Saturday, October 31, 2009

उच्च रक्तचाप से पीड़ितों की संख्या बढ़ी

विनय बिहारी सिंह

उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रेसर ) और ब्लड सुगर के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है। सिर्फ भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में। लेकिन भारत में तुलनात्मक दृष्टि से इन रोगों के मरीजों की संख्या तीन गुनी है। वजह है- अनियमित खानपान। इन दिनों चाऊमिन, बरगर और पित्जा से लेकर तरह- तरह के पकौड़ों का चलन है। इनमें पोषक तत्व कितने हैं, यह शोध का विषय है। लेकिन जानकारों का मानना है कि फास्ट फूड खाना सेहत को खराब करना है। वैसे भी सदियों से डाक्टर कहते आए हैं कि ज्यादा तला या फ्राई किया हुआ खाना पाचन प्रणाली को बिगाड़ता है। लेकिन आजकल फास्ट फूड ही चलन में आ गया है। फुटपाथों पर चाऊमिन की दुकानों पर भीड़ रहती है। छोटे शहरों में भी चाऊमिन की बहार है। इसमें पोषक तत्व न के बराबर रहता है। सिर्फ पेट भरता है। दूसरी वजह है- ब्रेड के साथ सॉस और जेली खाने आदत। आजकल अक्सर लोग ब्रेड पर ये चीजें लगाते हैं और चाव से खाते हैं। ऐसी चीजें लगातार और खूब खाने से ब्लड सुगर बढ़ता है जिसे हम हिंदी में रक्त शर्करा कहते हैं। कई लोग दिन भर चाय पीते रहते हैं। वे यह सुनना पसंद नहीं करते कि दिन भर में तीन- चार कप से ज्यादा चाय पीना स्वास्थ्य को चौपट करता है। इन दिनों जो भी डिब्बाबंद मीठा खाद्य पदार्थ आ रहा है, उसे लगातार नहीं खाना चाहिए, ऐसा डाक्टरों का मानना है। अपने देश में कुपोषण के शिकार बच्चे या बड़ों को भी कई बार ब्लड सुगर की बीमारी हो जाती है। इसके ठीक उलट विदेशों में मोटे लोगों को ब्लड सुगर से पीड़ित लोगों की संख्या बढ़ रही है। जैसे हमारे यहां कुपोषण के शिकार लोग ज्यादा हैं, ठीक उसी तरह विदेशों में अतिरिक्त पोषक तत्व खाने और मोटे हो जाने वाले लोगों की संख्या ज्यादा है। यूरोपीय देशों में कुपोषण से पीड़ित लोग कम और मोटे लोग ज्यादा हैं। कहीं के भी लोग हों, खानपान में सावधानी बरतना हर जगह जरूरी है। आज भी डायटीशियन कहते हैं- सुबह आठ बजे नाश्ता कीजिए। दोपहर बारह- एक बजे भोजन, शाम को हल्का सा नाश्ता जैसे कि बिस्कुट और चाय या टोस्ट और चाय। फिर रात को भोजन। भोजन में हरी सब्जियों की मात्रा ज्यादा रहे। सब्जी कम से कम तेल में पकी हो और पराठा या पूड़ी हफ्ते में एक बार ही ठीक है। और ज्यादा तो अच्छा यह है कि पूड़ी और पराठा छठे- छमासे ही खाया जाए। हां, जितना ज्यादा फल खा सकें वही अच्छा। यह बात मैं विशेषग्यों के मुंह से सुन कर लिख रहा हूं। मौसमी फल चाहे एक ही क्यों न हों, खाना ठीक है। महंगाई तो हमेशा रहेगी और बढ़ती भी रहेगी। लेकिन स्वास्थ्य को ठीक रखना भी जरूरी है। जो लोग चाय, सिगरेट, पान, गुटखा और अन्य नशीली चीजों के आदी हैं, उन्हें इन विषैले पदार्थों को जितनी जल्दी हो त्याग देना चाहिए। बीमार पड़ने से अच्छा है, पहले ही सावधानी बरत ली जाए। वरना दवाएं जिस तरह महंगी हो रही हैं, बीमार पड़ना एक भारी बोझ की तरह बन जाएगा। तो क्यों न सादा जीवन उच्च विचार वाला अपने पुरखों का जीवन जीएं और सुख से रहें।

Friday, October 30, 2009

एकाग्र कैसे हों

विनय बिहारी सिंह

अक्सर यह प्रश्न पूछा जाता है कि एकाग्र कैसे हों। टोटल कंसंट्रेशन कैसे आए? जब आप कोई मनपसंद चीज पढ़ते हैं तो उसमें पूरी तरह डूब जाते हैं। आपको कोई डिस्टर्ब करता है तो आपको अच्छा नहीं लगता। या कोई भी मनपसंद काम करते हैं तो उसमें लीन हो जाते हैं। यही एकाग्रता है। तब हमें सोचना है कि ईश्वर में एकाग्रता कैसे हो? कई लोग कहते हैं कि ईश्वर तो अनंत है, हम कहां ध्यान लगाएं। संतों ने कहा है और गीता में भी लिखा है कि अपनी रीढ़ की हड्डी सीधी करके बैठ जाइए। आपकी टुड्डी सीधी हो। यानी आप सीधे सामने की ओर देख रहे हों। तब आंख बंद कीजिए और दोनों भृकुटियों के बीच ध्यान कीजिए। पहले पहल आपकी आंखों की पुतली नीचे हो जाएगी क्योंकि ऊपर देखने का अभ्यास नहीं है। लेकिन धीरे- धीरे लगातार अभ्यास से आपको आदत पड़ जाएगी। अगर यह संभव न हो तो बिना सिर झुकाए, ठीक जैसे ऊपर लिखा गया है, वैसे ही बैठ कर हृदय में ध्यान लगाएं। कल्पना कीजिए कि आपके हृदय के बीच एक अत्यंत सुंदर कमल खिला हुआ है। यह कमल ईश्वरीय है। आप इसके बीचोबीच अपने इष्टदेवता या देवी की कल्पना भी कर सकते हैं। शास्त्रों में लिखा है कि थोड़ी देर भी ऐसी एकाग्रता रखने का बड़ा अच्छा फल मिलता है। मन शांत रहता है और तनाव खत्म हो जाते हैं।
लेकिन यह अभ्यास करते हुए मन में सघन भक्ति जरूरी है।

Thursday, October 29, 2009

शून्यवाद क्या है

विनय बिहारी सिंह

आज पता नहीं क्यों शून्यवाद की याद आ रही है। बौद्ध धर्म में भी इससे मिलती- जुलती तत्व व्याख्या मिलती है। आइए सबसे पहले प्रत्यक्ष उदाहरण से समझें। आपकी मेज पर एक गिलास रखा है। वह खाली है। लेकिन वह क्या सचमुच खाली है? मान्यता है कि कभी कोई चीज खाली रह ही नहीं सकती। पानी या दूध या कोई द्रव अगर गिलास में होगा तो दिखेगा। लेकिन हवा तो नहीं दिखेगी? गिलास खाली नहीं है। उसमें हवा है। जब आप उसमें पानी डालेंगे तो वह हवा की जगह ले लेगा। यानी गिलास कभी खाली नहीं है। कुछ नहीं है तो उसमें हवा है। शून्यवाद कहता है कि जब आपके दिलोदिमाग में एक कीमती सूक्ष्म चीज हो तो वह शून्य की स्थिति है। वह एक चीज क्या हो सकती है जो कीमती भी हो, सूक्ष्म भी हो और स्थाई टिक सके? वह है- ईश्वर। भगवान। शून्य का अर्थ यहां कुछ नहीं बिल्कुल नहीं है। शून्य यानी कुछ सार्थक। यह शून्यवाद। तो ईश्वर से कैसे नाता जोड़ें? मेरे पास एक ई मेल आया है। उसमें प्रश्न है- लाख कोशिश करने पर भी मन नहीं लगता। ईश्वर पर मन टिके तो कैसे? इसका उत्तर है- मन वहीं टिकता है जहां आनंद मिलता है। सुख मिलता है या अच्छा लगता है। ईश्वर को अगर आप दूर की चीज मानेंगे तो ऐसे ही होगा। एक अपरिचय वाली सत्ता में ध्यान लग ही नहीं सकता। अपरिचय क्यों? क्योंकि कई लोग समझते हैं कि ईश्वर आसमान में है। या पता नहीं कहां है। वह हमारी सुनता भी है कि नहीं। चलो लोग पूजा कर रहे हैं, हम भी पूजा कर लेते हैं। क्या पता कल्याण हो जाए। लेकिन वहां भी शंका ही रहती है। प्रसाद, फूल और अगरबत्ती आदि प्रस्तुत कर रहे हैं, लेकिन मन में चल रहा है कि पता नहीं क्या होगा। ऐसी पूजा किसी काम की नहीं। इससे अच्छा है कि आप मंदिर जाएं ही नहीं। पूजा करें ही नहीं। अस्थिर दिमाग से किया गया कोई भी काम व्यर्थ होता है। उसका कोई फल नहीं होता। पहले तो आपको विश्वास होना चाहिए कि ईश्वर है। तब आपको कोई लाभ होगा। और यही बात वैग्यानिकों ने भी कही है। उन्होंने कहा है कि अगर आपको डाक्टर में विश्वास नहीं है तो फिर वह सही दवा भी देगा तो आपको उतना फायदा नहीं होगा, जितना होना चाहिए। जो भी सार्थक काम कीजिए पूरे मन से कीजिए। पूरी लगन से कीजिए। वरना छोड़ दीजिए। गीता में कहा है- संशयात्मा विनश्यति। संशय हो तो छोड़ दीजिए। ईश्वर को मत मानिए। प्रपंच में फंसे रहिए। लेकिन अगर आपका ईश्वर में विश्वास है तो पूरे मन, पूरी आत्मा के साथ उसे प्रेम कीजिए। ईश्वर हमारी सांसों में है। इससे ज्यादा प्रमाण क्या चाहिए। क्या आप जीवन में जब तक चाहे सांस ले सकते हैं। नहीं। जिस दिन मृत्यु को आना होगा आकर आपकी सांस बंद कर देगी। यह आपके हाथ में नहीं है। तो ईश्वर आपकी सांस में है। उसे जबसे प्यार करने लगेंगे, आपको सुख मिलने लगेगा। ईश्वर तो इंतजार कर रहा है।

Wednesday, October 28, 2009

प्रेम गली अति सांकरी

विनय बिहारी सिंह

हालांकि यह अद्भुत पंक्ति आपने कई बार पढ़ी होगी। लेकिन जितनी बार पढ़ते हैं, प्रेम का गहरा अर्थ और स्पष्ट होता जाता है। ईश्वर से प्रेम करना हो तो इसी अद्भुत स्थिति में आना पड़ेगा। ईश्वर व्यक्तिगत भी है और सार्वजनिक भी। जैसे जगन्माता मेरी या आपकी व्यक्तिगत माता भी हैं और पूरे जगत की भी माता हैं। क्या यह संभव है? जिन माताओं के छह बच्चे होते हैं। क्या वह उनमें से किसी को कम या ज्यादा प्यार करती है? नहीं। मां तो मां ही होती है। सबको एक जैसा प्यार। और बच्चे भी सिर्फ मां- मां रटते रहते हैं। अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो क्या अद्भुत स्थिति है। क्या आनंद है। आइए पहले उन पंक्तियों की बात करें-
हरि है तो मैं नहीं, मैं हूं तो हरि नाहिं।प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय।।
यानी आप शरीर, इंद्रिय, मन या बुद्धि नहीं हैं। आप तो सच्चिदानंद आत्मा हैं। जिस दिन इस बात का भान हो गया, बस काम बन गया। तब हरि औऱ आप एक में मिल जाएंगे। क्योंकि मैं यानी अहंकार। अहंकार के रहते हरि मिलने वाले नहीं हैं। अहंकार तो हमारे और ईश्वर के सामने लोहे की मोटी दीवार खड़ी कर देता है। लेकिन ज्योंही आप अपने अहं को जला कर राख कर देते हैं, वह दीवार अपने आप पिघल जाती है औऱ ईश्वर आपको अपनी गोद में ले लेते हैं। आप सच्चिदानंद में रहने लगते हैं। तब न कोई तनाव है, न कोई चिंता है और न ही कोई कष्ट। दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से दूर आप हर क्षण आनंद में रहते हैं। लेकिन यह अहं दूर कैसे होगा? जब आप समझ जाएंगे कि आप अहं नहीं हैं। सब कुछ तो ईश्वर है। आप तो सिर्फ उसकी कठपुतली हैं। एक बार उससे संपर्क हो जाए तो बस काम बन गया। चाहे ईश्वर को माता के रूप में पा लीजिए चाहे पिता के रूप में, चाहे मित्र के रूप में पा लीजिए चाहे भाई के रूप में। जिस रूप में अराधना करेंगे, उसी रूप में वे आ जाएंगे। लेकिन प्रेम उत्कट होना चाहिए। उत्कट यानी ईश्वर के सिवा कुछ दिखाई ही न दे। जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए या जैसे कोई प्रेमिका अपने प्रेमी के लिए, जैसे कंजूस धन के लिए, जैसे पानी में डूबता आदमी सांस लेने के लिए और जैसे कोई माता अपने पुत्र के लिए तड़पती है, उससे सौ गुना तड़पन ईश्वर के लिए होनी चाहिए। यह कैसे होगा? जब आपको यह महसूस हो जाएगा कि ईश्वर के सिवा औऱ कुछ भी आनंददायक नहीं है। और यही सच है। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- हमारा मनुष्य योनि में जन्म इसीलिए हुआ है कि हम ईश्वर को प्राप्त करें। लेकिन क्या अचंभा है कि हम ईश्वर को छोड़ देते हैं और उसके अलावा जितनी चीजें हैं, उन्हीं को पाने के लिए तड़पने लगते हैं। लेकिन अंत में मिलता क्या है? कुछ नहीं। इसलिए क्यों न ईश्वर से अपना संपर्क और गहरा बनाएं। वे तो अनंत हैं। आप उनसे संबंध बनाएंगे तो आप भी अनंत आनंद, अनंत सुख के अधिकारी हो जाएंगे।

Tuesday, October 27, 2009

आदि शंकराचार्य ने क्या कहा था?

विनय बिहारी सिंह़

आदि शंकराचार्य ने कहा था- जगत मिथ्या, ईश्वर सत्य। इसका कुछ लोगों ने गलत अर्थ समझ लिया। वे कहते हैं कि अगर जगत मिथ्या है तो जगत में सांस मत लो। जगत का खाओ- पीयो नहीं। जगत की कोई चीज व्यवहार में मत लाओ। शंकराचार्य का यह अर्थ नहीं था। उन्होंने कहा कि यह जगत माया से ओतप्रोत है। यह संसार स्वप्न की तरह है। आपने एक आदमी से हंस- हंस कर बात की। उसके यहां चाय पी। नाश्ता किया। शाम को पता चला कि उस आदमी की तो मृत्यु हो गई। वह आदमी कहां चला गया? कई लोगों को अनेक वर्ष बाद अपने कई सहपाठियों के चेहरे याद नहीं रहते। वे आमने- सामने खड़े हों तब भी एक दूसरे को नहीं पहचानते। बचपन में जिनकी माताओं की मृत्यु हो जाती है, वे तो अपनी मां का चेहरा भी याद नहीं कर पाते। मान लीजिए उनकी मां का फोटो नहीं है। फिर वे किस चेहरे को अपनी मां के रूप में याद करेंगे? महात्माओं ने कहा है- जगन्माता ही हमारी असली मां हैं। उनके किसी रूप को अपनी मां का रूप मानिए- चाहे मां काली, मां दुर्गा, मां पार्वती या मां सरस्वती। शंकराचार्य ने कहा कि यह जगत मिथ्या है। इस पर भरोसा करके चलोगे तो धोखा खाओगे। यानी जिस मां को हम अपने जीवन की धुरी समझते थे, वह अचानक दुनिया छोड़ कर चली जाती है। पिता भी चले जाते हैं। तो इस दुनिया पर भरोसा मत करो। सबकी सेवा करो। सबसे प्रेम से रहो। यह तो ठीक है। लेकिन भरोसा सिर्फ ईश्वर पर ही करो। इसमें विरोधाभास कहां है? ठीक ही तो कहा शंकराचार्य ने। उन्होंने ही कहा था कि हमारी इच्छाएं ही हमें नियंत्रित करती हैं। वरना हम तो स्वतंत्र हैं। इन इच्छाओं के चंगुल से निकल कर ईश्वर के साम्राज्य में निर्द्वंद्व विचरने के उपाय भी उन्होंने बताए। ईश्वर भक्ति ही वह उपाय है। ईश्वर के अलावा सब कुछ मिथ्या है। यह सच ही तो है। यह हमारा शरीर भी मिथ्या ही है। यह हमारा साथ कब तक देगा? जब यह बूढ़ा या बीमार हो जाएगा, जर्जर हो जाएगा तो इसे छोड़ना पड़ेगा। मृत्यु होगी। फिर नया जन्म और नया शरीर। नए रिश्ते- नाते। शंकाराचार्य ने कहा- पुनरपि जन्मम, पुनरपि मरणम। जननी जठरे, पुनरपि शयनम।। शंकराचार्य ने हमें रास्ता दिखाया। संसार की नश्वरता और ईश्वर की अमरता के बारे में उन्होंने विस्तार से बताया। हम सब उनके ऋणी हैं।

Monday, October 26, 2009

जिसकी जैसी नजर


विनय बिहारी सिंह


एक बार युधिष्ठिर और दुर्योधन को उनको गुरु ने अलग- अलग काम दिया। युधिष्ठिर को कहा गया कि वे शाम तक सबसे बुरे आदमी को खोज कर लाएं। दुर्योधन को कहा गया कि वे शाम तक सबसे अच्छे आदमी को खोज कर लाएं। दोनों अपनी- अपनी खोज में निकल पड़े। शाम हुई तो दोनों गुरु के पास पहुंचे। सबसे पहले दुर्योधन से पूछा गया- कहां है तुम्हारा सबसे अच्छा आदमी? दुर्योधन ने कहा- मुझे तो कोई सबसे अच्छा आदमी दिखा ही नहीं। सबमें कुछ न कुछ बुराई है। इसलिए मैं खाली हाथ लौटा हूं। तब युधिष्ठिर को बुलाया गया और पूछा गया- कहां है सबसे बुरा आदमी? युधिष्ठिर ने कहा- गुरुवर, मुझे तो कोई बुरा आदमी दिखा ही नहीं। मैंने जिस पर नजर डाली, अच्छा आदमी दिखा । इसीलिए मैं खाली हाथ लौटा। उनके गुरु ने कहा- यह तुम्हारे ग्यान के लिए है। जिसकी जैसी नजर होती है, उसे वैसा ही दिखता है। जिसके मन में बुराई रहेगी, वह सबको उसी नजर से देखेगा। जिसके मन में वासना होगी, वह सबको वासना की नजर से ही देखेगा। जिसके मन में पवित्रता रहेगी, वह सबको पवित्र नजर से ही देखेगा। अगर हम ठान लें कि जिस ईश्वर ने हमें पैदा किया, उसे जान कर रहेंगे तो ईश्वर खुद ही हमारी इस कोशिश में मददगार हो जाएंगे। वरना छुपे ही रहेंगे। एक व्यक्ति ने एक महात्मा से प्रश्न किया कि ईश्वर ने इतनी बड़ी सृष्टि की, अनंत प्रकार के सुंदर दृश्य बनाए, हमें पैदा किया और खुद क्यों छुपे रहते हैं? कोई उन्हें देख क्यों नहीं पाता? महात्मा ने उत्तर दिया- यही ईश्वर की महानता है। वरना हम कोई छोटा सा भी पराक्रम करते हैं तो चाहते हैं कि दुनिया को पता चल जाए कि मैंने अमुक काम किया है। किसी की मदद करते हैं तो चाहते हैं कि लोग हमारी प्रशंसा करें कि मैंने अमुक की मदद की। एक समाजसेवक के रूप में ख्याति मिले। लेकिन ईश्वर ने एक सूक्ष्म जीव से लेकर हाथी तक बनाया है। पहाड़, नदियां और आसमान बनाया है लेकिन खुद को छुपा कर रखते हैं। उन्हें सिर्फ वही देख सकता है जो उन्हें दिल से प्यार करता है। यह आसान भी है और कठिन भी। अगर आपका दिल ईश्वर के लिए पिघल गया तो आसान है और अगर आपके मन में शंका पैदा हो गई कि ईश्वर है भी कि नहीं, तो फिर आप खोजते- खोजते पस्त हो जाएंगे तो भी ईश्वर की अनुभूति आपको नहीं होगी। जो लोग रास्ता चलते ईश्वर को पा लेना चाहते हैं, वे निराश होते हैं और अंत में कहते हैं- कहां, ईश्वर तो है ही नहीं। होता तो क्या दिखता नहीं? बस ऐसे लोग भ्रम में ही फंसे हुए पूरा जीवन बिता देते हैं। जैसे हर चीज को पाने का एक तरीका है, पद्धति है, वैसे ही ईश्वर को भी पाने की एक पद्धति है। पातंजलि योग सूत्र इसी की व्याख्या करते हैं।

Friday, October 23, 2009

क्या हमारा जीवन सिनेमा के लोग चलाएंगे?

विनय बिहारी सिंह

सिनेमा को ही जीवन बना लेना क्या ठीक है? आज बड़े होते बच्चों के मुंह से सिनेमा के satahi गीत सुनना सामान्य सी घटना है। सिनेमा हमें कौन सा संस्कार सिखाता है? क्या वह हमें धैर्य, शांति, साहस और ईश्वर के प्रति गहरी आस्था का संदेश देता है? या कि फिल्म निर्माता अपनी कमाई के लिए तमाम तरह के मसाले डाल कर लोगों को सतही चीजों के प्रति प्रेरित करता है? मेरा आग्रह है कि यह लेख सिनेमा के खिलाफ नहीं है। लेकिन एकदम से सिनेमा का दीवाना होना भी खतरनाक है। फिल्में व्यवसाय के लिए बनाई जाती हैं। कमाई के लिए। आजकल की फिल्में अच्छे संदेश देने के लिए नहीं होतीं। कोई एक विषय लेकर सस्पेंस और कानों को अधिक प्रिय न लगने वाले गाने दर्शकों को कितना लुभाएंगे? इसीलिए फिल्में खूब फ्लाप भी हो रही हैं। तो बच्चे क्यों फिल्मों के प्रति मोहित हो रहे हैं। क्यों कोई बच्चा रास्ते में प्यार, प्यार गाता है और सच्चे प्यार का अर्थ नहीं जानता? इसकी वजह यह है कि हममें से ज्यादातर लोगों का जीवन फिल्मों और टीवी कार्यक्रमों से इस तरह बंध गया है कि अगर घर में टीवी खराब हो जाए तो हंगामा खड़ा हो जाएगा। कई लोग घर में प्रवेश करते ही सबसे पहले टीवी खोलते हैं। फिर कुछ खाते पीते हैं। उनका सारा काम टीवी देखते देखते ही होता है। पात्रों की चर्चा, लाइव शो में किसने क्या किया, इसकी चर्चा। बस। जीवन मूल्यों की चर्चा कोई नहीं करता। क्या हमारा जीवन एकांगी हो गया है? क्या सिनेमा और टीवी के लोग हमें सिखाएंगे कि हमें कैसे जीना चाहिए और कैसे सोचना चाहिए? तब तो हम बाजार के उत्पादों के बारे में ही दिन रात सोचेंगे या फिर फिजूल के चरित्रों की चर्चा करेंगे। आप कहेंगे कि तब क्या करें? बैठ कर रामनाम जपें? ठीक है आप रामनाम मत जपिए। लेकिन कोई अच्छी प्रेरक किताब पढिए। बच्चों को ऐसे संस्कार दीजिए कि वे महापुरुषों के जीवन की कथा पढ़ने के लिए लालायित हों। अच्छी पुस्तकें बच्चों को ही नहीं बड़ों को भी बहुत कुछ दे जाती हैं। कुछ नहीं तो चिंता छोड़ें, सुख से जीएं नामक किताब ही पढ़ने को दीजिए। या फिर परमहंस योगानंद की योगी कथामृत (आटोबायोग्राफी आफ अ योगी का अनुवाद) पढ़ने को दीजिए। तब वह तोते की तरह प्यार प्यार न गाकर, अपने भीतर को टटोलेगा। चिंतन करेगा। शांत होकर अकेले में हम अपने भीतर कब झांकेंगे? कैसे आत्मविश्लेषण कर पाएंगे कि हमारे भीतर क्या चल रहा है? अगर कोई दिन रात अपने दिमाग को बाहर दौड़ाए रहता है तो वह अपने भीतर झांक ही नहीं सकता। तब फिर वह बाहर की सफाई तो कर सकता है, अंदर की सफाई नहीं कर सकता। अंदर कूड़ा- कचरा जमा होता रहेगा। बाद में भीतर के कूड़े कचरे की जड़ इतनी गहरी हो जाएगी कि आप उसे उखाड़ेंगे और वह फिर नए सिरे से उग आएगा। यह कूड़ा हमारे अनजाने जमा होता रहता है। इसकी सफाई का सबसे बढ़िया उपाय यह है कि आत्मविश्लेषण करें और महापुरुषों की अच्छी पुस्तकें पढ़ें और शास्त्रीय संगीत पर आधारित भजन सुनें। भजन सुनने का नशा नहीं होना चाहिए। वरना ध्यान पूजा छोड़ कर सिर्फ भजन ही सुनते रहेंगे। हर चीज की एक सीमा होनी चाहिए।

Thursday, October 22, 2009

इस तरह हम भूल जाते हैं अपनी स्थाई पूंजी

विनय बिहारी सिंह

रमन नाम का एक किसान था। उसे पटवारी ने पांच साल के लगान भुगतान की रसीद दी और कहा कि इसे ठीक से रख देना, कभी भी काम आएगी। रमन ने उसे एक जगह रख दिया। उसके बाद कई कागजात आते रहे, वह उन्हें जहां तहां रखता गया। दो साल बाद उसे उन्हीं पांच सालों के लगान की नोटिस मिली जिसका भुगतान वह कर चुका था और जिसकी रसीद उसके पास थी। रमन ने कहा कि यह वसूली की नोटिस तो गलत है। मैं इसका भुगतान कर चुका हूं। तब संबंधित अधिकारी ने कहा कि उसकी रसीद लाओ, हम अपनी गलती सुधार लेंगे। रमन घर आया और रसीद ढूंढ़ी। लेकिन उसे कहीं रसीद नहीं मिली। अधिकारियों ने उसे एक महीने का समय दिया। रमन ने सारा घर छान मारा। कहीं वह रसीद नहीं मिली। हार कर उसे दुबारा लगान देना पड़ा। इसके १० दिन बाद उसे पुरानी वाली रसीद मिल गई। वह दौड़ा- दौड़ा संबंधित अधिकारी के पास आया और पुरानी रसीद दिखाई। फिर लिखा- पढ़ी शुरू हुई। उसे वह पैसा दुबारा मिला कि नहीं मालूम नहीं हो सका। लेकिन इतना मालूम हुआ कि अपनी ओर से लिखा- पढ़ी करने में कई बार रसीद और आवेदन पत्रों की जिराक्स कापी करानी पड़ी। अगर रमन रसीद न भूलता तो यह झमेला होता ही नहीं। कबीरदास ने लिखा है कि भगवान कहते हैं-
मोको कहां ढूंढे रे बंदे। मैं तो तेरे पास में।
यानी ईश्वर हमारे पास ही है। लेकिन हम उन्हें महसूस नहीं कर पाते हैं क्योंकि हमारा दिमाग इतना चंचल है कि क्षण भर एक जगह नहीं ठहरता। इसे एक जगह रोकने से ही हमारा सारा काम बन जाएगा। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- जिसका हृदय निर्मल नहीं है, उसे विश्वास हो ही नहीं सकता कि ईश्वर है। सब जानते हैं कि यह सृष्टि, दिन और रातें, ऋतुएं और मनुष्य ही नहीं सभी जीवों का जीवन जिस तरह उदय और अस्त यानी जन्म और मरण के बीच चल रहा है, वह निश्चय ही कोई चला रहा है। अपने आप कुछ नही हो सकता। बिना किसी शक्ति और इंटेलिजेंस के कुछ भी संभव नहीं है। फिर भी लोग कह देते हैं- कभी कभी लगता है कि भगवान हैं, लेकिन कभी कभी लगता है भगवान नहीं हैं। संत कबीर ने कहा है-
काहे रे नलिनी तू कुम्हलानी।जल में जन्म, जल में वास।जल में नलिनी तोर निवास।।
यानी ईश्वर हम ईश्वर में ही तो हैं। फिर क्यों दुखी रहते हैं? क्योंकि मन स्थिर नहीं कर पाते। इतने चंचल मन से ईश्वर को पकड़ना कैसे संभव है? जब ईश्वर को महसूस करेंग तभी तो शांति और आनंद को जानेंगे। वरना हम अपनी थाती भूले रहेंगे। हमारे हृदय में भगवान है, इसे हम भूल चुके हैं। याद तो तभी आएगी जब मन शांत होगा। मन तब शांत होगा जब लगेगा कि यह जो मन है, वह अनेक अनावश्यक बातों में उलझा रहता है। जरा एक दिन मन की चौकीदारी करके देखिए तो सही। कहां कहां जाता है यह?

Wednesday, October 21, 2009

ठीक हो सकती है भूलने की बीमारी

विनय बिहारी सिंह


हां, कई लोगों को भूलने की बीमारी होती है। अभी आपने उन्हें अपना नाम बताया, लेकिन दो मिनट बाद वे भूल गए और फिर पूछ बैठे- आपका शुभ नाम क्या है? या आपने उन्हें बताया कि आपकी आवेदन पत्र संख्या या शिकायत संख्या यह है। लेकिन घर जाने के रास्ते में ही वे संख्या भूल गए। जिस कागज पर उन्होंने नोट किया था, उसे भी खो दिया। या आपने किसी डाक्टर का नाम बताया और वे आधे घंटे के अंदर डाक्टर का नाम ही भूल गए। सिर्फ इलाके का नाम याद रहा। आपने ऐसे लोगों को जरूर देखा होगा। वैग्यानिकों ने कहा है कि आप ऐसी हालत में कोई पुरानी ऐसी बात याद करने की कोशिश कीजिए जो आप भूल चुके हैं। दूसरा उपाय- कुछ पहेलियों के हल खोजिए। तीसरा उपाय- घरेलू हिसाब- किताब को जबानी जोड़ने- घटाने की कोशिश कीजिए। लेकिन मेसाचुसेट्स के वैग्यानिकों ने एक प्रयोग किया है- उन्होंने उड़ने वाले एक चूहे के दिमाग को एक खास तरह से दीप्त या प्रकाशित कर दिया। देखा गया कि उस चूहे की याददाश्त तेज हो गई। तब वैग्यानिकों को लगा कि अगर रोज कुछ न कुछ याद करने की कोशिश की गई तो यह अभ्यास आपकी मदद कर सकता है। आप कह सकते हैं कि ऐसा तो आम जीवन में रोज ही होता है कि हम कुछ न कुछ याद करने की कोशिश करते हैं। नहीं। आप अभ्यास के तौर पर ऐसा कीजिए और नियमित कीजिए। तब इसका परिणाम आएगा। हड्डियों कैसे मजबूत बनाएं- लगभग ५० साल की उम्र होने के बाद आदमी की ह़ड्डियां कमजोर होने लगती हैं। कुछ लोगों की हड्डियां तो इतनी कमजोर होती हैं कि अगर बाथरूम में गिर गए तो पैर या कूल्हे की हड्डी तक टूट जाती है। वैग्यानिकों ने कहा है कि इसके लिए ५० की उम्र पार कर चुके हर आदमी को बोन मिनरल डेंसिटी टेस्ट करा लेना चाहिए। यानी इस बात की जांच करा लेनी चाहिए कि उनकी हड्डी में सभी मिनरल यानी तत्व संतुलित मात्रा में हैं कि नहीं। क्या कैल्शियम ठीक है? वगैरह वगैरह। लेकिन हड्डी मजबूत रहे इसके लिए नियमित व्यायाम करना चाहिए। यह बात सिद्ध हो चुकी है कि जो लोग नियमित व्यायाम करते हैं, उनकी हड्डियां मजबूत रहती हैं।

Tuesday, October 20, 2009

गन्ने के रस से चल सकती है कार

विनय बिहारी सिंह

एक डच माइक्रोबायलाजिस्ट ने प्रयोग कर दिखा दिया है कि पेट्रोल या डीजल के बदले गन्ने के रस से कार चलाई जा सकती है। यही नहीं, मकई (कार्न) से सुंदर कपड़े बन सकते हैं। इसके बाद से ही यह बहस छिड़ गई है कि यह प्रकृति के साथ छेड़छाड़ है। गन्ने का रस मिठास के लिए है तो उसे वही रहने दिया जाए। इससे कार का ईंधन बनाना अनुचित है। अगर पेट्रोल की जगह गन्ने का रस इस्तेमाल होने लगा तो फिर चीनी की भारी कमी हो जाएगी क्योंकि कारें लगातार बढ़ रही हैं और पेट्रोल की खपत का कोई अंत नहीं दिख रहा है। ऐसे में लोग मिठास के लिए तरसने लगेंगे। इसी तरह मकई का पौधा अगर कपड़े बनाने में इस्तेमाल होने लगा तो लोग कार्न से बनने वाली पौष्टिक चीजों से वंचित रह जाएंगे। यह माइक्रो युग है। यानी सूक्ष्म की तरफ जाने की यात्रा है। हमारे ऋषि- मुनि ध्यान के माध्यम से ही सूक्ष्म की यात्रा करते थे और कणाद ऋषि ने ध्यान के जरिए ही बता दिया था कि हर वस्तु अणुओं से बनी है। कणाद ऋषि जैसे ही पराशर और अगस्त्य ऋषि थे। इन लोगों ने भी जो वैग्यानिक व्याख्याएं की हैं, नक्षत्रों और ग्रहों के बारे में जो विचार प्रकट किए हैं, वह अद्भुत है। ऋषि मार्कंडेय ने भगवान शिव और पार्वती की जो व्याख्या की है, वह अतुलनीय है। कई बार प्राचीन काल के वाहनों की याद आती है। कुछ रथ ऐसे होते थे जो तकनीकी रूप से इतने विकसित होते थे कि घोड़े ने जरा सा जोर लगाया और रथ घोड़े के साथ सरपट दौड़ने लगा। धीरे- धीरे रथों का विकास होता गया। उनकी सजावट, बनावट और पहियों में काफी कुछ परिवर्तन होता गया। बाद में कारें आईं। लेकिन प्राचीन काल में रथों के विकास का जो क्रम है, उससे लगता है कि निरंतर बेहतरी की तरफ यात्रा जारी थी। जहां तक ऋषियों की बात है तो वे लोग सूक्ष्म शरीर से अंतरिक्ष की यात्रा तो करते ही थे, जहां चाहे वहां जा सकते थे। लेकिन वे अनावश्यक रूप से कहीं आते- जाते नहीं थे। कोई भी संत, ऋषि या महात्मा किसी भी काल में घूमने के उद्देश्य से कभी नहीं निकला। वे कहीं जाते थे तो जनकल्याण के लिए जाते थे। किसी अन्य महात्मा से मिलने या किसी तीर्थ या कहीं किसी मंदिर की स्थापना या लोक शिक्षा के लिए। निरूद्देश्य वे कभी कहीं नहीं जाते थे।

Monday, October 19, 2009

हां, यह प्रकाश का त्यौहार था, लेकिन बन गया शोर का त्यौहार

विनय बिहारी सिहं

निश्चय ही दीपावली अपने भीतर प्रकाश को और गहरे उतारने का त्यौहार है और प्रकट रूप से घर और आसपास दीप या विद्युत प्रकाश से जगमगा देने का त्यौहार भी है। दीपावली के दिन लक्ष्मी जी की पूजा तो होती ही है, व्यवसायी अपने बही- खातों को नया करते हैं। हालांकि अब बही- खातों का जमाना खत्म होता जा रहा है। अब तो कंप्यूटर ही बही- खाता हैं। लेकिन तब भी प्रतीकात्मक ढंग से हम दीपावली के दिन पुरानी चीजों को बदल कर नया करते हैं और लक्ष्मी जी से प्रार्थना करते हैं कि वे कृपालु बनी रहें। आध्यात्मिक लोग मां लक्ष्मी से प्रार्थना करते हैं कि उनकी आध्यात्मिक पूंजी लगातार बढ़ती रहे और जल्दी ही वह दिन आए जब ईश्वर और वे एक हो कर अनंत आध्यात्मिक साम्राज्य का आनंद उठाएं। लेकिन जहां तक कोलकाता की बात है, यहां दीपों या प्रकाश का यह त्यौहार शांति और आनंद के बजाय पटाखों और आर्केस्ट्रा पार्टियों के के भारी शोर के बीच बीता। अगले दिन रविवार था, उस दिन भी यही हाल था। मैंने हर रविवार की तरह उस दिन भी अपना समय मठ में बिताया। वहां शांति और आनंद का माहौल था। आखिर क्यों बदल गया है दीपावली का त्यौहार इस तरह? क्यों तेज और बम की तरह के पटाखों ने इस त्यौहार को प्रदूषण से भर दिया है? मेरे एक परिचित ने कहा- लक्ष्मी का स्वागत करने के बजाय पटाखे पर फिजूलखर्ची करना अगर आनंद मनाना है तो फिर दीपावली को पटाखावली क्यों न कहें? देश के अन्य शहरों से भी पटाखों के शोर की खबरें मिल रही हैं। त्यौहारों पर शोर की परंपरा के बजाय, शांति और माधुर्य की परंपरा की ओर लौटना अब भी संभव है, अगर आत्मा की सुनें तो। आप सब लोगों की शुभकामनाओ का ही असर है - मेरी दीपावली बहुत सुखद और प्रेम से पूर्ण बीती।

Saturday, October 17, 2009

आप सबको दीपावली की शुभकामनाएं. आपके घर खुशिया आनंद मनाये

Friday, October 16, 2009

डकैत रत्नाकर ऋषि वाल्मीकि कैसे हुए?

विनय बिहारी सिंह

ऋषि वाल्मीकि को आदि कवि कहा जाता है। अनेक विद्वानों का मत है कि उन्होंने संस्कृत में रामायण लिखने के अलावा योग वशिष्ठ भी लिखा। भगवान राम की कथा को उन्होंने इतने मनोहारी ढंग से लिखा है कि संस्कृत काव्य के विद्वान पढ़ कर बार बार दंग रह जाते हैं। एक तो उनकी भाषा इतनी संगीतमय है और शैली बेजोड़ कि आप उसमें खो जाते हैं। राम के चरित्र में आप रम जाते हैं। बहरहाल, गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि अतिशय दुराचारी भी अगर अपने कुकर्मो को छोड़ कर मेरा अनन्य भक्त हो जाए तो उसको मुक्ति मिल जाती है। वाल्मीकि का बचपन का नाम रत्नाकर था। एक बार वे जंगल में गए और वहां खो गए। एक शिकारी को उन पर दया आई और वह उन्हें अपने घर ले गया। फिर बेटे की तरह रखा। रत्नाकर जब बड़े हुए तो एक सुंदर कन्या से उनकी शादी हुई। परिवार का भरण पोषण करने के लिए वे डकैत बन गए। जंगल में जो मुख्य रास्ते से गुजरता, वे उसका सारा सामान लूट लेते। एक बार नारद मुनि उस रास्ते से गुजर रहे थे। रत्नाकर ने उनको लूटना चाहा। लेकिन उनके पास कुछ था ही नहीं। नारद मुनि वीणा बजा कर मधुर धुन में राम नाम गाने लगे। डकैत रत्नाकर पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने उससे पूछा कि तुम यह जो पाप कर रहे हो, इसमें तुम्हारे परिवार के लोग क्या भागीदार होंगे? रत्नाकर को लगा कि हां, प्रश्न तो ठीक ही है। उसने अपने परिजनों से पूछा- क्या तुम लोग मेरे पाप में भागीदार हो? पत्नी बोली- बिल्कुल नहीं। तुम्हारा काम है, परिवार का भरण पोषण करना। करो। कैसे करते हो, यह तुम जानो। जो करोगे, वही भरोगे। हम उसमें भागीदार क्यों हों? बच्चों ने भी यही जवाब दिया। अब रत्नाकर की आंखें खुलीं। वह दौड़ा नारद मुनि के पास गया और उनके पैरों पर गिर पड़ा। नारद मुनि ने रत्नाकर को मंत्र दीक्षा दी। कहा कि तुम- राम राम कहते रहो। रत्नाकर के मुंह से राम जैसा शब्द भी नहीं निकल पा रहा था। तब नारद मुनि ने कहा- तो ठीक है तुम मरा मरा ही कहो। रत्नाकर तुरंत मरा मरा कहने लगा। नारद मुनि ने कहा- जब तक मरा मरा कहो, भगवान राम का ध्यान करो। वही सबके मालिक हैं। रत्नाकर मरा, मरा कहता रहा। मरा, मरा कहने से मुंह से राम, राम का उच्चारण होने लगा। यही रत्नाकर बाद में ऋषि वाल्मीकि बने। आदि कवि और रामायण के सुप्रसिद्ध रचनाकार। जो ठीक से राम राम नहीं कह सकते थे, वे संस्कृत के विद्वान हो गए। यह ईश्वर की कृपा नहीं तो और क्या है? इसी कथा को तरह तरह से कहा जाता है। कोई कहता है कि नारद मुनि नहीं कोई और साधु थे। उन्हें रत्नाकर ने पेड़ से बांध दिया। फिर घर आकर पूछा। तब जाकर साधु के पैर पर गिरा। कथा जैसे भी कही जाए। इसका मूल उद्देश्य यही है कि ईश्वर की कृपा से मूर्ख औऱ क्रूर व्यक्ति भी परम विद्वान औऱ ईश्वर का जानकार बन सकता है।

जापर कृपा राम के होई।तापर कृपा सबहिं के होई।।

Wednesday, October 14, 2009

ईश्वर के नाम का अद्भुत प्रभाव

विनय बिहारी सिंह

गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार।तुलसी भीतर बाहेरहुं जौं चाहसि उजियार।।
यानी अगर अपने भीतर और बाहर दिव्य ज्योति का प्रकाश चाहते हैं तो रामनाम की मणि को अपनी जीभ पर पर सदा के लिए रख लीजिए।
एक अन्य भक्त कवि ने कहा है-
जबहि नाम हिरदै धर्यो भयो पाप को नास।मानौ चिनगी अग्नि की परी पुराने घास।।
यानी जब मैंने अपने हृदय में ईश्वर का नाम रखा, तो मेरे पाप यानी बुरे कर्म ऐसे जल गए मानो पुरानी सूखी घास में आग लग गई हो। रामचरितमानस में तुलसीदास ने कहा है-
सादर सुमिरन जे नर करहीं।भव बारिधि गोपद इव तरहीं।।
यानी जो अनन्य प्यार से ईश्वर का स्मरण करता है, वह अनंत भवसागर को इस तरह पार कर जाता है, जैसे कोई गाय के खुर से हुए गड्ढे को पार कर जाता है।
ये उदाहरण सिद्ध करते हैं कि दिल से ईश्वर का नाम लेने से कई बाधाएं कट जाती हैं। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूं जो रात के दो बजे तक राम नाम का जप करता है और ध्यान करता है। चाहे लाख बाधाएं आएं, वह इस कार्यक्रम को जारी रखता है। रात दो बजे उसके चेहरे पर जो आनंद देखने को मिलता है, उसका वर्णन करना मुश्किल है। चेहरे पर गहरी शांति और आनंद। एक वृद्धा भी लगभग ऐसी ही हैं। वे रात को दस बजे सोती हैं और चार घंटे बाद रात के दो बजे उठ जाती हैं। इसके बाद सुबह पांच बजे तक उनका जप और ध्यान चलता रहता है। वे रात को सिर्फ चार घंटे सोती हैं। लेकिन पूरे दिन उनके चेहरे पर जो आनंद देखने को मिलता है, वह अद्भुत है। लेकिन हां, यह जप या ध्यान दिल से हो। यह नहीं कि तोते की तरह रामनाम रट रहे हैं और मन हजार कोठों पर दौड़ रहा है। एक बार परमहंस योगानंद जी से उनकी चाची ने कहा- मैं जीवन भर माला जपती रही। लेकिन आज तक मेरी उन्नति नहीं हुई। तुम मेरी मदद करो। परमहंसजी ने कहा- पूज्यवर चाची जी, आप माला मशीन की तरह जपती हैं। हाथ माला फेरते हैं और दिमाग न जाने कहां- कहां दौड़ता रहता है। आप माला छोड़ दीजिए और ईश्वर में गहरा ध्यान लगाइए। जिससे संपर्क करना है, उसके प्रति गहरी आसक्ति नहीं रहेगी तो फिर काम कैसे बनेगा। चाची ने वैसा ही किया और उन्हें ईश्वर का अनुभव हुआ। संत कबीर ने भी कहा है- कर का मनका छोड़के, मन का मनका फेर।।
यानी हाथ की माला फेरना छोड़िए और मन की माला फेरिए। मन ईश्वर में रम गया तो माला- वाला का क्या काम?

Tuesday, October 13, 2009

क्यों खराब बातें ही आती हैं दिमाग में

विनय बिहारी सिंह

मान लीजिए हमारे घर का कोई व्यक्ति बाहर गया है। रात हो रही है। हम उसका इंतजार कर रहे हैं। मन में तरह तरह की खराब बातें आ रही हैं। कहीं कुछ हो तो नहीं गया? ऐसा क्यों? कोई अच्छी बात भी तो हो सकती है। लेकिन क्यों बुरे ख्याल ही आते हैं? क्योंकि हम हमेशा एक डर में जी रहे हैं। लेकिन संतों ने कहा है कि डर डर कर जीना अपना नुकसान करना है। एक बार एक बस में एक अंधे व्यक्ति ने इतनी सुरीली आवाज में राम राम गाया था कि वह भूलता नहीं है। एक दिन एक ईश्वर भक्त से मुलाकात हुई। वे एक महीने के लिए पत्नी व बच्चों को छोड़ कर दूर जा रहे थे। मैंने कहा- आपके पास तो मोबाइल भी नहीं है। आपके घर में फोन नहीं है। क्या बाहर बेफिक्र होकर रह सकेंगे। वे आनंद में हंसने लगे और कहा- मैं कौन होता हूं रक्षा करने वाला। असली रक्षक तो भगवान है। उसकी कृपा रही तो मेरे परिवार को कुछ नहीं होगा। और मेरे पास अगर दस मोबाइल हों और भगवान की कृपा नहीं है तो मैं और मेरा परिवार परेशान ही रहेंगे। उनका उत्तर बहुत अच्छा लगा। सच है। ईश्वर रक्षा कर रहे हों तो फिर चिंता किस बात की? गीता में है कि अभय वही रहता है जो ईश्वर की शरण में हो। जो ईश्वर की शरण में है उसे और कोई चिंता नहीं। बस वह अपना काम करता जाता है और रक्षा करना प्रभु कहता रहता है। चाहे जैसे भी हो, ईश्वर को याद करना शुभ है। कई लोग जम्हाई लेते हुए राम राम कहते हैं। यह राम राम सुनने में इतना मीठा लगता है कि आप मुग्ध हो जाएं। दमदम रेलवे स्टेशन के पास एक बूढ़ा इतने लय में हरे राम, हरे राम राम राम हरे हरे गा रहा था कि मैं थोड़ी देर के लिए ठिठक गया। कहां से पाया है इस आदमी ने इतना मीठा गला? मुग्ध भाव से उसे सुनता रहा। हालांकि अगले दिन उसके मुंह से यह मीठा शब्द नहीं सुन सका। आज भी उसे देखा। पर वह अब राम राम नहीं कहता। सिर्फ ललाट पर टीका लगाए रहता है। तो हमें अपने दिमाग में खराब चिंतन आने नहीं देना चाहिए। ईश्वर पर भरोसा करना चाहिए और सावधानी बरतते रहना चाहिए।

Monday, October 12, 2009

दो साल का बच्चा अद्भुत रूप से मेधावी

विनय बिहारी सिंह

यह घटना है ब्रिटेन की। दो साल के बच्चे आस्कर रिंगले की तुलना अल्बर्ट आइंस्टाइन और स्टीफेन हाकिंग से की जा रही है। नतीजा यह है कि ब्रिटेन की सोसाइटी आफ हाई आईक्यू पीपुल ने बच्चे आस्कर को अपना सदस्य बना लिया है। यह दुनिया को चौंकाने वाली घटना है। आस्कर के मां- बाप कह रहे हैं कि यह बच्चा आम बच्चों की तरह ही सवाल पूछता रहता है। लेकिन खुद ही वे बातें बताता है जो रिसर्च कर रहे वैग्यानिक बताते हैं। दो साल के बच्चे को इतनी जानकारी है, इस बात की जानकारी मिलते ही, विशेषग्य आस्कर के घर पुहंचे। पूरी जांच के बाद विशेषग्य भी चकित रह गए। दो साल का बच्चा पेंगुइन की प्रजनन प्रणाली के बारे में विस्तार से बात कर रहा है। हर सवाल का जवाब दे रहा है। वैग्यानिक और मनोचिकित्सक हैरान हैं। लेकिन सोसाइटी आफ हाई आईक्यू पीपुल ने तुरंत आस्कर को अपना सदस्य बना लिया। हालांकि इसके सदस्य वही लोग होते हैं जो किसी भी क्षेत्र के अत्यंत मेधावी व्यक्ति हों। सोसाइटी उन्हीं को अपना सदस्य बनाती है। आस्कर को इस सोसाइटी के प्रति कोई रुचि नहीं थी। लेकिन सोसाइटी के लोग आस्कर की मेधा से खासे प्रभावित हैं। कुछ विशेग्यों का कहना है कि आस्कर पूर्व जन्म में कोई अत्यंत मेधावी व्यक्ति रहा होगा। आस्कर को लेकर ब्रिटेन के बुद्धिजीवियों के बीच विचार- विमर्श जारी है।

Saturday, October 10, 2009

उम्र यूं ही तमाम होती है

विनय बिहारी सिंह

किसी ने कहा है-

रोज सुबह से शाम होती है,

उम्र यूं ही तमाम होती है।।


क्या हम लोग सुबह उठने से लेकर रात सोने तक कभी सोचते हैं कि हमारी जिंदगी का मकसद क्या है? क्यों हमने जन्म लिया? क्या यूं ही जिंदगी गुजार देने के लिए? या कि इच्छाओं की पूर्ति करते हुए मर जाने के लिए? नहीं। हममें से ज्यादातर लोग यह नहीं सोचते। वे मशीन की तरह सुबह उठ कर चाय पीते हैं, अखबार पढ़ते हैं, टीवी देखते हैं, गप्पबाजी करते हैं। फिर खाना खाते हैं और कामकाज पर निकल जाते हैं या अगर खाली हैं तो दिन में भी सो जाते हैं। वे कहते हैं कि मन नहीं लग रहा है। बोर हो रहे हैं। जी हां। अगर जीवन में कोई मकसद न हो तो बोरियत होगी ही। लेकिन जो ईश्वर को पाने के लिए जीते हैं और जीवन यापन के लिए कोई रोजगार, व्यवसाय या नौकरी करते हैं वे कभी बोर नहीं होते। उनका दिन और उनकी रातें आनंद में कट जाती हैं। वे ईश्वर के लिए ही जीते हैं। उनके जीवन के केंद्र में ईश्वर ही होते हैं। परमहंस योगानंद ने लिखा है- तू ध्रुवतारा मम जीवन का। यानी ईश्वर ही जीवन के ध्रुवतारा हैं। केंद्रीय लक्ष्य। ऐसा व्यक्ति जो कुछ भी करता है- ईश्वर के लिए ही करता है। वह जानता है कि इस पृथ्वी पर वह कुछ वर्षों के लिए ही आया है। उसे फिर यहां से चले जाना है। अगर इच्छाएं अतृप्त रहीं तो दुबारा इस पृथ्वी पर आना पड़ेगा। किसी और घर में जन्म लेकर। किसी और चेहरे और परिचय के साथ। पुनरपि जन्मम, पुनरपि मरणम। जननी जठरे, पुनरपि शयनम ( आदि शंकराचार्य)। कई लोग कहते हैं कि ईश्वर को कैसे केंद्रीय आकर्षण का तत्व बनाएं। कोई सिनेमा हो, कोई खाने की वस्तु हो, कोई मजे वाली चीज हो तो केंद्रीय तत्व बना सकते हैं। ईश्वर को कैसे केंद्रीय तत्व बनाएं? उन्हें कैसे बताएं कि इस समूची सृष्टि के मालिक ईश्वर ही हैं। जो कुछ भी हो रहा है, उन्हीं के इशारे पर। तब कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर के बारे में बातें करना पिछड़ापन लगता है। हां, सिनेमा वगैरह के बारे में बातें करना उन्हें आधुनिक लगता है। क्या विचित्र स्थिति है। ईश्वर के बारे में बात करना पिछड़ापन है? तो फिर अपने बारे में बातें करना भी पिछड़ापन ही है। क्यों तब कहते हैं कि मैंने ये किया, मैंने वो किया। आप भी ईश्वर से ही हैं। यह पूरा ब्रह्मांड उन्हीं के इशारे पर चल रहा है। कुछ लोग यह कहते नहीं थकते- किस्मत में होगा तो काम हो जाएगा। यानी किस्मत की बात करना आधुनिकता है और ईश्वर की बात करना पिछड़ापन। ईश्वर के खिलाफ बोलना प्रगतिशीलता है और ईश्वर की स्तुति पिछड़ापन। तो ऐसी बुद्धि की बलिहारी है। ऐसे लोग उस परम सुख के बारे में क्या जानेंगे जो ईश्वर के संपर्क में मिलता है। जिसने वह मीठा फल खाया ही नहीं वह स्वाद क्या जानेगा। वह दुनिया भर का प्रपंच जानेगा, लेकिन दिव्य आनंद के बारे में उसे कुछ नहीं मालूम। क्योंकि इस आनंद को पाने के लिए गहरी शांति में जाना जरूरी है। तर्क, मन की चंचलता को विराम देना होता है, तब ईश्वर की तरफ की यात्रा शुरू होती है।

Friday, October 9, 2009

सोने से मढ़ा है ज्वालाजी के मंदिर का गुंबद



विनय बिहारी सिंह


ज्वालाजी के मंदिर का वर्णन अधूरा रह गया था। इसलिए इसे पूरा करना आवश्यक लगा। ज्वाला देवी के मुख्य मंदिर और उनके विश्राम गृह के बड़े गुंबद सोने सेमढ़े गए है। मुख्य मंदिर के दरवाजे चांदी से मढ़े गए हैं। एक वेबसाइट के मुताबिक ज्वाला देवी के मुख्यमंदिर में पहले ९ ज्वालाएं थीं। उनके नाम थे- महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी,हिंगलाज, विंध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अंबिका और अंजी देवी। लेकिन मैंने अपनी आंखों से सिर्फ दो ज्वालाएं ही देखी। इनके नाम भी अलग- अलग नहीं थे। दोनों ज्वालाओं या ज्योतियों को ज्वालादेवी या ज्वालामुखी देवी कहा जाता है। ज्योतियों की मोटाई दो ऊंगलियों के बराबर थी। कहा जाता है कि पांडवों ने इन ज्योतियों के दर्शन किए थे और दर्शन के बाद उन्हें अद्भुत शांति मिली थी। मंदिर को लेकर बादशाह अकबर के आकर्षण के बारे में पहले ही बताया जा चुका है। यह स्थान ५१ शक्तिपीठों में से एक है। एक अन्य कथा है- भगवान शंकर जब पार्वती जी के मृत शरीर को लेकर ब्रह्मांड में घूमने लगे तो पूरे ब्रह्मांड में हलचल मच गई। तब भगवान विष्णु ने पार्वती जी के शरीर को विभिन्न हिस्सों में विभाजित किया जो ५१ जगहों पर गिरे। इन्हें शक्तिपीठ कहा जाता है। ज्वालाजी के मंदिर के स्थान पर पार्वती जी की जीभ गिरी। जीभ गिरते ही ज्वाला या ज्योति के रूप में परिवर्तित हो गई। इस शक्तिपीठ पर साधक पूजा, अर्चना और जप इत्यादि करते हैं। मान्यता है कि किसी भी शक्तिपीठ पर श्रद्धा से पूजा- अर्चना करने से मनुष्य पर जगन्माता की विशेष कृपा होती है। लेकिन यह कृपा उन्हीं पर होती है जो जगन्माता को प्रेम करते हैं और उन्हें अपनी मां मानते हैं। एक बार जाकर फूल, फल मिठाई और अगरबत्ती चढ़ा कर फिर प्रपंच में फंसने से उतना लाभ नहीं होता। हां, कुछ लाभ तो होता है। लेकिन विशेष लाभ उन्हीं को मिलता है जो माता की शरण में रहते हैं। गीता के नौवें अध्याय में भगवान कृष्ण ने कहा है कि वे ही अग्नि हैं, वे ही होम हैं और वे ही हवन की प्रक्रिया भी हैं। अन्य अध्याय में उन्होंने कहा है कि अग्नि का तेज भी मैं ही हूं। यानी भगवान ही अग्नि हैं। इस तरह ज्वाला देवी को अति श्रद्धा से पूजा जाता है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हमारी कार का ड्राइवर ज्वाला देवी का भक्त था। ड्राइवर के मुताबिक उसके कई परिचित जब भी संकट में होते हैं, मंदिर में जाते हैं और माता से प्रार्थना करते हैं। उनकी समस्या हल हो जाती है। यह आस्था हमने कोलकाता के कालीमंदिर के प्रति भी देखी है। आस्था में ताकत होती है, इससे कौन इंकार कर सकता है। हां, लेकिन ऐसी घटनाएं तभी होती हैं जब आदमी में गहरी आस्था हो।

Thursday, October 8, 2009

पिछले मंगलवार को हुआ एक चमत्कार



विनय बिहारी सिंह


खबर दो दिन पुरानी है। लेकिन यह याद दिलाती है कि ईश्वर किस तरह मनुष्य को बचा लेता है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि पिछले मंगलवार को फिर एक चमत्कार हुआ। रात ग्यारह बजे की घटना है। गमरिया रेलवे स्टेशन जब आने को था तो अट्ठाइस साल की गर्भवती महिला को शौच महसूस हुआ। वह शौचालय गई। इसी दौरान शौचालय में ही उसने एक बच्चे को जन्म दिया। लेकिन बच्चा शौचालय के पैन में गिर गया और ट्रेन से बाहर रेल पटरियों के बीच चला गया। मां तड़प कर तेज रफ्तार से चल रही अप टाटा- छपरा एक्सप्रेस के एस-२ कोच से कूद पड़ी। औरत को कूदते देख लोग चिल्लाए। उन्हें लगा कि औरत आत्महत्या कर रही है। लोगों ने ट्रेन की जंजीर खींच दी। एक किलोमीटर आगे जाकर ट्रेन रुकी। औरत को खोजने ट्रेन के सैकड़ो लोग पीछे की तरफ दौड़े। खोजबीन कर रहे लोगों ने देखा कि मां जिसका नाम रिंकूदेवी राय है, अपने बच्चे को गोद में लेकर सिकुड़ी हुई बैठी है। कुछ लोगों ने ट्रेन को रोके रखा था। मां- बच्चे को खरोच तक नहीं आई है। मां तो अपने बच्चे को पाकर आनंद में है। अपनी अधिकतम रफ्तार में चल रही ट्रेन से तुरंत जन्मा एक बच्चा गिर पड़ा। सभी जानते हैं कि तुरंत जन्मे बच्चे के अंग- प्रत्यंग कितने कोमल होते हैं। बच्चा रेल पटरी पर पत्थर के टुकड़ों पर गिरा। उसका अंग भंग हो सकता था। उसके मोह में बच्चे की मां कूदी। ट्रेन अधिकतम रफ्तार में थी। उसे भी कुछ नहीं हुआ। ट्रेन ज्योंही पुरुलिया स्टेशन पर रुकी, रेलवे अस्पताल के डाक्टरों की टीम वहां मौजूद थी। पुरुलिया के स्टेशन मैनेजर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा है- डाक्टरों ने मां- बच्चे की अच्छी तरह जांच की। उन्हें कुछ नहीं हुआ है। है न यह चमत्कार?

Wednesday, October 7, 2009

माता ज्वाला देवी का दर्शन



विनय बिहारी सिंह


शिमला से सात घंटे की कार यात्रा के बाद हम लोग माता ज्वाला देवी के मंदिर पहुंचे। यह मंदिर कांगड़ा जिले में पड़ता है। ज्वाला देवी माता पार्वती को ही कहते हैं। जब पार्वती जी ने अपने पति शिवजी को मैके में हो रहे विशाल यग्य में न बुलाए जाने से दुखी होकर खुद को अग्नि में भस्म कर दिया तो भगवान शिव वहां पहुंचे और अपनी पत्नी का शरीर फिर से प्रकट किया। वे उस मृत शरीर को उठा कर क्रोध में चल पड़े। देवता डर गए कि अब तो ब्रह्मांड की खैर नहीं है। तब परम पिता ने ब्रह्मांड की रक्षा के लिए माता पार्वती के विभिन्न अंगों को विभिन्न जगहों पर गिरा दिया ताकि अंत में जब भगवान शंकर शरीर को उतारें तो पाएं कि वहां तो कुछ भी नहीं है। इस तरह परम पिता की यह लीला समझ कर उनका क्रोध शांत हो जाएगा। मान्यता है कि यहां माता की जीभ गिरी थी। जीभ गिरते ही ज्वाला में तब्दील हो गई। यही ज्वाला आज तक जल रही है। कहा जाता है कि यहां बादशाह अकबर ने सोने का छत्र चढ़ाया। छत्र चढ़ाने के बाद उसके मन में अहंकार आ गया। अहंकार आते ही वह छत्र ऐसे धातु में बदल गया जिसकी कोई कीमत नहीं है। आज तक न जाने कितने वैग्यानिकों ने इस धातु का परीक्षण किया लेकिन उसे कोई नाम नहीं दे पाए। कुछ लोग कहते हैं कि उसमें लगभग सभी धातुओं का मिश्रण है। मैंने अपने जीवन में पहली बार ऐसा मंदिर देखा जहां किसी मूर्ति की नहीं, साक्षात ज्योति की पूजा होती है। हजारों साल से जल रही दो ज्योतियों की हजारों लोग रोज पूजा करते हैं। हमेशा लंबी लाइन लगी रहती है। बाहर आया तो किसी ने कहा कि यह ज्योति कोई ज्वलंत गैस हो सकती है। लेकिन वहां लोगों ने बताया कि गैस का पता लगाने के लिए विदेशों से न जाने कितने वैग्यानिक आए और निराश हो कर चले गए। सारी खोज बीन बेकार साबित हुई। अगर यह गैस भी हो तो उसे महा शक्ति ही तो कहेंगे। महाशक्ति का अनोखा रूप है यह। इसे हम देवी मानते हैं तो ठीक ही है। देवी अनंत शक्ति की प्रतीक हैं। ज्वाला देवी के दर्शन के बाद पूरा दिन बहुत आनंद में बीता। रात एक बजे सोए। बार- बार वह ज्योति आंखों के सामने आ जाती। आज भी आ जाती है। ज्योति के दर्शन के बाद मन में आया कि अग्नि से हम खाना पकाते हैं। पेट की अग्नि उसे पचाती है और हमारा शरीर पुष्ट होता है। फिर जब हमारी मृत्यु होती है तो यही अग्नि हमारे शरीर को चिता पर जला कर पंच तत्व में विलीन कर देती है। मां ज्वाला हमारे अंतः का शुद्धिकरण करें और हमें इस योग्य बनाएं कि हम ईश्वर दर्शन कर सकें।