नदी और तालाब
विनय बिहारी सिंह
कथा है कि एक बार नदी और तालाब में बातचीत होने लगी। तालाब ने नदी से कहा- तुम क्यों अपना जल लगातार समुद्र को देती हो। वह तो रहेगा खारा का खारा ही। तुमने अब तक न जाने कितना जल समुद्र को दे दिया है। नदी बोली- समुद्र तो मेरा स्रोत है। इसमें मिल कर आनंद की सीमा नहीं रहती। नित्य नवीन आनंद मिलता है। तालाब बोला- जो जल तुम समुद्र को देती हो, वह भी खारा हो जाता है। तुम्हारा जल, समुद्र का जल हो जाता है। तुम्हारी पहचान मिट जाती है। नदी बोली- पहचान मिट जाने का आनंद क्या है, यह तुम नहीं जान पाओगे तालाब। उसका सुख वही जानता है जो अपनी पहचान मिटा कर अपने प्रियतम में घुल जाता है। समुद्र मेरा परम प्रियतम है। तालाब बोला- क्या बेकार की बात करती हो। अपनी पहचान मिटा दूंगा तो बचेगा क्या। मैं कहां रहूंगा, सब कुछ तो लय हो जाएगा। नदी हंस कर चुप हो गई। कुछ वर्ष बीते। तालाब सूख गया। उसका बचा खुचा पानी सड़ कर दुर्गंध देने लगा। लोग उसकी तरफ जाते तो अपनी नाक बंद कर लेते। लेकिन नदी आनंद के साथ बहती रही। समुद्र में मिलती रही और उत्ताल तरंगों को प्रकट कर अपने आनंद को व्यक्त करती रही। ठीक इसी तरह हम लोग हैं। हममें से जो लोग ईश्वर में लय नहीं होते, अपने स्रोत में नहीं मिलते, उन्हें आनंद कैसे मिलेगा। वह तो शरीर की सीमा में ही बद्ध रहेगे। लेकिन जब हमारा मन और हृदय का ईश्वर में लय होगा तो आनंद ही आनंद में डूब जाएंगे। इसीलिए गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- सब कुछ छोड़ कर मेरी शरण में आओ। स्रोत में मिल जाने के बाद फिर चिंता क्या है। चारो तरफ समृद्धि ही समृद्धि।
2 comments:
सीख देता लेख .....
जानकारी बहुत बढ़िया लगा सर जी!
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