विनय बिहारी सिंह
भगवत् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- श्रद्धवान लभते ज्ञानम....। जिस साधक में गहरी श्रद्धा है, भगवान को वही जान सकेगा। जो दिन रात संशय में रहता है, उसका मन स्थिर नहीं हो पाता। भगवान को जानने के लिए मन और शरीर की स्थिरता जरूरी है। इसीलिए पातंजलि योग सूत्र में प्रारंभ में ही कहा गया है- योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है। यानी जब तक चित्त की वृत्तियां शांत नहीं होंगी, योग संभव नहीं है। ज्यादातर लोगों का चित्त चंचल रहता है। गीता में भगवान ने कहा है कि जब तक इंद्रियां शांत नहीं होंगी, चित्त शांत नहीं होगा। इसीलिए ऋषियों ने कहा है कि भक्त को चाहिए कि अपनी इंद्रियां, मन और बुद्धि भगवान को समर्पित कर दे। फिर उसे कोई चिंता नहीं। उसके रक्षक भगवान हो गए। भक्त जितनी देर ध्यान में बैठेगा, भगवान के बारे में ही सोचेगा। जैसे समुद्र में मिलने के बाद नदी अपना अस्तित्व खो देती है, ठीक उसी तरह भक्त जब भगवान में मिलता है तो वह ईश्वरमय हो जाता है।
Monday, January 30, 2012
Friday, January 27, 2012
वामाखेपा का चित्र
विनय बिहारी सिंह
आज दफ्तर आते हुए बस में एक मनोहारी चित्र देखा। बस के सामने यह चित्र लगा था। इसमें विख्यात संत वामाखेपा मां तारा (मां काली का ही एक रूप) की निकली हुई जीभ के पास फूल और मिठाई लेकर खड़े हैं। उनका बायां हाथ मां के कंधे पर है। सच है। वामाखेपा मां तारा के ध्यान में दिन- रात मग्न रहते थे। जब तक वे मां को नहीं खिलाते थे, स्वयं नहीं खाते थे। जब तक उनसे बातें नहीं करते थे, उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगता था। चित्र में जिस आदर और आत्मीय भाव से वे मां तारा को प्रसाद खिलाने के लिए तत्पर दिख रहे हैं, वह अद्भुत है। भक्ति हो तो ऐसी। कल रामकृष्ण वचनामृत के कुछ अंश मैं अपने पिता जी को पढ़ कर सुना रहा था। वे इसे बड़े चाव से सुनते हैं। खुद तो पढ़ नहीं सकते। आंखों ने काम करना बंद कर दिया है। एक प्रसंग में रामकृष्ण परमहंस कहते हैं- छत पर चढ़ना है तो आप पक्की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हैं। बांस की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हैं। रस्सी से भी चढ़ सकते हैं। यानी आप चाहे साधना का कोई मार्ग चुनें, वह भगवान के पास ही जाता है। चाहे भक्ति मार्ग हो, ज्ञान मार्ग हो या कर्मयोग मार्ग हो- बस उसे पूरे मन-प्राण से पकड़ना चाहिए। पूरा जोर लगा कर। आप साधना में सिद्ध हो जाएंगे। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- निवृत्ति मार्ग ही अच्छा है। प्रवृत्ति मार्ग ठीक नहीं। यानी मन स्थिर और इच्छारहित हो। पवित्र हो। तब काम बन जाता है।
आज दफ्तर आते हुए बस में एक मनोहारी चित्र देखा। बस के सामने यह चित्र लगा था। इसमें विख्यात संत वामाखेपा मां तारा (मां काली का ही एक रूप) की निकली हुई जीभ के पास फूल और मिठाई लेकर खड़े हैं। उनका बायां हाथ मां के कंधे पर है। सच है। वामाखेपा मां तारा के ध्यान में दिन- रात मग्न रहते थे। जब तक वे मां को नहीं खिलाते थे, स्वयं नहीं खाते थे। जब तक उनसे बातें नहीं करते थे, उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगता था। चित्र में जिस आदर और आत्मीय भाव से वे मां तारा को प्रसाद खिलाने के लिए तत्पर दिख रहे हैं, वह अद्भुत है। भक्ति हो तो ऐसी। कल रामकृष्ण वचनामृत के कुछ अंश मैं अपने पिता जी को पढ़ कर सुना रहा था। वे इसे बड़े चाव से सुनते हैं। खुद तो पढ़ नहीं सकते। आंखों ने काम करना बंद कर दिया है। एक प्रसंग में रामकृष्ण परमहंस कहते हैं- छत पर चढ़ना है तो आप पक्की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हैं। बांस की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हैं। रस्सी से भी चढ़ सकते हैं। यानी आप चाहे साधना का कोई मार्ग चुनें, वह भगवान के पास ही जाता है। चाहे भक्ति मार्ग हो, ज्ञान मार्ग हो या कर्मयोग मार्ग हो- बस उसे पूरे मन-प्राण से पकड़ना चाहिए। पूरा जोर लगा कर। आप साधना में सिद्ध हो जाएंगे। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- निवृत्ति मार्ग ही अच्छा है। प्रवृत्ति मार्ग ठीक नहीं। यानी मन स्थिर और इच्छारहित हो। पवित्र हो। तब काम बन जाता है।
Monday, January 23, 2012
मेरे प्रभु
विनय बिहारी सिंह
अपनी छाती से
एक बार लगा लो
हे प्रभु
महसूस करना चाहता हूं
मैं आपकी उपस्थिति
जानता हूं
आप हैं इंद्रियातीत
और मैं इंद्रियोन्मुखी
तो राख हो जाएं
मेरी इंद्रियां
पर मुझे प्रेम करो
मेरे प्रभु
मुझे लगा लो
अपनी शांतिदायक, आह्लादकारी
सूक्ष्म छाती से।।
अपनी छाती से
एक बार लगा लो
हे प्रभु
महसूस करना चाहता हूं
मैं आपकी उपस्थिति
जानता हूं
आप हैं इंद्रियातीत
और मैं इंद्रियोन्मुखी
तो राख हो जाएं
मेरी इंद्रियां
पर मुझे प्रेम करो
मेरे प्रभु
मुझे लगा लो
अपनी शांतिदायक, आह्लादकारी
सूक्ष्म छाती से।।
Saturday, January 21, 2012
जगन्माता हर जगह
विनय बिहारी सिंह
प्राचीन काल के विख्यात काली भक्त रामप्रसाद ने कहा है कि जगन्माता हर जगह हैं। लेकिन जो अंधे हैं, वे देख नहीं पाते। अंधे से उनका तात्पर्य उनसे है जो भक्त नहीं हैं। वे कहते थे- कौन कहता है कि ईश्वर नहीं हैं। वे इस सृष्टि के कण कण में विद्यमान हैं। एक पत्ता तक नहीं हिलता उनकी मर्जी के बिना। और कई लोग कहते हैं कि कहां है भगवान? अरे भाई, तुम्हारी आंखों पर पर्दा लगा हुआ है। तुम अंधे हो गए हो। हटाओ प्रपंच का पर्दा। यह पर्दा तभी हटेगा जब जगन्माता की भक्ति में गहरे डूब जाओगे। जगन्माता बड़ी कृपालु हैं। वे अपने भक्त की पीड़ा सहन नहीं कर पातीं। वे भक्त की मदद करने को आतुर रहती हैं। मां तो तभी बच्चे तो दूध पिलाती है जब वह रोता है। भक्त की मदद जगन्माता तो हमेशा करती रहती हैं। लेकिन जब भक्त पुकारता है तो मां को अच्छा लगता है। कौन सी ऐसी मां होगी जिसे अपने बच्चे का पुकारना अच्छा नहीं लगता होगा? ठीक इसी तरह जगन्माता को भी हमारी पुकार अच्छी लगती है। वे चाहती हैं कि हम उनको पुकारें। लेकिन हम हैं कि जगत प्रपंच में पड़े रहते हैं। जगन्माता सचमुच हर जगह मौजूद हैं। वे अत्यंत कृपालु हैं।
प्राचीन काल के विख्यात काली भक्त रामप्रसाद ने कहा है कि जगन्माता हर जगह हैं। लेकिन जो अंधे हैं, वे देख नहीं पाते। अंधे से उनका तात्पर्य उनसे है जो भक्त नहीं हैं। वे कहते थे- कौन कहता है कि ईश्वर नहीं हैं। वे इस सृष्टि के कण कण में विद्यमान हैं। एक पत्ता तक नहीं हिलता उनकी मर्जी के बिना। और कई लोग कहते हैं कि कहां है भगवान? अरे भाई, तुम्हारी आंखों पर पर्दा लगा हुआ है। तुम अंधे हो गए हो। हटाओ प्रपंच का पर्दा। यह पर्दा तभी हटेगा जब जगन्माता की भक्ति में गहरे डूब जाओगे। जगन्माता बड़ी कृपालु हैं। वे अपने भक्त की पीड़ा सहन नहीं कर पातीं। वे भक्त की मदद करने को आतुर रहती हैं। मां तो तभी बच्चे तो दूध पिलाती है जब वह रोता है। भक्त की मदद जगन्माता तो हमेशा करती रहती हैं। लेकिन जब भक्त पुकारता है तो मां को अच्छा लगता है। कौन सी ऐसी मां होगी जिसे अपने बच्चे का पुकारना अच्छा नहीं लगता होगा? ठीक इसी तरह जगन्माता को भी हमारी पुकार अच्छी लगती है। वे चाहती हैं कि हम उनको पुकारें। लेकिन हम हैं कि जगत प्रपंच में पड़े रहते हैं। जगन्माता सचमुच हर जगह मौजूद हैं। वे अत्यंत कृपालु हैं।
Friday, January 20, 2012
मन अंधा
विनय बिहारी सिंह
संतों ने कहा है कि मन अंधा होता है। वह ज्यादातर इंद्रियों के वश में होता है। इंद्रियां कहती हैं कि अमुक चीज चाहिए, मन उन्हीं इंद्रियों का कहा सुनने लगता है। विवेक का उससे कोई लेना देना नहीं है। इसलिए संतों ने कहा है कि मन जो कुछ कहता है, जो कुछ मांगता है, उस पर एक बार सोचिए। देखिए कि इससे आपको क्या फायदा होगा। कहीं मन सिर्फ सनकीपन के चलते तो किसी चीज में नहीं अंटका है? अगर ऐसा है तो आपके लिए यह खतरनाक है। गीता में भगवान ने कहा है- मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु। यदि वह विवेक से काम करता है तो स्वयं का मित्र है और यदि इंद्रियों के वश में है तो वह स्वयं अपना शत्रु है। इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि मन को नियंत्रण में रखना बहुत जरूरी है। यह बेलगाम घोड़े की तरह है और बेमतलब जहां तहां दौड़ता रहता है। अनावश्यक दौड़ लगाता है। जिस चीज के बारे में सोचने से कोई फायदा नहीं मन वहां भी दौड़ लगाता रहता है। इसका अर्थ है- मन बेलगाम है। उस पर लगाम लगाना जरूरी है। मन जो कुछ कहेगा उसे हम क्यों मानें? भक्त यह सोचता है कि मैं मन नहीं हूं। मैं इंद्रिय नहीं हूं। मैं तो सच्चिदानंद आत्मा हूं। मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयो। मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है। तो क्यों नहीं इसे नियंत्रण में रखा जाए। हां, यह आसान काम नहीं है। क्योंकि मन अब तक बिना नियंत्रण के दौड़ता रहा है। उसे आप अचानक नियंत्रित करेंगे तो वह विद्रोह करेगा और आपको दबोच लेना चाहेगा। लेकिन यदि धैर्य के साथ धीरे- धीरे उसे काबू में रखा जाएगा तो वह हमारी सुनने लगेगा। तब हम मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने लगेंगे।
संतों ने कहा है कि मन अंधा होता है। वह ज्यादातर इंद्रियों के वश में होता है। इंद्रियां कहती हैं कि अमुक चीज चाहिए, मन उन्हीं इंद्रियों का कहा सुनने लगता है। विवेक का उससे कोई लेना देना नहीं है। इसलिए संतों ने कहा है कि मन जो कुछ कहता है, जो कुछ मांगता है, उस पर एक बार सोचिए। देखिए कि इससे आपको क्या फायदा होगा। कहीं मन सिर्फ सनकीपन के चलते तो किसी चीज में नहीं अंटका है? अगर ऐसा है तो आपके लिए यह खतरनाक है। गीता में भगवान ने कहा है- मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु। यदि वह विवेक से काम करता है तो स्वयं का मित्र है और यदि इंद्रियों के वश में है तो वह स्वयं अपना शत्रु है। इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि मन को नियंत्रण में रखना बहुत जरूरी है। यह बेलगाम घोड़े की तरह है और बेमतलब जहां तहां दौड़ता रहता है। अनावश्यक दौड़ लगाता है। जिस चीज के बारे में सोचने से कोई फायदा नहीं मन वहां भी दौड़ लगाता रहता है। इसका अर्थ है- मन बेलगाम है। उस पर लगाम लगाना जरूरी है। मन जो कुछ कहेगा उसे हम क्यों मानें? भक्त यह सोचता है कि मैं मन नहीं हूं। मैं इंद्रिय नहीं हूं। मैं तो सच्चिदानंद आत्मा हूं। मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयो। मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है। तो क्यों नहीं इसे नियंत्रण में रखा जाए। हां, यह आसान काम नहीं है। क्योंकि मन अब तक बिना नियंत्रण के दौड़ता रहा है। उसे आप अचानक नियंत्रित करेंगे तो वह विद्रोह करेगा और आपको दबोच लेना चाहेगा। लेकिन यदि धैर्य के साथ धीरे- धीरे उसे काबू में रखा जाएगा तो वह हमारी सुनने लगेगा। तब हम मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने लगेंगे।
Wednesday, January 18, 2012
छंद में रहना चाहिए वरना द्वंद्व में रहना पडे़गा
विनय बिहारी सिंह
आज एक साधु ने कहा- ईश्वर छंद हैं, बाकी सब कुछ द्वंद्व है। सुन कर बहुत अच्छा लगा। साधु का कहना था- छंद का अर्थ है ईश्वर के प्रेम में पड़ जाना। उन्हीं के लिए जीना। उनका ही चिंतन करना। संसार का काम करिए लेकिन भगवान को दिल में रखिए। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- जैसे कोई स्त्री अपने प्रेमी के लिए तड़पती रहती है, जैसे मां किसी कारण से दूर गए अपने बच्चे को देखने के लिए तड़पती रहती है, उसी तरह ईश्वर के लिए तड़पना चाहिए। यही है- छंद। जैसे कोई नौकरानी किसी के घर काम करती है और घर के मालिक के बच्चे को दुलारती है और कहती है- यह मेरा सोना है... मेरा लाडला है। लेकिन मन में वह जानती है कि उसका अपना बेटा तो घर पर है। उसका दिल और दिमाग अपने बेटे में रहता है। ठीक उसी तरह संसार का काम करना चाहिए और दिल व दिमाग भगवान में लगाए रहना चाहिए। यही छंद से भरा जीवन है। यदि जीवन में छंद का अभाव हो गया तो जीवन द्वंद्व बन जाएगा। ये दो शब्द- छंद और द्वंद्व सचमुच कितने महत्वपूर्ण जान पड़ते हैं। या तो छंद में रहिए या द्वंद्व में। दुनिया में कोई भी द्वंद्व में नहीं रहना चाहता। तनाव में नहीं रहना चाहता। सभी प्रेम और शांति से रहना चाहते हैं। साधु ने कहा- ईश्वर से मिलन कीजिए। वहीं है अनंत प्रेम और अनंत शांति।
आज एक साधु ने कहा- ईश्वर छंद हैं, बाकी सब कुछ द्वंद्व है। सुन कर बहुत अच्छा लगा। साधु का कहना था- छंद का अर्थ है ईश्वर के प्रेम में पड़ जाना। उन्हीं के लिए जीना। उनका ही चिंतन करना। संसार का काम करिए लेकिन भगवान को दिल में रखिए। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- जैसे कोई स्त्री अपने प्रेमी के लिए तड़पती रहती है, जैसे मां किसी कारण से दूर गए अपने बच्चे को देखने के लिए तड़पती रहती है, उसी तरह ईश्वर के लिए तड़पना चाहिए। यही है- छंद। जैसे कोई नौकरानी किसी के घर काम करती है और घर के मालिक के बच्चे को दुलारती है और कहती है- यह मेरा सोना है... मेरा लाडला है। लेकिन मन में वह जानती है कि उसका अपना बेटा तो घर पर है। उसका दिल और दिमाग अपने बेटे में रहता है। ठीक उसी तरह संसार का काम करना चाहिए और दिल व दिमाग भगवान में लगाए रहना चाहिए। यही छंद से भरा जीवन है। यदि जीवन में छंद का अभाव हो गया तो जीवन द्वंद्व बन जाएगा। ये दो शब्द- छंद और द्वंद्व सचमुच कितने महत्वपूर्ण जान पड़ते हैं। या तो छंद में रहिए या द्वंद्व में। दुनिया में कोई भी द्वंद्व में नहीं रहना चाहता। तनाव में नहीं रहना चाहता। सभी प्रेम और शांति से रहना चाहते हैं। साधु ने कहा- ईश्वर से मिलन कीजिए। वहीं है अनंत प्रेम और अनंत शांति।
Tuesday, January 17, 2012
रात को जप
विनय बिहारी सिंह
सभी संतों ने कहा है कि जप या प्रार्थना के लिए रात का समय सबसे अच्छा होता है। लोग सो रहे होते हैं और वातावरण में शांति व्याप्त रहती है। ऐसे समय में एकाग्रता बढ़ जाती है। रात को गहरी एकाग्रता के साथ भगवान से प्रार्थना का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है। किस प्रार्थना का प्रभाव ज्यादा होता है? संतों ने कहा है- सिर्फ एक ही प्रार्थना करना चाहिए- प्रभु, मुझे दर्शन दीजिए। आशीर्वाद दीजिए। बस। इसी से हमारा काम बन जाएगा। एक प्रसिद्ध लघु कथा है- एक व्यक्ति रोज चर्च जाता था और गहरे ध्यान में बैठ जाता था। एक दिन चर्च के एक इंचार्ज ने उनसे प्रेम से पूछा- आप आंखें बंद करके करते क्या हैं? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- मैं भगवान से बातें करता हूं। तब चर्च के इंचार्ज ने उनसे पूछा- तो भगवान आपसे क्या कहते हैं? उस आदमी ने उत्तर दिया- वे मेरी बातें ध्यान से सुनते हैं। इस संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो बिना किसी स्वार्थ के आपकी बातें सुने। परमहंस योगानंद जी कहते हैं- जब हर आदमी आपको त्याग देता है तो सिर्फ भगवान ही आपके साथ रहते हैं और आपको प्रेम करते हैं।
सभी संतों ने कहा है कि जप या प्रार्थना के लिए रात का समय सबसे अच्छा होता है। लोग सो रहे होते हैं और वातावरण में शांति व्याप्त रहती है। ऐसे समय में एकाग्रता बढ़ जाती है। रात को गहरी एकाग्रता के साथ भगवान से प्रार्थना का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है। किस प्रार्थना का प्रभाव ज्यादा होता है? संतों ने कहा है- सिर्फ एक ही प्रार्थना करना चाहिए- प्रभु, मुझे दर्शन दीजिए। आशीर्वाद दीजिए। बस। इसी से हमारा काम बन जाएगा। एक प्रसिद्ध लघु कथा है- एक व्यक्ति रोज चर्च जाता था और गहरे ध्यान में बैठ जाता था। एक दिन चर्च के एक इंचार्ज ने उनसे प्रेम से पूछा- आप आंखें बंद करके करते क्या हैं? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- मैं भगवान से बातें करता हूं। तब चर्च के इंचार्ज ने उनसे पूछा- तो भगवान आपसे क्या कहते हैं? उस आदमी ने उत्तर दिया- वे मेरी बातें ध्यान से सुनते हैं। इस संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो बिना किसी स्वार्थ के आपकी बातें सुने। परमहंस योगानंद जी कहते हैं- जब हर आदमी आपको त्याग देता है तो सिर्फ भगवान ही आपके साथ रहते हैं और आपको प्रेम करते हैं।
Saturday, January 14, 2012
मकर संक्रांति की पवित्रता
विनय बिहारी सिंह
आज मकर संक्रांति है। भारत के यह उन विशिष्ट पर्वों में से है जो निर्धारित तिथि १४ जनवरी को ही पड़ता है। आज सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। यानी सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण हो जाता है। यह एक अत्यंत पवित्र घड़ी है। आपको महाभारत की कथा याद होगी जब भीष्ण शर शय्या या बाणों के बिस्तर पर सोए हुए थे और अपने प्राणों को रोक रखा था कि जब सूर्य उत्तरायण होंगे तभी वे प्राण त्याग करेंगे। आज से सूर्य दक्षिणायन हो गया। इसीलिए पूरे देश में श्रद्धालु पवित्र नदियों में स्नान करते हैं। सूर्य ग्यान और विवेक के प्रतीक हैं। समृद्धि के प्रतीक हैं। माना जाता है कि जिस क्षण सूर्य उत्तरायण होते हैं, यानी मकर राशि में प्रवेश करते हैं, उनकी किरणों का प्रभाव विलक्षण हो जाता है। भले ही सूर्य देव सुबह- सुबह न दिखते हों, बादलों में छुप गए हों लेकिन उनकी किरणें अपना असर करती रहती हैं। एक साधु कहते हैं कि जिसे यह विश्वास न हो वह घर में सोया रहे। लेकिन जो विश्वास करते हैं, वह नदी में नहीं तो घर में ही स्नान करते हैं। भले ही गर्म पानी से ही स्नान क्यों न हो। सुबह- सुबह स्नान करते हैं और ईश्वर से अपने जीवन में सफल होने की प्रार्थना करते हैं। सूर्य शक्ति के भी प्रतीक हैं। अनंत शक्ति के प्रतीक। सूर्य न हो तो जीवन भी नहीं होगा। इस तरह यह पर्व सूर्य पर केंद्रित है और सूर्य के उत्तरायण होने का महत्व हम सभी जानते हैं। आइए कामना करें कि आज के बाद पूरी दुनिया में शांति और समरसता का माहौल बने। प्रेम और भाई चारे का माहौल बने। हरि ऊं तत्सत।
आज मकर संक्रांति है। भारत के यह उन विशिष्ट पर्वों में से है जो निर्धारित तिथि १४ जनवरी को ही पड़ता है। आज सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। यानी सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण हो जाता है। यह एक अत्यंत पवित्र घड़ी है। आपको महाभारत की कथा याद होगी जब भीष्ण शर शय्या या बाणों के बिस्तर पर सोए हुए थे और अपने प्राणों को रोक रखा था कि जब सूर्य उत्तरायण होंगे तभी वे प्राण त्याग करेंगे। आज से सूर्य दक्षिणायन हो गया। इसीलिए पूरे देश में श्रद्धालु पवित्र नदियों में स्नान करते हैं। सूर्य ग्यान और विवेक के प्रतीक हैं। समृद्धि के प्रतीक हैं। माना जाता है कि जिस क्षण सूर्य उत्तरायण होते हैं, यानी मकर राशि में प्रवेश करते हैं, उनकी किरणों का प्रभाव विलक्षण हो जाता है। भले ही सूर्य देव सुबह- सुबह न दिखते हों, बादलों में छुप गए हों लेकिन उनकी किरणें अपना असर करती रहती हैं। एक साधु कहते हैं कि जिसे यह विश्वास न हो वह घर में सोया रहे। लेकिन जो विश्वास करते हैं, वह नदी में नहीं तो घर में ही स्नान करते हैं। भले ही गर्म पानी से ही स्नान क्यों न हो। सुबह- सुबह स्नान करते हैं और ईश्वर से अपने जीवन में सफल होने की प्रार्थना करते हैं। सूर्य शक्ति के भी प्रतीक हैं। अनंत शक्ति के प्रतीक। सूर्य न हो तो जीवन भी नहीं होगा। इस तरह यह पर्व सूर्य पर केंद्रित है और सूर्य के उत्तरायण होने का महत्व हम सभी जानते हैं। आइए कामना करें कि आज के बाद पूरी दुनिया में शांति और समरसता का माहौल बने। प्रेम और भाई चारे का माहौल बने। हरि ऊं तत्सत।
Friday, January 13, 2012
उजाला और अंधेरा
विनय बिहारी सिंह
एक प्रसिद्ध कथन है- जब आप प्रकाश में रहते हैं तो लोग आपके पीछे चलते हैं। लेकिन जब आप अंधेरे में रहते हैं तो आपकी छाया भी आपका साथ छोड़ देती है। कितनी सुंदर बात है। अंधेरा यानी- काम, क्रोध, लोभ, नकारात्मक भावनाएं- घृणा, जलन, कुढ़न, ईर्ष्या, किसी के बारे में बुरा सोचना आदि..। प्रकाश का अर्थ है- ईश्वर के बारे में सोचना, उनकी लीलाओं के बारे में सोचना, पढ़ना और बातें करना। प्रेम, करुणा और मदद करना। क्षमता के मुताबिक दान देना। आदि। पहले लोग तालाब, बावड़ियां, धर्मशाला आदि खूब बनवाते थे। नदियों के घाट बनवा देते थे। उन्हें यह सब करके बहुत सुख मिलता था। आज अधिसंख्य लोगों में सब कुछ अपने पास रखने की प्रवृत्ति हो गई है। किसी के पास कोई सामान है, आपको उसकी जरूरत है। लेकिन जब आप मांगेंगे तो वह व्यक्ति कोई बहाना कर देगा। हालांकि वह सामान उसके घर में बेकार ही पड़ा है। ऋषियों ने कहा है- आप जैसा करेंगे, वैसा ही पाएंगे। यदि आप दूसरे को चूना लगा रहे हैं तो कोई अन्य व्यक्ति आपको चूना लगा देगा। ऋषियों की बातें कभी झूठी नहीं हो सकतीं। धर्मग्रंथों में वेदों में लिखी बातें सदा के लिए सत्य हैं। धर्म ग्रंथों में लिखा है- किसी से धोखा मत कीजिए। प्राचीन काल में यह जितना सच है, आज भी उतना ही सच है। धर्मग्रंथों में लिखा है- चुगली न करें। यह आज भी प्रासंगिक है। एक और अच्छी उक्ति है- किसी को हराना आसान है। लेकिन किसी का दिल जीतना बहुत मुश्किल है। विजेता वही है जो प्रेम से किसी का दिल जीत ले। वही सबसे सुखी प्राणी होगा।
एक प्रसिद्ध कथन है- जब आप प्रकाश में रहते हैं तो लोग आपके पीछे चलते हैं। लेकिन जब आप अंधेरे में रहते हैं तो आपकी छाया भी आपका साथ छोड़ देती है। कितनी सुंदर बात है। अंधेरा यानी- काम, क्रोध, लोभ, नकारात्मक भावनाएं- घृणा, जलन, कुढ़न, ईर्ष्या, किसी के बारे में बुरा सोचना आदि..। प्रकाश का अर्थ है- ईश्वर के बारे में सोचना, उनकी लीलाओं के बारे में सोचना, पढ़ना और बातें करना। प्रेम, करुणा और मदद करना। क्षमता के मुताबिक दान देना। आदि। पहले लोग तालाब, बावड़ियां, धर्मशाला आदि खूब बनवाते थे। नदियों के घाट बनवा देते थे। उन्हें यह सब करके बहुत सुख मिलता था। आज अधिसंख्य लोगों में सब कुछ अपने पास रखने की प्रवृत्ति हो गई है। किसी के पास कोई सामान है, आपको उसकी जरूरत है। लेकिन जब आप मांगेंगे तो वह व्यक्ति कोई बहाना कर देगा। हालांकि वह सामान उसके घर में बेकार ही पड़ा है। ऋषियों ने कहा है- आप जैसा करेंगे, वैसा ही पाएंगे। यदि आप दूसरे को चूना लगा रहे हैं तो कोई अन्य व्यक्ति आपको चूना लगा देगा। ऋषियों की बातें कभी झूठी नहीं हो सकतीं। धर्मग्रंथों में वेदों में लिखी बातें सदा के लिए सत्य हैं। धर्म ग्रंथों में लिखा है- किसी से धोखा मत कीजिए। प्राचीन काल में यह जितना सच है, आज भी उतना ही सच है। धर्मग्रंथों में लिखा है- चुगली न करें। यह आज भी प्रासंगिक है। एक और अच्छी उक्ति है- किसी को हराना आसान है। लेकिन किसी का दिल जीतना बहुत मुश्किल है। विजेता वही है जो प्रेम से किसी का दिल जीत ले। वही सबसे सुखी प्राणी होगा।
Wednesday, January 11, 2012
करुणा की मिसाल
विनय बिहारी सिंह
आज दिल को छू लेने वाली एक कथा पढ़ी। एक वेश्या, जीसस क्राइस्ट से मिलना चाहती थी। लोग उससे दूर रहते थे। लेकिन उसके दिल में जीसस के प्रति अपार श्रद्धा थी। एक दिन वह किसी की भी परवाह न करते हुए जीसस के पास आई। सारे लोग उससे दूर हट गए। लेकिन जीसस क्राइस्ट ने उसका स्वागत किया। वेश्या, जीसस के पैर पकड़ कर रोती रही। उसके आंसुओं से उनका पैर भींग गया। वेश्या ने जीसस के पांव अपने बालों से पोंछ दिया। इसके बाद उसने जीसस के पांव में मरहम लगाया। जीसस चुपचाप उसे आशीर्वाद देते रहे। वह जीसस क्राइस्ट चरम श्रद्धा और भक्ति में इतनी डूब गई कि उसे बैकुंठ मिला।
मुझे यह कथा पढ़ कर एक अन्य कथा याद आ गई। भगवान शिव का एक भक्त उनके दर्शन के लिए दिन रात बेचैन रहता था। एक दिन उससे रहा नहीं गया। वह शिव जी के मंदिर में गया और दिल उड़ेल कर संपूर्ण भक्ति भावना से पूजा की। इसके बाद वह जप करने बैठ गया। उसने तय कर लिया था कि जब तक भगवान दर्शन नहीं देंगे, वह वहां से उठेगा नहीं। जप करते- करते रात हो गई। न जाने क्या हुआ कि भक्त को अचानक गहरी नींद आ गई। बैठे बैठे ही। फिर स्वप्न देखा- भगवान शिव प्रकाश के रूप में उसके सामने हैं। वे उससे कह रहे हैं- जिद क्यों करते हो। मैं तो सदा तुम्हारे साथ हूं। फिर उसकी नींद टूट गई। वह फिर जप करने लगा। लेकिन तभी उसे लगा- भगवान कितने कृपालु हैं। देखो, मेरी मनोकामना पूरी कर दी। मुझे दर्शन दे दिया। तब तक मंदिर का पुजारी आया और उससे घर जाने को कहा क्योंकि मंदिर को बंद करने का समय हो गया था। शिवजी का वह भक्त प्रेम और प्रसन्नता से वहां से उठा और घर की तरफ जाने लगा। तभी पुजारी ने उसे रोका और कहा- मंदिर में आज विशेष प्रसाद बना है। खाकर जाइए। एक खूब सुंदर थाली में उसे प्रसाद मिला। ऐसा स्वादिष्ट प्रसाद तो उसने अपनी जिंदगी में नहीं खाया था। प्रसाद देने वाला एक लंबे जटा जूट वाला साधु था। बाद में उसने इस साधु को कभी नहीं देखा। आश्चर्य, यह प्रसाद सिर्फ उसे ही मिला। वह तब से आश्चर्य करता है- क्या प्रसाद देने वाले स्वयं भगवान शिव ही थे?
Tuesday, January 10, 2012
आनंद से उत्पत्ति
विनय बिहारी सिंह
योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के सिद्ध सन्यासी स्वामी शुद्धानंद जी ने पिछले रविवार को जो प्रार्थना कराई वह थी- हे प्रभु, मैं आनंद से आया हूं। आनंद में रहता हूं और अंत में आनंद में विलीन हो जाऊंगा।
यह प्रार्थना बहुत अच्छी लगी। हालांकि हमारे जीवन में तनाव और परेशानियां आती और जाती रहती हैं। लेकिन सच तो यही है कि ईश्वर ने हमें आनंद के समुद्र से पृथ्वी पर भेजा था। फिर हमारी कामनाएं, वासनाएं जागीं और हम इस मीठे जहर को पीते रहे। समझते रहे कि यही अमृत है और पी पीकर मरते रहे। कष्ट भोगते रहे। फिर जन्म लेकर फिर कोई कामना पाल ली और उसकी पूर्ति के लिए फिर जन्म लेना पड़ा। बार- बार जन्म लेकर बार- बार मरना। यही क्रम चलता रहा। आज तक चल रहा है। लेकिन हमारा मूल स्रोत आनंद है। हमें उसकी तरफ लौटने के लिए भगवान की शरण में जाना ही पड़ेगा। ईश्वर को दृढ़ता से पकड़े रहने से ही हमारा उद्धार होगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।
योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के सिद्ध सन्यासी स्वामी शुद्धानंद जी ने पिछले रविवार को जो प्रार्थना कराई वह थी- हे प्रभु, मैं आनंद से आया हूं। आनंद में रहता हूं और अंत में आनंद में विलीन हो जाऊंगा।
यह प्रार्थना बहुत अच्छी लगी। हालांकि हमारे जीवन में तनाव और परेशानियां आती और जाती रहती हैं। लेकिन सच तो यही है कि ईश्वर ने हमें आनंद के समुद्र से पृथ्वी पर भेजा था। फिर हमारी कामनाएं, वासनाएं जागीं और हम इस मीठे जहर को पीते रहे। समझते रहे कि यही अमृत है और पी पीकर मरते रहे। कष्ट भोगते रहे। फिर जन्म लेकर फिर कोई कामना पाल ली और उसकी पूर्ति के लिए फिर जन्म लेना पड़ा। बार- बार जन्म लेकर बार- बार मरना। यही क्रम चलता रहा। आज तक चल रहा है। लेकिन हमारा मूल स्रोत आनंद है। हमें उसकी तरफ लौटने के लिए भगवान की शरण में जाना ही पड़ेगा। ईश्वर को दृढ़ता से पकड़े रहने से ही हमारा उद्धार होगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।
Monday, January 9, 2012
चलती चक्की
विनय बिहारी सिंह
कबीरदास ने कहा है- चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय.... दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।। माया द्वैत है। यानी चक्की के दो पाट। इससे कोई भी बच नहीं पाया। फिर कबीरदास ने स्मरण दिलाया है कि जो लोग चक्की की धुरी पर रहते हैं, वे बच जाते हैं। जैसे चक्की की धुरी पर अनाज का जो दाना चला गया, वह पिसता नहीं है। बाकी अनाज पिस जाते हैं। कबीरदास ने चक्की की धुरी को ईश्वर का प्रतीक कहा है। यानी जो ईश्वर को पकड़े रहते हैं वे इस भवसागर से पार चले जाते हैं। बाकी लोग पिस जाते हैं। मनुष्य की हजार- हजार कामनाएं हैं। यह होता तो कितना अच्छा होता, वह होता तो कितना अच्छा होता। लेकिन जब वह चीज मिल जाती है तो पता चलता है कि तृप्ति नहीं हुई। इच्छाएं किसी और चीज के लिए बलवती हो गईं। इस तरह इच्छाएं अपने जाल में मनुष्य को फंसाए रखती हैं। इंद्रिया अपने जाल में फंसाए रखती हैं। मनुष्य उनकी संतुष्टि के लिए छटपटाता रहता है। गलत आदतें ऊपर से परेशान करती हैं। किसी को सिगरेट ने पीड़ित कर रखा है तो किसी को चाय- काफी ने तो किसी को शराब ने। किसी को कुछ तो किसी को कुछ परेशान कर रहा है। समस्याएं ही समस्याएं। गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से इसीलिए कहा है- अर्जुन, संसार रूपी दुखों के दलदल से बाहर निकलो। यानी संसार का यह समस्याओं और तनावों का चक्कर चलता रहेगा। इससे मुक्त होने का रास्ता भगवान ने ही बताया है। भगवान कृष्ण ने कहा है- मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हारा सारा भार ले लूंगा। गीता का अठारहवां अध्याय इसीलिए बार- बार पढ़ना चाहिए। भगवान ने वादा किया है, प्रण किया है कि वे अपने भक्तों की रक्षा करेंगे। ऐसा सरल उपाय होने पर भी हम अगर न करें तो इसमें किसका दोष है?
कबीरदास ने कहा है- चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय.... दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।। माया द्वैत है। यानी चक्की के दो पाट। इससे कोई भी बच नहीं पाया। फिर कबीरदास ने स्मरण दिलाया है कि जो लोग चक्की की धुरी पर रहते हैं, वे बच जाते हैं। जैसे चक्की की धुरी पर अनाज का जो दाना चला गया, वह पिसता नहीं है। बाकी अनाज पिस जाते हैं। कबीरदास ने चक्की की धुरी को ईश्वर का प्रतीक कहा है। यानी जो ईश्वर को पकड़े रहते हैं वे इस भवसागर से पार चले जाते हैं। बाकी लोग पिस जाते हैं। मनुष्य की हजार- हजार कामनाएं हैं। यह होता तो कितना अच्छा होता, वह होता तो कितना अच्छा होता। लेकिन जब वह चीज मिल जाती है तो पता चलता है कि तृप्ति नहीं हुई। इच्छाएं किसी और चीज के लिए बलवती हो गईं। इस तरह इच्छाएं अपने जाल में मनुष्य को फंसाए रखती हैं। इंद्रिया अपने जाल में फंसाए रखती हैं। मनुष्य उनकी संतुष्टि के लिए छटपटाता रहता है। गलत आदतें ऊपर से परेशान करती हैं। किसी को सिगरेट ने पीड़ित कर रखा है तो किसी को चाय- काफी ने तो किसी को शराब ने। किसी को कुछ तो किसी को कुछ परेशान कर रहा है। समस्याएं ही समस्याएं। गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से इसीलिए कहा है- अर्जुन, संसार रूपी दुखों के दलदल से बाहर निकलो। यानी संसार का यह समस्याओं और तनावों का चक्कर चलता रहेगा। इससे मुक्त होने का रास्ता भगवान ने ही बताया है। भगवान कृष्ण ने कहा है- मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हारा सारा भार ले लूंगा। गीता का अठारहवां अध्याय इसीलिए बार- बार पढ़ना चाहिए। भगवान ने वादा किया है, प्रण किया है कि वे अपने भक्तों की रक्षा करेंगे। ऐसा सरल उपाय होने पर भी हम अगर न करें तो इसमें किसका दोष है?
Saturday, January 7, 2012
45 के बाद दिमागी क्षमता में कमी शुरु
(courtesy- BBC Hindi service)
ताज़ा शोध में पता चला है कि व्यक्ति का दिमाग़ 45 साल की उम्र से ही कमज़ोर होना शुरू हो सकता है.
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में छपे शोध के अनुसार लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज के शोधकर्ताओं को 45 से 49 साल की आयु वाले पुरुष और महिलाओं की दिमाग़ी क्षमताओं में 3.6 प्रतिशत की गिरावट देखी गई.
शोध में भाग लेने वाले 45 से 70 साल तक के 7000 महिलाओं और पुरूषों की याददाश्त, शब्दावली और समझ दस साल की समयावधि में परखी गई.
अलज़ाइमर्स सोसाइटी का कहना है कि दिमाग में बदलाव होने से भूलने की बीमारी का पता लगाने में मदद मिलेगी या नही इस पर शोध ज़रूरी था.
इससे पहले हुए शोध में पता चला था कि 60 साल की उम्र से पहले याददाश्त में कमी नही आती है.
लेकिन नए शोध में पता चला है कि यह बीमारी अधेड़ उम्र से भी शुरू हो सकती है.
डिमेंशिया शोधकर्ताओं के अनुसार- डिमेंशिया यानी भूलने की बीमारी का इलाज शुरूआती दौर में ही ज़्यादा कारगर साबित होता है.
इस शोध के नतीजों में पता चला है कि शब्दावली को छोड़कर सभी श्रेणियों में दिमागों की क्षमता में कमी आई है, बूढ़े लोगों में दिमागी क्षमता के क्षय की गति और तेज़ देखी गई.
शोध में पाया गया कि 65 से 70 साल तक के पुरूषों की तार्किक क्षमता में 9.6 फ़ीसदी की गिरावट देखी गई जबकि इसी उम्र की महिलाओं में यह आंकड़ा 7.4 फ़ीसदी का रहा.
वहीं 45 से 49 साल की आयु वाले पुरूषों और महिलाओं की तार्किक क्षमता में 3.6 फ़ीसदी की गिरावट देखी गई.
इस शोध का नेतृत्व करने वाली प्रोफ़ेसर अर्चना सिंह मेनौक्स के अनुसार शोध से पता चला है कि डिमेंशिया होने से दो-तीन दशक पूर्व से ही दिमाग की क्षमता का क्षय शुरू हो जाता है.
रोकथाम
विशेषज्ञों के अनुसार लोगों को इस बीमारी के शरीर और दिमाग पर हावी हो जाने का इंतज़ार नही करना चाहिए
प्रोफ़ेसर अर्चना सिंह मेनौक्स ने कहा, “हमें ये पता करने की ज़रूरत है कि किन लोगों के याददाश्त में आम से ज़्यादा गिरावट हुई है और इसे कैसे रोक सकते है. इसकी रोकथाम कुछ हद तक संभव होती है.”
उनहोंने कहा, “डिमेंशिया से ग्रस्त होने वाले लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी संभव है. दिमाग के काम करने का संबंध जीवन शैली से भी है. खतरे को जल्दी से जल्दी पहचानना ज़रूरी है.”
अलज़ाइमर्स सोसाइटी में रिसर्च मैनेजर डॉक्टर ऐनी कॉर्बेट ने कहा, “ताज़ा शोध अपने पीछे कुछ और सवाल छोड़ गया है. हमें और शोध करने की ज़रूरत है जिससे हम यह पता लगा पाएंगे कि दिमाग में होने वाले बदलाव किस तरह से डिमेंशिया के बारे में पता लगाने में मदद करेगा.”
शोधकर्ता और यूसीएल के आम जन स्वास्थ संकाय के प्रोफ़ेसर लिंडसे डेविस के अनुसार लोगों को इस बीमारी के शरीर और दिमाग पर हावी हो जाने का इंतज़ार नही करना चाहिए, बल्कि जैसे ही याददाश्त में कमी के संकेत मिले उसका उपचार कराना चाहिए.
ताज़ा शोध में पता चला है कि व्यक्ति का दिमाग़ 45 साल की उम्र से ही कमज़ोर होना शुरू हो सकता है.
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में छपे शोध के अनुसार लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज के शोधकर्ताओं को 45 से 49 साल की आयु वाले पुरुष और महिलाओं की दिमाग़ी क्षमताओं में 3.6 प्रतिशत की गिरावट देखी गई.
शोध में भाग लेने वाले 45 से 70 साल तक के 7000 महिलाओं और पुरूषों की याददाश्त, शब्दावली और समझ दस साल की समयावधि में परखी गई.
अलज़ाइमर्स सोसाइटी का कहना है कि दिमाग में बदलाव होने से भूलने की बीमारी का पता लगाने में मदद मिलेगी या नही इस पर शोध ज़रूरी था.
इससे पहले हुए शोध में पता चला था कि 60 साल की उम्र से पहले याददाश्त में कमी नही आती है.
लेकिन नए शोध में पता चला है कि यह बीमारी अधेड़ उम्र से भी शुरू हो सकती है.
डिमेंशिया शोधकर्ताओं के अनुसार- डिमेंशिया यानी भूलने की बीमारी का इलाज शुरूआती दौर में ही ज़्यादा कारगर साबित होता है.
इस शोध के नतीजों में पता चला है कि शब्दावली को छोड़कर सभी श्रेणियों में दिमागों की क्षमता में कमी आई है, बूढ़े लोगों में दिमागी क्षमता के क्षय की गति और तेज़ देखी गई.
शोध में पाया गया कि 65 से 70 साल तक के पुरूषों की तार्किक क्षमता में 9.6 फ़ीसदी की गिरावट देखी गई जबकि इसी उम्र की महिलाओं में यह आंकड़ा 7.4 फ़ीसदी का रहा.
वहीं 45 से 49 साल की आयु वाले पुरूषों और महिलाओं की तार्किक क्षमता में 3.6 फ़ीसदी की गिरावट देखी गई.
इस शोध का नेतृत्व करने वाली प्रोफ़ेसर अर्चना सिंह मेनौक्स के अनुसार शोध से पता चला है कि डिमेंशिया होने से दो-तीन दशक पूर्व से ही दिमाग की क्षमता का क्षय शुरू हो जाता है.
रोकथाम
विशेषज्ञों के अनुसार लोगों को इस बीमारी के शरीर और दिमाग पर हावी हो जाने का इंतज़ार नही करना चाहिए
प्रोफ़ेसर अर्चना सिंह मेनौक्स ने कहा, “हमें ये पता करने की ज़रूरत है कि किन लोगों के याददाश्त में आम से ज़्यादा गिरावट हुई है और इसे कैसे रोक सकते है. इसकी रोकथाम कुछ हद तक संभव होती है.”
उनहोंने कहा, “डिमेंशिया से ग्रस्त होने वाले लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी संभव है. दिमाग के काम करने का संबंध जीवन शैली से भी है. खतरे को जल्दी से जल्दी पहचानना ज़रूरी है.”
अलज़ाइमर्स सोसाइटी में रिसर्च मैनेजर डॉक्टर ऐनी कॉर्बेट ने कहा, “ताज़ा शोध अपने पीछे कुछ और सवाल छोड़ गया है. हमें और शोध करने की ज़रूरत है जिससे हम यह पता लगा पाएंगे कि दिमाग में होने वाले बदलाव किस तरह से डिमेंशिया के बारे में पता लगाने में मदद करेगा.”
शोधकर्ता और यूसीएल के आम जन स्वास्थ संकाय के प्रोफ़ेसर लिंडसे डेविस के अनुसार लोगों को इस बीमारी के शरीर और दिमाग पर हावी हो जाने का इंतज़ार नही करना चाहिए, बल्कि जैसे ही याददाश्त में कमी के संकेत मिले उसका उपचार कराना चाहिए.
Friday, January 6, 2012
पूर्ण तृप्ति
विनय बिहारी सिंह
दो दिनों तक योगदा आश्रम में सुबह से शाम तक बिताने के बाद मैं पूर्ण तृप्त महसूस कर रहा हूं। क्यों? आदमी जब मनचाही स्थितियों को पाता है तो आनंद में डूब जाता है। सुबह सात बजे गुरुदेव के फोटो वाली खुली पालकी लेकर हो रही नगर परिक्रमा में मुझे एक प्राचीन शंख बजाने की जिम्मेदारी मिली और यह भी देखने की कि परिक्रमा की पंक्ति ठीक रहे। मुझे दो लाइनों के बीच में चलना था ताकि लोगों को मानीटर कर सकूं। वर्षों बाद शंख छुआ था, इसलिए बजा नहीं पा रहा था। बजाता तो मुंह की हवा शंख से होकर निकल जा रही थी। तभी ब्रह्मचारी गोकुलानंद जी मेरी मदद में आए। उन्होंने मुझे शंख बजा कर दिखाया। सही तरीका बताया। बस फिर क्या था। मैं खूब बढ़िया से शंख बजाता रहा। आश्रम के इस पुराने शंख को बजाते हुए बहुत अच्छा लग रहा था। खूब आनंदित होकर बजाया। नगर परिक्रमा से लौट कर जब भक्त गुरुदेव के चित्र पर फूल चढ़ा कर शद्धांजलि अर्पित कर रहे थे तो भी मैं शंख बजाता रहा। जब जय गुरु, जय गुरु का लगातार उच्चारण हो रहा था तब भी बजाता रहा। शंख तो प्रणव ध्वनि यानी ऊं ध्वनि का प्रतीक है। ऋषि पातंजलि ने लिखा है कि ऊं शब्द का कोई नकल नहीं कर सकता। वह अनिर्वचनीय, शास्वत और अनंत है। लेकिन मनुष्य के लिए भगवान ने शंख भेजा है क्योंकि मनुष्य हर चीज का एक ठोस रूपाकार चाहता है। ऊं निराकार है। लेकिन मनुष्य तो आकार वाला है। इसलिए भगवान ने उसे शंख भेजा। शंख बजाते हुए मुझे लगातार भगवान श्रीकृष्ण की याद आती रही। वे चतुर्भुज रूप में चारो हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म (कमल) लिए हुए दिखते हैं। शंक ऊं का ही प्रतीक है। बिना ऊं के ईश्वर प्राप्ति असंभव है। ऊं के साथ लय ही ईश्वर प्राप्ति। तो क्या शंख बजाने से ही मुझे पूर्ण तृप्ति मिल गई? शायद नहीं। गुरुदेव के जन्मदिन पर नगर परिक्रमा करते हुए एक बुजुर्ग व्यक्ति को मस्ती से नृत्य करते हुए देख कर आनंद मिला। वे पूरी तरह भावविभोर थे। वे कह रहे थे- गुरुदेव का जन्मदिन आनंद का दिन है। मुझे पंक्ति में रहने को मत कहिए। मैं रह नहीं सकता। यह मस्ती का दिन है। गुरुदेव में लय का दिन है। मैंने दूसरे को लाइन में रहने को कहा। लेकिन वे बोल पड़े। मैं उनकी इस बात से सहमत था। पूरे दिन प्रवचन, भजन, ध्यान और प्रसाद खाने आदि में इतना आनंदित रहा कि लगा- आह, काश ऐसे ही दिन बीतते। लेकिन फिर याद आया। नहीं। अनेक जिम्मेदारियां हैं मेरे ऊपर। उन्हें पूरा करना है। आनंद और कार्य निर्वाह दोनों साथ चलना चाहिए। यही तो गुरुदेव ने भी गृहस्थ शिष्यों के लिए कहा है। पूरी निष्ठा से सांसारिक कर्तव्य निभाने लेकिन दिल और दिमाग ईश्वर में डूबे रहने की शिक्षा दी है। हम उनकी बातों का पालन करें तो बस बन गया काम। संतुलित जीवन ही तो सफलता की कुंजी है। सांसारिक कामों में कहीं किसी चीज की अति न हो।
दो दिनों तक योगदा आश्रम में सुबह से शाम तक बिताने के बाद मैं पूर्ण तृप्त महसूस कर रहा हूं। क्यों? आदमी जब मनचाही स्थितियों को पाता है तो आनंद में डूब जाता है। सुबह सात बजे गुरुदेव के फोटो वाली खुली पालकी लेकर हो रही नगर परिक्रमा में मुझे एक प्राचीन शंख बजाने की जिम्मेदारी मिली और यह भी देखने की कि परिक्रमा की पंक्ति ठीक रहे। मुझे दो लाइनों के बीच में चलना था ताकि लोगों को मानीटर कर सकूं। वर्षों बाद शंख छुआ था, इसलिए बजा नहीं पा रहा था। बजाता तो मुंह की हवा शंख से होकर निकल जा रही थी। तभी ब्रह्मचारी गोकुलानंद जी मेरी मदद में आए। उन्होंने मुझे शंख बजा कर दिखाया। सही तरीका बताया। बस फिर क्या था। मैं खूब बढ़िया से शंख बजाता रहा। आश्रम के इस पुराने शंख को बजाते हुए बहुत अच्छा लग रहा था। खूब आनंदित होकर बजाया। नगर परिक्रमा से लौट कर जब भक्त गुरुदेव के चित्र पर फूल चढ़ा कर शद्धांजलि अर्पित कर रहे थे तो भी मैं शंख बजाता रहा। जब जय गुरु, जय गुरु का लगातार उच्चारण हो रहा था तब भी बजाता रहा। शंख तो प्रणव ध्वनि यानी ऊं ध्वनि का प्रतीक है। ऋषि पातंजलि ने लिखा है कि ऊं शब्द का कोई नकल नहीं कर सकता। वह अनिर्वचनीय, शास्वत और अनंत है। लेकिन मनुष्य के लिए भगवान ने शंख भेजा है क्योंकि मनुष्य हर चीज का एक ठोस रूपाकार चाहता है। ऊं निराकार है। लेकिन मनुष्य तो आकार वाला है। इसलिए भगवान ने उसे शंख भेजा। शंख बजाते हुए मुझे लगातार भगवान श्रीकृष्ण की याद आती रही। वे चतुर्भुज रूप में चारो हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म (कमल) लिए हुए दिखते हैं। शंक ऊं का ही प्रतीक है। बिना ऊं के ईश्वर प्राप्ति असंभव है। ऊं के साथ लय ही ईश्वर प्राप्ति। तो क्या शंख बजाने से ही मुझे पूर्ण तृप्ति मिल गई? शायद नहीं। गुरुदेव के जन्मदिन पर नगर परिक्रमा करते हुए एक बुजुर्ग व्यक्ति को मस्ती से नृत्य करते हुए देख कर आनंद मिला। वे पूरी तरह भावविभोर थे। वे कह रहे थे- गुरुदेव का जन्मदिन आनंद का दिन है। मुझे पंक्ति में रहने को मत कहिए। मैं रह नहीं सकता। यह मस्ती का दिन है। गुरुदेव में लय का दिन है। मैंने दूसरे को लाइन में रहने को कहा। लेकिन वे बोल पड़े। मैं उनकी इस बात से सहमत था। पूरे दिन प्रवचन, भजन, ध्यान और प्रसाद खाने आदि में इतना आनंदित रहा कि लगा- आह, काश ऐसे ही दिन बीतते। लेकिन फिर याद आया। नहीं। अनेक जिम्मेदारियां हैं मेरे ऊपर। उन्हें पूरा करना है। आनंद और कार्य निर्वाह दोनों साथ चलना चाहिए। यही तो गुरुदेव ने भी गृहस्थ शिष्यों के लिए कहा है। पूरी निष्ठा से सांसारिक कर्तव्य निभाने लेकिन दिल और दिमाग ईश्वर में डूबे रहने की शिक्षा दी है। हम उनकी बातों का पालन करें तो बस बन गया काम। संतुलित जीवन ही तो सफलता की कुंजी है। सांसारिक कामों में कहीं किसी चीज की अति न हो।
Tuesday, January 3, 2012
अनंत बार प्रणाम गुरुदेव
विनय बिहारी सिंह
पांच जनवरी को परम पूज्य गुरुदेव परमहंस योगानंद जी का जन्म दिन है। कल चार जनवरी को उनके आश्रम में क्रिया दीक्षा अनुष्ठान है। इसलिए कल और परसो सुबह से शाम तक गुरुदेव के आश्रम में ही रहूंगा। परमहंस जी ने अमेरिका को हेड क्वार्टर बना कर समूचे विश्व में योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया(भारत और नेपाल आदि में) और सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप (पूरे विश्व में) संस्थाओं के माध्यम से क्रिया योग का प्रसार किया। पश्चिमी देशों में क्रिया योग को वही लेकर गए थे। इस समय वाईएसएस और एसआरएफ की अध्यक्षा मृणालिनी माता हैं। वे हेडक्वार्टर माउंट वाशिंगटन में बैठती हैं। परमहंस योगानंद की विश्व प्रसिद्ध पुस्तक है- आटोबायोग्राफी आफ अ योगी। हिंदी और देशी, विदेशी अनेक भाषाओं में उसका अनुवाद हुआ है। अनूदित पुस्तक का नाम है- योगी कथामृत। यह पुस्तक आज भी छपते ही बिक जाती है। भारी लोकप्रिय। इसे लगातार छापना पड़ता है। इसी में क्रिया योग पर एक अध्याय है। अद्भुत पुस्तक है यह। योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया या वाईएसएस की स्थापना गुरुदेव ने सन १९१७ में की थी। १८९३ में जन्मे गुरुदेव ने १९५२ में शरीर छोड़ दिया था। ईश्वरतुल्य गुरुदेव के चरणों में अनंत बार प्रणाम।
Monday, January 2, 2012
नए साल पर पूजा के लिए लंबी लाइन
विनय बिहारी सिंह
दक्षिणेश्वर में मां काली के मंदिर में पहली जनवरी २०१२ को पूजा चढ़ाने के लिए बहुत लंबी लाइन लगी थी। लंबी लाइन हर साल होती है लेकिन इस बार लाइन अपेक्षाकृत ज्यादा लंबी थी। तब भी लोग धैर्य से लाइन में खड़े थे। हाथों में पूजा की सामग्री। कुछ लोगों के साथ छोटे- छोटे बच्चे भी थे। यह वही मंदिर है जहां विख्यात संत रामकृष्ण परमहंस को मां काली ने दर्शन दिया था। और रामकृष्ण परमहंस जहां अनेक वर्षों तक रहे और यहीं पर दीक्षा ग्रहण की। उनके वेदांत गुरु तोतापुरी जी थे तो तंत्र की गुरु थीं साध्वी ब्राह्मणी। मुझे लंबी लाइन देख कर लगा कि मां काली इतने धैर्य के साथ खड़े लोगों के ऊपर आशीर्वाद की वर्षा कर रही हैं। भले ही इससे लोग अनजान हैं। अनेक लोगों को तो पूजा करने का मौका शाम को मिला होगा। भले ही वे सुबह से लाइन में खड़े थे। लेकिन साल के पहले दिन मां काली के पैर पर फूल चढ़ाने का उनका उत्साह धीमा नहीं पड़ा था। मैं योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के आश्रम में जा रहा था तो यह दृश्य देखा। योगदा आश्रम में पहली जनवरी को छह घंटे का लंबा ध्यान था। बहुत ही सुखद और न भूलने वाला सामूहिक ध्यान। इसे योगदा मठ कहते हैं। लेकिन मैं आश्रम इसलिए कहता हूं क्योंकि यही जबान पर चढ़ गया है। यहीं हर रविवार को भोजन करता हूं। शाम की चाय भी पीता हूं। पूरे दिन रहने पर बहुत सुख मिलता है। संयोग से इस बार रविवार पहली जनवरी को ही पड़ा। अगर रविवार नहीं भी होता और अगर मैं कोलकाता में होता तो इस आश्रम में पहली जनवरी को जरूर आता। नए साल के पहले दिन यहां कई सालों से आ रहा हूं। इस साल दिसंबर में रिटायर हो रहा हूं। फिर पता नहीं कोलकाता में रहूंगा या और कहीं, अभी तय नहीं है। भगवान की जो इच्छा।
हां, पुरी (ओडीशा) के जगन्नाथ मंदिर में भी पहली जनवरी को पूजा चढाने आए लोगों की कई किलोमीटर लंबी लाइन थी। यह जानकारी वहां से आए फोटो को देख कर मिली। अनेक लोगों ने शिव मंदिरों में रुद्राभिषेक भी कराया। मेरे एक परिचित साल के पहले दिन रुद्राभिषेक कर इतने आनंदमग्न थे कि उसका शब्दों में बयान मुश्किल है। वे बोले- असली आनंद तो रुद्राभिषेक ही है।
दक्षिणेश्वर में मां काली के मंदिर में पहली जनवरी २०१२ को पूजा चढ़ाने के लिए बहुत लंबी लाइन लगी थी। लंबी लाइन हर साल होती है लेकिन इस बार लाइन अपेक्षाकृत ज्यादा लंबी थी। तब भी लोग धैर्य से लाइन में खड़े थे। हाथों में पूजा की सामग्री। कुछ लोगों के साथ छोटे- छोटे बच्चे भी थे। यह वही मंदिर है जहां विख्यात संत रामकृष्ण परमहंस को मां काली ने दर्शन दिया था। और रामकृष्ण परमहंस जहां अनेक वर्षों तक रहे और यहीं पर दीक्षा ग्रहण की। उनके वेदांत गुरु तोतापुरी जी थे तो तंत्र की गुरु थीं साध्वी ब्राह्मणी। मुझे लंबी लाइन देख कर लगा कि मां काली इतने धैर्य के साथ खड़े लोगों के ऊपर आशीर्वाद की वर्षा कर रही हैं। भले ही इससे लोग अनजान हैं। अनेक लोगों को तो पूजा करने का मौका शाम को मिला होगा। भले ही वे सुबह से लाइन में खड़े थे। लेकिन साल के पहले दिन मां काली के पैर पर फूल चढ़ाने का उनका उत्साह धीमा नहीं पड़ा था। मैं योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के आश्रम में जा रहा था तो यह दृश्य देखा। योगदा आश्रम में पहली जनवरी को छह घंटे का लंबा ध्यान था। बहुत ही सुखद और न भूलने वाला सामूहिक ध्यान। इसे योगदा मठ कहते हैं। लेकिन मैं आश्रम इसलिए कहता हूं क्योंकि यही जबान पर चढ़ गया है। यहीं हर रविवार को भोजन करता हूं। शाम की चाय भी पीता हूं। पूरे दिन रहने पर बहुत सुख मिलता है। संयोग से इस बार रविवार पहली जनवरी को ही पड़ा। अगर रविवार नहीं भी होता और अगर मैं कोलकाता में होता तो इस आश्रम में पहली जनवरी को जरूर आता। नए साल के पहले दिन यहां कई सालों से आ रहा हूं। इस साल दिसंबर में रिटायर हो रहा हूं। फिर पता नहीं कोलकाता में रहूंगा या और कहीं, अभी तय नहीं है। भगवान की जो इच्छा।
हां, पुरी (ओडीशा) के जगन्नाथ मंदिर में भी पहली जनवरी को पूजा चढाने आए लोगों की कई किलोमीटर लंबी लाइन थी। यह जानकारी वहां से आए फोटो को देख कर मिली। अनेक लोगों ने शिव मंदिरों में रुद्राभिषेक भी कराया। मेरे एक परिचित साल के पहले दिन रुद्राभिषेक कर इतने आनंदमग्न थे कि उसका शब्दों में बयान मुश्किल है। वे बोले- असली आनंद तो रुद्राभिषेक ही है।
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