विनय बिहारी सिंह
पश्चिम बंगाल में संत वामा खेपा का नाम घर- घर में जाना जाता है। वे तारापीठ के सिद्ध संत थे। लेकिन शुरू में मंदिर के पुजारी उनका महत्व नहीं जानते थे। वे मां तारा (मां काली का ही एक रूप) के अनन्य भक्त थे। एक बार वे उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में जाना चाहते थे। लेकिन मां तारा ने उन्हें अनुमति नहीं दी। उन्होंने मां तारा की मूर्ति के सामने खड़े हो कर कहा- मां, मैं वाराणसी जा रहा हूं। मां तारा का मौन उत्तर नहीं आया। तब भी उन्होंने कहा- मां, एक बार जा रहा हूं वाराणसी। मां की ओर से कोई उत्तर न मिलने के बावजूद वे वाराणसी चले गए। वहां उन्हें भोजन नहीं मिला। मंदिरों में दर्शन के बाद वे तारापीठ वापस चले आए। वहां मंदिर में भोग की सामग्री रखी थी। मां तारा को भोग लगने वाला था। तभी वाराणसी से लौट कर संत वामा खेपा वहां गए। देखा कि स्वादिष्ट भोग व मिठाइयां रखी हुई हैं। वे वहां बैठ गए और बोले- मां, तुम्हारी बात नहीं मानी, शायद इसीलिए मुझे वाराणसी में भोजन नहीं मिला। अब मैं वहां नहीं जाऊंगा। मुझे भूख लगी है। ये भोग मैं खाता हूं मां। वे भोग खाने लगे। तभी पुजारी आए और उन्हें मारा- पीटा। वे वहां से हट गए और कहा- मां, मैंने तुम्हारी बात नहीं मानी, इसीलिए तुमने मुझे इन लोगों के माध्यम से पीट दिया। अब गलती नहीं करूंगा मां। लेकिन धीरे- धीरे इस संत की ख्याति बढ़ने लगी। सभी जान गए कि वे उच्चकोटि के संत हैं। वे दिन- रात मां तारा की शरण में पड़े रहते थे। एक स्थिति यह आ गई कि संत वामा खेपा का जूठन खाने के लिए लोग तरसने लगे। मां तारा को चढ़ाई गई उच्चकोटि की मिठाइयां उन्हें खाने को दी जातीं। वे कुछ खाते तो कुछ छोड़ देते थे। छोड़ी हुई चीज लोगों के लिए प्रसाद बन जाती थी। उसे पाने की होड़ लग जाती थी। लेकिन ऐसा मौका बहुत कम आता था। आमतौर पर वामाखेपा लोगों से दूर रहते थे। वे कभी- कभी ही लोगों को उपलब्ध होते थे। देश के विभिन्न हिस्सों से जो संत उनसे मिलने आते थे, उनका कहना था कि वामाखेपा दिन- रात निर्विकल्प समाधि में रहते हैं।
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