Tuesday, March 3, 2009

पूजा करने में मन न लगने की शिकायत


विनय बिहारी सिंह

अक्सर आपको यह सुनने को मिलेगा कि क्या करें पूजा का जो नियम है उसका पालन करता हूं, लेकिन मन का क्या करूं। कैसे उसे वश में करूं। दो मिनट तो ठीक रहता है, लेकिन उसके बाद मन हजार जगह भटकने लगता है। कई बार कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिलती। अब तो सोचता हूं, यह मेरे वश में नहीं है। यही सवाल एक सन्यासी से पिछले दिनों एक व्यक्ति ने पूछा। सन्यासी ने कहा- इसका मतलब है कि भगवान से भी ज्यादा आपको कोई चीज प्यारी है। उस व्यक्ति ने कहा- नहीं। ऐसा हो ही नहीं सकता। भगवान से बढ़ कर कोई हो ही कैसे सकता है। तब सन्यासी ने कहा- अगर भगवान से बढ़ कर कोई औऱ नहीं है तो फिर आपका मन भगवान से कौन हटाता है? उस व्यक्ति ने कहा- पता नहीं। लेकिन अचानक मन भटकने लगता है। सन्यासी ने पूछा- मन किसका है? उस व्यक्ति ने कहा- मेरा है। तब तो आपका मन आपके वश में होना चाहिए। उस व्यक्ति ने कहा- लेकिन यही तो समस्या है सन्यासी जी। मेरा मन है और मेरे कहने में नहीं है। सन्यासी ने कहा- यह तो बुरी बात है। तब आपका पहला काम है- अपने मन को वश में करना। जब आप चाहते हैं तो हाथ उठा देते हैं। या हाथ से काम करने लगते हैं। लेकिन जब आपका हाथ आपका कहना मानता है तो मन को आपका कहना मानना चाहिए। अगर नहीं मानता तो उसे नियंत्रण में लाने की कोशिश कीजिए। गीता में भगवान कृष्ण से अर्जुन ने पूछा कि मन को कैसे वश में करें। वह तो प्रचंड मथ देने वाला है। मन वायु के समान चंचल है। तो भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- हां, यह सच है कि मन बहुत चंचल है। लेकिन उसे वश में करने के लिए अभ्यास और वैराग्य की जरूरत है। अभ्यास यानी जब भी मन भागे तो उसे खींच कर भगवान की तरफ लाइए। यह काम बार- बार करना पड़ेगा। ऊबने से या चिंतित होने से काम नहीं चलेगा। यह तो लगातार अभ्यास से होगा। और वैराग्य? वैराग्य यह कि यह संसार हमारा नहीं है। मेरे न रहने के पहले भी यह संसार था और मरने के बाद भी रहेगा। इसके अलावा यह संसार किसी का नहीं। सब माया का खेल है। संसार जितना लुभावना लगता है, उतना ही हमारे लिए पराया है। इसका मतलब यह नहीं कि संसार छोड़ देना चाहिए। संसार में रहना चाहिए लेकिन भगवान का हाथ पकड़ कर। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- संसार में एक हाथ से काम कीजिए और दूसरे हाथ से भगवान को पकड़े रहिए। यानी यह मान कर सारा काम कीजिए कि मैं अपनी ड्यूटी कर रहा हूं, असली करने वाला तो भगवान है। सारा काम भगवान को सौंप कर जीवन यापन करना ही वैराग्य है। घर- परिवार छोड़ कर जंगल में रहना वैराग्य नहीं है।