विनय बिहारी सिंह
वाल्मीकि और तुलसी रामायण क्या कोई अंतर है? आप कहेंगे नहीं। दोनों में ही भगवान के दिव्य गुणों और पराक्रम का वर्णन है। लेकिन दोनों ऋषियों के वर्णन का अंतर भी देखना सुखद है। आइए इस सुख में हम भी शामिल हों। सुंदरकांड को ही लें। वाल्मीकि रामायण में लिखा है-
समुद्र के तटवर्ती शैल पर चढ़ कर हनुमान अपने साथी वानरों से बोले, "मित्रों! अब तुम मेरी ओर से निश्चिन्त हो कर श्री रामचन्द्र जी का स्मरण करो। मैं अब अपने अन्दर ऐसी शक्ति का अनुभव कर रहा हूँ जिसके बल पर मैं आकाश मार्ग से उड़ता हुआ सामने फैले हुये सागर से भी दस गुना बड़े सागर को पार कर सकता हूँ" इतना कह कर हनुमान जी पूर्वाभ्यास के रूप में उस विशाल पर्वत की चोटियों पर इधर-उधर कूदने लगे। इसके पश्चात् उन्होंने अपने शरीर को झटका दे कर एक विशाल वृक्ष को अपनी भुजाओं में भर कर इस प्रकार झकझोरा कि उसके सभी फूल पत्ते झड़ कर पृथ्वी पर फैल गये। फिर वर्षाकालीन घनघोर बादल की भाँति गरजते हुये उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं और पैरों को सिकोड़ कर, प्राण वायु को रोक उछलने की तैयारी करते हुये पुनः वानरों को सम्बोधित किया, "हे भाइयों! जिस तीव्र गति से रामचन्द्र जी का बाण चलता है, उसी तीव्र गति से उनके आशीर्वाद से मैं लंका में जाउँगा और वहाँ पहुँच कर सीता जी की खोज करूँगा। यदि वहाँ भी उनका पता न चला तो रावण को पकड़ कर रामचन्द्र जी के चरणों लाकर पटक दूँगा। आप विश्वास रखें कि मैं निष्फल हो कर कदापि नहीं लौटूँगा।"
तुलसी रामायण (रामचरितमानस) में लिखा है-हनुमान्जी का लंका को प्रस्थान, सुरसा से भेंट, छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध
चौपाई :* जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
समुद्र के तटवर्ती शैल पर चढ़ कर हनुमान अपने साथी वानरों से बोले, "मित्रों! अब तुम मेरी ओर से निश्चिन्त हो कर श्री रामचन्द्र जी का स्मरण करो। मैं अब अपने अन्दर ऐसी शक्ति का अनुभव कर रहा हूँ जिसके बल पर मैं आकाश मार्ग से उड़ता हुआ सामने फैले हुये सागर से भी दस गुना बड़े सागर को पार कर सकता हूँ" इतना कह कर हनुमान जी पूर्वाभ्यास के रूप में उस विशाल पर्वत की चोटियों पर इधर-उधर कूदने लगे। इसके पश्चात् उन्होंने अपने शरीर को झटका दे कर एक विशाल वृक्ष को अपनी भुजाओं में भर कर इस प्रकार झकझोरा कि उसके सभी फूल पत्ते झड़ कर पृथ्वी पर फैल गये। फिर वर्षाकालीन घनघोर बादल की भाँति गरजते हुये उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं और पैरों को सिकोड़ कर, प्राण वायु को रोक उछलने की तैयारी करते हुये पुनः वानरों को सम्बोधित किया, "हे भाइयों! जिस तीव्र गति से रामचन्द्र जी का बाण चलता है, उसी तीव्र गति से उनके आशीर्वाद से मैं लंका में जाउँगा और वहाँ पहुँच कर सीता जी की खोज करूँगा। यदि वहाँ भी उनका पता न चला तो रावण को पकड़ कर रामचन्द्र जी के चरणों लाकर पटक दूँगा। आप विश्वास रखें कि मैं निष्फल हो कर कदापि नहीं लौटूँगा।"
तुलसी रामायण (रामचरितमानस) में लिखा है-हनुमान्जी का लंका को प्रस्थान, सुरसा से भेंट, छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध
चौपाई :* जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥1॥
भावार्थ:-जाम्बवान् के सुंदर वचन सुनकर हनुमान्जी के हृदय को बहुत ही भाए। (वे बोले-) हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना॥1॥
* जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥2॥
भावार्थ:-जब तक मैं सीताजी को देखकर (लौट) न आऊँ। काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथजी को धारण करके हनुमान्जी हर्षित होकर चले॥2॥
* सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥
बार-बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥3॥
भावार्थ:-समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान्जी खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान् हनुमान्जी उस पर से बड़े वेग से उछले॥3॥
* जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना॥4॥
भावार्थ:-जिस पर्वत पर हनुमान्जी पैर रखकर चले (जिस पर से वे उछले), वह तुरंत ही पाताल में धँस गया। जैसे श्री रघुनाथजी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान्जी
चले॥4॥
* जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥5॥
भावार्थ:-समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथजी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो (अर्थात् अपने ऊपर इन्हें विश्राम दे)॥5॥
दोहा :* हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥1॥
भावार्थ:-हनुमान्जी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा- भाई! श्री रामचंद्रजी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाँ?॥1॥
चौपाई :* जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥1॥
भावार्थ:-देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान्जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए (परीक्षार्थ) उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा.
1 comment:
अच्छी जानकारी भरा आलेख ...
Post a Comment