Thursday, October 14, 2010

शक्ति, शिव का ही एक रूप है

विनय बिहारी सिंह


भगवान शिव को अर्धनारीश्वर भी कहा जाता है। यानी शिव ही शक्ति हैं और शक्ति ही शिव हैं। बिना शिव के शक्ति नहीं है और बिना शक्ति के शिव नहीं हैं। शिव और शक्ति एक दूसरे के अनुपूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा। शिव जी अनंतता के प्रतीक हैं और शक्ति भी अनंतता की प्रतीक है। लेकिन जब मां काली शिवजी की छाती पर खड़ी होती हैं तो अफसोस में वे जीभ बाहर निकालती हैं- हा, यह मैंने क्या किया। शिवजी की छाती पर पांव दे दिया? अपने अर्धांग पर? इसलिए वे रुक जाती हैं।
सभी जानते हैं कि दुर्गापूजा, शक्ति पूजा है। मां दुर्गा की दस भुजाएं हैं। इन भुजाओं को प्रतीक के रूप में बताते हुए कुछ संत कहते हैं कि ये -ले भुजाएं हमारी पांच ग्यानेंद्रियों- आंख, कान, नाक, जीभ, त्वचा और पांच प्राण- प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान के प्रतीक हैं। लेकिन कुछ संतों का कहना है कि हमारे भीतर के पांच चक्रों के धनात्मक और ऋणात्मक पक्ष ( कुल दस) के प्रतीक हैं देवी दुर्गा के हाथ। मां दुर्गा की सवारी शेर है। यानी मन अनियंत्रित रहता है। जब हम उसे नियंत्रित कर लेंगे तो माता के चरणों तक पहुंचने के योग्य बन जाएंगे। शेर हमारी इंद्रियों और मन का प्रतीक है। जब इंद्रियां और मन वश में रहेंगे तो फिर हमारा सारा ध्यान ईश्वर की तरफ रहेगा। माता दुर्गा के प्रति ही हमारी ललक रहेगी। एक भक्त ने कल पूछा कि मन हमेशा ईश्वर की तरफ उन्मुख नहीं रहता। संसार में इधर- उधर भी चला जाता है। इसके जवाब में एक साधु ने कहा- जब आप महसूस करेंगे कि आपका दिल ईश्वर के कारण ही धड़क रहा है। आपकी सांस ईश्वर के कारण ही चल रही है तो आपका ध्यान अपने आप श्रद्धा से ईश्वर की तरफ चला जाएगा। दरअसल हम हृदय की धड़कन व श्वांस को अपने वश की चीज मान बैठे हैं। हम समझते हैं कि हृदय और श्वांस तो अपने आप चलता है। इसके पीछे किसी का हाथ है ही नहीं। यही मनुष्य की गलती है। इस संसार में मनुष्य का हित अपने आप नहीं होता। ईश्वर की कृपा से ही होता है। सर्वं खल्विदं ब्रह्म

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