Friday, January 6, 2012

पूर्ण तृप्ति

विनय बिहारी सिंह





दो दिनों तक योगदा आश्रम में सुबह से शाम तक बिताने के बाद मैं पूर्ण तृप्त महसूस कर रहा हूं। क्यों? आदमी जब मनचाही स्थितियों को पाता है तो आनंद में डूब जाता है। सुबह सात बजे गुरुदेव के फोटो वाली खुली पालकी लेकर हो रही नगर परिक्रमा में मुझे एक प्राचीन शंख बजाने की जिम्मेदारी मिली और यह भी देखने की कि परिक्रमा की पंक्ति ठीक रहे। मुझे दो लाइनों के बीच में चलना था ताकि लोगों को मानीटर कर सकूं। वर्षों बाद शंख छुआ था, इसलिए बजा नहीं पा रहा था। बजाता तो मुंह की हवा शंख से होकर निकल जा रही थी। तभी ब्रह्मचारी गोकुलानंद जी मेरी मदद में आए। उन्होंने मुझे शंख बजा कर दिखाया। सही तरीका बताया। बस फिर क्या था। मैं खूब बढ़िया से शंख बजाता रहा। आश्रम के इस पुराने शंख को बजाते हुए बहुत अच्छा लग रहा था। खूब आनंदित होकर बजाया। नगर परिक्रमा से लौट कर जब भक्त गुरुदेव के चित्र पर फूल चढ़ा कर शद्धांजलि अर्पित कर रहे थे तो भी मैं शंख बजाता रहा। जब जय गुरु, जय गुरु का लगातार उच्चारण हो रहा था तब भी बजाता रहा। शंख तो प्रणव ध्वनि यानी ऊं ध्वनि का प्रतीक है। ऋषि पातंजलि ने लिखा है कि ऊं शब्द का कोई नकल नहीं कर सकता। वह अनिर्वचनीय, शास्वत और अनंत है। लेकिन मनुष्य के लिए भगवान ने शंख भेजा है क्योंकि मनुष्य हर चीज का एक ठोस रूपाकार चाहता है। ऊं निराकार है। लेकिन मनुष्य तो आकार वाला है। इसलिए भगवान ने उसे शंख भेजा। शंख बजाते हुए मुझे लगातार भगवान श्रीकृष्ण की याद आती रही। वे चतुर्भुज रूप में चारो हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म (कमल) लिए हुए दिखते हैं। शंक ऊं का ही प्रतीक है। बिना ऊं के ईश्वर प्राप्ति असंभव है। ऊं के साथ लय ही ईश्वर प्राप्ति। तो क्या शंख बजाने से ही मुझे पूर्ण तृप्ति मिल गई? शायद नहीं। गुरुदेव के जन्मदिन पर नगर परिक्रमा करते हुए एक बुजुर्ग व्यक्ति को मस्ती से नृत्य करते हुए देख कर आनंद मिला। वे पूरी तरह भावविभोर थे। वे कह रहे थे- गुरुदेव का जन्मदिन आनंद का दिन है। मुझे पंक्ति में रहने को मत कहिए। मैं रह नहीं सकता। यह मस्ती का दिन है। गुरुदेव में लय का दिन है। मैंने दूसरे को लाइन में रहने को कहा। लेकिन वे बोल पड़े। मैं उनकी इस बात से सहमत था। पूरे दिन प्रवचन, भजन, ध्यान और प्रसाद खाने आदि में इतना आनंदित रहा कि लगा- आह, काश ऐसे ही दिन बीतते। लेकिन फिर याद आया। नहीं। अनेक जिम्मेदारियां हैं मेरे ऊपर। उन्हें पूरा करना है। आनंद और कार्य निर्वाह दोनों साथ चलना चाहिए। यही तो गुरुदेव ने भी गृहस्थ शिष्यों के लिए कहा है। पूरी निष्ठा से सांसारिक कर्तव्य निभाने लेकिन दिल और दिमाग ईश्वर में डूबे रहने की शिक्षा दी है। हम उनकी बातों का पालन करें तो बस बन गया काम। संतुलित जीवन ही तो सफलता की कुंजी है। सांसारिक कामों में कहीं किसी चीज की अति न हो।

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