Friday, April 23, 2010

दुख में भी आनंद


विनय बिहारी सिंह


घटना चार साल पहले की है। एक दुर्घटना में मेरे बेटे की उंगली की हड्डी में दरार आ गई थी। उसे लेकर मैं एक हड्डी के डाक्टर (आर्थोपैडिक) के पास गया। वहीं एक दस साल की बच्ची आई हुई थी। उसका हाथ टूटा हुआ था और उस पर प्लास्टर चढ़ाया हुआ था ....पहले उस बच्ची को देखा जाना था। बच्ची ने डाक्टर के सामने हाथ फैलाया। मैंने देखा उसने प्लास्टर पर बहुत सुंदर से चित्र बनाए हैं। एक चित्र मिकी माउस का था। दूसरा एक पक्षी का। मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने उस बच्ची का नाम पूछा। मुझे हंसते देख वह सकुचाई। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि उसके इस चित्र पर हंसने की कौन सी बात है। मुझे समझ में आ गया कि इस बच्ची के लिए हाथ टूटना गंभीर घटना नहीं है। वह तो अपनी दुनिया में मस्त है और हाथ पर चढ़े प्लास्टर को भी कैनवास समझ कर उस पर चित्र बना रही है। यह भाव हम बड़ों में क्यों नहीं आता? बच्ची से प्यार से काफी बातें करता रहा। उसकी मां हमारी बातचीत के दौरात लगातार हंसती रही। जबकि वह बिल्कुल अपरिचित थी। क्षण भर में हमारे बीच एक सौहार्द्र का रिश्ता बन गया। मेरा बेटा युवा है। वह भी आनंद में था। मैंने डाक्टर से पूछा- हम उम्र में बड़े लोग शारीरिक कष्टों को क्यों नहीं हल्केपन से लेते, ठीक इन बच्चों की तरह? डाक्टर हंसे और कहा- हम सब जितने बड़े होते जाते हैं जीवन की घटनाओं के प्रति उतने ज्यादा संवेदनशील होते जाते हैं। इसके ठीक उल्टा बच्चे हर चीज को हवा में उड़ाते चलते हैं। कोई शारीरिक तकलीफ है तो रहे, वे खेलने निकल जाएंगे। खूब दौड़ेंगे और मस्ती में चिल्लाएंगे। फिर जरा कहीं दर्द हुआ तो रो लेंगे। दर्द ठीक हुआ तो फिर वह भाग- दौड़ और मस्ती। बच्चों से भी बहुत कुछ सीख मिलती है। अगर गौर किया जाए। पहले तो वह बच्ची हमारी हंसी पर चकित थी। थोड़ी देर बाद उसे समझ में आया कि आनंद में बनाए गए ये चित्र हम उम्रदराज लोगों को भी सुख दे रहे हैं। फिर हमारी हंसी में वह भी शामिल हो गई। उसने डाक्टर के कहने पर कागज पर कुछ और चित्र बनाए।
इसीलिए उच्चकोटि के सन्यासियों का एक लक्षण कहा गया है- बालवत। बच्चे की तरह। यानी अभी खिलौना मिला। खेला। खिलौना टूट गया तो उसे भूल गए। किसी चीज से अटैचमेंट नहीं। बस आनंद और आनंद। जो मिला खाया और नींद लगी तो सो गए। एकदम भोले भाले। उच्च कोटि के संतों का एक लक्षण यह भी है। एक दम भोला स्वभाव। मां ने मारा तो रोने लगे। फिर मां ने मना दिया तो खुश। उसी मां की गोद में सुख की नींद सो रहे हैं। क्या हम जगन्माता की गोद में निश्चिंत हो कर सोते हैं। उनका प्यार तो हर वक्त बरस रहा है। लेकिन हमें पता ही नहीं चलता। क्योंकि हमारे दिमाग में तमाम तरह का कूड़ा- करकट है। दिमाग चंचल है। शांत दिमाग हो तो जगन्माता के प्यार की बौछार समझ में आए।

1 comment:

शारदा अरोरा said...

बहुत सुन्दर लिखा है आपने , बच्चों जैसी निश्छलता आयेगी तभी ये गुण विकसित हो पाएंगे ।