विनय बिहारी सिंह़
आदि शंकराचार्य ने कहा था- जगत मिथ्या, ईश्वर सत्य। इसका कुछ लोगों ने गलत अर्थ समझ लिया। वे कहते हैं कि अगर जगत मिथ्या है तो जगत में सांस मत लो। जगत का खाओ- पीयो नहीं। जगत की कोई चीज व्यवहार में मत लाओ। शंकराचार्य का यह अर्थ नहीं था। उन्होंने कहा कि यह जगत माया से ओतप्रोत है। यह संसार स्वप्न की तरह है। आपने एक आदमी से हंस- हंस कर बात की। उसके यहां चाय पी। नाश्ता किया। शाम को पता चला कि उस आदमी की तो मृत्यु हो गई। वह आदमी कहां चला गया? कई लोगों को अनेक वर्ष बाद अपने कई सहपाठियों के चेहरे याद नहीं रहते। वे आमने- सामने खड़े हों तब भी एक दूसरे को नहीं पहचानते। बचपन में जिनकी माताओं की मृत्यु हो जाती है, वे तो अपनी मां का चेहरा भी याद नहीं कर पाते। मान लीजिए उनकी मां का फोटो नहीं है। फिर वे किस चेहरे को अपनी मां के रूप में याद करेंगे? महात्माओं ने कहा है- जगन्माता ही हमारी असली मां हैं। उनके किसी रूप को अपनी मां का रूप मानिए- चाहे मां काली, मां दुर्गा, मां पार्वती या मां सरस्वती। शंकराचार्य ने कहा कि यह जगत मिथ्या है। इस पर भरोसा करके चलोगे तो धोखा खाओगे। यानी जिस मां को हम अपने जीवन की धुरी समझते थे, वह अचानक दुनिया छोड़ कर चली जाती है। पिता भी चले जाते हैं। तो इस दुनिया पर भरोसा मत करो। सबकी सेवा करो। सबसे प्रेम से रहो। यह तो ठीक है। लेकिन भरोसा सिर्फ ईश्वर पर ही करो। इसमें विरोधाभास कहां है? ठीक ही तो कहा शंकराचार्य ने। उन्होंने ही कहा था कि हमारी इच्छाएं ही हमें नियंत्रित करती हैं। वरना हम तो स्वतंत्र हैं। इन इच्छाओं के चंगुल से निकल कर ईश्वर के साम्राज्य में निर्द्वंद्व विचरने के उपाय भी उन्होंने बताए। ईश्वर भक्ति ही वह उपाय है। ईश्वर के अलावा सब कुछ मिथ्या है। यह सच ही तो है। यह हमारा शरीर भी मिथ्या ही है। यह हमारा साथ कब तक देगा? जब यह बूढ़ा या बीमार हो जाएगा, जर्जर हो जाएगा तो इसे छोड़ना पड़ेगा। मृत्यु होगी। फिर नया जन्म और नया शरीर। नए रिश्ते- नाते। शंकाराचार्य ने कहा- पुनरपि जन्मम, पुनरपि मरणम। जननी जठरे, पुनरपि शयनम।। शंकराचार्य ने हमें रास्ता दिखाया। संसार की नश्वरता और ईश्वर की अमरता के बारे में उन्होंने विस्तार से बताया। हम सब उनके ऋणी हैं।
3 comments:
hai Hum sabi sankracharya ka rini hai.
mujha aapka vichar bahut psand aata hai.
बहुत ही सरल भाषा में "शंकर दर्शन" का अर्थ प्रस्तुत करने के लिए सधुवाद। वैसे आदि शंकराचार्य के पश्चात से ही इस सिद्धान्त पर विद्वत् मन्डली खंण्डन मंण्डन करने में लगी है। इस सिद्धन्त को बुद्धिग्राह्य करने के लिए विशेष बुद्धियोग की अवश्यकता है,अपनी समझ से तो बोलने वाले और सुनने वाले मे सम्यक स्तर हो तभी गूढ अर्थ का निरूपण हो पाता है।
अस्तु शुभं,
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