Friday, July 3, 2009

संत नामदेव

विनय बिहारी सिंह

महाराष्ट्र में जन्मे संत नामदेव के अराध्य विट्ठल (श्रीकृष्ण) थे। विट्ठल के प्रति नामदेव की भक्ति विलक्षण थी। वे विट्ठल के बिना एक पल भी जी नहीं सकते थे। वे उनके सांसों में बसे थे। दिनरात विट्ठल मंदिर में रहना, उनकी भक्ति के गीत गाना, उनके सामने मस्ती में नृत्य करना और उनसे बातें करना ही उनका काम था। मंदिर में वैसे तो विट्ठल की मूर्ति थी। लेकिन अकेले में वह मूर्ति जीवंत हो जाती थी और संत नामदेव के साथ बातें करती। नामदेव को जो पूछना होता था, विट्ठल से ही पूछते थे। बाकी संसार से नामदेव को कोई मतलब ही नहीं था। किसी चीज की जरूरत पड़ी तो बस विट्ठल से कह दिया। वे मंदिर छोड़ कर कहीं जाते नहीं थे। एक बार एक संत सभा में एक कुम्हार संत से संतों ने कहा कि कृपया सभी संतों की हांडी बजा कर देख लीजिए कि सब अच्छी तरह पक गए हैं या नहीं। यानी सभी को ईश्वर प्राप्ति हुई है या नहीं। कुम्हार संत हंसते हुए सबके सिर पर फूल की तरह ठोक कर देखने लगे। जब वे नामदेव के पास पहुंचे तो नामदेव ने ऐतराज किया। लेकिन कुम्हार संत ने उनके सिर पर फूल की तरह स्पर्श कर दिया और आगे बढ़ गए। नामदेव को बुरा लगा। उन्होंने लौट कर विट्ठल भगवान से इसकी शिकायत की। विट्ठल ने कहा- इसका रहस्य तो संत जानें। नामदेव ने उनसे कहा- आप इस समूचे ब्रह्मांड के स्वामी हैं। क्या आप इसका उत्तर नहीं दे सकते? विट्ठल ने फिर मुस्कराते हुए जवाब दिया- इसका उत्तर तो संत ही दे सकते हैं। नामदेव ने फिर पूछा- तो आप सर्वग्य क्यों कहे जाते हैं? विट्ठल ने वही उत्तर दुहरा दिया- इसका उत्तर तो संत ही दे सकते हैं। संत नामदेव की समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। उनकी दुविधा देख कर विट्ठल बोले- जंगल के संत से मिलो। तुम्हारी सारी शंकाएं खत्म हो जाएंगी। नामदेव जंगल के मंदिर की तरफ गए। वहां एक भिखारी जैसा दाढ़ी बढ़ाए एक आदमी लेटा हुआ था और उसका पैर शिवलिंग पर था। नामदेव को लगा कि यह आदमी तो पागल सा है। यह संत नहीं हो सकता। तभी उस पागल से आदमी ने कहा- तुम्हें विट्ठल ने भेजा है क्या? नामदेव चौंके। वे समझ गए जिस संत की तलाश करने वे आए हैं, यही हैं। उन्होंने कहा- आपने अपना पैर शिवलिंग पर क्यों रखा है? आप जानते नहीं कि देवता पर पैर नहीं रखते? संत ने कहा- भाई मैं तो बूढ़ा हो गया हूं। तुम्हीं पैर हटा कर वहां रख दो, जहां शिवलिंग न हो। आश्चर्य। नामदेव जहां- जहां पैर रखते, वहीं एक शिवलिंग बन जाता। हार कर नामदेव ने उनका पैर अपने ऊपर रख दिया। ज्योंही उन्होंने संत का पैर अपने ऊपर ऱखा, वे स्वयं शिवलिंग बन गए। अब नामदेव की समझ में आया। भगवान सर्वव्यापी हैं। वे कहां नहीं हैं? भगवान तो कण- कण में हैं। संत ने नामदेव से गूढ मुद्दों पर बातें कीं। वे संतुष्ट हो कर वापस लौटे। लेकिन विट्ठल के पास न जाकर सीधे अपने घर चले गए। जब दो- तीन दिन तक नामदेव विट्ठल मंदिर में नहीं आए तो भगवान विट्ठल स्वयं नामदेव के घऱ गए और पूछा- तुम मेरे पास मंदिर में क्यों नहीं आते? नामदेव ने जवाब दिया- आप क्या सिर्फ मंदिर में ही हैं? आप तो हर जगह हैं। मैंने आपको समझा था कि आप सिर्फ मंदिर में ही रहते हैं। इसीलिए मंदिर के बाहर आता नहीं था। अब समझ में आ गया है कि ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां आप नहीं है। फिर मंदिर क्यों जाऊं। आप तो मेरे घर में भी है। और संतों की सभा में मेरे अहंकार को ठेस लगी थी। जबकि संत में तो अहंकार होना ही नहीं चाहिए। मैं तो आपके साथ रहते रहते अहंकारी हो गया था। यह ठीक नहीं। आप तो सभी भक्तों को उतना ही प्यार करते हैं। जहां प्रेम की पराकाष्ठा होगी, वहां अहंकार कैसा? अहंकार, ईर्ष्या, क्रोध, लज्जा या भय आदि तो पाश हैं, बंधन हैं। बिना इनसे ऊपर उठे आपका प्यार कैसे मिलेगा? और प्यार में तो ये सब पाश या बंधन नष्ट हो जाते हैं। अब मैं आपको और ज्यादा प्यार करने लगा हूं और अब आप मुझे हर जगह दिख रहे हैं।

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