Tuesday, March 16, 2010

अंधेरे से डर क्यों

विनय बिहारी सिंह

हममें से कई लोगों को अंधेरे में बहुत डर लगता है। एक संत ने कहा है कि जब हम मां के पेट में थे तो वहां भी अंधेरा ही था। लेकिन चूंकि हम अंधेरे और उजाले का फर्क करना नहीं जानते थे इसलिए मां के पेट में आनंद से रह रहे थे। बड़े हो कर हमने अंधेरे से डरना शुरू किया। हमें लगता है कि अंधेरे में पता नहीं क्या है इसलिए डरते हैं। अंधेरा यानी अनजाना। लेकिन योगी अंधेरे को भी ईश्वर मान कर चलते हैं। वे अपने साथ टार्च लेकर जरूर चलते हैं ताकि जहरीले जंतुओं से बचाव हो सके लेकिन योगी डरते नहीं हैं। वे कहते हैं कि मां काली भी तो काले रंग की बताई गई हैं। वे तो जगन्माता हैं। उनसे कोई डर नहीं लगता। माता से कैसा डर। जहां मां हैं वहां तो सुरक्षा ही सुरक्षा है। डरने की तो बात नहीं है। एक काली भक्त का कहना है कि मां काली कहती हैं- डर क्या है रे पागल। मैं तो हूं ही। यानी अंधेरा क्या औऱ उजाला क्या। वे हर जगह हैं। काली भक्त राम प्रसाद ने कहा है- मां काली हर जगह हैं। जिनकी आंखें बंद हैं वे ही मां काली के बारे में कहते हैं कि वे हर जगह छुपी हुई हैं। वे छुपी कहां हैं। वे तो हर वक्त या कहें हर सेकेंड हमारे आसपास रहती हैं। चूंकि हमारा दिमाग हर वक्त हजार हजार बातों में फंसा रहता है इसलिए मां काली को महसूस नहीं कर पाते। तनिक दिमाग शांत हो तब तो जगन्माता की उपस्थिति का अहसास होगा। रामप्रसाद उच्च कोटि के काली भक्त थे। उनके बारे में कहा जाता है कि वे जब चाहे मां काली का मूर्त रूप देख सकते थे। वे एक बार कहते थे- मां दर्शन दो। बस मां काली अपने प्रिय भक्त के सामने प्रकट हो जाती थीं। रामप्रसाद जब तक चाहे उनसे बातें करते थे। मां उन्हें खिलाती पिलाती थीं। कभी खीर तो कभी मिठाई। रामप्रसाद कहते थे- मां खीर खाऊंगा। मां काली तुरंत उन्हें खीर प्रस्तुत कर देती थीं। वे वही खा कर आनंद में डूब जाते थे। ऐसे सौभाग्यशाली भक्त रामकृष्ण परमहंस भी थे।

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