Friday, January 20, 2012

मन अंधा

विनय बिहारी सिंह




संतों ने कहा है कि मन अंधा होता है। वह ज्यादातर इंद्रियों के वश में होता है। इंद्रियां कहती हैं कि अमुक चीज चाहिए, मन उन्हीं इंद्रियों का कहा सुनने लगता है। विवेक का उससे कोई लेना देना नहीं है। इसलिए संतों ने कहा है कि मन जो कुछ कहता है, जो कुछ मांगता है, उस पर एक बार सोचिए। देखिए कि इससे आपको क्या फायदा होगा। कहीं मन सिर्फ सनकीपन के चलते तो किसी चीज में नहीं अंटका है? अगर ऐसा है तो आपके लिए यह खतरनाक है। गीता में भगवान ने कहा है- मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु। यदि वह विवेक से काम करता है तो स्वयं का मित्र है और यदि इंद्रियों के वश में है तो वह स्वयं अपना शत्रु है। इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि मन को नियंत्रण में रखना बहुत जरूरी है। यह बेलगाम घोड़े की तरह है और बेमतलब जहां तहां दौड़ता रहता है। अनावश्यक दौड़ लगाता है। जिस चीज के बारे में सोचने से कोई फायदा नहीं मन वहां भी दौड़ लगाता रहता है। इसका अर्थ है- मन बेलगाम है। उस पर लगाम लगाना जरूरी है। मन जो कुछ कहेगा उसे हम क्यों मानें? भक्त यह सोचता है कि मैं मन नहीं हूं। मैं इंद्रिय नहीं हूं। मैं तो सच्चिदानंद आत्मा हूं। मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयो। मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है। तो क्यों नहीं इसे नियंत्रण में रखा जाए। हां, यह आसान काम नहीं है। क्योंकि मन अब तक बिना नियंत्रण के दौड़ता रहा है। उसे आप अचानक नियंत्रित करेंगे तो वह विद्रोह करेगा और आपको दबोच लेना चाहेगा। लेकिन यदि धैर्य के साथ धीरे- धीरे उसे काबू में रखा जाएगा तो वह हमारी सुनने लगेगा। तब हम मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने लगेंगे।

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