Thursday, April 8, 2010

मां करुणामयी


विनय बिहारी सिंह


कल रामकृष्ण परमहंस पर केंद्रित पुस्तक रामकृष्ण वचनामृत पढ़ रहा था। अद्भुत पुस्तक है यह। मुग्धकारी। इसके लेखक हैं श्री म। इनका पूरा नाम महेंद्रनाथ गुप्त था। लेकिन अपना नाम छुपाने के लिए इन्होंने सिर्फ श्री म लिखा है। लेकिन क्या चमत्कार है- सभी लोग जानते हैं कि श्री म थे कौन। श्री म रामकृष्ण परमहंस के अत्यंत निकट के शिष्यों में से एक थे। ठीक वैसे ही जैसे स्वामी विवेकानंद थे। (यह पुस्तक रामकृष्ण मठ के पुस्तकालयों में मिल जाती है। मठ ने ही इसे प्रकाशित किया है)। श्री म एक दिन मां काली का दर्शन करने गए। तभी उनके मन में आया कि ईश्वर तो निराकार हैं। फिर मैं इस मूर्ति को श्रद्धा से प्रणाम क्यों कर रहा हूं। क्या इसलिए कि रामकृष्ण परमहंस जी साकार रूप को मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं? शायद हां। श्री म लिखते हैं- जब रामकृष्ण परमहंस इस मूर्ति के सामने झुकते हैं और अनन्य भाव से पूजा करते हैं तो मैं किस खेत की मूली हूं। फिर उन्होंने लिखा है- मां काली के बाएं हाथों में खड्ग और नरमुंड है। दाएं हाथ वरदान और अभय मुद्रा में हैं। एक तरफ मां भक्तों के लिए स्नेह, प्रेम और वात्सल्य की सागर हैं तो दूसरी तरफ बुरी शक्तियों के लिए महाकाल हैं। एक ही मूर्ति में ये दोनों रूप क्यों? ईश्वर जानें। फिर वे दूसरे प्रसंग पर आ गए हैं। अनेक लोग जानते हैं कि श्री म को मास्टर महाशय के नाम से भी जाना जाता था। वे अध्यापक थे। वे विलक्षण साधक थे। एक बार ध्यान में बैठते थे तो कब उठेंगे इसकी कोई सीमा नहीं थी। मां काली से उनका संबंध वैसा ही था जैसे अपनी मां से होता है। वे उनसे बातचीत करते थे, उनसे अपना सुख- दुख सुनाते थे। परमहंस योगानंद जी एक बार बचपन में उनसे मिलने गए और यह कह कर कि मुझे जगन्माता के दर्शन करा दीजिए फूट- फूट कर रोने लगे और उनके पैर पकड़ लिया। परमहंस जी ने उनका पैर पकड़ लिया और जिद करने लगे कि आप जगन्माता से कहिए कि वे मुझे दर्शन दें। श्री म पिघल गए और उन्होंने आश्वासन दिया कि वे उनकी बात जगन्माता तक पहुंचाएंगे। परमहंस योगानंद जी ने काफी राहत महसूस की और अपने घऱ लौट आए। फिर अपने छोटे से कमरे में गए औऱ ध्यान में बैठ गए। अचानक रात को एक अत्यंत तेज और विलक्षण प्रकाश हुआ। सामने जगन्माता खड़ी थीं। परमहंस जी ने लिखा है कि वह अद्भुत सुंदर चेहरा था। जगन्माता ने कहा- मैं तो तुम्हें हमेशा से प्यार करती आ रही हूं। हमेशा प्यार करती रहूंगी। फिर वे अदृश्य हो गईं। सुबह जब परमहंस जी श्री म के पास पहुंचे तो उनसे पूछा- जगन्माता ने मेरे लिए क्या कहा? श्री म मुस्कराए- क्या मुझे यह बात दुहरानी पड़ेगी कि जगन्माता पिछली रात को आपको आशीर्वाद देने आई थीं? परमहंस जी जानते ही थे- इस संत से कुछ भी छुपाया नहीं जा सकता। ( मित्रों मैं हरिद्वार कुंभ के लिए रवाना हो रहा हूं। अगली मुलाकात १७ अप्रैल को होगी।)

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