संसार का अर्थ है द्वंद्व
विनय बिहारी सिंह
ऋषियों ने कहा है कि संसार का अर्थ है द्वंद्व। द्वंद्व कहते हैं द्वैत को। यानी दो विपरीत वस्तुएं या स्थितियां। जैसे- दिन- रात, सुख- दुख, आराम- कष्ट, शांति- अशांति या प्रेम- घृणा, पसंद- नापसंद इत्यादि। जहां दो विपरीत वस्तुएं रहेंगी वहां तो एक रस आनंद नहीं रह सकता। वहां हमेशा द्वंद्व रहेगा, संघर्ष रहेगा, तनाव रहेगा। लेकिन ज्योंही आप द्वैत से अद्वैत में चले जाएंगे- शांति और आनंद के साम्राज्य में पहुंच जाएंगे। अद्वैत क्या है? एक सिर्फ भगवान ही हैं। बाकी सब भगवान के ही रूप हैं। भगवान के अलावा कहीं कुछ नहीं है। वही जन्मदाता हैं, वही कर्ता हैं, वही पोषक हैं और वही संहार भी करते हैं। ऋषियों ने कहा है- यह संसार माया जाल है। यह शरीर भी आपका साथ नहीं देता है। जब इसका समय पूरा हो जाता है तो वह आपका साथ छोड़ देता है। वह कहता है- अब मैं आपका साथ नहीं दे सकता। मेरा काम पूरा हो गया। अब आप इसे अपना शरीर नहीं कह सकते। ठीक ही तो है। यह शरीर हमें कुछ वर्षों के लिए मिला हुआ है। हम इसका इस्तेमाल चाहे जिस तरह करें। ईश्वर कुछ नहीं कहते। उन्होंने हमें स्वतंत्र इच्छा शक्ति दी है, इसलिए वे हस्तक्षेप बिल्कुल पसंद नहीं करते। लेकिन हमने अगर खुद को शरीर मान लिया तो हम मुश्किल में पड़ जाएंगे। क्योंकि यह सत्य नहीं है। हम शरीर नहीं आत्मा हैं। भगवत गीता में भगवान कृष्ण ने यह बात साफ- साफ कही है। हम शरीर नहीं हैं। हम हैं आत्मा। शुद्ध सच्चिदानंद के अंश हैं हम। लेकिन चूंकि जन्म जन्मांतर से हम खुद को शरीर मानते आए हैं, इसलिए खुद को आत्मा मानने में समय लगता है। जब तक हम स्वयं को शरीर मानते रहेंगे, इस दुनिया के प्रपंचों में फंसे रहेंगे। जिस दिन हमें महसूस होगा कि हम आत्मा हैं, उस दिन यह भी समझ में आ जाएगा कि यह दुनिया तो कुछ दिनों का बसेरा है। यहां हमें सबक सीखने के लिए भेजा जाता है। असली घर तो भगवान ही हैं। भगवान और भगवान का धाम। इसलिए क्यों न हम हमेशा उनमें रमे रहें। परमहंस योगानंदजी ने एक भजन लिखा है- प्रभु, क्या इस नींद से मुझे उठाओगे। इस स्वप्न से मुझे जगाओगे। तुमही में जीऊं, तुमही में मरूं, रहूं निरंतर तुमही में।....... कितना मधुर है यह भजन।
2 comments:
सुंदर लगा।
वाह सर जी! क्या बात है। हम शरीर नहीं आत्मा हैं। इतने आसान तरीके से तो यह चीजें घंटों प्रवचनों में बैठकर भी समझ नहीं सकते।
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