विनय बिहारी सिंह
रामकृष्ण परमहंस एक कथा कहते थे। कथा है- एक आदमी कहीं नौकरी करता था। घर से दूर वह शहर में अकेले रहता था। उसके घर से चिट्ठी आई। जब तक वह चिट्ठी खोल कर पढ़ता, वह चिट्ठी कहीं गुम हो गई। बहुत खोजी गई। अंत में वह मिली। उसमें लिखा था- तीन धोती, दो किलो संदेश और मां और बच्चों के लिए कपड़े भेज दीजिए। चिट्ठी की बात जान लेने के बाद उसने चिट्ठी एक ओर रख दी। अब चिट्ठी का क्या काम। उसने सामान खरीदा और घर भेज दिया। रामकृष्ण परमहंस यह कथा सुना कर कहते थे- यही हाल भक्त का होता है। वेद- शास्त्रों की तभी तक जरूरत है जब तक कि भगवान के होने का अनुभव नहीं होता, भगवान का दर्शन नहीं होता। एक बार यह हो गया तो वेद- शास्त्रों को पढ़ने की जरूरत नहीं पड़ती। उनके कहने का अर्थ यह था कि भक्त सिर्फ वेद- शास्त्रों के अध्ययन में ही न व्यस्त रहे। साधना भी करे। ध्यान भी करे। भगवान से नाता जोड़ने वाले सारे उपाय करे। चाहे वह जप हो, पूजा हो, प्रार्थना हो, ध्यान हो या कीर्तन हो, भगवान का गहराई से स्मरण हो। जो कुछ भी हो.... बस भगवान के लिए हो। तब आपको प्रत्यक्ष भगवान का अनुभव होगा। रामकृष्ण परमहंस ने कभी वेदों का अध्ययन नहीं किया। वे अपने गुरु से वेदों का सार सुन लेते थे। बस उसी के अनुसार साधना में जुट जाते थे। वे कहते थे- गीता क्या है? दस बार गीता, गीता कहो तो लगेगा त्यागी, त्यागी कह रहे हो। गीता का सार ही है संसारी वस्तुओं का त्याग। ये संत वेद- शास्त्रों का महत्व जानते थे। लेकिन वे चाहते थे कि भक्त सिर्फ उन्हें पढ़ कर ही संतुष्ट न हो जाए। वह साधना भी करे।
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