Tuesday, April 27, 2010

इसे कहते हैं जुनून


विनय बिहारी सिंह

पिछले दिनों एक लड़की से मुलाकात हुई। बोली- मैं तो ट्रेन में बिना रिजर्वेशन के ही चढ़ गई और हरिद्वार जाकर नहा आई। मैंने पूछा- कहां ठहरी थी? बोली- कहीं नहीं। मैं १३ अप्रैल को हरिद्वार पहुंची। देखा एक पुराना बड़ा सा मकान है। उसके बाहरी बरामदे में स्नान करने आईं अनेक महिलाएं सोई हुई थीं। वहीं एक किनारे मैं भी सो गई। मेरे पास कोई कीमती सामान तो था नहीं, इसलिए चोरी का कोई डर नहीं था। सुबह होते ही एक सार्वजनिक शौचालय में फ्रेश हुई और गंगा में जाकर नहा आई। १४ अप्रैल को स्नान किया और उसी दिन ट्रेन पकड़ ली। स्नान के बाद एक जगह जलपान किया और दिन में भोजन। रात को हल्का भोजन किया और ट्रेन पकड़ ली। मैंने पूछा- तुम्हें तनिक भी संकोच नहीं हुआ कि कहां ठहरोगी, बिना रिजर्वेशन के कैसे जाओगी? वह बोली- ट्रेन में जाकर देखा कि रिजर्वेशन और बिना रिजर्वेशन सब एक हो गया है। रिजर्वेशन कोई नहीं मान रहा था। तब मुझे मालूम हुआ कि मैं अकेली नहीं हूं जिसके पास रिजर्वेशन नहीं है। मैंने पूछा- ट्रेन में पकड़े जाने का कोई डर नहीं था? वह बोली- नहीं। मैंने सोचा, जो होगा देखा जाएगा। लेकिन मैं हरिद्वार कुंभ में जरूर नहाऊंगी। मुझे सिर्फ नहाना ही दिख रहा था। कुंभ नहाने के लिए मैं कष्ट सहने को तैयार थी। एक- दो दिन मैं नहीं सोऊंगी या नहीं खाऊंगी तो क्या हो जाएगा? कम से कम नहा तो लूंगी। यही भाव मेरे मन पर छाया हुआ था। मैं कैसे चली गई और कैसे आनंद से नहा आई, यह मैं खुद नहीं जानती। मुझसे बस यह पुण्य कार्य हो गया। ईश्वर और गुरु की मेरे ऊपर कृपा रही।

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