विनय बिहारी सिंह
आइए एक सच्ची घटना जानें। एक नौ साल की लड़की को ब्लड कैंसर हो गया। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। उसका अच्छी तरह इलाज हुआ लेकिन डाक्टरों ने कहा कि वह छह महीने से ज्यादा जीवित नहीं रह पाएगी। हालांकि डाक्टरों ने उसके मां- बाप से धीरे से कहा, लेकिन बच्ची ने सुन लिया। उसने अपने घर वालों से कहा- मैं जानती हूं कि छह महीने से ज्यादा जिंदा नहीं रहूंगी। लेकिन मैं खुश हूं। घर के लोग हैरान। इसमें खुशी की बात क्या है? लड़की ने कहा- मुझे अपने प्रियतम भगवान से मिलने में अब सिर्फ छह महीने बाकी हैं। कितना अच्छा है न? अच्छा मां मैं तुम्हारे लिए भगवान से क्या मागूंगी? मां चकित। नौ साल की बच्ची यह कह क्या रही है? तभी उस अस्पताल के एक डाक्टर ने कहा- पूर्व जन्म में यह बच्ची बहुत आध्यात्मिक प्रवृति की रही होगी। तभी तो यह ईश्वर के बारे में इतनी कम उम्र में भी बड़ों की तरह बोल रही है। बच्ची बोली मैं हमेशा भगवान के सपने देखती हूं। उनसे बातें करती हूं। बहुत शांति मिलती है। अब उनसे मिलने का समय आ गया है। कितना अच्छा है न? उनके साथ खेलूंगी, बात करूंगी और आनंद मनाऊंगी। अब मेरी देखभाल का जिम्मा उनका है। ब्लड कैंसर में मरने के पहले व्यक्ति कोमा में चला जाता है। बच्ची कोमा में जाने से एक दिन पहले खूब हंस- हंस कर बातें करती रही। मानो आनंद मना रही हो। उसने कहा- मेरे बिस्तर पर खूब बढिया माला रख दो। मैं इसे भगवान के गले में पहनाऊंगी। घर वालों ने तुरंत एक अच्छी सी माला बाजार से मंगाई और उसकी बगल में रख दिया। अगले दिन वह कोमा में चली गई। मरने के बाद उसके चेहरे पर गहरी शांति थी। घर वालों ने पाया कि जैसे जैसे उसके मरने के दिन करीब आ रहे थे, वह बहुत खुश और उत्साहित लग रही थी। मानों मरना भी एक उत्सव हो। हमारे ग्रंथों में तो मृत्यु को रूपांतरण कहा ही गया है।
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