (एम्स) के शोधकर्ताओं ने पाया है कि ब्रेन स्ट्रोक के जितने भी मामले वहां आ रहे हैं उसका एक चौथाई हिस्सा युवकों या युवतियों का है। हर महीने वहां ब्रेन स्ट्रोक के २५० से ३०० मामले आते हैं। इनमें ७० से ७५ लोग २८ से ४० साल उम्र के बीच के लोग होते हैं। इसका कारण बताया गया है कि एक तो आजकल युवकों में सिगरेट और शराब पीने की लत बढ़ी है। दूसरे पढ़ाई या नौकरी में जो तनाव सामने आते हैं उसका सलीके से हल न कर पाने से वे तनाव में आ जाते हैं। कुछ अन्य सर्वे समय समय पर होते रहे हैं। उनमें भी इन दिनों कामकाज की जगहों पर तनाव का माहौल पाया गया है। कुछ दफ्तरों का माहौल ऐसा है कि वहां पदोन्नति की होड़ में अजीब तरह की दौड़ सामने आती है। एक- दूसरे की चुगली और ईमानदार लोगों की अनदेखी। काम न करके चापलूसी करने की परंपरा और चापलूसी को ही बढ़ावा। इसमें ईमानदार लोग पिस रहे हैं। कहीं आत्महत्या तो कहीं रोजमर्रा का बढ़ता तनाव। ऊपर से अनियमित खानपान और रहन- सहन। खून की धमनियों की दीवारें धीरे- धीरे मोटी होती जाती हैं। इस तरह खून में आक्सीजन की कमी होती जाती है। जब मस्तिष्क में पर्याप्त मात्रा में खून नहीं पहुंचता तो ब्रेन हेमरेज या स्ट्रोक होता है। इसको स्ट्रोक ही कहा जाता है। लेकिन कई जगह हिंदी में ब्रेन स्ट्रोक भी लिखा जाता है। देर रात सोने और सोने से पहले अत्यधिक शराब पीने और गरिष्ठ भोजन करने और लगातार खानपान में गड़बड़ी से भी स्ट्रोक होता है। लेकिन अब देखा यह जा रहा है कि अत्यधिक तनाव से लोग अनियमित खानपान करते हैं। या उनका दिमाग लगातार तनाव में रहने से उच्च रक्तचाप और सुगर जैसी बीमारियां होती हैं। फिर धीरे- धीरे स्ट्रोक की स्थितियां बनती हैं। आप पूछ सकते हैं कि तनाव से रक्त की धमनियों की दीवारें कैसे मोटी हो सकती हैं? चिकित्सकों ने पाया है कि अत्यधिक तनाव से दिमाग की नसों में खून के थक्के भी जम जाते हैं और स्ट्रोक होता है।
ऐसे में हमें अपने ऋषियों की याद आती है। उन्होंने हमें योग, ध्यान और ईश्वर पर पूर्ण भरोसा करने को कहा है। वे कह गए हैं कि आप तनाव के बदले मन में ईश्वर के प्रति प्रेम का अनुभव करना सीखिए। दिन में कुछ बार अगर आपने ऐसा दो- दो मिनट के लिए भी इस तरह का संक्षिप्त ध्यान करना शुरू कर दिया तो तनाव धीरे- धीरे कम होता जाएगा। यह सच है कि तनाव हर व्यक्ति का पीछा कर रहा है। लेकिन कौन इसे जीत रहा है, यह मानसिक तैयारी पर निर्भर है।


Saturday, April 3, 2010

दर्द की बात करने से भी बढ़ता है दर्द


विनय बिहारी सिंह



जर्मनी में शोध से पता चला है कि अगर आप एक महीने या एक साल पुराने दर्द के बारे में भी बात करते हैं तो आपके दिमाग पर उसका असर पड़ता है और आपके दिमाग में उस दर्द का एक हिस्सा चला जाता है। दर्द की याद ताजा हो जाती है। इसलिए आपने जो दर्द झेला स्वस्थ हो जाने के बाद उसे भुला दीजिए। उस पर फिर चर्चा करने की जरूरत नहीं है। चर्चा ही करनी है तो आप अच्छी चीजों की, सुखद चीजों की चर्चा कीजिए। इससे आपको खुशी मिलेगी। मनोचिकित्सकों ने एक और बात कही है कि अगर आप किसी शारीरिक तकलीफ में हैं तो उस पर ज्यादा बातचीत करने से कोई फायदा नहीं है। हां, तकलीफ पर एकदम चुप्पी भी ठीक नहीं है। आखिर दर्द अपनों में बांटने से वह हल्का होता है। चिकित्सकों का कहना है कि इसकी अति नहीं होनी चाहिए। कई लोग दर्द क्या हुआ सबसे कहते फिरते हैं और बार- बार कहते हैं। इससे वह दर्द बार- बार उपस्थित होता रहता है और लगातार परेशान होते हैं। कहा भी गया है- अति बुरा है। अगर मन खराब है तो आप अपना मनचाहा कोई काम कर सकते हैं। संगीत सुन सकते हैं या चित्रकारी कर सकते हैं। लेकिन जो ईश्वर के भक्त हैं, वे लोग सीधे- सीधे ईश्वर से कहते हैं- प्रभु मेरा मन क्यों खराब है? आप तो मेरे साथ हमेशा रहते हैं। मेरा मन अपना मन बना लीजिए। इसमें शांति और आनंद भर दीजिए। धीरे- धीरे भक्त पाता है कि उसका मन एक बार फिर आनंद से भर गया। बिना वजह आनंद ही तो ईश्वर का आशीर्वाद है। सांसारिक चीज तो हमें आनंद दे ही नहीं सकती। कोई वस्त्र आप खरीदना चाहते हैं। आपने खरीद लिया। आपकी खुशी का ठिकाना नहीं। लेकिन दो दिन बाद आप उस कपड़े से ऊब गए। कोई कार खरीदना चाहते हैं। कार आई। आपने उसका इस्तेमाल किया। छह महीने बाद आपकी उस कार में रुचि कम हो गई। सांसारिक कोई भी वस्तु आपको स्थाई खुशी नहीं दे सकती। स्थाई खुशी तो सिर्फ एक ही चीज से मिल सकती है- ईश्वर से। ईश्वर को कुछ लोग परमपिता कहते हैं तो कुछ लोग मां कहते हैं। और हमारे यहां तो श्लोक भी है- त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविड़ं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव।। यानी आप माता, पिता, सखा, बंधु सब कुछ हैं। सच ही तो है- ईश्वर ही हमारे सब कुछ हैं।

Friday, April 2, 2010


गुड फ्राइडे और ईस्टर


विनय बिहारी सिंह


आज गुड फ्राइडे है। यानी जीसस क्राइस्ट इसी दिन सूली पर चढ़ाए गए थे। उनका अपराध क्या था? उन्होंने कहा था- मैं ईश्वर का पुत्र हूं। उन्होंने सच ही तो कहा था। हम सभी ईश्वर के पुत्र हैं। लेकिन उस समय के पुजारियों के मन में भय समा गया। ये पुजारी तो लोगों के भय और श्रद्धा का लाभ उठा रहे थे। लेकिन जीसस ने लोगों की मुक्ति का द्वार खोल दिया। कहा- हम ईश्वर की संतान हैं। पहले तुम ईश्वर को चाहो, बाकी चीजें अपने आप तुम्हें मिल जाएंगी। उस जमाने के पुजारी डरे। उनका तो धंधा ही नष्ट हो जाएगा। जीसस पर उस जमाने के प्रधान पुजारी ने धर्म विरोधी बयान देने का आरोप लगाया। राजा से उसने कहा- यह आदमी खुद को ईश्वर का पुत्र कहता है। यह अपराध है। इसी आरोप में जीसस जैसे ईश्वरतुल्य व्यक्ति को सूली पर चढ़ा दिया गया। जीसस को धोखा दिया उन्हीं के शिष्य जुडास इस्कैरिअट ने। पुजारियों ने जुडास को घूस दे दिया। उस जमाने में जुडास को घूस के रूप में चांदी के ३० सिक्के मिले थे। जीसस के एक अन्य शिष्य पीटर ने भी तब उन्हें पहचानने से इंकार कर दिया। हालांकि जीसस क्राइस्ट जानते थे कि पीटर गाढ़े समय में उन्हें पहचानने से इंकार कर देगा। उन्होंने पहले ही पीटर से कहा था- पीटर तुम मेरे प्रिय हो। लेकिन एक समय ऐसा आएगा कि तुम मुझे पहचानने से तीन बार इंकार करोगे। पीटर ने कहा- नहीं। यह हो ही नहीं सकता। मैं आपके साथ हूं। लेकिन जब जीसस को सूली पर चढ़ाया जाने वाला था और राजा के प्रतिनिधियों ने पीटर से पूछा- तुम जीसस को जानते हो? पीटर ने कहा नहीं। उसने तीन बार इंकार किया और जीसस की बात सच निकली। जीसस जिस सूली पर चढ़ाए गए उसे वे अपने कंधे पर ले कर गए। सूली पर चढ़ाए जाने के बाद जब उन्होंने अपना देह त्याग दिया तो उनका शिष्य जोसेफ आया और उनके शरीर को लेने का आवेदन किया। उसे जीसस की देह मिल गई। उसने उनकी देह में शरीर सुरक्षित रखने वाले मसालों का लेप किया। फिर उसे चादर से ढक दिया और उन्हें जमीन में समाधि दे दी। समाधि के मुंह पर एक बड़ा सा पत्थर रख दिया और अपने घर आ गया। जिस दिन जीसस को सूली पर चढाया गया वह शुक्रवार का दिन था। उसके एक दिन बाद यानी रविवार को जीसस क्राइस्ट जीवित होकर समाधि से निकल आए। जिस दिन वे समाधि से निकल कर बाहर आए उसे ईस्टर के रूप में मनाया जाता है। यह ईसाई समुदाय के लिए परम पवित्र दिन होता है। जीसस क्राइस्ट जैसे ईश्वरतु्ल्य संत को याद कर मन आनंद से भर जाता है।

Thursday, April 1, 2010

जब तक संदेह रहेगा, ईश्वर से संपर्क नहीं होगा


विनय बिहारी सिंह


मेरे एक परिचित पूजा- पाठ करने वाले व्यक्ति हैं। एक नजर में उन्हें देख कर आप तुरंत कह देंगे कि वे अत्यंत धार्मिक व्यक्ति हैं। लेकिन बीच- बीच में वे प्रश्न करते रहते हैं कि भगवान सामने प्रकट क्यों नहीं होते? एक दिन मैंने पूछा कि क्या आपको संदेह है कि भगवान हैं या नहीं? तो उन्होंने कहा- नहीं, संदेह तो नहीं है। लेकिन अगर भगवान हैं तो मैं इतनी पूजा करता हूं, उन्हें प्रकट होना चाहिए। मैं समझ गया। वे स्वीकार नही करना चाहते कि भगवान के होने पर उन्हें बीच- बीच में संदेह होता रहता है। रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि खांटी किसान फसल खराब होने पर भी किसान ही रहता है। वह फिर खेती करेगा। उसी तरह खांटी भक्त चाहे भगवान के दर्शन हो या नहीं, उन पर अगाध विश्वास करेगा। अपनी आस्था से डिगेगा नहीं। अंत में भगवान उसे ही दर्शन देते हैं। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि वे अपने भक्तों का योग- क्षेम स्वयं वहन करते हैं। वे भक्तों की रक्षा करते हैं। क्या आपके जीवन में ऐसा मौका नहीं आया जब आप संकट में हों और अचानक जैसे कोई शक्ति आपको बचा ले गई हो? क्या यह आश्चर्य वाली बात है? भगवान तो हमारे साथ हर क्षण, हर पल रहते हैं। हमारी एक- एक सांस उन्हीं की कृपा से चल रही है। अब कैसा प्रमाण चाहते हैं आप कि भगवान है। आपके दिल की धड़कन कौन संचालित कर रहा है। आपके शरीर की मशीन कौन चला रहा है? जब मनुष्य के प्राण निकलते हैं तो क्या आप उसे देख पाते हैं? नहीं। क्यों? क्योंकि प्राण अत्यंत सूक्ष्म होता है। उसे देखा नहीं जा सकता। जब प्राण इतना सूक्ष्म है तो भगवान उससे भी सूक्ष्म हैं। आप सहज ही उन्हें कैसे देख सकते हैं। हां, जब भगवान को लगेगा कि आप उनके बिना दिन- रात बेचैन रहते हैं तो वे अवश्य आपके सामने प्रकट होंगे। वे साकार भी हैं और निराकार भी। लेकिन उनके लिए आपके मन में तड़प नहीं है। तो कैसे दर्शन देंगे भगवान? आपका मन न जाने कहां- कहां भागता है। और आप चाहते हैं कि भगवान आपके सामने प्रकट हो कर कहें- लो, यह मैं हूं। तुम्हें दर्शन दे रहा हूं। मांगो क्या चाहते हो। इतना आसान नहीं है भगवान के दर्शन। आप भगवान के अस्तित्व को मानिए या मत मानिए। इससे भगवान को क्या फर्क पड़ता है? वे तो अनंत कोटि ब्रह्मांड के स्वामी हैं। आपके भी स्वामी हैं। वे हैं। वे सदा मौजूद थे, हैं और सदा के लिए रहेंगे। हमारी अल्प बुद्धि उनका आंकलन नहीं कर सकती। उन्हें महसूस करने के लिए, उनके दर्शन करने के लिए कुछ नियम हैं। पद्धतियां हैं। उन पर नहीं चल कर उतावलापन दिखाने से भगवान दर्शन नहीं देते। इतनी बड़ी सृष्टि वे चुपचाप छुप कर चला रहे हैं। आप क्या समझते हैं आपके बिना शांत हुए। बिना अगाध भक्ति के वे आपके सामने आ जाएंगे? पहले आप अनंत समुद्र जितना प्रेम तो अपने भीतर पैदा कीजिए। जब उन्हें लगेगा कि आप उनसे अनंत प्रेम करते हैं। बिना शर्त प्रेम करते हैं। तब वे
आएंगे।