Tuesday, April 6, 2010

आपके नाम वाले हजारो लोग हैं




विनय बिहारी सिंह




कभी आपने गौर किया है कि आपके नाम के कितने लोग हैं? मैंने गौर किया है। विनय नाम वालों की संख्या हजारों में है। हो सकता है लाखों में हो। मान लीजिए आपका नाम राजीव है। अब आप राजीव नाम सर्च करके देखिए, हजारो लोग मिल जाएंगे। कल्पना कीजिए अपने ही नाम वाले दस लोगों के बीच आप रह रहे हैं। कोई पुकारता है- राजीव। आप सभी दसों लोग उसकी तरफ देखने लगते हैं। यह देख कर वह हंस देता है। आप सब भी हंस देते हैं। यही है हमारी असलियत। हमें संसार से एक नाम मिल गया है। हम उस नाम को लेकर इतने मुग्ध हैं कि उसे दिन रात सुनना और छपे हुए देखना चाहते हैं। चाहते हैं कि उसी की धुन बजती रहे। ठीक इसी तरह एक चेहरा और देह भी हमें मिली है। इस देह और चेहरे को लेकर भी अगर हम काफी मुग्ध हैं तो यह और भी गड़बड़ है। आत्ममुग्धता बहुत ही सीमित करने वाली घटना है। हम घूम- फिर कर अपने ही इर्द- गिर्द सोचते रहते हैं। देह या नाम के इर्द- गिर्द सोचते रहते हैं। या अपने पद और सम्मान के बारे में सोचते रहते हैं। नतीजा यह होता है कि सुबह से शाम हो जाती है। रात हो जाती है और हम खा- पीकर सो जाते हैं। फिर अगले दिन यही क्रम। ईश्वर, जिसने कि यह दुनिया बनाई है, हमें बनाया है, जिन चीजों के प्रति हम आकर्षित होते हैं, उन्हें बनाया है, उसकी तरफ तो ध्यान देते ही नहीं। मालिक वही है। लेकिन उसकी तरफ न देख कर उसकी तारीफ न कर, हम उसकी बनाई वस्तुओं की तारीफ करते हैं और उन्हीं पर मुग्ध होते हैं। उन्हीं पर न्यौछावर होते हैं। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कि हम बागीचे की तो खूब तारीफ करते हैं लेकिन बागीचे के मालिक की याद भी नहीं करते जिसके कारण यह बाग लहलहा रहा होता है। फूलों की खूब तारीफ करते हैं। उन्हीं की माला बनाते हैं लेकिन फूल बनाने वाले की तरफ तनिक भी ध्यान नहीं जाता। हम कई बार अंधे हो जाते हैं। एक सुगंधित हवा का झोंका आया और हम उससे निहाल हो गए लेकिन तब भी भगवान की याद नहीं आई। खूब स्वादिष्ट खाना खाया लेकिन ईश्वर को धन्यवाद देने की याद नहीं आई। किसी अच्छे व्यक्ति से मुलाकात हुई और वह दिन औऱ ज्यादा सार्थक हो गया, लेकिन ईश्वर को भूल गए। यह आम तौर पर होता है। कभी यह नहीं सोचते कि हम हैं कौन? हमारे जैसे हजारों लोग हैं। ठीक हमारे ही नाम वाले लोग पता नहीं कितने हैं। हमारी हैसियत क्या है? एक मिनट बाद हमारे शरीर से प्राण निकल जाए तो हमारी सारी हेकड़ी बंद हो जाएगी। हमारा शरीर रामनाम सत्य है बोलते हुए आग के हवाले कर दिया जाएगा। तब हमारे जलते शरीर से एक ही तरह की गंध आएगी। मांस जलने की गंध। लेकिन हम भूल कर मिथ्या आनंद खोज रहे हैं और भटक- भटक कर थक गए हैं। असली आनंद तो मिला नहीं। वह मिल भी नहीं सकता। बिना ईश्वर के कहीं आनंद है ही नहीं। ईश्वर ही का दूसरा नाम आनंद है। एक बार उनसे प्रार्थना कीजिए। वे दिखा देंगे कि आनंद किसे कहते हैं। आनंद सिर्फ ईश्वर के संपर्क से मिलता है। पिछले रविवार को मैंने योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के ब्रह्मचारी धैर्यानंद को भजन गाते हुए देख कर मुग्ध हो गया। वे हारमोनियम बजाते हुए भजन गा रहे थे- त्वमेव माता च पिता त्वमेव। और धाराधार रो रहे थे। फिर उन्होंने भजन गाया- नारायण, नारायण, श्रीमन नारायण नारायण नारायण।। धाराधार रोते जा रहे थे। गाते जा रहे थे। मैंने उनका पैर छूना चाहा औऱ कहा- आप जैसी ही भक्ति हम भी चाहते हैं। उन्होंने पैर नहीं छूने दिया। बोले- हम सब एक ही पथ के राही हैं। सोच कर देखिए तो लगता है कि यह शरीर तो हमने बनाया नहीं, इसमें प्राण हमने डाला नहीं। तो यह सब किसने किया? जाहिर है- ईश्वर ने। क्या हमें ईश्वर को प्यार नहीं करना चाहिए? उनसे बातें कर मेरा रोम रोम तृप्त हो गया।

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