विनय बिहारी सिंह
मनुष्य को आखिर किस बात का अहंकार रहता है? न तो उसके हाथ में जन्म लेना है और न ही मृत्यु। वह तो ईश्वर के हाथ की कठपुतली है। ऐसे अनेक लोग मिल जाएंगे जो हुंकार के साथ कहते हैं कि अमुक काम उन्होंने किया। लेकिन क्या यह सच है? काम तो सब ईश्वर करता है, लेकिन नाम हमारा होता है। इसीलिए तो बंगाल के विख्यात काली भक्त रामप्रसाद ने गीत लिखा- तुमार काज तुमी करो, लोके बोले करी आमी।। यानी मां, तुम्हारा काम तुम ही करती हो, लेकिन लोग कहते हैं कि मैं कर रहा हूं। रामप्रसाद कहते थे कि यह ब्रह्मांड जगन्माता चला रही हैं। वे खुद को छुपाए रखती हैं। उनमें अहंकार नहीं है, अन्यथा वे छुपती ही क्यों? लेकिन साढ़े तीन हाथ का मनुष्य इतना अहंकारी है कि वह छोटा से छोटा काम भी- मैंने किया, मैंने किया कह कर संतुष्टि पाता है। रामकृष्ण परमहंस खुद को मैं नहीं कहते थे। वे अपना शरीर दिखा कर कहते थे कि यहां। मैं के बदले वे यहां कहते थे। जैसे- मान लीजिए उन्हें कहना है कि मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। तो वे कहते थे- यहां इस बात को कोई फर्क नही पड़ता। जब पूछा जाता था कि वे मैं शब्द का इस्तेमाल क्यों नहीं करते तो वे कहते थे, मैं तो कुछ करता नहीं, मैं रथ हूं, ईश्वर रथी हैं। मैं यंत्र हूं और ईश्वर यंत्री हैं। वे कहते थे- मैं कहने से तो अहंकार होता है। इसलिए इस मैं को ही खत्म कर दिया जाए। सामान्य व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता, लेकिन मैं के भाव से ऊपर तो उठ ही सकता है। यह तो सोच ही सकता है कि मनुष्य ईश्वर के अधीन है। उसकी अपनी कोई सत्ता नहीं है। इसलिए अगर हमारे जीवन में कुछ अच्छा हो रहा है या हुआ है तो इसे ईश्वर की कृपा ही मानें। इसके लिए ईश्वर का धन्यवाद करें। अहंकार से तो कुछ मिलने वाला नहीं है। जो अनंत कोटि ब्रह्मांड चला रहा है, उसके सामने हम हैं ही क्या? लेकिन ईश्वर की कृपा देखिए कि सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वग्य होकर भी ईश्वर हमसे कितना प्यार करते हैं। वे हमारा प्यार पाने के लिए कितना व्याकुल रहते हैं। इसकी वजह क्या है? वजह सिर्फ एक ही है- हम उनकी संतान हैं। हमें बस उनकी शरण में जाना है। एक बार उनसे अटूट संबंध बन जाए तो बस किसी बात की चिंता नहीं है। यानी प्रेम ही वह तरीका है जिससे हम भगवान को जीत सकते हैं। यह प्रेम कैसा हो? यह प्रेम बिल्कुल निर्मल, दिव्य और श्रद्धा में पगा हो। कहीं भगवान का नाम सुन लिया तो मन में प्रेम की हिलोरें मारने लगें। यही लक्षण है प्रेम का। असली प्रेम तो सिर्फ ईश्वर से ही हो सकता है क्योंकि वही हमारे माता, पिता, बंधु या सखा और ग्यान हैं। वे नहीं तो यह संसार कैसे अच्छा लगेगा? ईश्वर हैं तो सबकुछ है। बिना ईश्वर के जो जीते हैं, वे कैसे जीते होंगे, सोच कर आश्चर्य होता है।