Thursday, October 28, 2010

सर्वव्यापी मां दुर्गा


मित्रों, आज एक अद्भुत चीज मुझे एसएमएस से मिली है। मां दुर्गा के ये ए टू जेड तक के नाम आनंदित करने वाले हैं। कृपया आप भी पढ़ें और आनंद लें।

a- ambe
b- bhawani
c- chamunda
d- durga
e- ekrupi
f- farsadharini
g- gaitri
h- hinglaaj
i- indrani
j- jagadamba
k- kaali
l- laxmi
m- mahamaya
n- narayani
o- omkarini
p- padma
q- qatyayani
r- ratnapriya
s- shitala
t- tripur sundari
u- uma
v- vaishnavi
w- warahi
y- yati
z- zyana

Wednesday, October 27, 2010

वे रात १२ बजे तक पूजा करते हैं

विनय बिहारी सिंह


एक दुर्गा मां के अनन्य भक्त हैं। वे अपने बारे में कोई भी प्रचार नहीं चाहते, इसलिए उनका नाम यहां नहीं दे रहा हूं। उनकी एक बात मुग्धकारी है। वे शाम को अपने आफिस से आते हैं। हल्का- फुल्का कुछ खाते हैं। कभी दो बिस्कुट या कभी दो पेठे। इसके बाद अगरबत्ती, धूप, इत्यादि से मां दुर्गा की पूजा करते हैं। और फिर बैठ जाते हैं पाठ करने। पाठ खत्म करने के बाद वे ध्यान में बैठ जाते हैं। उनके एक मित्र ने कहा- दुर्गापूजा तो बीत गई। आप अब पाठ किए जा रहे हैं? उन्होंने जवाब दिया- दुर्गापूजा कभी खत्म नहीं होती। इस सृष्टि के पहले भी मां थीं और बाद में भी रहेंगी। उनकी पूजा में जो आनंद है, वह संसार के किसी काम में नहीं मिलेगा। मैं तो मां की गोद में बैठ जाता हूं और आनंद मनाता हूं। यही मेरा ध्यान है। अगर आप उनसे पूछेंगे- मां भी आपसे कुछ कहती हैं या आप एकतरफा ही बोलते हैं या प्रार्थना करते हैं? वे जवाब देंगे- मां से एकतरफा संबंध हो ही नहीं सकता। मां बच्चे के बिना नहीं रह सकती और बच्चा मां के बिना। तो एकतरफा संबंध कहां हुआ। आपके भीतर यह गहरा और पक्का विश्वास होना चाहिए कि मां ही इस सृष्टि की स्वामिनी हैं। तब शुरू होता है- साधना का पथ। अगर गहरा और पक्का विश्वास नहीं है तो फिर अगर मां आपका उत्तर भी देंगी तो आपको सुनाई नहीं देगा, महसूस नहीं होगा।
वे आधी रात तक ध्यान करते हैं। फिर हल्का सा भोजन लेकर धार्मिक पुस्तकें पढ़ते हैं। तब सोते हैं। सोते- सोते रात के एक बज जाते हैं। अगले दिन सुबह छह बजे उठ जाते हैं और फिर वही कार्यक्रम। लेकिन सुबह उनका पूजा- पाठ और ध्यान इत्यादि नौ बजे ही खत्म हो जाता है क्योंकि उन्हें अपने आफिस भी जाना होता है। उन्हें देख कर लगता है कि वे दिन- रात मां दुर्गा की भक्ति में डूबे रहते हैं। रह- रह कर मां, मां कहते रहते हैं। मानो वे हमेशा मां की ही गोद में रहते हों।

Monday, October 25, 2010

संसार का अर्थ है द्वंद्व

विनय बिहारी सिंह


ऋषियों ने कहा है कि संसार का अर्थ है द्वंद्व। द्वंद्व कहते हैं द्वैत को। यानी दो विपरीत वस्तुएं या स्थितियां। जैसे- दिन- रात, सुख- दुख, आराम- कष्ट, शांति- अशांति या प्रेम- घृणा, पसंद- नापसंद इत्यादि। जहां दो विपरीत वस्तुएं रहेंगी वहां तो एक रस आनंद नहीं रह सकता। वहां हमेशा द्वंद्व रहेगा, संघर्ष रहेगा, तनाव रहेगा। लेकिन ज्योंही आप द्वैत से अद्वैत में चले जाएंगे- शांति और आनंद के साम्राज्य में पहुंच जाएंगे। अद्वैत क्या है? एक सिर्फ भगवान ही हैं। बाकी सब भगवान के ही रूप हैं। भगवान के अलावा कहीं कुछ नहीं है। वही जन्मदाता हैं, वही कर्ता हैं, वही पोषक हैं और वही संहार भी करते हैं। ऋषियों ने कहा है- यह संसार माया जाल है। यह शरीर भी आपका साथ नहीं देता है। जब इसका समय पूरा हो जाता है तो वह आपका साथ छोड़ देता है। वह कहता है- अब मैं आपका साथ नहीं दे सकता। मेरा काम पूरा हो गया। अब आप इसे अपना शरीर नहीं कह सकते। ठीक ही तो है। यह शरीर हमें कुछ वर्षों के लिए मिला हुआ है। हम इसका इस्तेमाल चाहे जिस तरह करें। ईश्वर कुछ नहीं कहते। उन्होंने हमें स्वतंत्र इच्छा शक्ति दी है, इसलिए वे हस्तक्षेप बिल्कुल पसंद नहीं करते। लेकिन हमने अगर खुद को शरीर मान लिया तो हम मुश्किल में पड़ जाएंगे। क्योंकि यह सत्य नहीं है। हम शरीर नहीं आत्मा हैं। भगवत गीता में भगवान कृष्ण ने यह बात साफ- साफ कही है। हम शरीर नहीं हैं। हम हैं आत्मा। शुद्ध सच्चिदानंद के अंश हैं हम। लेकिन चूंकि जन्म जन्मांतर से हम खुद को शरीर मानते आए हैं, इसलिए खुद को आत्मा मानने में समय लगता है। जब तक हम स्वयं को शरीर मानते रहेंगे, इस दुनिया के प्रपंचों में फंसे रहेंगे। जिस दिन हमें महसूस होगा कि हम आत्मा हैं, उस दिन यह भी समझ में आ जाएगा कि यह दुनिया तो कुछ दिनों का बसेरा है। यहां हमें सबक सीखने के लिए भेजा जाता है। असली घर तो भगवान ही हैं। भगवान और भगवान का धाम। इसलिए क्यों न हम हमेशा उनमें रमे रहें। परमहंस योगानंदजी ने एक भजन लिखा है- प्रभु, क्या इस नींद से मुझे उठाओगे। इस स्वप्न से मुझे जगाओगे। तुमही में जीऊं, तुमही में मरूं, रहूं निरंतर तुमही में।....... कितना मधुर है यह भजन।

Saturday, October 23, 2010

हमारे कर्म हमारे साथ जाते हैं

विनय बिहारी सिंह


हम जो कुछ करते हैं उसका प्रभाव हमारे ऊपर पड़ता रहता है। हमारी इच्छाएं, कामनाएं और चिंतन मृत्यु के बाद हमारे साथ जाते हैं। हमारा सूक्ष्म शरीर इसे आत्मा के साथ लिए जाता है और ठीक उसी वातावरण और परिवार में जन्म होता है जो हमारी कामनाओं और चिंतन से मेल खाता होता है। कहावत है कि हम जो कुछ कर रहे हैं वह ईश्वर नोट करते जा रहे हैं। हमारा भविष्य उसी कर्म पर निर्भर है। ठीक ही तो है। हमारे कर्म किसी बही- खाते में नोट नहीं होते लेकिन हमारे ही सूक्ष्म मस्तिष्क में संचित होते जाते हैं। जब हम शरीर छोड़ते हैं तो यह सब संचित कर्म हमारे साथ चिपक जाते हैं। मृत्यु के बाद सूक्ष्म लोक में यही संचित कर्म हमारी पहचान होते हैं। जो वाइब्रेशन हम लेकर जाते हैं, उसी के अनुसार हमें सूक्ष्म लोक में जगह मिलती है। फिर जन्म होता है। आदि शंकराचार्य ने कहा है- पुनरपि जन्मम, पुनरपि मरणम, जननी जठरे पुनरपि शयनम।। बार- बार जन्म, बार- बार मृत्यु। फिर वही वही दुख, पीड़ा, कष्ट चिंताएं और परेशानियां। मनुष्य योनि ही ऐसी है। या इससे अच्छा यह कहना होगा कि जीव योनि ही ऐसी है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- अर्जुन, इस दुख रूपी संसार समुद्र से बाहर निकलो। ऋषियों ने भी कहा है- संसार में रहो, लेकिन संसार का हो कर मत रहो। तुम्हारा यह असली घर नहीं है। असली घर है- ईश्वर। वहां से स्ट्रांग कनेक्शन बना कर रहिए। फिर आप संसार में रहेंगे लेकिन बस अपने कर्तव्य करने भर के लिए। मन ईश्वर में रहेगा और शरीर संसार के कर्तव्यों को पूरा करता रहेगा। सब कुछ ईश्वर को सौंपते हुए आनंद से जीवनयापन करना इसी को तो कहते हैं। तेरा तुझको अर्पण, मेरा क्या लागे? हे ईश्वर यह शरीर, यह मन और यह आत्मा तुम्हारी ही है। मैं इसे तुझे ही सौंपता हूं। इस संसार का प्रपंच मेरी समझ से बाहर है। मैं संसार में अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाऊंगा, लेकिन मुझे असली चाहत तुम्हारी है। तुम, तुम, केवल तुम्ही मेरे परमप्रिय भगवान। प्रभु। मुझे स्वीकार करो। बस, इसी प्रार्थना को हृदय की गहराई से दुहराते रहने से काम बन जाएगा। फिर तो आनंद ही आनंद का साम्राज्य है।

Friday, October 22, 2010

लक्ष्मी पूजा

विनय बिहारी सिंह


आज कोलकाता में चारो तरफ लक्ष्मी पूजा का माहौल है। लक्ष्मी भगवान विष्णु की पत्नी हैं। भगवान क्षीर सागर में शेषनाग की शैय्या पर लेटे हुए हैं। उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म हैं। नाभि से कमल की नाल निकली है और नाल के सिरे पर कमल का फूल जिसमें ब्रह्मा जी बैठे हुए हैं। भगवान विष्णु के पांवों को मां लक्ष्मी दबा रही है। विष्णु भगवान के इस मनोहारी चित्र से हम सभी परिचित हैं। इसके अलावा- प्रार्थना करते समय हम सब कहते हैं- त्वमेव माता च पिता त्वमेव। त्वमेव बंधुश्चसखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव। त्वमेव सर्वं ममदेव देव।।
इस श्लोक में द्रविणं त्वमेव। यानी हम भगवान से कह रहे हैं कि प्रभु, आप ही धन हैं। विष्णु भगवान के भक्तों का कहना है कि विष्णु जी की पूजा करने से ही लक्ष्मी की पूजा हो गई। उनका कहना है कि विष्णु के अवतारों- राम या कृष्ण की भी पूजा से यही फल मिलता है। आप भगवान कृष्ण की पूजा करेंगे तो वह लक्ष्मी जी को भी चला जाएगा। आखिरकार वे भगवान विष्णु की अर्धांगिनी हैं।
आज इसी लक्ष्मी जी की पूजा है। जिनके बिना मनुष्य खुद को लाचार पाता है। लक्मी जी ताकत हैं। शक्ति हैं। धन की देवी अगर प्रसन्न न हों तो क्या हालत होती है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। पाठ करते समय मां काली से कहा जाता है- यशम् देहि, धनं देहि।। इत्यादि। पश्चिम बंगाल में मां काली अनेक लोगों के लिए सर्वोच्च शक्ति हैं। अनंत ब्रह्मांडों की स्वामिनी हैं। क्योंकि वे भगवान शिव की पत्नी हैं। मां लक्ष्मी हम सभी को धन धान्य से पूर्ण करें।

Thursday, October 21, 2010

त्याग किसका करें

विनय बिहारी सिंह

गीता में अर्जुन ने भगवान कृष्ण से पूछा है कि त्याग क्या है? संन्यास क्या है? इसके उत्तर में भगवान ने कहा है- कर्तव्यों का त्याग उचित नहीं है। यग्य और दान का त्याग नहीं करना चाहिए। त्याग करना चाहिए अपनी बुरी प्रवृत्तियों का। यानी भय का त्याग, लोभ का त्याग, हिंसा का त्याग और अनावश्यक कामनाओं का त्याग। ऋषियों ने कहा है- यदि मनुष्य तामस और राजस गुणों को छोड़ सिर्फ सत्व गुण का सहारा ले तो उसे ईश्वर प्राप्ति हो जाएगी। ऐसे अनेक लोग हैं जो पूजा- पाठ और ध्यान का समय किसी व्यर्थ के काम में खर्च कर देते हैं। ध्यान या पूजा- पाठ का समय हो गया है, लेकिन यदि टेलीविजन पर कोई सीरियल आ रहा है तो वे ध्यान- पूजा छोड़ देंगे। कोई अच्छी चीज खाने को आ गई तो जल्दी से पूजा या ध्यान करके उठ जाते हैं। कई लोगों को ध्यान करना उबाऊ लगता है और वे यह समय गप हांकने में लगाते हैं। तो इन सब आदतों का त्याग करना चाहिए। कहा ही गया है कि किसी भी चीज की अति बुरी है। ठीक है कि आप दिन- रात पूजा- पाठ या ध्यान में नहीं बिता सकते। लेकिन जो समय आपने तय किया हुआ है, उसका पालन करना चाहिए। यदि आठ से नौ बजे रात तक आपने ध्यान या पूजा- पाठ करना तय किया है तो उसका ईमानदारी से पालन करना चाहिए। जिस समय चाहे जो करने का अभ्यास सुस्ती और लापरवाही का द्योतक है। आखिर आदमी को सिस्टमेटिक होना ही चाहिए। समयानुसार जब आप काम करने लगेंगे तो उसी में आपको आनंद आएगा। समय का पालन करना कई लोगों के लिए बोझ बन जाता है क्योंकि समय के अनुसार अपनी दिनचर्या ढालना उन्हें खराब लगता है। और ग्रहण क्या करें। ग्रहण करें प्रेम, ईश्वर का आशीर्वाद और धार्मिक ग्रंथ, अच्छा पौष्टक और स्वास्थ्यकर भोजन, स्वच्छ पानी, शुभेच्छाएं और शुभकामनाएं। आप मौन रह कर प्रेम की तरंगें जाने-अनजाने लोगों को भेज सकते हैं। क्योंकि जो वाइब्रेशन आप देते हैं, वही पाते हैं। जो बोएंगे, वही काटेंगे। मन में बस प्रेम भरिए और उसे संसार में छोडिए। यानी कल्पना कीजिए कि आपका प्रेम संसार के सभी लोगों के पास जा रहा है। बस वह प्रेम आपके पास लौट कर और ज्यादा मधुरता के साथ आएगा।

Tuesday, October 19, 2010

नदी और तालाब

विनय बिहारी सिंह


कथा है कि एक बार नदी और तालाब में बातचीत होने लगी। तालाब ने नदी से कहा- तुम क्यों अपना जल लगातार समुद्र को देती हो। वह तो रहेगा खारा का खारा ही। तुमने अब तक न जाने कितना जल समुद्र को दे दिया है। नदी बोली- समुद्र तो मेरा स्रोत है। इसमें मिल कर आनंद की सीमा नहीं रहती। नित्य नवीन आनंद मिलता है। तालाब बोला- जो जल तुम समुद्र को देती हो, वह भी खारा हो जाता है। तुम्हारा जल, समुद्र का जल हो जाता है। तुम्हारी पहचान मिट जाती है। नदी बोली- पहचान मिट जाने का आनंद क्या है, यह तुम नहीं जान पाओगे तालाब। उसका सुख वही जानता है जो अपनी पहचान मिटा कर अपने प्रियतम में घुल जाता है। समुद्र मेरा परम प्रियतम है। तालाब बोला- क्या बेकार की बात करती हो। अपनी पहचान मिटा दूंगा तो बचेगा क्या। मैं कहां रहूंगा, सब कुछ तो लय हो जाएगा। नदी हंस कर चुप हो गई। कुछ वर्ष बीते। तालाब सूख गया। उसका बचा खुचा पानी सड़ कर दुर्गंध देने लगा। लोग उसकी तरफ जाते तो अपनी नाक बंद कर लेते। लेकिन नदी आनंद के साथ बहती रही। समुद्र में मिलती रही और उत्ताल तरंगों को प्रकट कर अपने आनंद को व्यक्त करती रही। ठीक इसी तरह हम लोग हैं। हममें से जो लोग ईश्वर में लय नहीं होते, अपने स्रोत में नहीं मिलते, उन्हें आनंद कैसे मिलेगा। वह तो शरीर की सीमा में ही बद्ध रहेगे। लेकिन जब हमारा मन और हृदय का ईश्वर में लय होगा तो आनंद ही आनंद में डूब जाएंगे। इसीलिए गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- सब कुछ छोड़ कर मेरी शरण में आओ। स्रोत में मिल जाने के बाद फिर चिंता क्या है। चारो तरफ समृद्धि ही समृद्धि

Monday, October 18, 2010

बुरी प्रृवृत्ति पर अच्छाई की विजय

विनय बिहारी सिंह


आप सभी को दुर्गापूजा (विजयादशमी) की शुभकामनाएं। ईश्वर आप सबकी मनोकामना पूरी करें। जैसा कि आप जानते हैं- दुर्गापूजा, दिव्य शक्ति की पूजा है। इसी शक्ति का नाम दुर्गा, काली, पार्वती या राधा है। यह पर्व अच्छाई पर बुराई की विजय का प्रतीक है। मां दुर्गा ने महिषासुर का वध किया था। महिषासुर आसुरी वृत्ति, पाशविकता और तम का प्रतीक है। मां दुर्गा ने उसी का वध कर दिया। जब भी हम मां दुर्गा की पूजा करते हैं, यह विनती करते हैं कि- मां हमारे भीतर की बुरी प्रवृत्तियों को खत्म कर दो। मेरी नकारात्मक प्रवृत्तियों का नाश हो। हमें शक्ति दो मां कि हम विवेक, भक्ति और विजय के मार्ग पर चलें। हमारे धर्म ग्रंथों में महाशक्ति को जीवनदायिनी कहा गया है। सच भी है।
बिना शक्ति के कौन व्यक्ति आनंद से रह सकेगा? लेकिन यह शक्ति अर्धांगिनी के रूप में ही है। जैसे शिव- पार्वती, राधा-कृष्ण, राम- सीता। पार्वती को ही काली और दुर्गा के रूप में पूजा जाता है। पश्चिम बंगाल में मातृ शक्ति की पूजा को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। यानी मां काली को ही सबकुछ मानने वाले कई लोग आपको मिल जाएंगे। वे यह मानते हैं कि मां ही उनकी देख भाल कर रही हैं। वही उन्हें भोजन और वस्त्र दे रही हैं। इसीलिए आज जब दुर्गा प्रतिमा का विसर्जन हो रहा था तो अनेक महिलाएं रो रही थीं। मां दुर्गा के विसर्जन के दुख में। वे जानती हैं कि मां दुर्गा सर्वत्र हैं। सर्वव्यापी हैं। लेकिन उस मूर्ति से मोह हो गया है। मानों मां दुर्गा सशरीर ही उपस्थित हो गई हों अपने भक्तों के लिए। मूर्ति को हुगली नदी को डुबाया जा रहा था और कुछ महिलाएं रो रही थीं- फिर आना मां..कहते हुए। भगवान के प्रेम में जिनके आंसू निकलते हैं वे अत्यंत सौभाग्यशाली हैं। ऐसे लोगों की भगवान २४ घंटे रक्षा करते हैं।

Saturday, October 16, 2010

मां दुर्गा के अस्त्र

विनय बिहारी सिंह


हुगली के एक पंडाल में मां दुर्गा की मिट्टी की अद्भुत प्रतिमा रखी गई है। मां की मूर्ति, उनके अस्त्र- शस्त्र, वस्त्र, वाहन (शेर) सब कुछ मिट्टी के। रंग भी मिट्टी का। यानी जिस तत्व से मां बनी हैं, उन्हीं से उनके शस्त्र और वस्त्र भी। मां ही सब कुछ हैं। उन्हीं से सारा ब्रह्मांड है। यह कथन कितना सच है- भगवान की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। बार- बार इसका बोध होता है। प्रत्यक्ष उदाहरण मिलते हैं। सभी संतों ने इसकी पुष्टि की है- एक मां से ही अनंत कोटि ब्रह्मांड और उसकी वस्तुएं बनी हैं। और यह कथन भी कितना आनंद देता है कि भगवान पूर्ण हैं। पूर्ण से यदि पूर्ण निकाल लिया जाए तो पूर्ण ही बचता है। यहां सांसारिक गणित नहीं चलता। अगर आप भगवान से अनन्य प्रेम करते हैं तो आपको भगवान का दिव्य आनंद मिलेगा। क्योंकि वे सच्चिदानंद हैं। पवित्रतम सत्ता हैं। सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वग्य हैं। ऐसे भगवान को पाकर कौन नहीं रसविभोर हो जाएगा। चाहे आप भगवान राम के भक्त हों, भगवान कृष्ण के, मां दुर्गा के या भगवान शिव के। बात एक ही है। भगवान के अनंत रूप हैं। लेकिन हैं वे एक ही। भगवान के प्रति हमारा जितना अधिक प्रेम बढ़ेगा, हमारा उतना ही कल्याण होगा। और इसमें खर्च क्या होगा? खर्च होगा सिर्फ प्रेम का। इसे जितना खर्च किया जाता है, उतना ही बढ़ता जाता है।

Friday, October 15, 2010

जो पिंड में है वही ब्रह्मांड में है

विनय बिहारी सिंह


महात्माओं ने कहा है- यत्पिंडे तत्ब्रह्मांडे। यानी जो पिंड में है, वही ब्रह्मांड में है। हम ब्रह्मांड से अलग नहीं हैं। ईश्वर से अलग नहीं हैं। हम तो स्वयं को ईश्वर से अलग मान बैठे हैं। जैसे तालाब का पानी या नदी का पानी मेरे गिलास का पानी नहीं है। लेकिन जब उसी तालाब या नदी का पानी ट्रीटमेंट प्लांट में स्वच्छ कर हमारे वाटर पाइप के जरिए हमारे घर में आता है तो उसे फिल्टर कर हम पीते हैं। ग्लास में रखते हैं और कहते हैं कि मेरे गिलास का पानी। यानी नदी का पानी एक खास प्रक्रिया से गुजर कर हमारा पानी हो गया। या हमारे गिलास का पानी हो गया। ठीक उसी तरह पूरे ब्रह्मांड में स्थित दिव्य ऊर्जा या ईश्वरीय ऊर्जा को हम तब तक अपना नहीं कह सकते जब तक कि एक खास विधि द्वारा उसे अपने भीतर न लाएं। यह कैसे संभव है? इसकी विधियां हैं। जिसे विभिन्न सन्यासी विभिन्न आश्रमों के माध्यम से बताते हैं। पातंजलि योग सूत्र में भी इसकी विधियां दी गई हैं। संतों ने कहा है कि हमारे मेरुदंड के चक्र और ब्रह्मांडीय चक्रों में बहुत साम्य है। जब हम अपने चक्रों को शक्तिमान करेंगे, उन्हें सक्रिय करेंगे तो समूचे ब्रह्मांड के साथ हमारा सकारात्मक तालमेल हो जाएगा और हम ईश्वर के करीब होते जाएंगे। विभिन्न मंत्रों के जाप इसमें सहायक बताए गए हैं। कुछ महात्माओं के मुताबिक- हरे राम, हरे राम, राम, राम हरे हरे। हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण हरे हरे।। मंत्र सर्वश्रेष्ठ है। इससे भक्त को ईश्वर रस में डूबने में सहायता मिलती है। जरूरी नहीं कि इस मंत्र का जाप मुंह से बोल कर ही किया जाए। मन ही मन जाप करना और ज्यादा श्रेष्ठ है। इसका आनंद वही जानता है जो इसमें डूबा हुआ है।

Thursday, October 14, 2010

शक्ति, शिव का ही एक रूप है

विनय बिहारी सिंह


भगवान शिव को अर्धनारीश्वर भी कहा जाता है। यानी शिव ही शक्ति हैं और शक्ति ही शिव हैं। बिना शिव के शक्ति नहीं है और बिना शक्ति के शिव नहीं हैं। शिव और शक्ति एक दूसरे के अनुपूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा। शिव जी अनंतता के प्रतीक हैं और शक्ति भी अनंतता की प्रतीक है। लेकिन जब मां काली शिवजी की छाती पर खड़ी होती हैं तो अफसोस में वे जीभ बाहर निकालती हैं- हा, यह मैंने क्या किया। शिवजी की छाती पर पांव दे दिया? अपने अर्धांग पर? इसलिए वे रुक जाती हैं।
सभी जानते हैं कि दुर्गापूजा, शक्ति पूजा है। मां दुर्गा की दस भुजाएं हैं। इन भुजाओं को प्रतीक के रूप में बताते हुए कुछ संत कहते हैं कि ये -ले भुजाएं हमारी पांच ग्यानेंद्रियों- आंख, कान, नाक, जीभ, त्वचा और पांच प्राण- प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान के प्रतीक हैं। लेकिन कुछ संतों का कहना है कि हमारे भीतर के पांच चक्रों के धनात्मक और ऋणात्मक पक्ष ( कुल दस) के प्रतीक हैं देवी दुर्गा के हाथ। मां दुर्गा की सवारी शेर है। यानी मन अनियंत्रित रहता है। जब हम उसे नियंत्रित कर लेंगे तो माता के चरणों तक पहुंचने के योग्य बन जाएंगे। शेर हमारी इंद्रियों और मन का प्रतीक है। जब इंद्रियां और मन वश में रहेंगे तो फिर हमारा सारा ध्यान ईश्वर की तरफ रहेगा। माता दुर्गा के प्रति ही हमारी ललक रहेगी। एक भक्त ने कल पूछा कि मन हमेशा ईश्वर की तरफ उन्मुख नहीं रहता। संसार में इधर- उधर भी चला जाता है। इसके जवाब में एक साधु ने कहा- जब आप महसूस करेंगे कि आपका दिल ईश्वर के कारण ही धड़क रहा है। आपकी सांस ईश्वर के कारण ही चल रही है तो आपका ध्यान अपने आप श्रद्धा से ईश्वर की तरफ चला जाएगा। दरअसल हम हृदय की धड़कन व श्वांस को अपने वश की चीज मान बैठे हैं। हम समझते हैं कि हृदय और श्वांस तो अपने आप चलता है। इसके पीछे किसी का हाथ है ही नहीं। यही मनुष्य की गलती है। इस संसार में मनुष्य का हित अपने आप नहीं होता। ईश्वर की कृपा से ही होता है। सर्वं खल्विदं ब्रह्म

Wednesday, October 13, 2010

नवरात्रि का छठा दिन

विनय बिहारी सिंह


आप सोच रहे होंगे, नवरात्रि बीती जा रही है और इस ब्लाग पर नवरात्रि के बारे में कुछ पढ़ने को नहीं मिल रहा है। नवरात्रि के छठे दिन मां दुर्गा की मां कात्यायनी के रूप में पूजा की जाती है। इस संबंध में श्लोक है-

चंद्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।

यानी मां कात्यायनी दानव का नाश करने वाली हैं। इसका क्या मतलब? इसका अर्थ है- हमारे भीतर जो अंधकार है उसे तो मां दूर करती हू हैं, जो दानवी शक्तियां हमारे ऊपर हमला करना चाहती हैं, उनका भी नाश करती हैं। यानी मां कात्यायनी की अराधना से मनुष्य के चारो तरफ रक्षा कवच का निर्माण होता है। लेकिन जो लोग मां कात्यायनी की पूजा का विधान नहीं जानते, वे दुर्गा पाठ ही करते हैं। नवरात्रि में दुर्गा पाठ का भी विशेष लाभ मिलता है। मन तनावरहित होता है और जीवन की कठिनाइयां दूर होती हैं। लेकिन आवश्यक यह है कि पाठ करते समय हमारा पूरा ध्यान मां दुर्गा पर ही होना चाहिए। अन्यथा लाभ नहीं होगा। पाठ के समय ऐसा भाव हो कि- जैसे व्यक्ति माता की गोद में बैठा हो या सामने माता बैठी हों और प्रेमपूर्वक हमें देख रही हों। पाठ पूरा होने तक यह भाव रखने से बहुत लाभ होता है। लेकिन मन में यह नहीं रखना चाहिए कि यह पाठ मैं लाभ के लिए कर रहा हूं। नहीं। बस- माता के प्रति प्रेम के कारण पाठ हो तो आनंद ही आनंद है।
मां दुर्गा शक्ति की प्रतीक हैं। कहा ही गया है- या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।। लेकिन मां की शक्ति हमारे भीतर तभी आएगी जब हम उसे आने देंगे। इसका अर्थ यह है कि माता के आवाहन के लिए मन में पवित्रता और भक्ति का होना अत्यंत आवश्यक है। यदि हम किसी कामना से दुर्गा पाठ करते हैं तो वह स्वार्थ हो गया। बस माता के प्रेम के कारण पाठ हो तो वह उत्तम है। इन नवरात्रियों में मां दुर्गा विशेष रूप से अपने भक्तों के करीब होती हैं। आखिर मां बच्चे से कितने दिन तक दूर रह सकेगी। जितना हम उनके लिए तड़पते हैं, वे उससे ज्यादा हमारे लिए तड़पती हैं। लेकिन हम तड़पें ही नहीं। यहां तक माता की याद भी न करें तो वे क्या कर सकती हैं। वे जबर्दस्ती नहीं कर सकतीं क्योंकि वे डिक्टेटर नहीं हैं। मां हैं। वे चाहती हैं कि हम अपनी इच्छा से उन्हें पुकारें। इसीलिए उन्होंने हमें विवेक दिया है। प्रेम दिया है। आइए इन नवरात्रियों में हम मां दुर्गा से अधिक से अधिक प्रेम करने का अभ्यास करें।

Tuesday, October 12, 2010

आप शरीर नहीं हैं


विनय बिहारी सिंह


कल एक साधु से एक व्यक्ति ने पूछा कि आखिर हम भगवान पर कैसे आश्रित हैं? साधु ने उनसे पूछा- आपने सर्कस देखा है? व्यक्ति ने कहा- हां। साधु ने कहा- उसमें एक बार एक खेल दिखाया जा रहा था- एक लंबा पोल एक आदमी पकड़े हुए था। उस पोल के ऊपरी सिरे पर एक अन्य युवक तरह तरह के खेल दिखा रहा था। दर्शक उसके करतब पर खूब तालियां बजा रहे थे। करतब दिखाने वाले को अहंकार हो गया। तब नीचे जिस युवक ने पोल पकड़ रखा था, उसे लगा कि अरे, पोल तो मैंने पकड़ रखा है और तालियां इसे मिल रही हैं। पोल पकड़ने वाले युवक को एक मजाक सूझा। उसने पोल को हल्का सा हिला दिया। ऊपर करतब दिखा रहे युवक को अब समझ में आया- अरे, मेरा आधार तो नीचे वाले युवक के पास है। बस उसका अहंकार क्षण भर में दूर हो गया। ठीक इसी तरह हमारा पोल ईश्वर के नियंत्रण में है। यह बिल्कुल सच है कि ईश्वर की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। करने वाला वही है। हम तो कठपुतली हैं। हमारे जीवन की छोटी से छोटी घटना भी कोई न कोई अर्थ रखती है। ऋषियों ने कहा है कि आप खुद को शरीर मान लेंगे तो कष्ट होगा ही। आप शरीर नहीं हैं। आप सच्चिदानंद आत्मा हैं। अपने सोच के ढर्रे को बदलिए। लेकिन हम लोग फिर अपने उसी पुराने ढर्रे पर चल पड़ते हैं। अभी ध्यान में बैठे हैं और अभी दिमाग हजार दिशाओं में दौड़ने लगा। हमारे नहीं चाहते हुए भी दिमाग कैसे फालतू जगहों पर चला जाता है? कैसे वाहियात बातें सोचने लगता है? इसका उत्तर है- हमने अब तक दिमाग को छुट्टा छोड़ दिया था। उस पर हमने कभी नियंत्रण ही नहीं रखा था। अब जब नियंत्रण में रख रहे हैं तो वह अपने पुराने रास्ते की तरफ जबर्दस्ती चला जा रहा है। दिमाग की आदत बदलने के लिए पुरानी दृढ़ हो चुकी आदत को बदल देना पड़ेगा जो आसान नहीं है। लेकिन हां, बहुत मुश्किल भी नहीं है। अगर हमें सार्थक जीवन जीना है। तनाव रहित जीवन जीना है तो हमें अपने दिमाग को भगवान की तरफ मोड़ना ही पड़ेगा। अन्यथा कोई चारा नहीं है। जब तक हम अपने तक सीमित रहेंगे, हमें कष्ट मिलता रहेगा। लेकिन जैसे ही हम ईश्वर से जुड़ जाएंगे, उनकी अनंत धारा हमारे भीतर बहने लगेगी। तब हम शांति का अनुभव करेंगे।

Saturday, October 9, 2010

कर्मों का फल

विनय बिहारी सिंह

ऋषियों और धर्मशास्त्रों ने कहा है- हमें कर्मों का फल भोगना पड़ता है। आपने पिछले जन्म में जो किया है और जो कामनाएं की हैं, उन्हीं के कारण आपने यह जन्म लिया है। यानी हम जो बोते हैं वही काटते हैं। इसीलिए कहा गया है कि दूसरों के बारे में बुरा न सोचें, क्योंकि आपके साथ भी वही हो जाएगा। जब आप दूसरों के बारे में अच्छा सोचते हैं तो आपके साथ भी अच्छा होता है। मान लीजिए आपके मन में एक अच्छा सा मनचाहा घर बनाने की इच्छा है, तो आपका अगला जन्म इसीलिए होगा कि आप एक अच्छा सा घर बनाएं, चाहे दिन रात पसीना बहा कर या दिन रात धन प्राप्ति के बारे में सोच कर। यह संसार हमारा स्कूल है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- यह संसार हमारा घर नहीं है। यहां तो हम अपने सुधार के लिए आए हैं। अगर संसार के ही हो कर रह गए तो फिर दुबारा यहां जन्म लेना पड़ेगा और कष्ट झेलने पड़ेंगे। हमारा असली घर ईश्वर में है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- अर्जुन, दुखों के समुद्र रूपी संसार से बाहर निकलो। सचमुच इस संसार का होकर रहने से दुखों का होकर रहने जैसा है। इस संसार का कुछ भी हमारे साथ नहीं जाएगा। जाएंगी तो सिर्फ कामनाएं और वासनाएं। इसलिए भगवान ने गीता में कहा है- यह माया बड़ी दुस्तर है। लेकिन मेरे अनन्य भक्तों को यह छू नहीं सकती। मेरे अनन्य भक्तों को फिर इस संसार में नहीं लौटना पड़ता। वे तो दिव्य आनंद के लोक में सुख पूर्वक रहते हैं।

Friday, October 8, 2010

समुद्र मंथन का विष
भगवान शिव ने पीया

विनय बिहारी सिंह


समुद्र मंथन के समय जब विष निकला तो उसके ताप और प्रभाव से देवता और राक्षस और देवता ही नहीं, पृथ्वी के सभी जीव- जंतु व्याकुल हो गए। कई लोगों ने सोचा कि यह विष समुद्र में ही रहता तो अच्छा था। बाहर क्यों आया? जब जीव तड़पने लगे तो देवता भगवान शंकर के पास गए और कहा कि वे सभी जीवों पर दया कर कोई उपाय करें। भगवान शिव दया की मूर्ति कहे जाते हैं। उन्होंने इस भयंकर विष को पी लिया। लेकिन इसे गले के नीचे नहीं उतरने दिया। सभी जानते हैं शिव जी सर्वोच्च योगी हैं। गले में विष धारण करने के कारण उनका गला नीला पड़ गया। इसीलिए उनका नाम नीलकंठ पड़ गया। जिस विष से समूची पृथ्वी त्राहि त्राहि कर रही थी, उसे भगवान शिव ने मुस्करा कर पी लिया। सिर्फ इसलिए कि पृथ्वी के जीव- जंतु आराम से रहें।
हम भी जब अपने भीतर आत्ममंथन करते हैं तो हमारे भीतर की खराब चीजें बाहर निकलती हैं जिनसे हम बेहद परेशान रहते हैं और सोचते हैं कि यह कैसे खत्म हो। ऐसे में हम भगवान शिव को याद करते हैं और उनसे प्रार्थना करते हैं कि वे हमारा विषय, विकार मिटा दें और हमारा अंतःकरण निर्मल और शुद्ध कर दें ताकि उसमें वे स्वयं आकर विराजमान हों। ऐसे दयामय भगवान शिव को महामृत्युंजय कहते हैं। उनके नामजप से शुभ ही शुभ होता है।

Thursday, October 7, 2010

जब सती माता ने स्वयं को
अग्नि में भस्म कर दिया


विनय बिहारी सिंह

एक बार सभी प्रजापतियों ने यग्य का आयोजन किया। इसमें भगवान शिव के श्वसुर दक्ष प्रजापति हिस्सा लेने पहुंचे। उन्हें देख कर सभी लोग उठ खड़े हुए क्योंकि वे अत्यंत तेजस्वी थे। देवाधिदेव भगवान शिव उनके सामने ही बैठे थे। वे अपने ध्यान में मग्न थे। इसलिए उठ कर खड़े नहीं हुए। यह देख कर दक्ष प्रजापति बहुत ही नाराज हुए। उनको लगा कि भगवान शिव बड़े अहंकारी हैं। उन्होंने कहा कि मैंने व्यर्थ ही अपनी पुत्री की शादी शिवजी से कर दी। इसके बाद दक्ष प्रजापति ने एक यग्य का आयोजन किया। इसमें सारे देवताओं को बुलाया लेकिन भगवान शिव को उन्होंने नहीं बुलाया। लेकिन माता सती को जब यह खबर मिली कि उनके पिता यग्य कर रहे हैं तो उन्होंने भगवान शिव से इसकी इजाजत मांगी। शिव जी पहले तो बिना बुलाए उन्हें न जाने की सलाह दी, लेकिन जब वे जाने की बात पर अडिग रहीं तो उन्होंने उन्हें जाने दिया। पिता के घऱ सती ने जा कर देखा कि सभी देवताओं को तो यग्य में भोग दिया जा रहा है लेकिन उनके पति को नहीं तो उन्हें दुख हुआ। उन्होंने स्वयं को अग्नि हवाले कर दिया। इसके बाद की कथा है कि भगवान शिव ने जब सती के भस्म होने खबर सुनी तो वे तत्काल वहां पहुंचे और सती के निर्जीव शरीर को फिर तैयार किया और उसे कंधे पर उठा कर क्रोध में चल पडे़। भगवान विष्णु ने उनके क्रोध को देखा तो चिंतित हो गए औऱ शिव जी का क्रोध शांत करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से सती के अंग काट काट कर अलग करने लगे। ये अंग जहां- जहां भी गिरे हैं, वहां हिंदुओं का एक तीर्थ है। जैसे- नैना देवी (जहां आंख गिरी), ज्वाला देवी (जहां जीभ गिरी) इत्यादि। लेकिन सती का भस्म होना एक प्रतीक है। दरअसल सती माता ने योग से अपने शरीर को त्याग दिया। वे किसी अग्नि में नहीं जलीं, बल्कि योगाग्नि में जलीं। और उनके निर्जीव शरीर को भगवान शिव ने उठा लिया।

Tuesday, October 5, 2010

भगवान श्रीकृष्ण ने मालिन
का कूबड़ ठीक किया

विनय बिहारी सिंह

कंस का वध करने जब भगवान कृष्ण मथुरा गए तो देखा कि वहां एक कूबड़ी स्त्री (जिसकी पीठ पर एक बड़ा से गोल आकार बना हुआ है और जिसके कारण वह झुक कर चलती थी) बहुत सुंदर माला बना रही है। भगवान उसके सामने रुक गए। वह स्त्री इतने सुंदर मनमोहन बालक को देख कर मुग्ध हो गई। भगवान ने पूछा- क्या बना रही हो सुंदर स्त्री? कूबड़ी स्त्री बोली- राजा कंस के लिए माला बना रही हूं। लेकिन सारे लोगों की तरह तुम भी मुझे चिढ़ा रहे हो? मैं इतनी बदसूरत स्त्री, मुझे सुंदर कह रहे हो? भगवान ने कहा- यह माला मुझे दो, यह मेरे लिए है। उन्होंने वह माला खुद पहन ली और कूबड़ी स्त्री की पीठ को छू दिया। क्षण भर में उसका कूबड़ ठीक हो गया और उसका रूप रंग सुंदर हो गया। मथुरा के लोग तो उसे पहचान ही नहीं पा रहे थे। इतनी सुंदर, लावण्य से भरपूर स्त्री। एक भक्त ने भगवान से पूछा- प्रभु, इस कूबड़ी स्त्री पर आपने कृपा क्यों की? भगवान हंसे और कहा- वह दिन- रात मुझे याद करती रहती थी। मन ही मन मुझसे बात करती रहती थी। लेकिन जब मैं उसके सामने गया तो पहचान नहीं पाई। मैंने उसे सुंदर कहा तो मन ही मन बोली- हे भगवान, एक और व्यक्ति ने मुझे चिढ़ाया। जो भक्त दिन- रात मेरे बारे में ही सोचता रहता है, मन ही मन मेरा नाम लेता रहता है और मेरी छवि देख कर विभोर हो जाता है, उसका कल्याण तो निश्चित ही है। कूबड़ी स्त्री, मेरी अत्यंत भक्त थी। उसने मुझे नहीं पहचाना तो भी क्या फर्क पड़ता है। उसने तो अपने हृदय में मुझे जगह दी है। नतीजा यह है कि मेरे दिल में भी वही है। वह भीतर से अत्यंत सुंदर है, इसलिए बाहर से भी सुंदर है। गीता में भी भगवान कृष्ण ने कहा है- मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता। वह परमपद पाता है

Monday, October 4, 2010

बिच्छू के डंक मारने की कथा

विनय बिहारी सिंह


हम सबने यह कहानी सुनी है कि एक साधु नदी में नहा रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि एक बिच्छू डूब रहा है। उन्होंने तत्काल उसे अपनी हथेली पर उठाया। लेकिन तभी बिच्छू ने उन्हें डंक मार दिया। दर्द के बारे बिच्छू उनके हाथ से छूट गया और फिर नदी में डूबने लगा। उन्होंने फिर उठाया, बिच्छू ने फिर डंक मारा। यह प्रक्रिया जब कई बार हो गई तो वहां खड़े एक शिकारी ने साधु से कहा- क्यों उठा रहे हैं बिच्छू को आप बार- बार? कई बार तो उसने आपको काट लिया। साधु हंसे और बोले- बिच्छू का स्वभाव है डंक मारना और साधु का स्वभाव है करुणा। वह अपना काम कर रहा है और मैं अपना। तब साधु ने बिच्छू को नदी में बह रहे एक बड़े पत्ते पर उठाया और किनारे पर ले जाकर रख दिया। एक सन्यासी ने कल इस कथा पर कहा- इस कहानी से शिक्षा मिलती है कि हमें दुष्ट लोगों से व्याकुल नहीं होना चाहिए। दुष्ट लोगों का काम है कष्ट देना। हमें शांति से उनसे दूर होने का उपाय करना चाहिए। मन में कष्टों को न पालें। चाहे वे शारीरिक कष्ट हों या मानसिक। हमेशा प्रभु की याद करते रहें। दिन में बीच बीच में मन में कहते रहें- प्रभु आप ही मेरे मालिक हैं। आप ही माता, पिता और सुहृद हैं। मेरा उद्धार कीजिए। मैं आपसे प्रेम करता हूं। लेकिन यह बात दिल से कही जानी चाहिए। आपका जीवन सुखमय होगा। सन्यासी की बात को सबने माना। दुष्ट जीव हो या दुष्ट मनुष्य उसका काम ही है डंक मारना। लेकिन हम इसके कारण अपनी शांति क्यों भंग करें। हमारा काम है चिंता मुक्त रह कर भगवान को याद करना। उनके नाम का हृदय से जप करना, भजन, भगवान का चिंतन, भगवान के बारे में शास्त्रों में जो लिखा गया है, उस पर मनन करना। इससे आपका कल्याण होगा।