विनय बिहारी सिंह
आज दफ्तर आते हुए बस में एक मनोहारी चित्र देखा। बस के सामने यह चित्र लगा था। इसमें विख्यात संत वामाखेपा मां तारा (मां काली का ही एक रूप) की निकली हुई जीभ के पास फूल और मिठाई लेकर खड़े हैं। उनका बायां हाथ मां के कंधे पर है। सच है। वामाखेपा मां तारा के ध्यान में दिन- रात मग्न रहते थे। जब तक वे मां को नहीं खिलाते थे, स्वयं नहीं खाते थे। जब तक उनसे बातें नहीं करते थे, उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगता था। चित्र में जिस आदर और आत्मीय भाव से वे मां तारा को प्रसाद खिलाने के लिए तत्पर दिख रहे हैं, वह अद्भुत है। भक्ति हो तो ऐसी। कल रामकृष्ण वचनामृत के कुछ अंश मैं अपने पिता जी को पढ़ कर सुना रहा था। वे इसे बड़े चाव से सुनते हैं। खुद तो पढ़ नहीं सकते। आंखों ने काम करना बंद कर दिया है। एक प्रसंग में रामकृष्ण परमहंस कहते हैं- छत पर चढ़ना है तो आप पक्की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हैं। बांस की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हैं। रस्सी से भी चढ़ सकते हैं। यानी आप चाहे साधना का कोई मार्ग चुनें, वह भगवान के पास ही जाता है। चाहे भक्ति मार्ग हो, ज्ञान मार्ग हो या कर्मयोग मार्ग हो- बस उसे पूरे मन-प्राण से पकड़ना चाहिए। पूरा जोर लगा कर। आप साधना में सिद्ध हो जाएंगे। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- निवृत्ति मार्ग ही अच्छा है। प्रवृत्ति मार्ग ठीक नहीं। यानी मन स्थिर और इच्छारहित हो। पवित्र हो। तब काम बन जाता है।
No comments:
Post a Comment