Tuesday, March 23, 2010

रामनवमी और राम तत्व




विनय बिहारी सिंह


जब भी रामनवमी आती है भक्त एक बार फिर कामना करते हैं कि उनकी आत्मा हमेशा परमात्मा यानी राम में मिली रहे और राम की चेतना में ही वे संसार का भी काम करते रहें। लेकिन एक और पक्ष भी है। रामनवमी आती है नवरात्रि के अंतिम दिन। तो क्या जगन्माता और राम अलग- अलग हैं? बिल्कुल नहीं। राम की ही शक्ति हैं जगन्माता। या कहें रचनात्मक महाशक्ति में ही समाए हैं राम। दोनों तो एक ही हैं। अनेक भक्त नवरात्रि के पहले और आखिरी दिन व्रत रखते हैं तो अनेक पूरे नौ दिनों तक व्रत रखते हैं। व्रत रखने से एक तो शरीर शुद्ध होता है दूसरे यह बात फिर महसूस होती है कि हम अपनी आदतों के गुलाम हैं। जैसे हमारी आदत है कि रोज अन्न खाते हैं। तो जब वही अन्न एक दिन नहीं मिलता और उसके बदले दूध, फल और छेना या सूखे फल खाने को मिलता है तो कई लोगों को अच्छा नहीं लगता। उनका पेट तो अन्न के बिना छटपटाता रहता है। लेकिन सच्चाई तो यह है कि पेट से ज्यादा हमारा दिमाग छटपटाता है। दिमाग में बैठ गया है कि बिना अन्न के हमारा गुजारा नहीं है। यह ठीक है कि अन्न खाना जरूरी है। रोज भोजन के रूप में फल नहीं खाया जा सकता है। हां, नाश्ते में रोज फल ले सकते हैं। लेकिन एक दिन तो कम से कम सिर्फ फल पर या निराहार रहा जा सकता है। इससे आदमी मर तो नहीं जाएगा। लेकिन हममें से बहुत लोग एक दिन भी व्रत नहीं रख सकते। हां, उनकी बात अलग है जो गैस के मरीज हैं। जिन्हें व्रत रखने से पेट में गैस बनती है और सिरदर्द होने लगता है या चक्कर आने लगते हैं उन्हें तो बिल्कुल ही व्रत नहीं रखना चाहिए। ऐसे लोगों के लिए व्रत न रखना ही ज्यादा अच्छा है। बीमार लोगों के लिए भी व्रत जरूरी नहीं है। लेकिन सामान्यतया स्वस्थ लोगों को तो व्रत रखने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। एक जमाने में व्रत रखने में मैं काफी रूचि लेता था। लेकिन पिछले सात सालों से गैसकी बीमारी के कारण व्रत अनियमित हो गए हैं। ऐसे में मैं व्रत निराहार रह कर नहीं कर पाता।दिन में एक दो बार फल खा लेता हूं। पहले की तरह सिर्फ सुबह शाम एक दो फल खा कर नहीं रह पाता। नवरात्रि के दिनों में भी पहले और अंतिम दिन ही व्रत रखता हूं। आपमें से कई लोग ऐसा ही करते होंगे। एपेंडिक्स का आपरेशन बहुत साधारण आपरेशन माना जाता है। लेकिन जब से मेरे अपेंडिक्स को आपरेट करके निकाल दिया गया है, पता नहीं क्यों व्रत रखने में दिक्कत होने लगी है। फिर भी नवरात्रि के पहले औऱ अंतिम दिन व्रत करके अपार सुख मिलता है। पेट हल्का रहता है और जिस मौके पर व्रत रखा गया है, उसकी स्मृति भी बार- बार होती है। व्रत का मौका आते ही लगता है कितना अच्छा दिन है, आज व्रत रहना है। फल खाते हुए व्रत रखना भी बुरा नहीं है। हां, निराहार यानी सिर्फ पानी पीकर व्रत करना भी अलग तरह का सुखदायी अनुभव है। सुबह और शाम को संतरे इत्यादि का रस ले लें तो और भी अच्छा। लेकिन वह अब मैं नहीं कर पाता। आप में से जो कर पाते हैं वे उस आनंद को पा रहे होंगे। एक तो इससे हमारे शरीर के पूरे सिस्टम की सफाई हो जाती है और दूसरे शरीर में लाभदायक चुंबकीय तत्व आ जाते हैं। आपका व्यक्तित्व चुंबकीय या मैग्नेटिक हो जाता है। भगवान राम जब बनवास पर थे तो ज्यादातर वे फलाहार ही करते थे। एक बार जब राम भक्त शबरी को पता चला कि राम उसके घर के पास से गुजरने वाले हैं तो उसनें अपने घर के आंगन से बेर तोड़े। और भगवान राम को अपने घर आमंत्रित करके ले गई। उन्हें आसन पर प्रेम से बिठाया। फिर शुरू हुआ बेर खिलाने का कार्यक्रम। यह भी अद्भुत था। शबरी भीलनी थी। पहले खुद बेर चख कर देख लेती थी। अगर बेर मीठा है तो वही बेर का जूठा फल भगवान राम को खाने को देती। भगवान राम भी वही जूठा बेर प्रेम से खाते और ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे जैसे उन्होंने जीवन में पहली बार ऐसा स्वादिष्ट फल खाया हो। शबरी यह देख आनंद में मग्न थी। शबरी भगवान राम की अनन्य भक्त थी। भगवान अपने भक्त का जूठा क्यों न खाएं। शबरी तो राममय थी। उसे तो होश ही नहीं था कि वह अपने प्रियतम भगवान को जूठा बेर खिला रही है। और क्या भगवान राम को होश था? उन्हें भी इससे क्या फर्क पड़ता था। हां, हम लोगों को लग रहा है कि अरे शबरी ने तो जूठे बेर खिलाए और भगवान ने खाए। लेकिन उन दोनों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। हां, हमें इससे प्रेरणा मिलती है कि अगर हम भगवान के करीब जाना चाहें तो तमाम तरह के आवरण उतार फेंकने पड़ेंगे। शबरी जैसा होना पड़ेगा। एक अत्यंत साधारण भीलनी, अनंत कोटि ब्रह्मांड के स्वामी को जूठे बेर खिला रही है। कौन ज्यादा ताकतवर है। मुझे लगता है शबरी। कैसे वह ताकतवर है? सिर्फ प्रेम से। प्रेम में वह विलक्षण ताकत है कि वह कुछ भी कर सकता है। लेकिन शबरी अपनी इस ताकत से भी अनभिग्य है। वह तो प्रेम से सराबोर है। हमें भले लग रहा है कि वह ज्यादा ताकतवर है क्योंकि भक्त को भगवान हमेशा अपने से ऊपर मानते हैं। लेकिन भक्त को इससे कोई मतलब नहीं रहता कि वह भगवान से बड़ा है या छोटा। वह तो बस दिव्य प्रेम से सराबोर रहता है। इससे ज्यादा उसे कुछ नहीं चाहिए। सात्विक, निःस्वार्थ प्रेम से बड़ी आज तक कोई ताकत हुई है क्या?

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