Wednesday, January 27, 2010

सब कुछ ब्रह्म ही है

विनय बिहारी सिंह

ऋषियों ने कहा है कि सर्वं खल्विदं ब्रह्मं यानी सब कुछ ब्रह्म ही है। ऋषियों ने यह भी कहा है- एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति यानी इस ब्रह्मांड में केवल और केवल ब्रह्म ही है। यह बात कितनी सटीक लगती है। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि मैं मनुष्य के हृदय में हूं। तब एक नए साधक ने उच्च कोटि के सन्यासी से प्रश्न किया कि अगर ईश्वर मनुष्य के हृदय में है तो वह महसूस क्यों नहीं होता? सन्यासी ने कहा- जिस मनुष्य के हृदय में वासनाओं, कामनाओं का आधिपत्य रहेगा, उसे ईश्वर की उपस्थिति कैसे जान पड़ेगी? आप जानते हैं कि अत्यंत तली- भुनी और गाढ़े मसाले में बनाई गई सब्जी या पकवान स्वास्थ्य के लिए घातक है। लेकिन चूंकि यह पकवान स्वादिष्ट लगता है, इसलिए अनेक लोग स्वास्थ्य की अनदेखी करते हैं। उनका रवैया यही रहता है कि अच्छा देखा जाएगा, फिलहाल तो खा लेते हैं। इसी तरह दिन पर दिन बीतते जाते हैं और जीवन के कई साल बीत जाते हैं क्योंकि चटपटा और खूब तले- भुने भोजन या जलपान के बिना उन्हें लगता है जीवन फीका पड़ गया। लेकिन जब इसी कारण तमाम तरह की गड़बड़ियां पैदा होने लगती हैं तो डाक्टर के पास दौड़ा- दौड़ी शुरू हो जाती है। इसी तरह हम जानते हैं कि हमारे हृदय में ईश्वर है, लेकिन हमारी वासनाएं, कामनाएं इतनी प्रबल होती हैं कि सोचते हैं कि पहले इसे पूरा कर लें, भगवान को बाद में महसूस करेंगे। भगवान को महसूस करने के लिए तो शांति चाहिए। मन शांत रहता है क्या? यह प्रश्न पूछिए तो ज्यादातर लोग कहते हैं कि नहीं। मन स्थिर रखना ही अनेक लोगों के लिए एक समस्या है। तो मन क्यों चंचल रहता है? इसका वे उत्तर नहीं दे पाते। कई लोग कहते हैं- पता नहीं। दरअसल मन की गति की तरफ हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया है। ध्यान देंगे और उसकी गतिविधि जानेंगे तब तो उसे नियंत्रण में करेंगे? इसीलिए हमारे ऋषियों ने कहा है कि पहले शांत हो जाओ। फिर सोचो कि इस दुनिया में हम क्यों आए? यह संसार किसने बनाया? यह इतने व्यवस्थित ढंग से कैसे चल रहा है। न हमारी कोई ऊंगली छोटी होती है न बड़ी। न दिन और रात में कोई व्यतिक्रम होता है। न सूर्य के उगने और अस्त होने में कोई व्यतिक्रम होता है। आखिर यह व्यवस्था करता कौन है? मनुष्य के प्राणों पर किसका नियंत्रण है? तब समझ में आता है कि अरे हां, सब कुछ तो ईश्वर के अधीन है। हम तो उसकी कठपुतली हैं। सर्वं खल्विंद ब्रह्म या एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति। पुराने जमाने में ऋषि- मुनि घनघोर जंगलों में तपस्या करते रहते थे, साधना करते रहते थे। उन्हें हिंस्र पशुओं की चिंता नहीं रहती थी। बाघ- भालू का भय नहीं रहता था। आज तो लोग रात में निकलने से भी इसलिए डरते हैं कि बाघ- भालू भले न हों, मनुष्य रूपी राक्षस हमला कर देंगे। नर्मदा परिक्रमा करने वाले तो आज भी कहते हैं कि रास्ते के जंगलों में बाघ- भालू और जहरीले सांप- बिच्छू रहते हैं लेकिन वहां साधु निर्भय हो कर रहते हैं। यह अठारहवीं शताब्दी की घटना है। एक बार परमहंस योगानंद जी के गुरु स्वामी श्री युक्तेश्वर जी पुरी (ओड़ीशा) के अपने आश्रम के बाहर अपने शिष्यों के साथ बैठे हुए थे तभी पास की झाड़ी से एक सांप फुंफकारते हुए उनकी तरफ तेजी से आया। स्वामी श्री युक्तेश्वर जी उसे देख कर ताली बजाने लगे। ज्योंही सांप पास आया- वह बिल्कुल शांत हो गया और दूसरी तरफ मुड़ गया। वहां बैठे शिष्यों ने राहत की सांस ली। स्वामी श्री युक्तेश्वर जी ने बताया- हर प्राणी प्यार के वश में आ जाता है। उन्होंन उस सांप के पास प्यार का ताकतवर वाइब्रेशन भेजा। वह वश में आ गया। स्वामी श्री युक्तेश्वर जी का कहना था- इस ब्रह्मांड में हर प्राणी को रहने का अधिकार है। इसलिए हर प्राणी से प्यार करना चाहिए। आखिर हर प्राणी ब्रह्म का रूप है। यह है ऋषियों की वाणी। हम इससे अगर थोड़ी भी सीख लेते हैं तो हमें सुख मिलेगा।

1 comment:

vandana gupta said...

bahut hi sundar aalekh likha hai........sahi kaha hai sab kuch brahm hi hai magar use samajhna har kisi ke vash ki baat nhi hai ......ye to mehsoos karne ka hai aur mahsoos wo hi kar sakta hai jiski ichchayein vasnayein shant ho gayi hon , jisne uski satta sweekar kar li ho ,jo uske astitva ka bodh kar chuka ho.
magar aaj ke bhotikvadi yug mein insaan aur sab kuch to pana chahta hai magar jo uska param lakshya hi usi ki ore agrasar nhi hona chahta agar wo ek bhi kadam us taraf utha le to uska jeevan sarthak ho jaye aur wo apni paramgati ko prapt ho jaye.