Friday, July 31, 2009

साइंस के दो अद्भुत प्रयोग और अध्यात्म

विनय बिहारी सिंह

वैग्यानिकों ने दो अद्भुत प्रयोग किए हैं। यह प्रयोग यूरोप में हुआ है। उन्होंने मच्छरों में मलेरिया नाशक दवाएं भर दीं और उन्हें एक खास जालीदार घेरे में छोड़ दिया जहां मलेरिया के मरीज सोए हुए थे। यह एक अद्भुत प्रयोग था। मच्छर इन मरीजों को काटते थे और मरीजों के खून में मलेरिया मारक दवाएं चली जाती थीं। इन मच्छरों को फ्लाइंग इंजेक्शन कहा जा रहा है। जो मच्छर मलेरिया फैलाते हैं, उन्हीं का प्रयोग मलेरिया का नाश करने के लिए किया जा रहा है। वैग्यानिकों का कहना है कि इन मच्छरों को तब से मलेरिया रोधक या मारक दवाओं पर जिंदा रखा जाता है जबसे वे अंडे के भीतर होते हैं। नतीजा यह है कि वे मलरिया नाशक मच्छर के रूप में बड़े होते हैं औऱ जब वे मलेरिया से पीडित रोगी को काटते हैं तो वह भला चंगा हो जाता है। दूसरा प्रयोग किया गया है मनुष्य के पेशाब या मूत्र को लेकर। मूत्र से बिजली पैदा की जा रही है। एक लीटर मूत्र से १ किलोवाट बिजली पैदा हो रही है। लोगों को एक जलविहीन पेशाबखाने में पेशाब करने को कहा जाता है। जल न होने पर भी इस पेशाबखाने में दुर्गंध नहीं निकलती क्योंकि दुर्गंधनाशक व्यवस्था पहले ही कर दी गई है। मनुष्य के मूत्र में इतनी ऊर्जा है कि उससे बिजली पैदा हो जाती है। और हम आलस में पड़े रहते हैं। हमारे धर्म शास्त्रों ने ठीक ही कहा है कि मनुष्य के एक सेल में अपार ऊर्जा है। बस उसे ध्यान के द्वारा जाग्रत कर देने की जरूरत है। ध्यान मन या माइंड को केंद्रित करके ही होगा। यही कई लोगों को बहुत मुश्किल लगता है। जबकि अभ्यास से यह साधा जा सकता है। यह अभ्यास दो मिनट से शुरू करके बढ़ाते जाने से आप छह घंटे, आठ घंटे लगातार ध्यान में बैठ सकते हैं। लेकिन चैन से बैठ कर ध्यान करना होगा। मन अगर बेचैन है तो ध्यान मुश्किल हो जाएगा। बेचैन यानी अंग्रेजी में जिसे रेस्टलेस कहते हैं। रेस्टलेस को रेस्टफुल करना होगा।

Thursday, July 30, 2009

अल्ट्रासाउंड से मस्तिष्क का आपरेशन हुआ

विनय बिहारी सिंह

स्विट्जरलैंड में अल्ट्रासाउंड के जरिए मस्तिष्क का आपरेशन कर डाक्टरों ने नए युग का दरवाजा खोल दिया। उन्होंने एक दिन में आठ मरीजों के दिमाग का आपरेशन इसी पद्धति से किया है। डाक्टर इस उपलब्धि से बहुत खुश हैं। अल्ट्राउंड से अब तक शरीर की जांच वगैरह ही होती थी। यह कैसे संभव हुआ? दरअसल मस्तिष्क की प्रभावित कोशिकाओं पर अल्ट्रासाउंड की ऊर्जा को फेंकते हैं। इससे उन कोशिकाओं का तापमान १३० डिग्री फारेनहाइट तक पहुंच जाता है और कोशिकाएं तुरंत नष्ट हो जाती हैं। नतीजा यह है कि भयंकर सिरदर्द झेल रहा ट्यूमर वगैरह का रोगी, तुरंत राहत पाता है। इसमें चीर- फाड़ की झंझट भी नहीं है। रोगी के सिर को अल्ट्रासाउंड मशीन के भीतर रखा जाता है और उसे बिल्कुल भी पता नहीं चलता कि क्या हो रहा है। हां, उसे बेहोशी की दवा जरूर दे दी जाती है ताकि उसके दिमाग की संवेदनशीलता कम हो जाए औऱ अल्ट्रासाउंड आपरेशन और ज्यादा शांति से हो सके। डाक्टरों को बस कंप्यूटर के जरिए देखना होता है कि अल्ट्रासाउंड की ऊर्जा ठीक प्रभावित कोशिका पर ही पड़े। मस्तिष्क की ये कोशिकाएं चावल के दाने की तरह होती हैं। उन पर अल्ट्रासाउंड की ऊर्जा फेंकना कोई मुश्किल काम नहीं होता। डाक्टरों की टीम ने देखा कि जब अल्ट्रासाउंड से रोग प्रभावित अंग की रिपोर्ट मिल सकती है तो इस ऊर्जा का इस्तेमाल रोग ठीक करने में भी तो हो सकता है। इस पर उन्होंने कुछ प्रयोग किए और उन्होंने पाया कि अल्ट्रासाउंड की ऊर्जा तत्क्षण बीमर कोशिका को मार देती है और दर्द से छटपटा रहा रोगी तुरंत राहत महसूस करता है। यह स्थाई इलाज भी है। चीरफाड़ की झंझट तो है ही नहीं, मरीज जल्दी ही घर भी आ जाता है और आराम से अपनी जिंदगी गुजारने लगता है। उम्मीद है स्विट्जरलैंड में पनपी यह तकनीक हमारे भारत में भी देर- सबेर आएगी और हमारे देश के जरूरतमंदों का भी भला करेगी।

Wednesday, July 29, 2009

नर्मदा परिक्रमा में एक अद्भुत संत से भेंट

विनय बिहारी सिंह

एक धर्मपरायण व्यक्ति नर्मदा परिक्रमा कर रहे थे। मान्यता है कि नर्मदा परिक्रमा से जीवन में सुख- शांति आती है क्योंकि भगवान शिव प्रसन्न होते हैं। मां नर्मदा को भगवान शिव की पुत्री कहा गया है। इस पवित्र नदी (अगर प्रदूषण बढ़ रहा है तो यह हम मनुष्यों का दोष है) के किनारे- किनारे असंख्य शिव मंदिर हैं जिनमें न जाने कब से अद्भुत और जाग्रत शिवलिंग स्थापित किए गए हैं। तो एक व्यक्ति नर्मदा परिक्रमा कर रहे थे। जब वे एक घनघोर जंगल से गुजर रहे थे तो रात हो गई। चूंकि रास्ता अनजान था, इसलिए उन्हें पता नहीं था कि अगला शिव मंदिर कितनी दूर है ताकि वे रात्रि विश्राम कर सकें। अचानक उन्हें घंटे की आवाज सुनाई पड़ी। वे आवाज वाली दिशा में चल पड़े। पांच- सात मिनट में ही वे मंदिर में पहुंच गए। देखा चारो तरफ कोई बस्ती नहीं, जिधर देखिए घना जंगल है, इसमें पत्थर का एक मंदिर किसी पुण्यार्थी ने बना दिया है। लेकिन घंटा किसने बजाया। मंदिर का दरवाजा खुला हुआ था। शिवलिंग पर तरह- तरह के वनफूल चढ़ाए हुए थे। उन्होंने मंदिर में झांका। देखा एक सात फुट लंबे, बलिष्ठ से साधु नंग- धड़ंग वहां बैठे हैं। नर्मदा परिक्रमा करने वाले सज्जन संकोच के साथ आगे बढ़े। साधु ने आंखें खोलीं और पूछा- नर्मदा परिक्रमा कर रहे हो बेटा? वे बोले- हां बाबा। क्या मैं रात को यहां रह सकता हूं। मैं आसपास कोई ठहरने की जगह नहीं जानता। साधु बोले- बिल्कुल ठहर सकते हो। कुछ खाओगे? वे बोले- नहीं महात्मा जी। नर्मदा परिक्रमा करते वक्त एक बार ही खाना होता है। दिन में खा चुका हूं। इसलिए अब कल ही भोजन करूंगा। घोर अंधेरी रात थी। मंदिर में एक छोटा सा दिया टिमटिमा रहा था। मंदिर के बरामदे में परिक्रमाकारी कंबल बिछा कर सो गए। लेकिन उन्हें नींद नहीं आ रही थी। घनघोर अंधेरी रात। आकाश के तारे साफ दिखाई दे रहे हैं। चारो तरफ घना जंगल और हवा चलने की सांय- सांय आवाज। वे सोचने लगे- मंदिर में दिया जलाने के लिए तेल कहां से आता होगा? आसपास तो कोई गांव या बाजार भी नहीं है। ये साधु कौन हैं? नंग- धडंग क्यों रहते हैं? अगर मैं सो जाऊं और अचानक इस जंगल से कोई शेर आकर हमला कर दे तो? तभी साधु बोले- मैं नंग धड़ंग इसलिए रहता हूं क्योंकि मुझे कपड़े की जरूरत नहीं है। और दिया जलता है मां नर्मदा की कृपा से। कई कोस दूर से भक्त इस मंदिर में आते हैं और दिया जलाने का प्रबंध कर जाते हैं। इस जंगल में वस्त्र का क्या काम? तुम डरो नहीं कोई शेर- वेर नहीं आने वाला यहां। भगवान शिव शरणागत की रक्षा करते हैं। सो जाओ। परिक्रमाकारी के मन से अचानक डर खत्म हो गया। वे कब सो गए, उन्हें पता नहीं चला। सुबह उठे तो देखा साधु वैसे ही मंदिर में बैठे हुए हैं। तो क्या वे सोते ही नहीं हैं? उनके मन में उत्सुकता भरा प्रश्न उठा। लेकिन वे उठे और नीचे एक छोटी सी पहाड़ी नदी के पास जाकर प्रातः कृत्य संपन्न किया। फिर स्नान और मंदिर में पूजा की। इसके बाद उन्होंने साधु बाबा से जाने की इजाजत मांगी। साधु ने कहा- रुको। फिर न जाने कहां से एक चांदी की बड़ी सी प्लेट में पूरी, चार लड्डू और आलू की सब्जी दी। वे तो हैरान रह गए। पूरियां गर्म थीं। मानों अभी कड़ाही से निकाली गई हों। लेकिन मंदिर में रसोई का कोई प्रबंध ही नहीं था। जब उन्होंने जलपान कर लिया तो साधु बाबा ने कहा- इस प्लेट को नीचे नदी में फेंक आओ। वे हैरान। पूछा- इतनी अच्छी प्लेट फेंक दूं? साधु ने हंसते हुए कहा- हां। यह प्लेट बहते हुए मां नर्मदा की गोद में चली जाएगी। वहीं से यह पकवान और प्लेट आई थी। उन्हीं के पास चली जाएगी। जिस नर्मदा की परिक्रमा कर रहे हो। उस पर भरोसा न करके तुम रात को डर रहे थे। ऐसा कभी मत करना। जब भक्ति करो तो पूरे मन से। विश्वास करो तो पूरे मन से। वरना घर बैठो और जो मन में आए करो। लेकिन अगर व्रत लिया है कि नर्मदा परिक्रमा करोगे तो सहारा भगवान शिव और मां नर्मदा ही हैं। श्रद्धा करना सीखो, निष्ठा नहीं है तो नास्तिक बन जाओ। लेकिन बीच वाली स्थिति में मत रहो। इससे तुम्हारा ही नुकसान होगा। जाओ भगवान शिव को प्रणाम करो और उनसे कहो कि वे तुम्हारा रास्ता निष्कंटक कर दें। मगर दिल से प्रार्थना करना। अधूरेपन से नहीं।

Tuesday, July 28, 2009

गुरु कैसे शक्तिपात करता है शिष्य के भीतर

विनय बिहारी सिंह

शक्तिपात है क्या? गुरु अपनी दिव्य आध्यात्मिक शक्तियां शिष्य के भीतर स्थापित कर देता है ताकि शिष्य सूक्ष्म महाप्राण ऊर्जा या कास्मिक इनर्जी की धारा को लगातार और अनंत मात्रा में ग्रहण कर सके। शिष्य की ग्रहण करने की क्षमता सीमित ही होती है। गुरु उसकी ग्रहणशीलता को कई गुना बढ़ा देता है। कई बार शिष्य को समाधि का अनुभव नहीं होता या उसका चित्त एकाग्र नहीं होता तो गुरु शक्तिपात के जरिए उसके भीतर गहराई पैदा करता है और उसे मजबूत करता है। अक्सर हम पढ़ते हैं कि अमुक गुरु ने अपने शिष्य पर शक्तिपात किया। लेकिन गुरु यह तभी करता है जब उसे लगता है कि शिष्य साधना के प्रति अत्यंत गंभीर है और उसे मदद की जरूरत है। तो शक्तिपात है क्या? हम जानते तो हैं कि ईश्वर है, लेकिन उसे महसूस नहीं कर पाते क्योंकि हमारा रिसीवर टूटा- फूटा है। अयोग्य है। गुरु हमें पहले तो अपना रिसीवर ठीक करने को कहता है। वह इसकी विधि बताता है। शिष्य भक्ति के साथ उसका पालन करता है। जब बार- बार अभ्यास के बाद उसका रिसीवर ठीक हो जाता है तो गुरु पूछता है- तुम्हें कुछ ईश्वरीय अनुभव हो रहे हैं। तब भी अगर शिष्य कहता है- नहीं गुरुदेव। मुझे तो दिव्य प्रकाश तक नहीं दिखाई देता। गुरु फिर- फिर उसे तरीके बताता है। फिर भी शिष्य ईश्वर का दिव्य प्रेम अनुभव नहीं कर पाता तो गुरु उस पर शक्तिपात की कृपा करता है। यह होता कैसे है? सच्चा गुरु समुद्र होता है और शिष्य कप की तरह है। कप में समुद्र का कोई हिस्सा भी कैसे आएगा? गुरु अपनी शक्ति से शिष्य की ग्रहणशीलता को विस्तारित कर देता है। यह काम वह शिष्य के जाने बिना ही करता रहता है। जब उसे लगता है कि शिष्य की ग्रहणशीलता व्यापक हो गई तो अपने समुद्र का एक हिस्सा उसे दे देता है। तब शिष्य विभोर जैसी अवस्था में चला जाता है। कई शिष्य तो शक्तिपात ग्रहण कर हफ्तों ध्यान में मस्त रहते हैं। गुरु उसे उस अवस्था से खींच कर वापस लाता है ताकि आगे बढ़ने का क्रम जारी रह सके। यह विभोर होने वाली अवस्था तो एक पड़ाव भर है। शिष्य को और भी गहरे उतरना है। लेकिन आजकल गुरु खोजना सबसे मुश्किल काम है। बल्कि बहुत मुश्किल काम है। सच्चा गुरु कैसा होता है, इसकी पहचान परमहंस योगानंद जी ने एक पुस्तक में लिखा है। उस पुस्तक का नाम याद नहीं है। उनकी एक प्रसिद्ध पुस्तक- आटोबायोग्राफी आफ अ योगी है जो दुनिया की सभी भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। हिंदी अनुवाद का नाम है- योगी कथामृत। यह सच है कि आज भी सक्षम गुरु मौजूद हैं, लेकिन उन्हें कम लोग जानते हैं। वे अपना प्रचार नहीं करते। लेकिन खोजने वाले उन तक पहुंच जाते हैं। यह संक्षिप्त लेख लिखते हुए मुझे लगा शक्तिपात की तुलना रिजोनेंस सिद्धांत से भी तो की जा सकती है।

Monday, July 27, 2009

आने वाले दिनों में जरूरत नहीं रहेगी बिजली के तारों की

विनय बिहारी सिंह

मेसाचुसेट्स विश्वविद्यालय के वैग्यानिकों ने प्रयोग कर दिखा दिया है कि अब बिजली के तार की जरूरत नहीं पडेगी। उन्होंने बिना तार के टीवी चला कर दिखाया भी है। तब बिजली कैसे टीवी तक जाती है? बिजली तो दीवार पर लगे एक यंत्र में है। वैग्यानिकों ने बताया है कि यह रिजोनेंस नामक सिद्धांत के कारण हुआ है। यह सिद्धांत है क्या? यह है ऊर्जा का स्थानांतरण। यानी अगर दो वस्तुओं की रिजोनेंस फ्रिक्वेंसी एक जैसी है तो उनकी ऊर्जा आपस में स्थानांतरित की जा सकती है। वैग्यानिकों किया यह है कि बिजली और टीवी की रिजोनेंस फ्रिक्वेंसी एक कर दी। तब आपके मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि ऐसे में अगर कोई टीवी के पास जाएगा तो उसे करेंट नहीं लग जाएगा? क्योंकि टीवी में तो हवा के जरिए ही करेंट जा रहा है। करेंट के बीच में कोई खड़ा हो गया तो क्या झटका नहीं लगेगा? जी नहीं। वैग्यानिकों यह भी दिखा दिया कि उस फ्रिक्वेंसी पर कोई करेंट- वरेंट नहीं लगने वाला है। आखिर इस प्रयोग के पीछे की कहानी क्या है? एक वैग्यानिक रात को गहरी नींद में सो रहा था। उसके मोबाइल फोन या सेल की बैटरी लो यानी कमजोर हो गई और फोन टूं-टूं-टूं-टूं की जोर की आवाज करने लगा। वैग्यानिक की नींद टूट गई। उसने सेल आफ किया और सोचने लगा कि क्या कोई ऐसी तरकीब नहीं निकाली जा सकती कि मेरा मोबाइल अपने आप चार्ज हो जाए और मेरी नींद भी डिस्टर्ब न हो? सोचते- सोचते उसे रिजोनेंस सिद्धांत याद आया। उसने प्रयोग शुरू किया और तारों का जमाना खत्म होने की कल्पना साकार हो गई। आपको घर में कंप्यूटर लगाना है तो न जाने कितने तारों की जरूरत पड़ती है। फिर अगर उसे किसी दूसरे कमरे में ले जाना है तो फिर उतने ही तारों को हटाइए और नए कमरे में लगाइए। इससे आने वाले दिनों में निजात मिलने वाली है। वैग्यानिकों को बधाई।

Friday, July 24, 2009

ईश्वर के बारे में सोचना भी भक्ति ही है



विनय बिहारी सिंह


आटोबायोग्राफी आफ ए योगी (हिंदी में अनुवाद- योगी कथामृत) के लेखक और महान योगी परमहंस योगानंद जी (इस लेख के साथ उन्हीं का चित्र है) ने कहा है कि ईश्वर के बारे में सोचना भी भक्ति है। उन्होंने कहा है- ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है। उनसे बातचीत करिए, ग्रंथों में लिखे उनके वचनों को सुनिए या उन्हें पढिये , उनके बारे में सोचिए, ध्यान में उनकी उपस्थिति को महसूस कीजिए। कोई आपसे प्यार से बोलता है तो उसके पीछे ईश्वर का प्यार महसूस कीजिये । सोचिये कि प्रकृति के काम कैसे अपने आप नियम से हो रहे हैं। कैसे हम बना महसूस किए ही धीरे - धीरे उम्र दराज होते जा रहे हैं। ये दुनिया हमारे जन्म के पहले भी थी और मरने के बाद भी रहेगी। सिर्फ़ हम नहीं रहेंगे। हमारा शाश्वत सम्बन्ध जिससे है, उसे हम भुलाये बैठे हैं। ईश्वर ने हमे यहाँ भेजा है , और उसे ही हम भूल जाते हैं। हमें लगातार ईश्वर का स्मरण करना चाहिए। ईश्वर के बारे में लगातार सोचना चाहिए। उनके रूप, या गुणों या उनके अद्भुत कार्यो के बारे में सोचना चाहिए। लगातार ऐसा करने से आप पाएंगे कि यह अनरियल बात नहीं है। बिल्कुल रियल यानी सच है। हां, हम जब अकेले हों तो मन ही मन सही, ईश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं। अगर आपको किसी फूल की सुगंध मिली और आपका मन प्रसन्न हो गया तो आप महसूस कर सकते हैं कि यह ईश्वर की उपस्थिति है। धीरे- धीरे यही महसूस करना वास्तविकता में बदल जाएगा। परमहंस योगानंद जी ने आज से ५६ वर्ष पहले पश्चिमी देशों खास तौर से अमेरिका में जाकर योग का प्रचार किया था। उन्होंने सन १९५२ में अपना शरीर छोड़ा। तब तक वे निरंतर इसी बात पर जोर देते रहे कि इस दुनिया में ईश्वर ही सच है। बाकी सब नश्वर है। उन्होंने गीता पर जो भाष्य लिखा है, वह अद्भुत है। उन्होंने बताया है कि जन्म के पहले, जन्म लेने के बाद और मृत्यु के बाद हमारी क्या स्थिति होती है। कैसे हमारे संस्कार, हमारी इच्छाएं हमारी लालसाएं हमें बार- बार जन्म लेने के लिए बाध्य करती हैं। हम आनंद पाने के लिए फिर- फिर कामनाओं, वासनाओं में लिपट जाने के लिए प्रेरित होते हैं। जबकि असली आनंद तो ईश्वर में ही है। लोग भ्रमवश आनंद को गलत जगहों पर खोजते हैं। तो क्यों न इस चक्र से निकलने की कोशिश करें और असली आनंद के स्रोत को पकड़ें। हमारे सारे दुख, सारे तनाव और सारी चिंताएं खत्म हो जाएंगी। परमहंस योगानंद जी की पुस्तकें पढ़ कर उनके प्रति श्रद्धा से सिर झुक जाता है।

Thursday, July 23, 2009

कार्ल जुंग, जब रमण महर्षि से मिले

विनय बिहारी सिंह

जाने- माने मनोवैग्यानिक कार्ल जुंग ने भारत के संत रमण महर्षि के बारे में बहुत कुछ पढ़ रखा था। उनकी मां मानसिक रूप से बीमार थीं। इसीलिए उन्होंने मनोविग्यान का गहरा अध्ययन और शोध किया। जब उनकी ख्याति फैल गई तो उनके मन में रमण महर्षि से मिलने की उत्सुकता पैदा हुई। आखिर यह संत है कौन जो बहुत कम बोलता है और चुप रह कर भी पूरी दुनिया में जाना जाता है? वे भारत आए और रमण महर्षि से मिले। देखा कि महर्षि नंगे बदन सिर्फ एक कौपीन पहने आनंद में बैठे हैं। उन्होंने पूछा- मनुष्य क्या चाहता है? रमण महर्षि ने कहा- आनंद। कार्ल जुंग ने पूछा- आनंद कैसे मिलेगा? रमण महर्षि ने कहा- ईश्वर से संपर्क करके। कार्ल जुंग ने पूछा- ईश्वर से संपर्क कैसे होगा? रमण महर्षि ने कहा- जब मनुष्य खुद से प्रश्न करेगा- मैं कौन हूं? हू एम आई? । रमण महर्षि के पास दिन रात रहने वाले विद्वानों ने उनसे कहा- प्रश्नोत्तर इस तरह शुरु होगा- क्या मैं शरीर हूं? नहीं। क्या मैं मन हूं? नहीं। क्या मैं बुद्धि हूं? नहीं। इस तरह करते- करते आप समझ जाएंगे कि मैं ईश्वर का अंश हूं। फिर द्वैत नहीं रह जाएगा। सिर्फ ईश्वर ही रह जाएंगे। ईश्वर ने तो कहा ही है- एको अहम, बहूस्याम। मैं एक हूं, लेकिन अनेक में रूपांतरित होता हूं। समूचे ब्रह्मांड में ईश्वर हैं। कण- कण में भगवान। रमण महर्षि के पास बैठे एक आदमी ने पूछा- हमारा मन इतना चंचल क्यों है? हम जब ध्यान करने बैठते हैं तो वह एक चिंतन पर टिकता नहीं। मन बंदर की तरह एक बात से दूसरी बातों पर कूदता रहता है। इसे कैसे कंट्रोल में लाएं। रमण महर्षि ने कहा- सोचो कि किसका दिमाग इतना चंचल है? उस आदमी ने कहा- मेरा। रमण महर्षि ने पूछा- तुम कौन हो? अब वह आदमी समझ गया। उसने कहा- सचमुच मैं तो चिन्मय आत्मा हूं। मेरी अपनी तो कोई चिंता नहीं रही। जब मैं पूरा ब्रह्मांड ही हूं तो ईश्वर की मर्जी वह जैसा करे। मैं तो ईश्वर में डूबा रहूंगा और संसार के कर्तव्य निभाता रहूंगा।

Wednesday, July 22, 2009

क्वांटम थियरी का उद्भव कैसे हुआ?

विनय बिहारी सिंह

आज हम फिजिक्स या भौतिक शास्त्र में क्वांटम थियरी पढ़ते हैं। इसके प्रणेता थे- जर्मनी के मैक्स प्लैंक। उन्हें इसके लिए नोबेल पुरस्कार भी मिला। वे क्वांटम पर काम कर रहे थे। एक दिन जब वे घर में फायर प्लेस ( हम इसे अपने भारत में घर के भीतर अलाव कह सकते हैं) के पास रात का खाना खा कर बैठे थे। आग से जो प्रकाश निकल रहा था, उसकी किरणों को उन्होंने अपने अंतरमन में देखा। वे सोचने लगे- जैसे पदार्थ में ऊर्जा होती है, उसी तरह प्रकाश में भी तो ऊर्जा होती है। इस विषय पर उन्होंने काफी मंथन किया। सोचते- सोचते वे अपने अध्ययन कक्ष में गए। इस विषय पर गहरा अध्ययन किया। रात के दो बजे वे सोने चले गए। रात को उन्होंने अपने सपने में अपने दादा जी को देखा। उनके दादा जी का देहांत हो गया था। उनके दादा जी उनसे कह रहे थे- हां मैक्स, तुम ठीक सोच रहे हो। प्रकाश में ऊर्जा होती है और उसके ऊर्जा कणों की एक खास गति भी होती है। प्रकाश ऊर्जा से ध्वनि स्पंदन को गुजार कर तुम प्रयोग कर ही चुके हो। हालांकि यह विषय से हट कर था। क्वांटम थियरी पर काम आगे बढ़ाओ। तुम साइंस में इतिहास रचोगे। सुबह जब मैक्स प्लैंक की नींद खुली तो वे सीधे अपनी प्रयोगशाला में पहुंचे और थोड़ी देर तक बैठ कर रात के सपने के बारे में सोचते रहे। नित्य क्रिया से निवृत्त हो कर वे अपने काम में जुट गए। आज जिस क्वांटम थियरी के बारे में हम जानते हैं, उसके पीछे मैक्स प्लैंक का गहरा परिश्रम ही है। जो प्रकाश है वह अलग अलग ऊर्जाओं से बना हैं। प्रकाश की ऊर्जा टुकड़ों में बंटी है। प्रकाश फोटान से बने होते हैं। इन्हीं फोटानों को क्वांटा कहते हैं। क्वांटम थियरी यह भी कहती है कि आपने एक कप उठाया और गलती से वह गिर कर टुकड़े- टुकड़े हो गया तो यह घटना बहुत सारे यूनिवर्सेज में से एक में घटी है। यह एक यूनिवर्स या ब्रह्मांड की घटना है, संपूर्ण ब्रह्मांड की नहीं। कई ब्रह्मांड मिल कर एक महाब्रह्मांड बनाते हैं। मैक्स प्लैंक को साधुवाद।

Tuesday, July 21, 2009

कल कैसा दिखेगा सूर्यग्रहण, चंद्रमा पर पहुंचे ४० साल हो गए

विनय बिहारी सिंह

साइंस के क्षेत्र में दो घटनाएं हो रही हैं। २२ जुलाई (यानी कल) को सूर्यग्रहण होगा। बीते कल अपोलो ११ अभियान की ४०वीं वर्षगांठ मनाई गई। इसमें नील अर्मस्ट्रांग के साथ जिस एस्ट्रोनाट ने चंद्रमा पर अपना कदम रखा उनका नाम है बज एल्ड्रीन। ये दोनों चंद्रमा पर गए तो इतिहास रच कर आए। यह पहली बार था जब कोई मनुष्य चंद्रमा पर कदम रख रहा था। यह दिन था- २० जुलाई १९६९. लेकिन इस प्रसंग पर बाद में आएंगे। पहले सूर्य ग्रहण पर कुछ जानकारी लें। आप यह तो जानते ही हैं कि कल पूर्ण सूर्यग्रहण होगा। लेकिन पूर्ण सूर्यग्रहण सिर्फ ३ मिनट ३० सेकेंड तक रहेगा उसके बाद ग्रहण तो रहेगा लेकिन अपूर्ण। पूर्ण सूर्यग्रहण का एक रोचक तथ्य यह है कि ग्रहण जैसे- जैसे पूर्ण होने को होता है पेड़ों की पत्तियों की छायाएं अद्भुत आकार लेती जाती हैं। अगर आप पूछें कि इसके पहले पूर्ण सूर्यग्रहण कब हुआ था तो इसका जवाब है- १८ अगस्त १८६८ को। और इसके साथ ही यह भी जानकारी मिली है कि अगला पूर्ण सूर्य ग्रहण २० मार्च २०३४ को होगा। लेकिन यह सिर्फ जम्मू- कश्मीर में ही दिखेगा। कल का सूर्य ग्रहण ३००० किलोमीटर की दूरी तक देखा जा सकेगा। यह तो बताने की जरूरत नहीं है कि जब चंद्रमा, पृथ्वी और सूर्य के बीच आता है तो सूर्यग्रहण होता है। अब आप कहेंगे कि हर दो साल पर दुनिया में कहीं न कहीं आंशिक सूर्यग्रहण तो होता ही है, फिर इस पर इतनी बात क्यों की जाए। तो इसका जवाब यह है कि पूर्ण सूर्यग्रहण हमेशा नहीं होता। पूर्ण सूर्यग्रहण होने पर ही तमाम लेख लिखे जाते हैं और चर्चाएं होती हैं। अब चंद्र अभियान के ४० साल पर बात की जाए। बज एल्ड्रिन ने कहा है कि अब चंद्रमा पर दुबारा जाने के अभियान को इतना महत्व न देकर मंगल पर जाने की तैयारी की जानी चाहिए। नासा सन २०२० में चंद्रमा पर जाने के एक और अभियान के बारे में सोच रहा है। इस पर एल्ड्रिन ने कहा कि यह सनकीपन छोड़ कर मंगल ग्रह पर जाने पर विचार किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि चंद्रमा पर हमारे पहुंचने के ४०वें साल पर यह बताते हुए खुशी हो रही है कि मंगल पर जाने का अभियान अत्यंत उत्सुकता भरा है और इससे हमें कई उपयोगी जानकारियां मिलेंगी।

Monday, July 20, 2009

नौ साल की लड़की ने कहा- मां मैं भगवान से तुम्हारे लिए क्या मागूंगी?

विनय बिहारी सिंह

आइए एक सच्ची घटना जानें। एक नौ साल की लड़की को ब्लड कैंसर हो गया। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। उसका अच्छी तरह इलाज हुआ लेकिन डाक्टरों ने कहा कि वह छह महीने से ज्यादा जीवित नहीं रह पाएगी। हालांकि डाक्टरों ने उसके मां- बाप से धीरे से कहा, लेकिन बच्ची ने सुन लिया। उसने अपने घर वालों से कहा- मैं जानती हूं कि छह महीने से ज्यादा जिंदा नहीं रहूंगी। लेकिन मैं खुश हूं। घर के लोग हैरान। इसमें खुशी की बात क्या है? लड़की ने कहा- मुझे अपने प्रियतम भगवान से मिलने में अब सिर्फ छह महीने बाकी हैं। कितना अच्छा है न? अच्छा मां मैं तुम्हारे लिए भगवान से क्या मागूंगी? मां चकित। नौ साल की बच्ची यह कह क्या रही है? तभी उस अस्पताल के एक डाक्टर ने कहा- पूर्व जन्म में यह बच्ची बहुत आध्यात्मिक प्रवृति की रही होगी। तभी तो यह ईश्वर के बारे में इतनी कम उम्र में भी बड़ों की तरह बोल रही है। बच्ची बोली मैं हमेशा भगवान के सपने देखती हूं। उनसे बातें करती हूं। बहुत शांति मिलती है। अब उनसे मिलने का समय आ गया है। कितना अच्छा है न? उनके साथ खेलूंगी, बात करूंगी और आनंद मनाऊंगी। अब मेरी देखभाल का जिम्मा उनका है। ब्लड कैंसर में मरने के पहले व्यक्ति कोमा में चला जाता है। बच्ची कोमा में जाने से एक दिन पहले खूब हंस- हंस कर बातें करती रही। मानो आनंद मना रही हो। उसने कहा- मेरे बिस्तर पर खूब बढिया माला रख दो। मैं इसे भगवान के गले में पहनाऊंगी। घर वालों ने तुरंत एक अच्छी सी माला बाजार से मंगाई और उसकी बगल में रख दिया। अगले दिन वह कोमा में चली गई। मरने के बाद उसके चेहरे पर गहरी शांति थी। घर वालों ने पाया कि जैसे जैसे उसके मरने के दिन करीब आ रहे थे, वह बहुत खुश और उत्साहित लग रही थी। मानों मरना भी एक उत्सव हो। हमारे ग्रंथों में तो मृत्यु को रूपांतरण कहा ही गया है।

Saturday, July 18, 2009

कहां है भगवान शिव का श्मशान

विनय बिहारी सिंह

संतों ने कहा है कि भगवान शिव श्मशान में रहते हैं, लेकिन उनका श्मशान स्थूल नहीं है। स्थूल श्मशान में शव का अंतिम संस्कार होता है। ठीक इसी तरह सूक्ष्म स्तर पर यही काम ध्यान में होता है। तो फिर किस श्मशान में रहते हैं शिव जी? व्याख्या है कि जब ध्यान गहरा होता है तो व्यक्ति अपने शरीर और इंद्रियों को पूरी तरह भूल जाता है। जैसे आप जब सोते हैं तो आपको अपनी इंद्रियों का पता नहीं रहता। आप पूरी तरह सब कांशस स्टेट में होते हैं। आपको तो यह भी पता नहीं होता कि आप स्त्री हैं या पुरुष। आप तो अत्यंत गहरी नींद में होते हैं। लेकिन ध्यान और नींद में थोड़ा फर्क है। ध्यान में आपका ईश्वर में लय होता है। तब जाकर आप इंद्रियों से ऊपर उठ जाते हैं। जब शरीर का होश नहीं रहता तो आपका शरीर शव हो जाता है। आप अपने शव को अपने भीतर के श्मशान में ले जाते हैं और वहीं आपकी मुलाकात शिव से होती है। यानी भगवान शिव आपके भीतर बनाए हुए वैराग्य रूपी श्मशान में रहते हैं। संतों की यह व्यख्या पढ़ कर बहुत आनंद आया। सचमुच अगर हमारे भीतर शिव आ सकते हैं तो इससे बड़ी खुशी की बात और क्या हो सकती है। यह तो तभी संभव है जब हमारे भीतर विचारों का जो तूफान चलता रहता है, वह शांत हो। इसके बाद हम निर्विचार हो कर यह महसूस करें कि हम ईश्वर में हैं। जब देर तक यह महसूस हो कि हम ईश्वर में हैं तो अगला कदम है कि हम महसूस करें कि हमारा ईश्वर में लय हो रहा है। इसके बाद भगवान शिव से साक्षात्कार। यानी परम आनंद। इस आनंद की तुलना में संसार का कोई भी आनंद फीका है। संसार का सबसे बड़ा आनंद भी ईश्वरीय आनंद के सामने तुच्छ है, फीका है। तो क्यों न उस ईश्वरीय आनंद के लिए ही दीवाना हुआ जाए जो मिलने के बाद कोई भी हमसे छीन नहीं सकता, चुरा नहीं सकता। ईश्वरीय आनंद दिनोंदिन बढ़ता जाता है और उसकी कोई सीमा नहीं है। वह आनंद अनंत है। उसकी मात्रा आप माप नहीं सकते। वह समयहीन है यानी सदा के लिए है।

Friday, July 17, 2009

सामूहिक ध्यान के फायदे

विनय बिहारी सिंह

कई लोग सामूहिक ध्यान न कर, घर पर ही ध्यान करना बेहतर मानते हैं। लेकिन नए ध्यान करने वालों के लिए यह बहुत जरूरी है। जो ध्यान में पारंगत हैं वे कभी- कभी सामूहिक ध्यान कर सकते हैं। लेकिन नया ही नया ध्यान शुरू करने वाले लोगों के लिए हमारे ऋषियों ने सामूहिक ध्यान की सलाह दी है। कैसे लाभ होता है ? जैसे एक कोयले को जला दिया जाए तो अन्य कोयले भी उसके संपर्क से जल्दी ही जलने लगते हैं। उसी तरह मान लीजिए १० या २० आदमी एक साथ ध्यान कर रहे हैं। आप उनके बीच बैठे हैं यानी आप इन्हीं २० लोगों में से एक हैं। तो जो व्यक्ति ध्यान का नेतृत्व कर रहा है, उसके ध्यान की गहराई के साथ सभी ध्यान करने वाले प्रभावित होते हैं। हां, ध्यान का नेतृत्व वही व्यक्ति करे जो सिद्ध हो, यानी जिसका ध्यान जब चाहे गहरे उतर जाता हो। इसके अलावा आपके साथ जो लोग ध्यान कर रहे हैं, उनमें भी गहरे उतरने वाले होते हैं। उनका प्रभाव भी अन्य लोगों के ध्यान पर पड़ता है। ध्यान कहां किया जाना चाहिए? रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कि प्रसिद्ध स्थान तो हृदय है। लेकिन एक स्थान और है- भृकुटी के बीच। यानी भौंहों के बीच का वह स्थान जहां स्त्रियां बिंदी लगाती हैं या जहां हम सब टीका लगाते हैं। लेकिन ध्यान में मन चंचल नहीं होना चाहिए। बस ध्यान कर रहे हैं तो कर रहे हैं। जैसे आप जूता उतार कर घर में आते हैं, ठीक उसी तरह आप अपनी चिंताओं, परेशानियों और तनावों को बाहर फैंक आइए और निश्चिंत हो कर ध्यान करिए। हमारे बुजुर्गों ने कहा है-
चिंता से चतुराई घटे, दुख से घटे शरीर।
ध्यान हमारी सारी चिंताएं, सारा दुख सोख लेता है। इसीलिए ध्यान के बाद मन प्रसन्न हो जाता है। लेकिन हां, अगर संयोगवश आप ध्यान न करें तो पांच मिनट का जाप भी बहुत असरदार होता है। किसका जाप करें? किसी भी देवता के नाम का। चाहे- ऊं नमः शिवाय या राम राम राम या हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे या ऊं काली ऊं काली या आप अपनी सुविधा के मुताबिक किसी देवता का नाम लें। ऊपर जो उदाहरण दिए गए हैं वे ही ज्यादातर प्रचलन में हैं।

Thursday, July 16, 2009

ईश्वर हमारी चेतना में कैसे समाए

विनय बिहारी सिंह

एक कथा है। एक युवक ईश्वर साक्षात्कार के लिए बेचैन हो गया। उसकी बेचैनी इतनी बढ़ गई कि वह एक घने जंगल में गया और पेड़ों को ही संबोधित कर चिल्लाने लगा- मुझे ईश्वर के दर्शन चाहिए। हे ईश्वर तुम कहां हो? इस तरह कई दिन बीत गए। लेकिन युवक हतोत्साहित नहीं हुआ। वह चिल्लाने लगा- हे ईश्वर, मैं जानता हूं कि तुम- कण कण में हो, लेकिन मुझे अनुभव नहीं हो रहा है। मुझे अपना अनुभव कराओ, मुझे दर्शन दो, वरना मैं यूं ही चिल्लाता रहूंगा। युवक थकता भी नहीं था क्योंकि उसके भीतर ईश्वर को पाने की दीवानगी थी। तभी उधर से एक संत गुजरे। उन्होंने युवक से पूछा- बेटा तुम चाहते क्या हो? युवक ने कहा- मैं ईश्वर को जानना चाहता हूं। उनके दर्शन करना चाहता हूं। आप यह कृपा कर सकते हैं? संत ने कहा- तुम उत्तर की ओर वाली निकटतम बस्ती में जाओ, वहां एक बढ़ई तुम्हें इसका जवाब दे देगा। युवक तो बेचैन था ही। तुरंत पहुंच गया गांव में। उसने देखा कि उस गांव का एक मात्र बढ़ई सितार बना रहा है। उसे इसका ईश्वर से कोई संबंध नहीं दिखा। युवक आगे बढ़ा- देखा बढ़ई का बेटा उसी सितार पर चढ़ाने के लिए टीन को आकार दे रहा है। थोड़ा औऱ आगे बढ़ा तो देखा- बढ़ई का दूसरा बेटा सितार के तार माप कर काट रहा है। इन बातों से भी उसे ईश्वर का कोई संबंध नहीं दिखा। तभी पास के घर से उसे सितार पर बजाई गई एक मधुर धुन सुनाई पड़ी और वह धुन उसके भीतर उतर गई। वह मुग्ध था। वह उस घर में गया जहां से यह धुन सुनाई पड़ रही थी। अंदर जाकर देखा- एक बुजुर्ग स्त्री यह सितार बजा रही है। स्त्री ने सितार बजाना बंद कर दिया और युवक से पूछा- उसे क्या चाहिए। युवक ने जंगल में संत से मिलने की बात कही। अपनी बेचैनी के बारे में बताया। स्त्री ने कहा- जब तुम यह मानते हो कि ईश्वर हर जगह है तो फिर तुम्हारा हृदय भी तो वह जगह हो सकती है। तुम अपने दिल को ईश्वर भक्ति में क्यों नहीं पिघला देते। जब ऐसा कर दोगे तो ईश्वर से तुम्हारा साक्षात्कार अवश्य होगा। जब ईश्वर में लय होगा तो फिर तुम नहीं रहोगे। सिर्फ ईश्वर रहेंगे। तुम्ही ईश्वर के रूप हो जाओगे- प्रेम गली अति सांकरी, जामे दो न समाय।।

Wednesday, July 15, 2009

वनस्पति घी खाइए और स्वास्थ्य चौपट कीजिए

विनय बिहारी सिंह

यह रिपोर्ट है साइंस एंड इनवायरमेंट सेंटर की। उसकी रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि डालडा, रथ या जैमिनी जैसे वनस्पति ब्रांडों में ट्रांसफैट का स्तर जितना होना चाहिए उससे बारह गुना अधिक है। इससे स्वास्थ्य को नुकसान हो रहा है क्योंकि जरूरत से अधिक ट्रांसफैट बहुत हानिकारक है। सेंटर का तो यह भी कहना है कि इस तरह के वनस्पति खाने से हृदय रोग और मधुमेह होने का खतरा है। लेकिन सेंटर ने एक अच्छी रिपोर्ट यह दी है कि शुद्ध किए हुए खाद्य तेलों- सोयाबीन, मूंगफली, सूरजमुखी, सरसों, रेपसीड, पामोलीन वगैरह में ट्रांस फैट की मात्रा निर्धारित सीमा के अंदर है। इसेलिए ये सुरक्षित हैं। आम आदमी कैसे जाने कि कौन सा तेल खाने लायक है और कौन सा नहीं? डाक्टरों का कहना है कि खाद्य तेल ही खाना बेहतर है। इसमें पाली अनसेचुरेटेड फैटी एसिड की मात्रा अधिक होती है। लेकिन नारियल के तेल में यह कम पाया जाता है। डाक्टर तो यह भी कहते हैं कि भोजन में पाली अनसेचुरेटेड फैटी एसिड की मात्रा कम होने से त्वचा के रोग हो जाते हैं। जिन तेलों में मोनो अन सेचुरेटेड फैटी एसिड होता है वे लेकिन नुकसान करते हैं -जैसे-बिना शुद्ध किया हुआ रेपसीड, सरसों का तेल। चावल के छिलकों से भी तेल निकाला जाता है लेकिन कोलकाता में इन दिनों इस पर प्रतिबंध सा है क्योंकि आरोप है कि कुछ लोग इसमें मिलावट करने लगे थे जो कि स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहा था। आज के जमाने में तो सबसे अच्छा है तेल या घी के अधिक सेवन से बचना। अगर आप बहुत शौकीन हैं तो हफ्ते में एक दिन पूड़ी या पराठा खाएं। लेकिन अगर और परहेज कर सकते हैं तो महीने में एक बार ही पूड़ी- पराठा खाएं और मजे से रहें। कई घरों में सब्जियों में भी काफी तेल पड़ता है। अगर कम तेल में खाना पकाया जाए तो इसका आनंद ही अलग है। एक तो आपका खर्च बचेगा और दूसरे आपका स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। कम तेल या घी में पकी सब्जियां भी बहुत स्वादिष्ट होती हैं अगर उन्हें प्रेम से बनाया जाए। लाल मिर्च को भी जानकार स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताते हैं। कई लोग हलुआ बहुत पसंद करते हैं लेकिन यह बहुत ही गरिष्ट खाना है और जिनका पाचन तंत्र कमजोर है या जिन्हें कब्ज रहता है, वे तो हलुआ को दूर से ही नमस्कार कर लें। हमारे ऋषि- मुनियों ने कहा है कि भोजन को चार हिस्सों में बांट लेना चाहिए। दो हिस्से (यानी पेट का आधा हिस्सा) अनाज से भरना चाहिए। एक चौथाई हिस्सा सब्जियों से सूप से और बाकी हिस्सा भोजन के एक घंटे बाद पीने वाले पानी से। इस तरह भोजन करने वाला व्यक्ति हमेशा स्वस्थ रहेगा और उसे कभी गैस, अपच या कब्ज की शिकायत नहीं रहेगी। लेकिन अगर ऐसा व्यक्ति खूब चाय या काफी पीता है, खूब सिगरेट पीता है तो यह सारा परहेज बेकार हो जाएगा। इसलिए धूम्रपान और ज्यादा चाय या काफी वगैरह से भी परहेज जरूरी है। और हां, कोल्ड ड्रिंक भी आपके स्वास्थ्य को चौपट करते हैं, इसलिए उनका स्वाद भी एक सीमा के भीतर ही लेना उचित है।

Tuesday, July 14, 2009

जल्द आएगी बोलने वाली कार, बचाएगी हादसे से

इंडो-एशियन न्यूज

अभी तक हॉलीवुड की फिल्मों में ही बोलती हुई कार देखी गई थी, लेकिन अब यह फिल्मों से बाहर असल जिंदगी में भी उतरेगी। इसका श्रेय भारतीय मूल के दो इंजीनियरों को जाता है, जिन्होंने दो कारों के बीच बातचीत सुनिश्चित कराने वाली एल्गोरिथम की जोड़ी बनाने का दावा किया है। दक्षिण पैसिफिक विश्वविद्यालय के डॉ बी शर्मा और डॉ उतेश चंद के नेतृत्व वाले अंतरराष्ट्रीय दल ने एक ऐसा गणितीय समीकरण तैयार करने का दावा किया है, जो दो रोबोटिक कारों को सुरक्षित तरीके से लेन बदलने का निर्देश देगा।
डॉ शर्मा के अनुसार इस गणितीय समीकरण द्वारा रोबोटिक कारों को यह निर्देश मिलेगा कि उन्हें कब और कैसे लाइन में मिलना है। इससे दुर्घटनाओं की संख्या में कमी आएगी और यातायात के दबाव से भी निजात पाया जा सकेगा।
उन्होंने कहा, ‘‘फ्लोकिंग रोबोटिक्स में प्रयोग होने वाली एक बायोलॉजिकल तकनीक और रणनीति है। फ्लोकिंग का एक सबसे बड़ा फायदा यह है कि रोबोट आपस में बात कर सकते हैं और इससे हम लंबी दूरी तक जाने में भी सफलता पा सकते हैं।’’
वैज्ञानिकों द्वारा ऐसा दावा किया जा रहा है कि सभी कारें एक एल्गॉरिथम सीरीज से नियंत्रित होंगी। इस केंद्रीकृत प्रणाली में कारें एक दूसरे से संपर्क में रहेगी। (एनडीटीवी से साभार)

Monday, July 13, 2009

जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ गई हैं

दक्षिण एशिया में मौसम के बदलाव का व्यापक असर देखा जा रहा है.दुनिया की जानी मानी संस्था ऑक्सफ़ैम का कहना है कि पर्यावरण में हो रहे बदलावों के कारण ऐसी भुखमरी फ़ैल सकती है जो इस सदी की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी साबित होगी.इस अंतरराष्ट्रीय चैरिटी की नई रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण में बदलाव ग़रीबी और विकास से जुड़े हर मुद्दे पर प्रभाव डाल रहा है. इटली में जी आठ देशों के सम्मेलन से पहले ऑक्सफ़ैम ने धनी देशों के नेताओं से अपील की है कि वो कार्बन उत्सर्जन में कमी करें और ग़रीब देशों की मदद के लिए 150 अरब डॉलर की राशि की व्यवस्था करें.ऑक्सफ़ैम का कहना है जलवायु परिवर्तन के कारण एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीकी देशों में ग़रीब लोग और ग़रीब होते जा रहे हैं. इन देशों में किसानों ने ऑक्सफ़ैम से कहा है कि बरसात का मौसम बदल रहा है जिससे उनको खेती में दिक्कतें हो रही हैं.ये किसान कई पीढ़ियों से खेती के लिए मौसमी बरसात पर ही निर्भर रहे हैं लेकिन अब बदलते मौसम के कारण उन्हें नुकसान हो रहा है.रिपोर्ट के अनुसार भारत और अफ़्रीकी देशों में बारिश के मौसम में बदलाव के कारण अगले दस वर्षों में मक्के के उत्पादन में पंद्रह प्रतिशत की गिरावट आ सकती है.इतना ही नहीं बढ़ती गर्मी के कारण मलेरिया जैसी बीमारियां फैल रही हैं और उन इलाक़ों में जा रही हैं जहां पहले इस बीमारी के फैलने की संभावनाएं नहीं थीं.मौसम के बारे में सही अनुमान नहीं लग रहे हैं और दुनिया के कई इलाक़ों में अप्रत्याशित तौर पर बाढ़, आंधी तूफ़ान और जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ गई हैं.ऑक्सफ़ैम ने धनी देशों से अपील की है कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए वो निजी तौर पर ज़िम्मेदारी लें और निष्पक्ष तरीके से काम करें ताकि एक मानवीय त्रासदी को रोका जा सके.रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक देशों को अपने कार्बन उत्सर्जन में 2020 तक कम से कम 40 प्रतिशत की गिरावट करनी चाहिए. इतना ही नहीं धनी देशों को ग़रीब देशों की मदद के लिए 150 अरब डॉलर का एक कोष तैयार करना चाहिए ताकि इन देशों को अपना कार्बन उत्सर्जन कम करने और बड़ी चुनौतियों से निपटने में मदद मिले. (बीबीसी से साभार)

Saturday, July 11, 2009

राजा का भ्रम दूर किया स्वामी विवेकानंद ने

विनय बिहारी सिंह

एक बार स्वामी विवेकानंद दक्षिण भारत की यात्रा पर गए और एक जिग्यासु राजा के अतिथि बने। राजा ने जानबूझ कर स्वामी जी के सम्मान का बहाना करते हुए एक नर्तकी बुलाई और उनके सामने उसे नृत्य पेश करने को कहा। स्वामी विवेकानंद मुस्कराते हुए वहां बैठे रहे। जब नृत्य कार्यक्रम खत्म हुआ तो राजा ने उनसे पूछा- कैसा लगा नृत्य? नर्तकी सुंदरी थी न? स्वामी विवेकानंद बोले- हां, अगर जगन्माता की शक्ति नहीं होती, नर्तकी नाचती ही कैसे? और सुंदरी दिखती ही कैसे? इसीलिए इस नर्तकी में मुझे जगन्माता की झलक दिखाई पड़ी। इसीलिए तो मैं लगातार इसके पैर देख रहा था। मानों जगन्माता के ही पैर हों। नर्तकी तो उनके पैरों पर ही गिर पड़ी। राजा भी स्तब्ध हो गए। फिर राजा ने कहा- लोग जो देवी- देवताओं के फोटो की पूजा करते हैं, .यह मुझे एकदम बकवास लगता है। फोटो की पूजा क्या करना है? सामने ही एक राजा की तस्वीर लगी थी। स्वामी विवेकानंद ने राजा से पूछा- यह किसकी तस्वीर है? राजा बोले- मेरे पिता जी की। विवेकानंद बोले- तो इसे अगर कोई जूते मारे तो आपको कैसा लगेगा? राजा का मुंह गुस्से से लाल हो गया। वह बोला- मैं उसकी हत्या कर दूंगा। विवेकानंद बोले- क्यों। ये तो आपके पिता जी नहीं हैं। यह तो सिर्फ फोटो है। इसकी इतनी इज्जत क्यों करते हैं? अब राजा की समझ में आया कि यह तो उसके प्रश्न का उत्तर है। स्वामी विवेकानंद ने कहा- जैसे आप अपने पिता जी के फोटो के प्रति इतने संवेदनशील हैं वैसे ही भक्त अपने देवी- देवता के प्रति संवेदनशील होता है। और फोटो की पूजा करने में बुराई क्या है? क्या भगवान नहीं जानते कि फोटो के रूप में उन्हीं की पूजा हो रही है? वे तो सर्वग्याता हैं। अब राजा की समझ में आया कि देवी- देवताओं के फोटो की पूजा का मतलब क्या है। फिर राजा ने प्रश्न किया- अच्छा लोग तीर्थ क्यों करने जाते हैं? मंदिरों में पूजा क्यों करते हैं? भगवान तो सभी जगहों पर हैं। घर में भी तो पूजा कर सकते हैं। या मन ही में क्यों नहीं पूजा करते? तब स्वामी विवेकानंद ने कहा- आपके घर में पंखा क्यों झला जा रहा है? हवा तो सब जगह है। उसी से काम चलाइए न। जिस तरह आराम के लिए हवा का पंखा चलाया जाता है, उसी तरह भगवान का आशीर्वाद पाने के लिए हर उपाय जरूरी है। तीर्थ भी, मंदिर में पूजा भी। लेकिन हां, अगर मन में अटल भक्ति, श्रद्धा और विश्वास नहीं है तो कोई भी तीर्थ, मंदिर में पूजा या पाठ या मंत्र जाप व्यर्थ हो जाएगा।

Friday, July 10, 2009

लीजिए बन गया शुक्राणु

हमारी पौराणिक कहानियों में बिना किसी पुरूष के बच्चे पैदा करने की बातें न जाने कितनी बार दर्ज हुई हैं। वैज्ञानिकों ने इसे अब जाकर किया है। आइये देखें खोज क्या है?........
ब्रिटेन में न्यूकासल विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में मानव शुक्राणु बनाने का दावा किया है. वैज्ञानिकों का मानना है कि दुनिया में पहली बार हुए इस प्रयोग की सफलता से पुरुषों में बंध्यता या बाप नहीं बन पाने की समस्या को दूर करने में मदद मिल सकती है.
न्यूकासल विश्वविद्यालय और नॉर्थईस्ट स्टेम सेल इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में स्पर्म या शुक्राणु विकसित करने के अपने सफल प्रयोग की रिपोर्ट विज्ञान पत्रिका 'स्टेम सेल एंड डेवलपमेंट' में प्रकाशित की है.
इस क्षेत्र से जुड़े कई अन्य वैज्ञानिकों को इस बात पर संदेह है कि पूरी तरह से विकसित शुक्राणुओं को प्रयोगशाला में पैदा किया गया है. लेकिन न्यूकासल के वैज्ञानिकों ने एक वीडियो जारी कर दावा किया है कि उनके द्वारा बनाए गए शुक्राणु पूरी तरह विकसित और गतिशील हैं.
आख़िर प्रयोगशाला में शुक्राणु विकसित करने के इस प्रयोग से क्या फ़ायदा होगा?
इस सवाल के जवाब में न्यूकासल विश्वविद्यालय के प्रयोग से जुड़े वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर करीम नेयर्निया ने बीबीसी को बताया, "इस तकनीक के ज़रिए हम पुरुषों की बंध्यता की समस्या को बेहतर ढंग से समझ सकेंगे, क्योंकि प्रयोगशाला में हम शुक्राणुओं के विकास के अलग-अलग चरणों का अध्ययन कर सकते हैं. इससे हमें शुक्राणुओं के आनुवंशिक प्रभाव या उन पर पड़ने वाले पर्यावरणीय जैसे बाह्य प्रभावों का भी अध्ययन करने का मौक़ा मिलता है."
गर्भधारण में इस्तेमालशुक्राणु बनाने की प्रक्रियाएक नर भ्रूण से स्टेम कोशिकाएँ निकाली गईं. स्टेम कोशिकाएँ यानि नवविकसित भ्रूण में पाई जाने वाली वो मास्टर कोशिकाएँ जो कि आगे चल कर शरीर के किसी भी अंग का रूप ले सकती हैं. इन स्टेम कोशिकाओं को शरीर के तापमान पर लाकर उसे एक ऐसे रासायनिक घोल में डाला गया जहाँ कि कोशिकाओं में वृद्धि हो सके. इन स्टेम कोशिकाओं से बाद में 'जर्मलाइन' स्टेम सेल नामक कोशिकाओं को अलग किया गया. उल्लेखनीय है कि 'जर्मलाइन' स्टेम कोशिकाएँ ही आगे चल कर अंडाणु या शुक्राणु का रूप लेती हैं. अब इन 'जर्मलाइन' कोशिकाओं को 'मियोसिस' प्रक्रिया से गुजारा गया. क्रोमोज़ोम की संख्या आधी करने वाली ये प्रक्रिया शुक्राणुओं के विकास के लिए ज़रूरी होती है. इस तरह स्टेम कोशिकाओं को शुक्राणुओं में बदलने में चार से छह हफ़्ते का समय लगता है.
जब उनसे ये पूछा गया कि क्या प्रयोगशाला में विकसित शुक्राणुओं का गर्भ धारण कराने में इस्तेमाल किया जा सकता है, तो उन्होंने कहा, "ब्रिटेन में इसकी अनुमति नहीं हैं. क़ानूनन इस पर पाबंदी है. इन शुक्राणुओं का आगे कोई उपयोग हो सके इसके लिए ज़रूरी है कि पहले उन भ्रूणों की गारंटी दी जाए जिनसे स्टेम कोशिकाएँ लेकर शुक्राणु बनाए जाने हों."
प्रोफ़ेसर नेयर्निया के अनुसार, "उसके बाद प्रयोगशाला को आगे के प्रयोगों के लिए सुरक्षित करना होगा. इसके बाद भी पहले जानवरों के शुक्राणुओं के साथ कोई प्रयोग हो सकेगा. उसके पाँच से सात साल बाद ही मानव से जुड़े किसी प्रयोग पर काम किया जा सकेगा."
उनका कहना है कि उनकी टीम को किसी मादा भ्रूण से शुक्राणु विकसित करने में अभी सफलता नहीं मिली है, लेकिन सिद्धान्तत: ऐसा करना संभव है.
जब उनसे उनके प्रयोग से जुड़े नैतिक सवालों के बारे में पूछा गया तो उनका कहना था, "ये चिंता करना कि हमारा उद्देश्य इन शुक्राणुओं के इस्तेमाल से बच्चे पैदा करने का है, ग़लत है. ये ठीक नहीं है. हम जो कर रहे हैं वो दरअसल पुरुषों में बंध्यता की समस्या को समझने की, शुक्राणुओं के विकास को समझने की कोशिश है."
प्रोफ़ेसर नेयर्निया के अनुसार, "ये नैसर्गिक मानव प्रजनन का विकल्प नहीं, बल्कि बाप बनने में नाकाम पुरुषों की सहायता और समर्थन में एक कार्यक्रम भर है."
लेकिन उनके इस आश्वासन का ज़्यादा असर दिखता लग नहीं रहा है.
कई अख़बारों में सनसनीखेज़ सुर्ख़ियाँ लगी हैं कि बच्चे पैदा करने के लिए अब पुरुषों की ज़रूरत नहीं रह जाएगी.
वहीं कोरइथिक्स नामक एक संस्था ने इस प्रयोग को अनैतिक पागलपन की संज्ञा देते हुए सवाल किया है कि प्रयोगशाला में शुक्राणु विकसित करने के चक्कर में एक स्वस्थ भ्रूण को नष्ट करने को कैसे उचित ठहराया जा सकता है। (बीबीसी हिन्दी से साभार )
हमारे ऋषियों ने यह चमत्कार कई हज़ार साल पहले कर दिया था। उन्होंने तो क्लोन भी बना दिया था।

Thursday, July 9, 2009

महिलाओं को क्यों कहा जाता है मातृ शक्ति

विनय बिहारी सिंह

इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि महिलाएं मातृ शक्ति हैं। यह पूरा ब्रह्मांड जग्न्माता ने धारण कर रखा है। वही हमें भोजन देती हैं और जरूरत की अन्य चीजें भी। यहां एक संत की बहुत अच्छी बात मुझे याद आ रही है। उन्होंने कहा था- जब भी मैं किसी सुंदर स्त्री को देखता हूं तो मन में यही ख्याल आता है कि अगर मेरी अभी मृत्यु हो गई तो हो सकता है दुबारा मैं इसी सुंदरी के गर्भ से उसका बेटा हो कर पैदा होऊं। बस यह ख्याल आते ही मेरे मन में उसके प्रति माता का भाव आता है। इस संत के विचार सुन कर मैं सुखद आश्चर्य में था। हां, सच ही तो है। हम भी किसी न किसी माता के पेट से ही तो आए हैं। इसीलिए महिलाओं को मातृ शक्ति कहा जाता है। इसी मातृ शक्ति का अनंत स्वरूप हैं मां काली या मां दुर्गा। हम उन्हीं की संतानें हैं। तब आप कहेंगे कि जब हम अनंत शक्तिशाली मां की संतानें हैं तो जीवन में इतनी परेशानी क्यों है? तो इसका उत्तर है- यह दुख जगन्माता ने नहीं दिए हैं। यह सारे तनाव और दुख हमने खुद पैदा किए हैं। जो भी काम ईश्वर को साक्षी मान कर नहीं किया जाता, ईश्वर को समर्पित करके नहीं किया जाता, उसका परिणाम सुखद नहीं होता। एक बार कोई काम करने से पहले ईश्वर के चरणों में उसे रख तो दीजिए। लेकिन सभी ऐसा नहीं कर पाते। क्योंकि उन्हें लगता है कि वे बहुत बुद्धिमान हैं, ईश्वर से क्या इजाजत लेना। मैं तो कर ही लूंगा- का अहंकार उनमें बना रहता है। बस, यही हमें बाद में डंसता रहता है। हमें परेशान करता रहता है। इन सबसे मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय है ईश्वर की शरण में जाना। जैसे आप किसी ट्रेन या प्लेन में चढ़ते हैं तो अपना सामान आप हाथ में टांगे नहीं रहते। उस ट्रेन या प्लेन में ही रखवा देते हैं। उसी तरह जब आप ईश्वर की शरण में जाएंगे तो आपके सारे दुख, तनाव, तकलीफें और भय ईश्वर दूर कर देंगे।

Saturday, July 4, 2009

अकेलेपन से डरना नहीं, उसका आनंद लेना है

विनय बिहारी सिंह

कई लोग अकेलेपन से बहुत डरते हैं। वे हमेशा किसी न किसी के साथ रहना चाहते हैं। अगर किसी कारणवश उन्हें अकेले रहना पड़ता है तो वे जल्दी से काम खत्म कर किसी न किसी से बात करना या घर है तो वहां जाना चाहते हैं। लेकिन बड़े- बड़े संतों ने कहा है- यह आपका सौभाग्य है कि दिन या रात में आपको अकेले रहने का मौका मिलता है। हालांकि आप बिल्कुल अकेले कभी नहीं होते। भगवान हमेशा आपके साथ होते हैं। लेकिन उन्हें सूक्ष्मता से महसूस करना होता है। भौतिक रूप से अगर अकेले हैं तो उस शांति का आनंद लीजिए जो माहौल में पसरा हुआ है। लेकिन उस शांति को आप तभी महसूस कर सकते हैं जब आपके भीतर भी शांति हो। अगर भीतर शांति नहीं तो बाहर चाहे कितना भी सुंदर दृश्य हो, कितनी भी शांति हो, थोड़ी देर ही आपको आनंददायक लगेगा। आप फिर भीतर की अशांति से प्रभावित हो जाएंगे। इसलिए सबसे पहले भीतर की शांति चाहिए। यह ध्यान या ईश्वर से जुड़ने से सहज ही उपलब्ध हो जाता है। संयोग से या जानबूझ कर पाए हुए अकेलेपन को सुख मानिए। उस समय आप कुछ मत सोचिए। बस उस शांति में ईश्वर की उपस्थिति महसूस करते हुए आप उसमें घुल जाइए, पिघल जाइए। आप ईश्वर की गोद में पिघलेंगे तो आपको गहरी शांति मिलेगी। तब आपको लगेगा कि अकेले होने का आनंद क्या है। यह ठीक है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। लेकिन हमेशा सामाजिक धर्म निभाते हुए आप ऊब जाएंगे। इसलिए अकेलापन ढूंढिए और ईश्वर को साथ लेकर उसमें रम जाइए। तब लगेगा, यह अकेलापन आपको आशीर्वाद के रूप में मिला है। ईश्वर के साथ संपर्क के लिए अकेले होना बहुत जरूरी है। चाहे दस मिनट ही सही, ऐसा समय क्यों न निकालें जब सिर्फ और सिर्फ हम हों और ईश्वर हों। बाकी कोई नहीं। उन क्षणों का आनंद आप शब्दों में नहीं बयां कर सकते। यह तो अनुभव और आनंद की स्थिति है।

Friday, July 3, 2009

संत नामदेव

विनय बिहारी सिंह

महाराष्ट्र में जन्मे संत नामदेव के अराध्य विट्ठल (श्रीकृष्ण) थे। विट्ठल के प्रति नामदेव की भक्ति विलक्षण थी। वे विट्ठल के बिना एक पल भी जी नहीं सकते थे। वे उनके सांसों में बसे थे। दिनरात विट्ठल मंदिर में रहना, उनकी भक्ति के गीत गाना, उनके सामने मस्ती में नृत्य करना और उनसे बातें करना ही उनका काम था। मंदिर में वैसे तो विट्ठल की मूर्ति थी। लेकिन अकेले में वह मूर्ति जीवंत हो जाती थी और संत नामदेव के साथ बातें करती। नामदेव को जो पूछना होता था, विट्ठल से ही पूछते थे। बाकी संसार से नामदेव को कोई मतलब ही नहीं था। किसी चीज की जरूरत पड़ी तो बस विट्ठल से कह दिया। वे मंदिर छोड़ कर कहीं जाते नहीं थे। एक बार एक संत सभा में एक कुम्हार संत से संतों ने कहा कि कृपया सभी संतों की हांडी बजा कर देख लीजिए कि सब अच्छी तरह पक गए हैं या नहीं। यानी सभी को ईश्वर प्राप्ति हुई है या नहीं। कुम्हार संत हंसते हुए सबके सिर पर फूल की तरह ठोक कर देखने लगे। जब वे नामदेव के पास पहुंचे तो नामदेव ने ऐतराज किया। लेकिन कुम्हार संत ने उनके सिर पर फूल की तरह स्पर्श कर दिया और आगे बढ़ गए। नामदेव को बुरा लगा। उन्होंने लौट कर विट्ठल भगवान से इसकी शिकायत की। विट्ठल ने कहा- इसका रहस्य तो संत जानें। नामदेव ने उनसे कहा- आप इस समूचे ब्रह्मांड के स्वामी हैं। क्या आप इसका उत्तर नहीं दे सकते? विट्ठल ने फिर मुस्कराते हुए जवाब दिया- इसका उत्तर तो संत ही दे सकते हैं। नामदेव ने फिर पूछा- तो आप सर्वग्य क्यों कहे जाते हैं? विट्ठल ने वही उत्तर दुहरा दिया- इसका उत्तर तो संत ही दे सकते हैं। संत नामदेव की समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। उनकी दुविधा देख कर विट्ठल बोले- जंगल के संत से मिलो। तुम्हारी सारी शंकाएं खत्म हो जाएंगी। नामदेव जंगल के मंदिर की तरफ गए। वहां एक भिखारी जैसा दाढ़ी बढ़ाए एक आदमी लेटा हुआ था और उसका पैर शिवलिंग पर था। नामदेव को लगा कि यह आदमी तो पागल सा है। यह संत नहीं हो सकता। तभी उस पागल से आदमी ने कहा- तुम्हें विट्ठल ने भेजा है क्या? नामदेव चौंके। वे समझ गए जिस संत की तलाश करने वे आए हैं, यही हैं। उन्होंने कहा- आपने अपना पैर शिवलिंग पर क्यों रखा है? आप जानते नहीं कि देवता पर पैर नहीं रखते? संत ने कहा- भाई मैं तो बूढ़ा हो गया हूं। तुम्हीं पैर हटा कर वहां रख दो, जहां शिवलिंग न हो। आश्चर्य। नामदेव जहां- जहां पैर रखते, वहीं एक शिवलिंग बन जाता। हार कर नामदेव ने उनका पैर अपने ऊपर रख दिया। ज्योंही उन्होंने संत का पैर अपने ऊपर ऱखा, वे स्वयं शिवलिंग बन गए। अब नामदेव की समझ में आया। भगवान सर्वव्यापी हैं। वे कहां नहीं हैं? भगवान तो कण- कण में हैं। संत ने नामदेव से गूढ मुद्दों पर बातें कीं। वे संतुष्ट हो कर वापस लौटे। लेकिन विट्ठल के पास न जाकर सीधे अपने घर चले गए। जब दो- तीन दिन तक नामदेव विट्ठल मंदिर में नहीं आए तो भगवान विट्ठल स्वयं नामदेव के घऱ गए और पूछा- तुम मेरे पास मंदिर में क्यों नहीं आते? नामदेव ने जवाब दिया- आप क्या सिर्फ मंदिर में ही हैं? आप तो हर जगह हैं। मैंने आपको समझा था कि आप सिर्फ मंदिर में ही रहते हैं। इसीलिए मंदिर के बाहर आता नहीं था। अब समझ में आ गया है कि ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां आप नहीं है। फिर मंदिर क्यों जाऊं। आप तो मेरे घर में भी है। और संतों की सभा में मेरे अहंकार को ठेस लगी थी। जबकि संत में तो अहंकार होना ही नहीं चाहिए। मैं तो आपके साथ रहते रहते अहंकारी हो गया था। यह ठीक नहीं। आप तो सभी भक्तों को उतना ही प्यार करते हैं। जहां प्रेम की पराकाष्ठा होगी, वहां अहंकार कैसा? अहंकार, ईर्ष्या, क्रोध, लज्जा या भय आदि तो पाश हैं, बंधन हैं। बिना इनसे ऊपर उठे आपका प्यार कैसे मिलेगा? और प्यार में तो ये सब पाश या बंधन नष्ट हो जाते हैं। अब मैं आपको और ज्यादा प्यार करने लगा हूं और अब आप मुझे हर जगह दिख रहे हैं।

Thursday, July 2, 2009

नहीं भाई भगवान बुद्ध को ऐसा मत कहो

विनय बिहारी सिंह

एक भाई ने भड़ास पर सवाल किया है कि भगवान बुद्ध भगोड़े थे। क्या वे निर्वाण पा कर मृत्यु को जीत पाए? आखिर सन्यासी बन कर उन्होंने क्या कर लिया? मित्र, भगवान बुद्ध मृत्यु पर विजय प्राप्त करने नहीं गए थे। वे गए थे इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ने कि आखिर मनुष्य है क्या? क्या वह शरीर है? क्या वह मन है? या कि आत्मा? जब वे राजकुमार थे। उनका नाम था सिद्धार्थ गौतम। एक दिन उन्होंने कोचवान से नगर भ्रमण के करने की इच्छा व्यक्त की। कोचवान रथ पर उन्हें बैठा कर नगर की सैर करा रहा था। तभी उन्होंने एक बूढ़े व्यक्ति को देखा। उसकी कमर झुकी हुई थी। उन्होंने पूछा- इस आदमी को क्या हुआ है? कोचवान ने बताया- यह आदमी बूढ़ा हो गया है। सभी एक दिन बूढ़े होते हैं। यह राजकुमार के लिए झटके की तरह था। फिर उन्होंने क्रमशः बीमार, विकलांग और साधु को देखा और उनके दिमाग में मनुष्य की नश्वरता को लेकर तरह- तरह के प्रश्न उठने लगे। उनके दिमाग में पहला सवाल उठा- मनुष्य जन्म क्यों लेता है? आगे बढ़ने से पहले हम यह जान लें कि कपिलवस्तु के पास लुंबिनी में वे पैदा हुए थे। उन्होंने लंबे समय तक तपस्या की। वे शाक्य गणराज्य के अगले राजा थे। उनकी पत्नी यशोधरा अत्यंत सुंदरी थी। आप कल्पना करें- अकूत संपत्ति, अप्सरा सी सुंदर पत्नी, विशाल साम्राज्य, चरम भोग के सारे साधन और राजा का पद। यह सारी चीजें सिद्धार्थ गौतम को कूड़ा- करकट लगीं ( आज तो बड़े- बड़े संयमी लोग थोड़ा सा भी धन देख कर पूंछ हिलाने लगते हैं और अपनी तथाकथित नैतिकता की मिट्टी पलीद कर देते हैं।) गौतम बु्द्ध भगोड़े नहीं महान त्यागी थे मित्र। आज तो एक घर या कुर्सी छोड़ने की बात आते ही लोग क्या क्या नाटक नहीं करते। गौतम बुद्ध ने ५०० ईस्वी पूर्व पूरा राजपाट, भोग- विलास और सम्मान छोड़ दिया। आप कल्पना कीजिए एक सुंदर स्त्री और प्यारे से बेटे को छोड़ कर उन्होंने किस मनःस्थित में राजमहल छोड़ा होगा। उनके त्याग के पीछे उनका तीव्र वैराग्य था। उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। वे मनुष्य जीवन के रहस्य जानना चाहते थे। उन्होंने कठोर तप किया। आखिर बोध गया में पीपल के पेड़ के नीचे उन्हें ग्यान (तकनीकी कारणों से ग्यान मैं ऐसे ही लिख पा रहा हूं) प्राप्त हुआ। तब तक उनका शरीर सूख कर कांटा हो गया था। इस तप को भगोड़ा कहना बुद्ध के साथ नाइंसाफी है। जरा कोई घर छोड़ कर इस वैराग्य की हद तक जा कर तो दिखाए। तब पता चलेगा कि गौतम बुद्ध क्या थे। बैठे- बिठाए उन्हें भगोड़ा कह देना ठीक नहीं है।
बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है -
सम्यक ज्ञान बुद्ध के अनुसार धम्म यह है:
जीवन की पवित्रता बनाए रखना। जीवन में पूर्णता प्राप्त करना। निर्वाण प्राप्त करना। तृष्णा का त्याग। यह मानना कि सभी संस्कार अनित्य हैं। कर्म को मानव के नैतिक संस्थान का आधार मानना। बुद्ध के अनुसार सद्धम्म क्या है-- 1. जो धम्म प्रज्ञा की वृद्धि करे। जो धम्म सबके लिए ज्ञान के द्वार खोल दे। जो धम्म यह बताए कि केवल विद्वान होना पर्याप्त नहीं है। जो धम्म यह बताए कि आवश्यकता प्रज्ञा प्राप्त करने की है । जो धम्म मैत्री की वृद्धि करे। जो धम्म यह बताए कि प्रज्ञा भी पर्याप्त नहीं है, इसके साथ शील भी अनिवार्य है। जो धम्म यह बताए कि प्रज्ञा और शील के साथ-साथ करुणा का होना भी अनिवार्य है। जो धम्म यह बताए कि करुणा से भी अधिक मैत्री की आवश्यकता है। वह सभी प्रकार के सामाजिक भेदभावों को मिटा दे। वह आदमी और आदमी के बीच की सभी दीवारों को गिरा दे। वह बताए कि आदमी का मूल्यांकन जन्म से नहीं कर्म से किया जाए जब वह आदमी-आदमी के बीच समानता के भाव की वृद्धि करे । बुद्ध को भगवान यूं ही नहीं कहते। मेरा आग्रह है कि जिन मित्र ने भगवान बुद्ध को भगोड़ा कहा है, वे भगवान बुद्ध पर केंद्रित प्रामाणिक ग्रंथों को बार- बार पढ़ें। ये ग्रंथ एक या दो बार पढ़ने से समझ में नहीं आते। इन्हें किसी बौद्ध विद्वान से समझना पड़ेगा। ।

Wednesday, July 1, 2009

हमारे बिना चाहे, कौन करवाता है हमसे मनमानी

विनय बिहारी सिंह

आज गीता का वह अंश पढ़ें जिसमें भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कामनाओं के विषय में सावधान किया है। अर्जुन का प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण है। आइए गीता की ओर मुड़ें-

( काम के निरोध का विषय )- अर्जुन उवाचः

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥

भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है॥36॥॥ श्रीभगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥

भावार्थ : श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥37॥

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥

भावार्थ : जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है॥38॥

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥

भावार्थ : और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है॥39॥

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌ ॥

भावार्थ : इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है। ॥40॥

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌ ॥

भावार्थ : इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल॥41॥

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥

भावार्थ : इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है॥42॥