प्रवृत्ति और निवृत्ति
विनय बिहारी सिंह
रामकृष्ण परमहंस कहते थे- प्रवृत्ति अच्छी नहीं है। निवृत्ति ही कल्याणकारी है। यह प्रवृत्ति क्या है? जब हमारी इच्छाएं या कामनाएं हमें नचाती रहती हैं तो वह है प्रवृत्ति। मसलन हम जानते हैं कि अमुक काम बुरा है फिर भी उसे कर डालते हैं। फिर पछताते भी हैं। लेकिन अब तो जो करना था आपने कर दिया। परमहंस योगानंद ने कहा है- प्रवृत्तियां लुभाती हैं। लेकिन उनका शिकार बनना बुरा है। इसलिए निवृत्ति ही ठीक है। निवृत्ति यानी सिर्फ ईश्वर पर भरोसा। तो आप कहेंगे- क्या काम- काज बंद कर दें और ईश्वर के सहारे बैठे रहें? जी नहीं। सारे सार्थक काम, सारे प्रयास करते रहिए। लेकिन यह मान कर मत चलिए कि कुछ भी करने की ताकत आप में है। आप जो कुछ भी कर रहे हैं, वह ईश्वर की ही शक्ति के जरिए कर रहे हैं। वरना आपकी कोई अपनी ताकत नहीं है। भ्रम में रहना ठीक नहीं है। क्या आपके प्राण आपके वश में हैं? क्या आप अपनी मृत्यु रोक सकते हैं? नहीं। तब आपके वश में क्या है? कुछ नहीं। अब आप कहेंगे कि मरते तो साधु संत और ऋषि- मुनि भी हैं। जो जन्म लेगा वह तो मरेगा ही। तो इसका जवाब है- आप पाएंगे कि साधु संत अपने शरीर को छोड़ने की तिथि तय कर देते हैं। वे घोषित कर देते हैं कि अमुक दिन उनका प्राण छूटेगा। वे उस दिन शरीर को छोड़ कर ईश्वर में विलीन हो जाते हैं। लेकिन हम साधारण जीव ऐसे नहीं हैं। हमें तो यह भी नहीं पता कि हमारे प्राण कब छूटेंगे। इसका कारण है कि हम तो संसार में इस कदर लिप्त हैं कि सांसारिक प्रपंच के अलावा हमारी समझ में कुछ आता ही नहीं है। अगर हम कहते हैं कि रामकृष्ण परमहंस ने मां काली के साक्षात दर्शन किए थे। कुछ तपाक से कहते हैं- झूठ, झूठ, झूठ। क्या यह संभव है? हो ही नहीं सकता। अब आप इसका क्या जवाब देंगे। जिस आदमी ने एक अत्यंत खास किस्म का चाकलेट नहीं खाया है उससे कहिए कि ऐसा भी एक चाकलेट होता है जो मुंह में डालते ही क्षण भर में गल जाता है। तो वह विश्वास ही नहीं करेगा। वह कहेगा- धत्, डींगे हांक रहे हैं आप। रामकृष्ण परमहंस ने मां काली के दर्शन किए थे। यह सच है। जो उस स्तर का साधक है वह मां काली का दर्शन पाता है। अब कोई अत्यंत इंद्रियों के स्तर पर जीता है तो उसे हर चीज असंभव ही दिखाई देगी। मन, इंद्रियों और बुद्धि से परे हैं ईश्वर। तो कुछ लोग कहते हैं कि बुद्धि ही नकार देंगे तो समझ में क्या आएगा? इंटेलेक्चुअली आप भगवान को नहीं जान सकते। आप बड़े- बड़े ग्रंथ पढ़ लीजिए। वेद- पुराण पढ़ लीजिए। आप ईश्वर के दर्शन नहीं कर पाएंगे। कबीरदास ने तो कहा भी है- पोथी पढ़ि, पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।। कबीर ने जिस प्रेम की बात कही है वह ईश्वरीय प्रेम है। यानी आप भगवान को प्रेम कीजिए। यानी आप अपने मन और बुद्धि का लय ईश्वर में कर दीजिए। रमण महर्षि कहते थे- ईश्वर में मनोलय हुए बिना भगवान के न दर्शन होंगे न उनकी कृपा बरसेगी।
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