विनय बिहारी सिंह
नए साल में भगवान करें आप सबको नित नई खुशियां मिलें। आपकी मनोकामनाएं पूरी हों और ईश्वर का आशीर्वाद आप सबके ऊपर सदा बरसता रहे। पिछले साल के कष्टों और दुखों को सदा के लिए भूल जाइए क्योंकि आने वाले दिन नई उम्मीद लेकर आ रहे हैं। नए साल के पहले दिन हम सब अलग अलग तरह से बिताना पसंद करते हैं। कुछ लोग किसी मंदिर में विधिवत पूजा करते हैं। कुछ लोग भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं। तो कुछ पूरे दिन ध्यान और भजन में बिताते हैं। संसार में पूरी तरह आसक्त लोग तो नाच- गाना और विशेष तरह का खाना पीना करते हैं। विशेष तरह का भोजन तो सभी लोग करते हैं। मान्यता है कि इस दिन आनंद से बिताने पर पूरा साल आनंद में बीतता है। सच्चाई क्या है- आप सभी जानते हैं। हम भगवान के जितने करीब रहेंगे, हमारा समय उतना ही आनंदमय बीतेगा। संसार के जितने करीब रहेंगे, हमारा समय उतना ही कष्टकर होगा। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम संसार के लोगों के साथ अच्छा आचरण न करें। संसार में हमें प्रेम, सद्भाव को पकड़े रहना है। लेकिन यह भी समझना है कि यह संसार हमारा नहीं है। भगवान का है। यहां हम कुछ दिनों के लिए आए हैं। नया साल हम चाहें या न चाहें- आएगा ही। नया साल जब आता है तो हमें चौकस कर जाता है। नया साल यह संदेश देता है कि- हम अपने भीतर झांकें। देखें कि पूरे साल में हमने क्या किया। क्या करना बाकी है। नए साल में क्या नए काम करने हैं। पिछले एक साल में मेरा कोई विकास हुआ या नहीं। वगैरह वगैरह। क्योंकि पहली जनवरी बीत जाने के बाद फिर वही रुटीन हो जाती है। दिन भी वैसे ही बीतने लगते हैं जैसे पिछले साल के थे। थोड़े बहुत फेरबदल होते हैं। लेकिन बाकी तो वही वही रहता है। इसलिए विधिवत योजना बने तो जीवन में विविधता आए। मेरी कामना है कि आप सब पिछले साल की तुलना में नए साल में अनेक बेहतर आयाम खोजें। जीवन और अधिक ईश्वरमय हो। आपकी और ज्यादा आध्यात्मिक उन्नति हो और आप सब सदा आनंद में रहें, सुखी रहें।
Saturday, December 31, 2011
Friday, December 30, 2011
प्रेम
विनय बिहारी सिंह
हम सभी गहरा प्रेम पाने को इच्छुक हैं। लेकिन वह मिल नहीं रहा है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि इस दुनिया में प्रेम तो मिलेगा ही नहीं। क्योंकि असली प्रेम के स्रोत तो भगवान हैं। उन्हीं के यहां असली प्रेम का भंडार है। जब भंडार वहां है तो इस दुनिया में प्रेम कहां से मिलेगा? यह कितने आश्चर्य की बात है कि जहां प्रेम है वहां हम ढूंढ़ते नहीं हैं। और जहां नहीं है, वहां ढूंढते हैं। इस पर एक बहुत रोचक कथा है। एक आदमी की थाली खो गई थी। थाली कमरे में थी। बहुत खोजा नहीं मिली। तब वह सड़क पर आ गया और किनारे रखे घड़े में खोजने लगा। उसका परिचित एक आदमी वहां से गुजर रहा था। उसने कहा- क्या खोज रहे हो? जवाब मिला- मेरी थाली खो गई है। वही खोज रहा हूं। उस आदमी ने पूछा- थाली कहां रखी थी। उसने कहा- कमरे में। रास्ते से गुजर रहे आदमी ने हंसते हुए कहा- तो कमरे में ही जाकर खोजो। वहीं मिल जाएगी। और घड़े में थाली कहां से जाएगी? उस आदमी ने दुबारा कमरे में अपनी थाली खोजी। वह मिल गई। दरअसल उस आदमी ने थाली मांज कर अखबार से उसे ढंक दिया था। वह अपने भुलने की आदत पर हंसने लगा। थाली मिल गई थी। वह आनंद में था। इसी तरह हमारा आनंद भगवान के पास छुपा है। लेकिन हम उसे संसार में खोज रहे हैं। कभी प्रेमी या प्रेमिका में, तो कभी मां या पिता में, कभी पत्नी या पति में, कभी दोस्त- मित्रों में, कभी बेटे- बेटी या रिश्तेदारों में या कभी अनजान लोगों में। लेकिन प्रेम वहां हो तो मिलेगा। प्रेम का भंडार तो भगवान के पास है।
कल एक मित्र ने कहा- मुझे असली प्रेम भगवान शिव में मिलता है। वे सदा मुस्कराते रहते हैं। गहरे ध्यान में डूब कर उन्हें जो आनंद मिलता है शायद उसी से मुस्कराते होंगे। शिव जी का हाथ सदा आशीर्वाद की मुद्रा में रहता है।
मुझे उनकी बात सुन कर अच्छा लगा।
हम सभी गहरा प्रेम पाने को इच्छुक हैं। लेकिन वह मिल नहीं रहा है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि इस दुनिया में प्रेम तो मिलेगा ही नहीं। क्योंकि असली प्रेम के स्रोत तो भगवान हैं। उन्हीं के यहां असली प्रेम का भंडार है। जब भंडार वहां है तो इस दुनिया में प्रेम कहां से मिलेगा? यह कितने आश्चर्य की बात है कि जहां प्रेम है वहां हम ढूंढ़ते नहीं हैं। और जहां नहीं है, वहां ढूंढते हैं। इस पर एक बहुत रोचक कथा है। एक आदमी की थाली खो गई थी। थाली कमरे में थी। बहुत खोजा नहीं मिली। तब वह सड़क पर आ गया और किनारे रखे घड़े में खोजने लगा। उसका परिचित एक आदमी वहां से गुजर रहा था। उसने कहा- क्या खोज रहे हो? जवाब मिला- मेरी थाली खो गई है। वही खोज रहा हूं। उस आदमी ने पूछा- थाली कहां रखी थी। उसने कहा- कमरे में। रास्ते से गुजर रहे आदमी ने हंसते हुए कहा- तो कमरे में ही जाकर खोजो। वहीं मिल जाएगी। और घड़े में थाली कहां से जाएगी? उस आदमी ने दुबारा कमरे में अपनी थाली खोजी। वह मिल गई। दरअसल उस आदमी ने थाली मांज कर अखबार से उसे ढंक दिया था। वह अपने भुलने की आदत पर हंसने लगा। थाली मिल गई थी। वह आनंद में था। इसी तरह हमारा आनंद भगवान के पास छुपा है। लेकिन हम उसे संसार में खोज रहे हैं। कभी प्रेमी या प्रेमिका में, तो कभी मां या पिता में, कभी पत्नी या पति में, कभी दोस्त- मित्रों में, कभी बेटे- बेटी या रिश्तेदारों में या कभी अनजान लोगों में। लेकिन प्रेम वहां हो तो मिलेगा। प्रेम का भंडार तो भगवान के पास है।
कल एक मित्र ने कहा- मुझे असली प्रेम भगवान शिव में मिलता है। वे सदा मुस्कराते रहते हैं। गहरे ध्यान में डूब कर उन्हें जो आनंद मिलता है शायद उसी से मुस्कराते होंगे। शिव जी का हाथ सदा आशीर्वाद की मुद्रा में रहता है।
मुझे उनकी बात सुन कर अच्छा लगा।
Thursday, December 29, 2011
किसी के बारे में तुरंत फैसला उचित नहीं
विनय बिहारी सिंह
ट्रेन के एक डिब्बे में पिता और युवा पुत्र आ कर बैठे। पुत्र बहुत खुश था। वह खिड़की वाली सीट पर बैठ गया। उसके सामने वाली सीट परबुजुर्ग दंपति बैठा था। ट्रेन चल पड़ी। युवा पुत्र खुश हो कर चिल्लाया- पापा, सारे पेड़- पौधे और दृश्य पीछे की ओर जा रहे हैं। सामने बैठे दंपति को अजीब लगा। यह लड़का जवान है और बच्चों जैसी बातें कर रहा है? लेकिन वे कुछ नहीं बोले। तभी बारिश होने लगी। युवा लड़का चिल्लाया- पापा, बारिश हो रही है। देखिए एक बूंद मेरे हाथ पर भी पड़ी। अब बुजुर्ग दंपति से रहा नहीं गया। सामने बैठा पुरुष बोला- आप इस लड़के का इलाज क्यों नहीं कराते। यह तो ऐसा व्यवहार कर रहा है जैसे ट्रेन में पहली बार चढ़ा हो या बारिश पहली बार देख रहा हो। युवा पुत्र के पिता ने कहा- हम अस्पताल से ही आ रहे हैं। दरअसल मेरे बेटा आज जीवन में पहली बार संसार को देख रहा है। आज से ही इसकी आंखें ठीक हुई हैं। इसके पहले यह नेत्रहीन था। इसे दान में दी गई आंख लगाई गई है। इसीलिए यह दुनिया को देख कर खुश है। बुजुर्ग दंपति ने उनसे कहा- माफ कीजिएगा। हमें यह नहीं मालूम था।
संदेश- किसी के बारे में जल्दी से कोई फैसला नहीं लेना चाहिए। खासतौर से अनजान व्यक्ति के बारे में।
ट्रेन के एक डिब्बे में पिता और युवा पुत्र आ कर बैठे। पुत्र बहुत खुश था। वह खिड़की वाली सीट पर बैठ गया। उसके सामने वाली सीट परबुजुर्ग दंपति बैठा था। ट्रेन चल पड़ी। युवा पुत्र खुश हो कर चिल्लाया- पापा, सारे पेड़- पौधे और दृश्य पीछे की ओर जा रहे हैं। सामने बैठे दंपति को अजीब लगा। यह लड़का जवान है और बच्चों जैसी बातें कर रहा है? लेकिन वे कुछ नहीं बोले। तभी बारिश होने लगी। युवा लड़का चिल्लाया- पापा, बारिश हो रही है। देखिए एक बूंद मेरे हाथ पर भी पड़ी। अब बुजुर्ग दंपति से रहा नहीं गया। सामने बैठा पुरुष बोला- आप इस लड़के का इलाज क्यों नहीं कराते। यह तो ऐसा व्यवहार कर रहा है जैसे ट्रेन में पहली बार चढ़ा हो या बारिश पहली बार देख रहा हो। युवा पुत्र के पिता ने कहा- हम अस्पताल से ही आ रहे हैं। दरअसल मेरे बेटा आज जीवन में पहली बार संसार को देख रहा है। आज से ही इसकी आंखें ठीक हुई हैं। इसके पहले यह नेत्रहीन था। इसे दान में दी गई आंख लगाई गई है। इसीलिए यह दुनिया को देख कर खुश है। बुजुर्ग दंपति ने उनसे कहा- माफ कीजिएगा। हमें यह नहीं मालूम था।
संदेश- किसी के बारे में जल्दी से कोई फैसला नहीं लेना चाहिए। खासतौर से अनजान व्यक्ति के बारे में।
Wednesday, December 28, 2011
श्वासों में हैं आप
विनय बिहारी सिंह
एक भक्त ने कहा है- प्रभु, मेरे श्वासों में तो आप ही हैं। आप ही मेरी श्वास हैं। आप जिस क्षण चाहें इसे बंद कर सकते हैं। एक दिन एक अन्य भक्त ने पूछा- श्वांस है तो जीवन है। मरने के बाद श्वांस की जरूरत है क्या? तो फेफड़ा कहां होता है सूक्ष्म शरीर में? इस पर एक संत ने उत्तर दिया- मरने के बाद आपका शरीर प्रकाश और चेतना का हो जाता है। इसे ही सूक्ष्म शरीर कहते हैं। इसमें श्वांस का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। आपकी चेतना श्वांस नहीं लेती। आपका शरीर श्वांस लेता है। अनेक यौगिक क्रियाएं हैं जिनमें सिद्ध हो जाने पर श्वांस की जरूरत नहीं पड़ती। जीवित अवस्था में ही मनुष्य उन क्रियाओं से कुछ देर के लिए या कुछ घंटों के लिए श्वांस रहित हो जाता है। उस समय प्रभु आपकी चेतना में रहेंगे तो फिर आपके आनंद की सीमा नहीं रहेगी। इसीलिए भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- मरते समय मनुष्य जो कुछ भी सोचता है, अगले जन्म में वही बनता है। इसीलिए हे अर्जुन मनुष्य को चाहिए कि वह सदा ईश्वर की शरण में रहे। इस तरह वह मरते समय ईश्वर को स्मरण करता रहेगा। ईश्वर उसकी चेतना में मजबूती के साथ हमेशा के लिए बैठे रहेंगे। मरने के बाद वह ईश्वर के धाम चला जाएगा और उनके साथ आनंद मनाएगा। यदि उसे फिर से जन्म लेना पड़ेगा तो वह उच्च कोटि के योगियों के परिवार में जन्म लेगा। और पहले जन्म में अर्जित साधना से आगे बढ़ने लगेगा। गीता का यह संदेश हमें बहुत ताकत देता है। मनोबल देता है। ईश्वर भक्त इसीलिए प्रसन्न रहते हैं।
एक भक्त ने कहा है- प्रभु, मेरे श्वासों में तो आप ही हैं। आप ही मेरी श्वास हैं। आप जिस क्षण चाहें इसे बंद कर सकते हैं। एक दिन एक अन्य भक्त ने पूछा- श्वांस है तो जीवन है। मरने के बाद श्वांस की जरूरत है क्या? तो फेफड़ा कहां होता है सूक्ष्म शरीर में? इस पर एक संत ने उत्तर दिया- मरने के बाद आपका शरीर प्रकाश और चेतना का हो जाता है। इसे ही सूक्ष्म शरीर कहते हैं। इसमें श्वांस का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। आपकी चेतना श्वांस नहीं लेती। आपका शरीर श्वांस लेता है। अनेक यौगिक क्रियाएं हैं जिनमें सिद्ध हो जाने पर श्वांस की जरूरत नहीं पड़ती। जीवित अवस्था में ही मनुष्य उन क्रियाओं से कुछ देर के लिए या कुछ घंटों के लिए श्वांस रहित हो जाता है। उस समय प्रभु आपकी चेतना में रहेंगे तो फिर आपके आनंद की सीमा नहीं रहेगी। इसीलिए भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- मरते समय मनुष्य जो कुछ भी सोचता है, अगले जन्म में वही बनता है। इसीलिए हे अर्जुन मनुष्य को चाहिए कि वह सदा ईश्वर की शरण में रहे। इस तरह वह मरते समय ईश्वर को स्मरण करता रहेगा। ईश्वर उसकी चेतना में मजबूती के साथ हमेशा के लिए बैठे रहेंगे। मरने के बाद वह ईश्वर के धाम चला जाएगा और उनके साथ आनंद मनाएगा। यदि उसे फिर से जन्म लेना पड़ेगा तो वह उच्च कोटि के योगियों के परिवार में जन्म लेगा। और पहले जन्म में अर्जित साधना से आगे बढ़ने लगेगा। गीता का यह संदेश हमें बहुत ताकत देता है। मनोबल देता है। ईश्वर भक्त इसीलिए प्रसन्न रहते हैं।
Tuesday, December 27, 2011
घड़ी मिलने का राज
विनय बिहारी सिंह
मेरे एक मित्र ने बहुत अच्छा ई मेल भेजा है। सोचा आपको भी बता दूं। उन्होंने एक मोरल स्टोरी भेजी है। एक आदमी की घड़ी खो गई। वह आलमारी में थी। उसने बहुत खोजा- नहीं मिली। उस घड़ी से उसका भावनात्मक लगाव था। उसे अचानक एक उपाय सूझा। उसने सामने मैदान में खेल रहे बच्चों को बुलाया और आलमारी से अपनी घड़ी खोने की बात बताई। उसने कहा- तुममें से जो कोई मेरी घड़ी खोज देगा, मैं उसे ईनाम दूंगा। बच्चों के लिए यह एक खेल की तरह था। वे आलमारी में घड़ी खोजने में जुट गए। बच्चों ने खूब खोजा। लेकिन घड़ी नहीं मिली। तभी एक बच्चा बोला- मैं आपकी घड़ी एक बार औऱ खोजना चाहता हूं। मुझे मौका दीजिए। वह आदमी खुश हुआ। बोला- जरूर। तुम मेरी तरह बहुत आशावादी हो, जरूर खोजो। थोड़ी देर बाद बच्चा घड़ी लेकर आया। वह आदमी घड़ी पाकर बहुत खुश हुआ। एक बहुत अच्छा ईनाम देने से पहले उसने बच्चे से पूछा- तुमने घड़ी खोजी कैसे? बच्चा बोला- मैंने आपकी आलमारी खोली और चुपचाप फर्श पर बैठ गया। मैंने दिमाग को बहुत शांत किया और घड़ी की टिक टिक की आवाज सुनने की कोशिश की। थोड़ी ही देर बाद यह टिक टिक मुझे सुनाई पड़ने लगी। मैंने टिक टिक की आवाज की तरफ देखा। यह घड़ी दरअसल आलमारी में बिछे पेपर के नीचे थी। मैं इसकी टिक टिक के कारण इसे पा गया। ई मेल भेजने वाले मेरे मित्र ने लिखा है- इस घटना से यह सीख मिलती है कि दिमाग शांत हो तो बड़ी से बड़ी समस्या हल कर सकता है।
मेरे एक मित्र ने बहुत अच्छा ई मेल भेजा है। सोचा आपको भी बता दूं। उन्होंने एक मोरल स्टोरी भेजी है। एक आदमी की घड़ी खो गई। वह आलमारी में थी। उसने बहुत खोजा- नहीं मिली। उस घड़ी से उसका भावनात्मक लगाव था। उसे अचानक एक उपाय सूझा। उसने सामने मैदान में खेल रहे बच्चों को बुलाया और आलमारी से अपनी घड़ी खोने की बात बताई। उसने कहा- तुममें से जो कोई मेरी घड़ी खोज देगा, मैं उसे ईनाम दूंगा। बच्चों के लिए यह एक खेल की तरह था। वे आलमारी में घड़ी खोजने में जुट गए। बच्चों ने खूब खोजा। लेकिन घड़ी नहीं मिली। तभी एक बच्चा बोला- मैं आपकी घड़ी एक बार औऱ खोजना चाहता हूं। मुझे मौका दीजिए। वह आदमी खुश हुआ। बोला- जरूर। तुम मेरी तरह बहुत आशावादी हो, जरूर खोजो। थोड़ी देर बाद बच्चा घड़ी लेकर आया। वह आदमी घड़ी पाकर बहुत खुश हुआ। एक बहुत अच्छा ईनाम देने से पहले उसने बच्चे से पूछा- तुमने घड़ी खोजी कैसे? बच्चा बोला- मैंने आपकी आलमारी खोली और चुपचाप फर्श पर बैठ गया। मैंने दिमाग को बहुत शांत किया और घड़ी की टिक टिक की आवाज सुनने की कोशिश की। थोड़ी ही देर बाद यह टिक टिक मुझे सुनाई पड़ने लगी। मैंने टिक टिक की आवाज की तरफ देखा। यह घड़ी दरअसल आलमारी में बिछे पेपर के नीचे थी। मैं इसकी टिक टिक के कारण इसे पा गया। ई मेल भेजने वाले मेरे मित्र ने लिखा है- इस घटना से यह सीख मिलती है कि दिमाग शांत हो तो बड़ी से बड़ी समस्या हल कर सकता है।
Monday, December 26, 2011
जीसस क्राइस्ट पर केंद्रित अद्भुत फिल्म
विनय बिहारी सिंह
कल क्रिसमस के मौके पर मैंने उनके जीवन पर केंद्रित एक अद्भुत फिल्म देखी। कल खूब मजे से क्रिसमस मनाने वालों के साथ रहा और इंज्वाय किया। मैं हिंदू हूं लेकिन मुझे जीसस क्राइस्ट भारतीय संत की तरह ही लगते हैं। इसलिए उनके बारे में पढ़ना और जानना अच्छा लगता है। वैसे भी भारतीय परंपरा है- सर्व धर्म समभाव। इस फिल्म के निर्देशक या निर्माता का नाम मुझे याद नहीं रह पाया। नाम मुझे बड़े कठिन लगे। फिल्म का नाम था- द लाइफ आफ जीसस क्राइस्ट। इसमें मदर मेरी के रूप में जो लड़की थी उसने अद्भुत काम किया है। उसके चेहरे की पवित्रता , ईश्वर के साथ उसका वार्तालाप उसके मूवमेंट मुग्धकारी थे। एक दृश्य में वह रात को सोई है। अचानक उसके चेहरे पर एक तेज प्रकाश पड़ता है। वह धीरे- धीरे जागती है और उठ कर देखती है कि यह प्रकाश उसके घर की खिड़की से आ रहा है। रात तो घनघोर अंधेरी है। उस प्रकाश से मदर मेरी पूछती है- हू आर यू? फिर धीरे- धीरे वह समझ जाती है- ये तो ईश्वर हैं। वह दृश्य अद्भुत है। वह संक्षेप में ही बोल कर उनसे बातें करती है। उस घर की बुजुर्ग महिला यह दृश्य देख रही है। मदर मेरी बताती है कि उसके पेट में एक दिव्य बच्चा आने वाला है। जबकि पति से उसका कोई संपर्क नहीं हुआ है। यह ईश्वरीय बच्चा है। बुजुर्ग महिला कहती है- आई बिलीव यू माई चाइल्ड, आई बिलीव यू।
फिर फिल्म आगे बढ़ती जाती है। एक दृश्य में जान द बैपटिस्ट आते हैं। उनकी अद्भुत बातें। वे ईश्वर का संदेश सुनाते हैं। शांति और प्रेम का महत्व बताते हैं। पता नहीं यह फिल्म बाजार में उपलब्ध है या नहीं। इसे मैंने व्यक्तिगत रूप से एक भक्त के यहां देखा।
कल क्रिसमस के मौके पर मैंने उनके जीवन पर केंद्रित एक अद्भुत फिल्म देखी। कल खूब मजे से क्रिसमस मनाने वालों के साथ रहा और इंज्वाय किया। मैं हिंदू हूं लेकिन मुझे जीसस क्राइस्ट भारतीय संत की तरह ही लगते हैं। इसलिए उनके बारे में पढ़ना और जानना अच्छा लगता है। वैसे भी भारतीय परंपरा है- सर्व धर्म समभाव। इस फिल्म के निर्देशक या निर्माता का नाम मुझे याद नहीं रह पाया। नाम मुझे बड़े कठिन लगे। फिल्म का नाम था- द लाइफ आफ जीसस क्राइस्ट। इसमें मदर मेरी के रूप में जो लड़की थी उसने अद्भुत काम किया है। उसके चेहरे की पवित्रता , ईश्वर के साथ उसका वार्तालाप उसके मूवमेंट मुग्धकारी थे। एक दृश्य में वह रात को सोई है। अचानक उसके चेहरे पर एक तेज प्रकाश पड़ता है। वह धीरे- धीरे जागती है और उठ कर देखती है कि यह प्रकाश उसके घर की खिड़की से आ रहा है। रात तो घनघोर अंधेरी है। उस प्रकाश से मदर मेरी पूछती है- हू आर यू? फिर धीरे- धीरे वह समझ जाती है- ये तो ईश्वर हैं। वह दृश्य अद्भुत है। वह संक्षेप में ही बोल कर उनसे बातें करती है। उस घर की बुजुर्ग महिला यह दृश्य देख रही है। मदर मेरी बताती है कि उसके पेट में एक दिव्य बच्चा आने वाला है। जबकि पति से उसका कोई संपर्क नहीं हुआ है। यह ईश्वरीय बच्चा है। बुजुर्ग महिला कहती है- आई बिलीव यू माई चाइल्ड, आई बिलीव यू।
फिर फिल्म आगे बढ़ती जाती है। एक दृश्य में जान द बैपटिस्ट आते हैं। उनकी अद्भुत बातें। वे ईश्वर का संदेश सुनाते हैं। शांति और प्रेम का महत्व बताते हैं। पता नहीं यह फिल्म बाजार में उपलब्ध है या नहीं। इसे मैंने व्यक्तिगत रूप से एक भक्त के यहां देखा।
Friday, December 23, 2011
जो भगवान के बारे में न सुनना चाहें
विनय बिहारी सिंह
भगवत् गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- जो मेरे बारे में या गीता में कहे गए मेरे वचनों को न सुनना चाहे, उससे इसके बारे में बिल्कुल मत कहना। सिर्फ उसी से कहना जो मेरे प्रति श्रद्धा और गहरी भक्ति से युक्त हो। इसीलिए जो ईश्वर की चर्चा को बोर करने वाला मानते हैं, या जो भगवत् चर्चा को समय की बरबादी कहते हैं, उनसे इसकी भूल कर भी चर्चा नहीं करनी चाहिए। जिसने यह संसार बनाया है, जो हमारा सर्वस्व है- उसकी चर्चा न करें तो किसकी करें? हम एक एक सांस भगवान की कृपा से ही ले रहे हैं। आपको पीड़ित लोगों को देखना है तो किसी अस्पताल में चले जाइए। देखिए वहां कैसे लोग तड़प रहे हैं। तब पता चलेगा कि मनुष्य शरीर सिर्फ खाने, पीने और मौज उड़ाने के लिए ही नहीं मिला है। इसका मुख्य उद्देश्य है कि मनुष्य भगवान से प्रेम करना सीखे। उनसे करीबी बनाए। त्वमेव माता, च पिता त्वमेव.....। ..... त्वमेव सर्वं मम देव देव। हे प्रभु, तुम्हीं सब कुछ हो। मेरा मन, मेरा शरीर और मेरी आत्मा सब कुछ तुम्हारी है। इसे ले लो। इस भाव से जो रहता है वह बीमार भी हो जाए तो मस्ती में ही रहता है, आनंद में ही रहता है। लेकिन जिसके लिए शरीर ही सब कुछ है, वह शरीर कष्ट भोगता रहता है।
भगवत् गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- जो मेरे बारे में या गीता में कहे गए मेरे वचनों को न सुनना चाहे, उससे इसके बारे में बिल्कुल मत कहना। सिर्फ उसी से कहना जो मेरे प्रति श्रद्धा और गहरी भक्ति से युक्त हो। इसीलिए जो ईश्वर की चर्चा को बोर करने वाला मानते हैं, या जो भगवत् चर्चा को समय की बरबादी कहते हैं, उनसे इसकी भूल कर भी चर्चा नहीं करनी चाहिए। जिसने यह संसार बनाया है, जो हमारा सर्वस्व है- उसकी चर्चा न करें तो किसकी करें? हम एक एक सांस भगवान की कृपा से ही ले रहे हैं। आपको पीड़ित लोगों को देखना है तो किसी अस्पताल में चले जाइए। देखिए वहां कैसे लोग तड़प रहे हैं। तब पता चलेगा कि मनुष्य शरीर सिर्फ खाने, पीने और मौज उड़ाने के लिए ही नहीं मिला है। इसका मुख्य उद्देश्य है कि मनुष्य भगवान से प्रेम करना सीखे। उनसे करीबी बनाए। त्वमेव माता, च पिता त्वमेव.....। ..... त्वमेव सर्वं मम देव देव। हे प्रभु, तुम्हीं सब कुछ हो। मेरा मन, मेरा शरीर और मेरी आत्मा सब कुछ तुम्हारी है। इसे ले लो। इस भाव से जो रहता है वह बीमार भी हो जाए तो मस्ती में ही रहता है, आनंद में ही रहता है। लेकिन जिसके लिए शरीर ही सब कुछ है, वह शरीर कष्ट भोगता रहता है।
Wednesday, December 21, 2011
समुद्र की तरह की स्थिरता
विनय बिहारी सिंह
भगवत गीता के अध्याय दो में भगवान ने कहा है- जैसे समुद्र में बहुत सी नदियां मिलती हैं तो भी समुद्र अचल रहता है, ठीक उसी तरह धीर पुरुष भी सांसारिक परिस्थितियों में अचल रहता है। चाहे हिला देने वाली स्थिति ही क्यों नहीं आए। चाहे कितनी भी बड़ी समस्या ही क्यों न आ जाए वह व्यक्ति तनाव में नहीं आता। यह संसार भगवान का है। इस दुनिया में हमारे आने से पहले भी यह दुनिया थी और मरने के बाद भी रहेगी। सांसारिक नाटक चलते रहेंगे। धीर पुरुष, समझदार पुरुष, जानते हैं कि ईश्वर ही सत्य हैं। बाकी सब अनित्य है। जो अनित्य है उसका साथ क्यों दिया जाए? परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि न जाने कितने लोगों ने एक दूसरे को कहा होगा- मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं। उन्होंने एक दूसरे के लिए बड़े- बड़े वादे किए। लेकिन आज वे कहां हैं? वे वादे कहां गए। वह प्यार कहां है? एक ही प्यार स्थाई है। वह है भगवान का प्यार। वह इस जीवन में तो साथ रहेगा ही, मरने के बाद भी रहेगा। क्योंकि भगवान तो शास्वत हैं। वे सदा थे, हैं और रहेंगे। हमारी आत्मा उनका अंश है, इसलिए हम भी उनके अंश हैं- ईश्वर अंश जीव अविनाशी।। इसलिए ईश्वर की तरफ हमारा आकर्षण स्वाभाविक है। हम अपने उत्स की तरफ आकर्षित होते हैं। भगवान की तरफ आकर्षित होते हैं तो इसीलिए आनंद मिलता है। यह सोच कर कितना अच्छा लगता है कि ईश्वर ही हमारे स्रोत हैं।
भगवत गीता के अध्याय दो में भगवान ने कहा है- जैसे समुद्र में बहुत सी नदियां मिलती हैं तो भी समुद्र अचल रहता है, ठीक उसी तरह धीर पुरुष भी सांसारिक परिस्थितियों में अचल रहता है। चाहे हिला देने वाली स्थिति ही क्यों नहीं आए। चाहे कितनी भी बड़ी समस्या ही क्यों न आ जाए वह व्यक्ति तनाव में नहीं आता। यह संसार भगवान का है। इस दुनिया में हमारे आने से पहले भी यह दुनिया थी और मरने के बाद भी रहेगी। सांसारिक नाटक चलते रहेंगे। धीर पुरुष, समझदार पुरुष, जानते हैं कि ईश्वर ही सत्य हैं। बाकी सब अनित्य है। जो अनित्य है उसका साथ क्यों दिया जाए? परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि न जाने कितने लोगों ने एक दूसरे को कहा होगा- मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं। उन्होंने एक दूसरे के लिए बड़े- बड़े वादे किए। लेकिन आज वे कहां हैं? वे वादे कहां गए। वह प्यार कहां है? एक ही प्यार स्थाई है। वह है भगवान का प्यार। वह इस जीवन में तो साथ रहेगा ही, मरने के बाद भी रहेगा। क्योंकि भगवान तो शास्वत हैं। वे सदा थे, हैं और रहेंगे। हमारी आत्मा उनका अंश है, इसलिए हम भी उनके अंश हैं- ईश्वर अंश जीव अविनाशी।। इसलिए ईश्वर की तरफ हमारा आकर्षण स्वाभाविक है। हम अपने उत्स की तरफ आकर्षित होते हैं। भगवान की तरफ आकर्षित होते हैं तो इसीलिए आनंद मिलता है। यह सोच कर कितना अच्छा लगता है कि ईश्वर ही हमारे स्रोत हैं।
Tuesday, December 20, 2011
न जन्म न मृत्यु न जाति
विनय बिहारी सिंह
आदि शंकराचार्य ने एक भजन लिखा है, जिसे परमहंस योगानंद जी ने अपनी पुस्तक- कास्मिक चैंट्स में शामिल किया है। भजन है- न जन्म, न मृत्यु, न जाति कोई मेरी। पिता न कोई माता मेरी। शिवो अहम्, शिवो अहम्.......। आप जितनी बार यह भजन पढ़ेंगे, मुग्ध हो जाएंगे। ऐसे लोग कम नहीं हैं जो स्वयं को शरीर के अलावा कुछ नहीं मानते। उनके लिए शरीर की आवश्यकताएं ही अनंत होती हैं। शरीर के लिए यह चाहिए, वह चाहिए.....यानी हजार- हजार जरूरतें। इनके पूरा होने पर भी शरीर और मांगता है। इंद्रियां और मांगती हैं। इंद्रियां ऐसी अग्रि हैं जहां सब कुछ भस्म होता जाता है और आप उसमें जितना डालते जाते हैं, उससे ज्यादा की मांग होती रहती है। इसीलिए आदि शंकराचार्य ने कहा है- मन न बुद्धि, अहं न चित्त, नभ न भू न धातु हूं मैं। शिवो अहम, शिवो अहम...। भगवत् गीता में भी भगवान ने कहा है- यह आत्मा अछेद्य है, अदाह्य है....। इसे न तो शस्त्र से काटा जा सकता है और न आग से जलाया जा सकता है। इसे न जल से गीला किया जा सकता है और न वायु से शुष्क किया जा सकता है। यह तो अचिंत्य है। यानी जिसके बारे में आप सोच भी नहीं सकते। यानी यह मनुष्य के दिमाग के बाहर की बात है। लेकिन वह व्यक्ति इस आत्मा को जान सकता है जिसने पूर्ण हृदय से खुद को सरेंडर कर दिया है, जिसने खुद को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दिया है। भगवान ने प्रतिग्या की है कि वे अपने भक्तों का उद्धार करेंगे। यह उनकी प्रतिग्या है। इसमें अब शक की कोई गुंजाइश ही नहीं है। स्वयं भगवान की प्रतिग्या है यह। आप गीता पढ़ें। आपको भगवान की प्रतिग्या मिल जाएगी। तब भी अगर कोई शक करता है, संदेह करता है तो उसे क्या कहेंगे?
आदि शंकराचार्य ने एक भजन लिखा है, जिसे परमहंस योगानंद जी ने अपनी पुस्तक- कास्मिक चैंट्स में शामिल किया है। भजन है- न जन्म, न मृत्यु, न जाति कोई मेरी। पिता न कोई माता मेरी। शिवो अहम्, शिवो अहम्.......। आप जितनी बार यह भजन पढ़ेंगे, मुग्ध हो जाएंगे। ऐसे लोग कम नहीं हैं जो स्वयं को शरीर के अलावा कुछ नहीं मानते। उनके लिए शरीर की आवश्यकताएं ही अनंत होती हैं। शरीर के लिए यह चाहिए, वह चाहिए.....यानी हजार- हजार जरूरतें। इनके पूरा होने पर भी शरीर और मांगता है। इंद्रियां और मांगती हैं। इंद्रियां ऐसी अग्रि हैं जहां सब कुछ भस्म होता जाता है और आप उसमें जितना डालते जाते हैं, उससे ज्यादा की मांग होती रहती है। इसीलिए आदि शंकराचार्य ने कहा है- मन न बुद्धि, अहं न चित्त, नभ न भू न धातु हूं मैं। शिवो अहम, शिवो अहम...। भगवत् गीता में भी भगवान ने कहा है- यह आत्मा अछेद्य है, अदाह्य है....। इसे न तो शस्त्र से काटा जा सकता है और न आग से जलाया जा सकता है। इसे न जल से गीला किया जा सकता है और न वायु से शुष्क किया जा सकता है। यह तो अचिंत्य है। यानी जिसके बारे में आप सोच भी नहीं सकते। यानी यह मनुष्य के दिमाग के बाहर की बात है। लेकिन वह व्यक्ति इस आत्मा को जान सकता है जिसने पूर्ण हृदय से खुद को सरेंडर कर दिया है, जिसने खुद को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दिया है। भगवान ने प्रतिग्या की है कि वे अपने भक्तों का उद्धार करेंगे। यह उनकी प्रतिग्या है। इसमें अब शक की कोई गुंजाइश ही नहीं है। स्वयं भगवान की प्रतिग्या है यह। आप गीता पढ़ें। आपको भगवान की प्रतिग्या मिल जाएगी। तब भी अगर कोई शक करता है, संदेह करता है तो उसे क्या कहेंगे?
Monday, December 19, 2011
ज्योतिषी की डिग्री मिली
विनय बिहारी सिंह
बार- बार मन कह रहा है कि मैं ज्योतिष को पेशा न बनाऊं। यह सोच कर मैं खुश हूं कि मैं इस पेशे में नहीं हूं। पता नहीं क्यों। ज्योतिष का खूब- खूब अध्ययन करनेऔर बाकायदा डिग्री मिलने के बाद यह फैसला मन को राहत देने वाला है। इसलिए नहीं कि मैं ज्योतिष को कम करके आंकता हूं। अगर कम करके आंकता तो इसका गहरा अध्ययन नहीं करता। मेरी इस पेशे में पूरी श्रद्धा है। यह वैग्यानिक है। लेकिन अपने मन को मैं समझा नहीं पा रहा हूं। इसलिए ज्योतिष को पेशा न बनाने का फैसला किया।
कल रविवार को मुझे ज्योतिष की डिग्री मिली। कृष्णमूर्ति पद्धति की नक्षत्र ज्योतिष का मैं उत्सुक छात्र रहा हूं। इसे संक्षेप में केपी एस्ट्रोलॉजी कहते हैं। प्रोफेसर केएस कृष्णमूर्ति (जन्म १९०२, निधन- १९७८) इसके अविष्कारक थे। मेरी डिग्री उन्हीं के द्वारा स्थापित संस्थान से मिली है। डिग्री पर श्रद्धेय कृष्णमूर्ति के पुत्र के हरिहरन के हस्ताक्षर हैं। डिग्री पा कर अच्छा लगा। उसे खूब जतन से रखा है। डिग्री देने के बाद मेरे प्रोफेसर ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और कहा- बेस्ट आफ लक। अब आप प्रेक्टिस शुरू करें। मेरी शुभकामनाएं आप सबके साथ हैं। उनकी बातें सुन कर मैं क्षण भर के लिए भावुक हो गया। अचानक जैसे अंदर कुछ कौंधा। मैं सावधान हो गया। इस तरह की अनावश्यक भावुकता मनुष्य के लिए घातक है। जो शुरू होता है, वह खत्म होता ही है। इसमें भावुकता कैसी? मुझे यह अच्छा नहीं लगा कि मैं भावुक हो गया। यदि भावनाओं पर नियंत्रण नहीं है तो आप संतुलित व्यक्ति नहीं हैं। कल से मैं अब ज्यादा ही सावधान हो गया हूं। अपनी भावनाओं के प्रति। संतुलित भावना हो तो ठीक है। इस उम्र में आ कर भावुकता को न छोड़ना अच्छा नहीं है। मेरे प्रोफेसर का फोन नंबर मेरे पास है। मैं उनसे बातचीत कर ही सकता हूं। सिर्फ उनके यह कहने पर कि- अच्छा, नमस्कार। अब हम इस तरह क्लास में नहीं मिलेंगे। पर हम एक दूसरे को याद रखेंगे। गुड बाय। मेरी भावनाएं क्यों प्रभावित हो गईं? अब नियंत्रण का दौर शुरू हो गया है। जो है उसे जस का तस स्वीकार करना चाहिए। यही सृष्टि का नियम है। जहां तहां भावनात्मक लगाव हमारे लिए बाधा की तरह है। भावनात्मक परिस्थितियों का विवेक के साथ सामना करना होता है। मैंने फैसला किया है कि मैं ऐसा ही करूंगा।
बार- बार मन कह रहा है कि मैं ज्योतिष को पेशा न बनाऊं। यह सोच कर मैं खुश हूं कि मैं इस पेशे में नहीं हूं। पता नहीं क्यों। ज्योतिष का खूब- खूब अध्ययन करनेऔर बाकायदा डिग्री मिलने के बाद यह फैसला मन को राहत देने वाला है। इसलिए नहीं कि मैं ज्योतिष को कम करके आंकता हूं। अगर कम करके आंकता तो इसका गहरा अध्ययन नहीं करता। मेरी इस पेशे में पूरी श्रद्धा है। यह वैग्यानिक है। लेकिन अपने मन को मैं समझा नहीं पा रहा हूं। इसलिए ज्योतिष को पेशा न बनाने का फैसला किया।
कल रविवार को मुझे ज्योतिष की डिग्री मिली। कृष्णमूर्ति पद्धति की नक्षत्र ज्योतिष का मैं उत्सुक छात्र रहा हूं। इसे संक्षेप में केपी एस्ट्रोलॉजी कहते हैं। प्रोफेसर केएस कृष्णमूर्ति (जन्म १९०२, निधन- १९७८) इसके अविष्कारक थे। मेरी डिग्री उन्हीं के द्वारा स्थापित संस्थान से मिली है। डिग्री पर श्रद्धेय कृष्णमूर्ति के पुत्र के हरिहरन के हस्ताक्षर हैं। डिग्री पा कर अच्छा लगा। उसे खूब जतन से रखा है। डिग्री देने के बाद मेरे प्रोफेसर ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और कहा- बेस्ट आफ लक। अब आप प्रेक्टिस शुरू करें। मेरी शुभकामनाएं आप सबके साथ हैं। उनकी बातें सुन कर मैं क्षण भर के लिए भावुक हो गया। अचानक जैसे अंदर कुछ कौंधा। मैं सावधान हो गया। इस तरह की अनावश्यक भावुकता मनुष्य के लिए घातक है। जो शुरू होता है, वह खत्म होता ही है। इसमें भावुकता कैसी? मुझे यह अच्छा नहीं लगा कि मैं भावुक हो गया। यदि भावनाओं पर नियंत्रण नहीं है तो आप संतुलित व्यक्ति नहीं हैं। कल से मैं अब ज्यादा ही सावधान हो गया हूं। अपनी भावनाओं के प्रति। संतुलित भावना हो तो ठीक है। इस उम्र में आ कर भावुकता को न छोड़ना अच्छा नहीं है। मेरे प्रोफेसर का फोन नंबर मेरे पास है। मैं उनसे बातचीत कर ही सकता हूं। सिर्फ उनके यह कहने पर कि- अच्छा, नमस्कार। अब हम इस तरह क्लास में नहीं मिलेंगे। पर हम एक दूसरे को याद रखेंगे। गुड बाय। मेरी भावनाएं क्यों प्रभावित हो गईं? अब नियंत्रण का दौर शुरू हो गया है। जो है उसे जस का तस स्वीकार करना चाहिए। यही सृष्टि का नियम है। जहां तहां भावनात्मक लगाव हमारे लिए बाधा की तरह है। भावनात्मक परिस्थितियों का विवेक के साथ सामना करना होता है। मैंने फैसला किया है कि मैं ऐसा ही करूंगा।
Saturday, December 17, 2011
तीन बार शांति पाठ
विनय बिहारी सिंह
किसी भी धार्मिक- आध्यात्मिक अनुष्ठान को शुरू करने से पहले हम सब ऊं शांतिः, शांतिः, शांतिः का पाठ करते हैं। यह सिद्ध तथ्य है कि भगवान मन शांत हुए बिना नहीं महसूस हो सकते। शांति ही आनंद को बुलाने का रास्ता साफ करती है। इसीलिए शांति पाठ होता है। एक संत का कहना है- मन शांत करना भी एक कला है। जिनका मन अशांत रहता है, उनकी सांस तेज- तेज चलती है। रमण महर्षि कहते थे- यह सांस ही आपको सांसारिक बनाती है और यही आपको ईश्वर से जोड़ती है। मन चंचल होगा तो सांस भी अपेक्षाकृत तेज चलेगी। मन शांत होगा तो सांस भी बिल्कुल शांति से चलेगी। शांत रहने का दूसरा उपाय इस संत ने बताया- गहरी आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़िए। ऐसी पुस्तकें पढ़ने से मन एकाग्रचित्त होता है और ईश्वर की तरफ अपने आप खिंच जाता है। उनसे पूछा गया- और कोई उपाय? उन्होंने कहा- हां, एक और उपाय है। खूब एकाग्र हो कर ईश्वर के किसी नाम का जाप कीजिए। जैसे- राम, राम, राम। या राधे, राधे, राधे। या ऊं नमः शिवाय। इससे मन एकाग्र होता जाता है। लेकिन शर्त यह है कि जाप करते वक्त मन में भक्तिभाव हो। तोते की तरह भगवान का नाम दुहराने से मन शांत हो ही नहीं सकता। जाप हृदय से होना चाहिए। उन्होंने अंतिम उपाय बताया तभी एक व्यक्ति पूछ बैठा- और कोई उपाय नहीं है? यह प्रश्न सुन कर सभी हंस पड़े। उस संत ने फिर कहा- भाई, ईश्वर ही सारी चीजों से मुख्य स्रोत हैं। उनसे चाहे जैसे जुड़ेंगे, शांति मिलेगी। यही है उपाय। इस बात को आप चाहे जितनी तरह कहें। बात तो वही रहेगी।
किसी भी धार्मिक- आध्यात्मिक अनुष्ठान को शुरू करने से पहले हम सब ऊं शांतिः, शांतिः, शांतिः का पाठ करते हैं। यह सिद्ध तथ्य है कि भगवान मन शांत हुए बिना नहीं महसूस हो सकते। शांति ही आनंद को बुलाने का रास्ता साफ करती है। इसीलिए शांति पाठ होता है। एक संत का कहना है- मन शांत करना भी एक कला है। जिनका मन अशांत रहता है, उनकी सांस तेज- तेज चलती है। रमण महर्षि कहते थे- यह सांस ही आपको सांसारिक बनाती है और यही आपको ईश्वर से जोड़ती है। मन चंचल होगा तो सांस भी अपेक्षाकृत तेज चलेगी। मन शांत होगा तो सांस भी बिल्कुल शांति से चलेगी। शांत रहने का दूसरा उपाय इस संत ने बताया- गहरी आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़िए। ऐसी पुस्तकें पढ़ने से मन एकाग्रचित्त होता है और ईश्वर की तरफ अपने आप खिंच जाता है। उनसे पूछा गया- और कोई उपाय? उन्होंने कहा- हां, एक और उपाय है। खूब एकाग्र हो कर ईश्वर के किसी नाम का जाप कीजिए। जैसे- राम, राम, राम। या राधे, राधे, राधे। या ऊं नमः शिवाय। इससे मन एकाग्र होता जाता है। लेकिन शर्त यह है कि जाप करते वक्त मन में भक्तिभाव हो। तोते की तरह भगवान का नाम दुहराने से मन शांत हो ही नहीं सकता। जाप हृदय से होना चाहिए। उन्होंने अंतिम उपाय बताया तभी एक व्यक्ति पूछ बैठा- और कोई उपाय नहीं है? यह प्रश्न सुन कर सभी हंस पड़े। उस संत ने फिर कहा- भाई, ईश्वर ही सारी चीजों से मुख्य स्रोत हैं। उनसे चाहे जैसे जुड़ेंगे, शांति मिलेगी। यही है उपाय। इस बात को आप चाहे जितनी तरह कहें। बात तो वही रहेगी।
Friday, December 16, 2011
सत्संग या ईश्वर के साथ संग
विनय बिहारी सिंह
रमण महर्षि ने कहा है- सत्संग करना चाहिए। सत्संग यानी सत के साथ संग। सत क्या है? ईश्वर ही सत हैं। उनके साथ संग एकांत में शांति से होता है। मन शांत और एकाग्र हो। बिखरे हुए मन से ईश्वर के साथ संपर्क नहीं किया जा सकता। कुछ लोग पूजा- पाठ के समय भी प्रपंच सोचते रहते हैं। जिस समय भगवान से संपर्क करने के लिए हम बैठते हैं, उस समय यह संसार खत्म हो जाना चाहिए। वैसे भी भगवत् गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- हे अर्जुन, दुखों के इस संसार से बाहर निकलो। यानी इस संसार से सुख की आशा करना व्यर्थ है। भगवान से ही सुख की आशा की जानी चाहिए। भगवान यानी सुख। कैसा सुख? ईश्वरीय सुख। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- इस दुनिया की कोई भी भौतिक वस्तु आपको सुख नहीं दे सकती। किसी व्यक्ति से आपको सुख नहीं मिल सकता। यह संसार ही माया है। सिर्फ और सिर्फ भगवान से ही सुख मिल सकता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हमें जो सुख नहीं दे सकता उससे प्रेम नहीं करना चाहिए। अवश्य करना चाहिए क्योंकि हर व्यक्ति में भगवान हैं। लेकिन सुख तो केवल भगवान से ही मिल सकता है।
रमण महर्षि का कहना है कि ईश्वर ही सबकुछ हैं। उनसे संपर्क कीजिए। सदा उनसे जुड़े रहिए। आपका कल्याण होगा। एक बार किसी व्यक्ति ने रमण महर्षि से कहा कि आप लोगों के बीच प्रवचन क्यों नहीं देते। मौन रह कर आप कैसे लोगों तक संदेश पहुंचाएंगे। रमण महर्षि ने कहा- मौन, वक्तव्य से ज्यादा शक्तिशाली है। आप मौन रह कर लोगों तक संदेश पहुंचाइए। वह ज्यादा कारगर होगा। सभी बोलने को आतुर हैं। जबकि मौन रह कर ईश्वर से संपर्क अनंत सुखदायी है।
Wednesday, December 14, 2011
घृणा करने के नुकसान
विनय बिहारी सिंह
दुनिया की सभी धार्मिक पुस्तकों में उल्लेख है- किसी से घृणा न करें। क्यों? घृणा करने से हमारे भीतर जो रसायन बनते हैं, उसका हमारे शरीर, मन पर बहुत खराब असर पड़ता है। हमारा तंत्रिका तंत्र या नर्वस सिस्टम दूषित हो जाता है। हम जिससे घृणा करते हैं उसका नुकसान नहीं होता, सबसे पहले हमारा ही नुकसान होता है। दूसरा नुकसान यह है कि घृणा से घृणा का जन्म होता है और प्रेम से प्रेम का। घृणा नकारात्मक भाव है। ठीक जैसे क्रोध, ईर्ष्या और द्वेष से हमारा नुकसान होता है। हमारा मन दूषित होता है, शरीर दूषित होता है। ऋषियों ने कहा है- यदि आप घृणा को बढावा देंगे तो आप भी घृणा के शिकार होंगे। आपके भीतर उठने वाली घृणा की तरंगें या वाइब्रेशंस लौट कर आपके पास आती हैं और लोग भी आपसे घृणा करने लगते हैं। भले वे मुंह पर न कहें लेकिन उनके मन में घृणा भाव रहता है। यह भगवान का नियम है, प्रकृति का नियम है। आप गौर से देखिए जिस व्यक्ति ने जीवन भर लोगों से किसी न किसी कारण से नफरत की है, अंत में लोग भी उससे नफरत करने लगते हैं। कोई उससे बात करना नहीं चाहता। महापुरुषों ने कहा है- जैसे ही घृणा भाव आपके अंदर आए, उसे निकाल बाहर फेंकिए। शुरू में यह मुश्किल लग सकता है, लेकिन अभ्यास पक्का होते ही यह आसान हो जाता है।
Tuesday, December 13, 2011
रामचरितमानस का संदेश
विनय बिहारी सिंह
रामचरितमानस पढ़ते वक्त बार- बार यह बात सामने आती है कि मनुष्य के बड़े शत्रुओं में एक अहंकार भी है। रावण के भीतर अहंकार कूट- कूट कर भरा था। वह भगवान राम तक को कुछ नहीं समझता था। यही उसकी मृत्यु का कारण बना। दूसरी तरफ हनुमान जी भगवान राम के अद्वितीय भक्त थे। यही उनकी ताकत थी। इसीलिए जब तक सृष्टि रहेगी, उनकी पूजा होती रहेगी। हनुमान जी के पास धन नहीं था। वे राजा नहीं थे। लेकिन पूरे ब्रह्मांड के मालिक के प्रिय होने के कारण वे ब्रह्मांड के राजा जैसे थे। दूसरी तरफ रावण सोने की लंका का राजा था। वह भौतिक रूप से संपूर्ण समृद्धि का स्वामी था। लेकिन वह अहंकार के भरा हुआ था। इस अहंकार ने ही उसे मृत्यु दिया। यदि वह अपने भाई विभीषण की बात मान लेता और मां सीता को राम के पास लौटा देता तो उसका संहार नहीं होता। लेकिन वह अपने अहंकार में इतना डूबा हुआ था कि उसे लगता था कि वह जो भी सोचता है, सही है, उचित है। दूसरे जो कुछ भी कहते हैं, वह बेकार की बात है। उसे हमेशा अपनी प्रशंसा अच्छी लगती थी। निंदा से वह नाराज हो जाता था। दूसरी तरफ भगवान राम सबके हित में सोचते थे। सबकी राय ध्यान से सुनते थे। हालांकि वे सृष्टि के रचयिता हैं। लेकिन उनमें अहंकार छू कर भी नहीं था। उन्होंने रावण का वध किया। हम भी अपने भीतर के रावण का तभी वध कर सकते हैं जब हमारा अहंकार विलुप्त हो जाएगा। खत्म हो जाएगा। इसके बाद ही शुरू होता है भगवान से प्रेम। ईश्वर से प्रेम।
Thursday, December 8, 2011
ब्रह्मांड के मालिक भगवान
विनय बिहारी सिंह
परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि इस ब्रह्मांड को भगवान चला रहे हैं। मनुष्य नहीं। फिर तनाव क्यों। नर्वसनेस क्यों? यदि भगवान पर पूरा भरोसा है तो फिर तनाव का कोई कारण नहीं दिखता। यदि मनुष्य किसी शारीरिक या मानसिक कष्ट में है या तनाव में है तो उसे भगवान से सीधे प्रार्थना करनी चाहिए। उसके बस में बस यही है। आप समस्या सुलझाने की कोशिश भर कर सकते हैं। लेकिन समस्या सुलझाना ईश्वर के हाथ में है। क्यों न उन्हीं से प्रार्थना की जाए- प्रभु, मुझ पर कृपा कीजिए। इस समस्या को सुलझाइए। मैंने जितनी कोशिश करनी थी कर ली। अब यह समस्या आपके हवाले। ऋषियों ने कहा है कि ईमानदारी से की गई प्रार्थना सुनी जाती है। बशर्ते कि वह किसी के नुकसान के लिए न हो। प्रार्थना किसी पवित्र कार्य के लिए होनी चाहिए। सबसे बड़ी तो प्रार्थना यह है कि भगवान मुझे तो आपको पाने की ही इच्छा है। कृपया मुझे अपना बनाइए। यह ठीक है कि हम भगवान की ही संतान हैं। लेकिन फिर भी इस तरह की प्रार्थना से भगवान का ध्यान आकर्षित होता है। मां भी बच्चे की तरफ तभी विशेष ध्यान देती है जब वह रोता है। तो भगवान के सामने रोने में दिक्कत क्या है? वे अंतर्यामी हैं, सर्वशक्तिमान हैं और सर्वव्यापी हैं।
Wednesday, December 7, 2011
दरवाजा खटखटाइए, खुलेगा
विनय बिहारी सिंह
ऋषियों ने कहा है- भगवान का दरवाजा चरम भक्तिभाव से खटखटाइए। वह खुलेगा। यदि आपको लगता है कि भगवान आपके करीब नहीं हैं तो उनके लिए गहरी प्रार्थना कीजिए। उन्हें हृदय से पुकारते रहिए- प्रभु, आपको मैं महसूस नहीं कर पा रहा हूं। कृपया मेरी ग्रहणशीलता का विस्तार कीजिए। मुझे अपने होने का अनुभव कराइए। हालांकि मैं जानता हूं आप सदा मेरे साथ हैं। लेकिन यह मैं महसूस भी करना चाहता हूं। एक ईसाई संत थे- ब्रदर लारेंस। उनकी बातों को गीता प्रेस ने हिंदी में छापा है। ब्रदर लारेंस ने कहा है- मैं प्रभु से अलग हो ही नहीं सकता। इसलिए जब भी मुझे लगता था कि मैं प्रभु को महसूस नहीं कर पा रहा हूं, गहरी प्रार्थना करने लगता। यह मेरी आदत सी बन गई जिससे मुझे बहुत लाभ हुआ।
संत कबीरदास ने लिखा है- जिभ्या ते छाला परा, राम पुकारि, पुकारि।।
इस पंक्ति से लगता है कि भगवान सहज ही नहीं आते। वे चाहते हैं कि भक्त उनसे लगातार बातें करे। और अगर वे ऐसा चाहते हैं तो बुरा क्या है। वे हमारे माता हैं, पिता हैं। वे तो चाहेंगे ही कि हम उनसे बातें करें। उन्हें प्रकट होने के लिए कहें। इसीलिए तो वे छुपे रहते हैं। ऋषियों ने कहा है- जब आप इंद्रिय, मन और बुद्धि के परे जाएंगे तो भगवान को महसूस करेंगे। जब हम रात को सोते हैं तो शरीर का होश नहीं रहता। यह भी होश नहीं रहता कि हम कहां सोए हैं। बेसुध हो कर सोते हैं हम। ठीक उसी तरह जब हम अपनी आंखें बंद कर ईश्वर पर ध्यान केंद्रित करेंगे तो एक समय आएगा कि हम उन्हें महसूस करने लगेंगे।
Tuesday, December 6, 2011
केले और बिस्कुट
आखिर शाम के जलपान के लिए केले और दो बिस्कुट का ही विकल्प मिला। रोज केले न खा कर बीच-बीच में सेब, छेना (बिना चीनी वाला) वगैरह खाना ठीक है।
आध्यात्मिक भोजन के बारे में जानकारी चाही तो पता चला केला, सेब और अमरूद बेहतर विकल्प हैं। परमहंस योगानंद जी ने लिखा है कि नींबू पानी में एक चम्मच चीनी मिला कर पीने से हमारा नर्वस सिस्टम ठीक रहता है। एक और विकल्प है। केले कई तरह के होते हैं। जैसे- सिंगापुरी, कंटाली, भुसावल वाला, बर्दवान वाला। इन केलों को बदल बदल कर खाया जा सकता है।
Monday, December 5, 2011
जलपान
विनय बिहारी सिंह
हमारा नया कार्यालय नई जगह पर आ गया है। नेशनल हाईवे- छह पर। कोना एक्सप्रेस वे के पास। यह पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले में पड़ता है। शाम को जलपान की जरूरत महसूस हुई। बाहर निकला तो झोपड़ीनुमा दुकानें दिखीं। वहां गया तो पता चला जलपान में समोसा, कचौड़ी, बैगुन भाजा (बैंगन को लंबाई में पतला- पतला काट कर तरल बेसन में डुबा कर तला जाने वाला खाद्य) मिल रहा है। तली- भुनी चीजों के प्रति विरक्ति के कारण कुछ न खा कर लौट रहा था कि एक मिठाई की दुकान दिखी। सोचा छेने की मिठाई ही खा कर भूख पर काबू किया जाए। छेना प्योर होता है, उसमें घी- तेल नहीं होता। वहां गया तो देखा कि बंगाल की प्रसिद्ध मिठाई काचागोला (छेने से बनी) है। इसमें हल्की मिठास होती है, इसलिए उसे खा कर आजमाया। पर्याप्त मिठास थी। यह काचागोला की मिठास नहीं है। काचागोला तो हल्की मिठास वाला होता है। इसलिए सोचा कि घर से ही कोई जलपान लाया करेंगे।
कई बार सोच कर आश्चर्य होता है। क्या अपने भारत में जलपान के नाम पर अब समोसे और अन्य तली- भुनी चीजें ही मिला करेंगी? क्या बिना घी- तेल वाले हल्के- फुल्के, सुपाच्य जलपानों का अभाव ही रहेगा? दफ्तर में चाय और काफी की आटोमेटिक मशीन लगी है। हम सब वहां जाकर मनपसंद पेय ले सकते हैं। लेकिन अभी खाने का या जलपान का कोई इंतजाम नहीं हो पाया है। अब सोच रहा हूं। सुबह कार्यालय के लिए निकलते वक्त शाम के लिए कौन सा जलपान ले कर आऊं? अब तक कोई ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाया। स्लाइस्ड ब्रेड में तो मैदा होता है जो पेट के लिए ठीक नहीं होता। फल काट कर शाम तक रखना ठीक नहीं होगा। तो फिर क्या विकल्प है? शायद जल्दी ही कुछ समझ में आ जाएगा।
Friday, December 2, 2011
इंद्रियां धोखा देती हैं
विनय बिहारी सिंह
श्रीमद्भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि मन जिस इंद्रिय के साथ रहता है, वह उसका गुलाम हो जाता है। इंद्रियां जैसा नाच नचाती हैं, मन नाचता है। इंद्रियां कई बार हमारे शत्रु की तरह काम करती हैं। आम तौर पर हम शरीर का बहुत ध्यान रखते हैं। खूब अच्छी तरह नहाना- धोना, भोजन करना, आराम करना। इसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन शरीर का जरूरत से ज्यादा ख्याल रखना बीमारी है। स्वामी श्री युक्तेश्वर जी कहते थे- कुत्ते को रोटी दे दो और निश्चिंत हो जाओ। यानी शरीर का पोषण कर दो और फिर ईश्वर की तरफ मुड़ जाओ। हां, यह ठीक है कि हमें ठीक से खाना चाहिए, स्वच्छता का ख्याल रखना चाहिए। रोग-व्याधि न हो इसके लिए तत्पर रहना चाहिए। लेकिन हमेशा शरीर और उसकी आवश्यकताओं पर ही केंद्रित नहीं रहना चाहिए। यह शरीर अनेक लोगों को धोखा दे चुका है। इंद्रियां अपनी मनचाही चीजें चाहती हैं। अगर आप इंद्रियों की सुनते हैं तो वे और मांग करती हैं। आप इंद्रियों को जितना संतुष्ट करेंगे, वे और ज्यादा की मांग करेंगी। अगर आप इंकार कर देंगे तो वे आपको परेशान करेंगी। इस दुष्चक्र से मुक्ति का एक ही उपाय है कि आत्मसंयम बरता जाए। जितनी जरूरत है, शरीर को उतना ही दिया जाए। इंद्रियां जब जिद्दी हो जाती हैं तो हमारी शत्रु हो जाती हैं।
कई लोग घनघोर भोजन प्रेमी होते हैं। वे दिन- रात भोजन के बारे में ही सोचते रहते हैं। उनके लिए संसार में स्वादिष्ट भोजन के अलावा कुछ और आकर्षण की वस्तु है ही नहीं। उनके लिए भोजन ही ईश्वर तुल्य है। एक दिन साधारण भोजन मिला नहीं कि उनका मूड खराब हो जाता है। ऐसे व्यक्ति भोजन की बात करते समय खूब रस लेते हैं। उनसे आप भोजन के बारे में घंटों बातें कर सकते हैं। लेकिन इससे लाभ? कुछ नहीं। यदि वे भोजन के बदले ईश्वर चर्चा करते तो स्थाई सुख पाते। पर नहीं ईश्वर की तरफ उनका मन जाता ही नहीं।
Thursday, December 1, 2011
तनाव और उत्तेजना
विनय बिहारी सिंह
रास्ते में एक अनजान व्यक्ति जोर- जोर से फोन पर किसी से बातें कर रहा था- आप उत्तेजित होकर बात मत कीजिए.....इससे मेरा दिमाग खराब हो जाता है। शांत हो कर बोलिए। आप से जब भी बातें करता हूं, डिस्टर्ब हो जाता हूं...... शांति से बात कीजिए। समस्या उत्तेजना से नहीं सुलझेगी....... वगैरह, वगैरह।
जानते सभी हैं कि उत्तेजना से या क्रोध से या तनाव से कोई काम नहीं बन सकता। बिगड़ेगा ही। लेकिन फिर भी कई लोग उत्तेजित हो जाते हैं, चिड़चिड़े हो जाते हैं या क्रोध में आ कर कुछ भी बोल देते हैं। संतों ने कहा है- जब भी कोई समस्या आए या कोई डिस्टर्बेंस हो आप शांति से उसका विश्लेषण कीजिए और उपाय खोजिए। उपाय पर अमल कीजिए। तब आपका काम भी बन जाएगा और मन मस्तिष्क को कोई क्षति भी नहीं पहुंचेगी। हम जब भी तनाव में आते हैं, हमारे तंत्रिका तंत्र या नर्वस सिस्टम पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है। कई लोग तो तनाव के कारण ब्रेन हेमरेज तक के शिकार हो जाते हैं। तनाव हमें खतरनाक जगह पर ले जाता है। शांति हमें ईश्वर की ओर ले जाती है। इसलिए शांति से क्यों न सारा काम करें। हां, यह ठीक है कि हर आदमी को कभी न कभी क्रोध आता है और इस पर हमेशा काबू नहीं किया जा सकता। ऐसे समय में जहां क्रोध आ रहा हो, वहां से हट जाना चाहिए या लंबी सांस लेकर क्रोध से छुटकारा पाना चाहिए। यदि क्रोध आ ही जाए तो उसके लिए पछतावा न कर अगली बार सुधार कर लेना चाहिए। क्रोध से काम बिगड़ता है, यह सिद्ध हो चुका है। क्रोध या तनाव से हमारा दिल- दिमाग तो प्रभावित होता ही है, हमारा सामाजिक या पारिवारिक संबंध भी बिगड़ जाता है।
तनाव और उत्तेजना
विनय बिहारी सिंह
रास्ते में एक अनजान व्यक्ति जोर- जोर से फोन पर किसी से बातें कर रहा था- आप उत्तेजित होकर बात मत कीजिए.....इससे मेरा दिमाग खराब हो जाता है। शांत हो कर बोलिए। आप से जब भी बातें करता हूं, डिस्टर्ब हो जाता हूं...... शांति से बात कीजिए। समस्या उत्तेजना से नहीं सुलझेगी....... वगैरह, वगैरह।
जानते सभी हैं कि उत्तेजना से या क्रोध से या तनाव से कोई काम नहीं बन सकता। बिगड़ेगा ही। लेकिन फिर भी कई लोग उत्तेजित हो जाते हैं, चिड़चिड़े हो जाते हैं या क्रोध में आ कर कुछ भी बोल देते हैं। संतों ने कहा है- जब भी कोई समस्या आए या कोई डिस्टर्बेंस हो आप शांति से उसका विश्लेषण कीजिए और उपाय खोजिए। उपाय पर अमल कीजिए। तब आपका काम भी बन जाएगा और मन मस्तिष्क को कोई क्षति भी नहीं पहुंचेगी। हम जब भी तनाव में आते हैं, हमारे तंत्रिका तंत्र या नर्वस सिस्टम पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है। कई लोग तो तनाव के कारण ब्रेन हेमरेज तक के शिकार हो जाते हैं। तनाव हमें खतरनाक जगह पर ले जाता है। शांति हमें ईश्वर की ओर ले जाती है। इसलिए शांति से क्यों न सारा काम करें। हां, यह ठीक है कि हर आदमी को कभी न कभी क्रोध आता है और इस पर हमेशा काबू नहीं किया जा सकता। ऐसे समय में जहां क्रोध आ रहा हो, वहां से हट जाना चाहिए या लंबी सांस लेकर क्रोध से छुटकारा पाना चाहिए। यदि क्रोध आ ही जाए तो उसके लिए पछतावा न कर अगली बार सुधार कर लेना चाहिए। क्रोध से काम बिगड़ता है, यह सिद्ध हो चुका है। क्रोध या तनाव से हमारा दिल- दिमाग तो प्रभावित होता ही है, हमारा सामाजिक या पारिवारिक संबंध भी बिगड़ जाता है।
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