Tuesday, February 15, 2011

भगवान की सर्वत्रता


विनय बिहारी सिंह

एक भक्त ने सन्यासी से पूछा- भगवान की सर्वत्रता कैसे महसूस की जा सकती है? सन्यासी ने उत्तर दिया- जैसे आकाश सर्वत्र है, हवा सर्वत्र है, उसी तरह ईश्वर सर्वत्र हैं। भक्त ने कहा- इसे महसूस कैसे करें? सन्यासी ने कहा- जब भी आप सांस लें, महसूस करें कि यह भगवान ही हैं जो मेरे फेफड़ों में जा रहे हैं और हमारा प्राण बचा रहे हैं। लेकिन एक स्थिति होती है जब आप श्वांस नहीं लेते, फिर भी जीवित रहते हैं। ऐसा योगी करते हैं। उनकी प्राण रक्षा भी भगवान ही करते हैं। यानी श्वांस में भी तुम्हीं हो और बिना श्वांस के भी तुम्हीं हो। तुम बिन और न कोई। सिर्फ एक भगवान से ही समूची सृष्टि पैदा हुई है और उन्हीं में लय होती है। मनुष्य तो कुछ नहीं है। भगवान जब तक इच्छा होती है, मनुष्य के फेफड़ों में श्वांस रखते हैं और जब समय पूरा हो जाता है तो उसे वापस बुला लेते हैं। जिसने जन्म लिया है, उसका मरना तय है। लेकिन कई लोग समझते हैं कि यह जीवन उन्हें सदा के लिए मिल गया है। वे तमाम तरह के तनाव लेकर जीते हैं। सिर धुनते रहते हैं। अंत में अपनी देह छोड़ कर चले जाते हैं, फिर दूसरा जन्म लेने। दूसरे शरीर, नाम, कुल आदि धारण करने। फिर नई समस्याएं, नए तनाव। संतों ने कहा है- आप ईश्वर की शरण में रहिए। तब आप शांति और सुख का अनुभव करेंगे। हरि शरणम, हरि शरणम। वही सत्य हैं। वही हमारे अपने हैं। लेकिन हम भगवान को छोड़ कर न जाने किस- किस चीज के पीछे भागते हैं। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- हे अर्जुन, इस संसार रूपी दुख के समुद्र से निकलो। यानी संसार दुखों की खान है। जो लोग संसार में सुख ढूंढ़ते हैं, उन्हें इसलिए निराशा होती है कि यहां तो सुख है ही नहीं तो मिलेगा कहां से? सुख तो भगवान में है।

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