विनय बिहारी सिंह
परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि आप शरीर नहीं हैं। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- जिस तरह वस्त्र पुराना होने पर मनुष्य नया वस्त्र पहनता है। ठीक उसी तरह यह शरीर पुराना हो जाने पर आत्मा इसे छोड़ देती है और नया शरीर (नया जन्म) धारण करती है। आदि शंकराचार्य ने कहा है- पुनरपि जन्मम पुनरपि मरणम, जननी जठरे पुनरपि शयनम।। बार- बार जन्म लेना और बार- बार मरना। सांसारिक प्रपंचों और दुखों में पड़ना। भगवान ने अर्जुन से कहा है- इस संसार रूपी दुख के समुद्र से बाहर निकलो। भगवान की शरण में जाओ, उन्हीं के बारे में सोचो, उन्हें ही जीवन का ध्रुवतारा बना लो। इसीलिए साधक को शरीर के पार जाना चाहिए। कैसे? यह मानना चाहिए कि वह शरीर नहीं है। आखिरकार उसे इस शरीर को इसी दुनिया में छोड़ देना पड़ेगा। परिवार के लोग इसे जला कर राख कर देंगे। हम तो आत्मा हैं। तुलसीदास ने लिखा है- ईश्वर अंश जीव अविनाशी। मनुष्य ईश्वर का ही अंश है। लेकिन अपनी भोगेच्छा के कारण इस संसार में बार- बार आता है और यहां की गंदगी में फिर कराहता है। जिस दिन उसे यह महसूस हो जाता है कि यह संसार मिथ्या है। यहां उसे प्यार करने वाला कोई नहीं। सब किसी न किसी स्वार्थ के कारण उससे जुड़े हुए हैं। वह भी किसी न किसी स्वार्थ के कारण अन्य लोगों से जुड़ा हुआ है। तब उसे भगवान की याद आती है। वह समझ जाता है कि उसके असली प्रेमी तो भगवान ही हैं। असली माता, पिता, मित्र और हितैषी तो भगवान ही हैं। तब वह भगवान की तरफ मुड़ता है। भगवान से नाता जोड़ लेने के बाद फिर उसे इस संसार के दुख नहीं व्यापते।
1 comment:
सत्य वचन्।
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