Tuesday, June 30, 2009
35 हज़ार साल पुरानी बांसुरी मिली
ये बाँसुरी गिद्ध की हड्डी को तराश कर बनाई गई है. दक्षिणी जर्मनी में होल फेल्स की गुफ़ाओं से इसे निकाला गया है.
यह उस समय का है जब आधुनिक मानव जाति यूरोप में बसना शुरु हुई थी.
बांसुरी के इस्तेमाल से पता लगता है कि उस समय समाज संगठित हो रहा था और उनमें सृजन करने की क्षमता थी.
विशेषज्ञों का ये भी कहना है कि इससे ये पता लगाने में भी मदद मिल सकती है कि उस समय जाति का अस्तित्व कैसे बचा रहा.
तूबिंजेन विश्वविद्यालय के पुरातत्व विज्ञानी निकोलस कोनार्ड ने बताया कि बांसुरी बीस सेंटीमीटर लंबी है और इसमें पाँच छेद बनाए गए हैं.
कोनार्ड कहते हैं, "स्पष्ट है कि उस समय भी समाज में संगीत का कितना महत्व था."
इस बांसुरी के अलावा हाथी दाँत के बने दो बांसुरियों के अवशेष भी मिले हैं। अब तक इस इलाक़े से आठ बांसुरी मिली है. (बीबीसी से साभार )
Monday, June 29, 2009
गोपाल की मां
घटना १८६२ ईस्वी की है। रामकृष्ण मठ के एक सन्यासी ने अपने संस्मरण में इसे लिखा है। तब रामकृष्ण परमहंस कोलकाता के पास दक्षिणेश्वर के विख्यात कालीमंदिर में रहते थे और उनसे मिलने के लिए धनी, गरीब सभी आते थे। एक थी गोपाल की मां। बाल गोपाल के रूप में भगवान श्रीकृष्ण चौबीसो घंटे उनके मन में रहते थे। किसी जमींदार के परित्यक्त बैठकखाने में वे रहती थीं। भिक्षा में जो मिला उसे पका कर खाती थीं और गोपाल, गोपाल की रट लगाए रहती थीं। एक दिन बाल गोपाल के ध्यान में वे गहरे उतर गईं। जब ध्यान टूटा तो भोजन बनाने की तैयार करने लगीं। अचानक उन्हें लगा कि कोई बच्चा उनकी पीठ पर झूल रहा है। उसके कोमल हाथ बहुत सुंदर हैं। बच्चे को सामने कर उन्होंने देखा कि यह तो स्वयं बाल श्रीकृष्ण हैं। अब तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वे खाना बनाना भूल गईं। घंटे भर उनसे खेलती रहीं। तब बाल गोपाल ने कहा कि उन्हें भूख लगी है। तभी से उनका नाम गोपाल की मां पड़ गया। उन्होंने कहा- बेटा, मेरे पास अच्छी वस्तुएं कहां से आएंगी। मैं तो गरीब और अनपढ़ हूं। मैंने कुछ नारियल के लड्डू बनाए हैं। लो, इसे ही खाओ। बाल श्रीकृष्ण ने उसे ही प्रेम से खाया। बाल श्रीकृष्ण उनके साथ नहाते थे, खाते थे और खेलते थे। गोपाल की मां को तो मानो स्वर्ग ही मिल गया था। वे बाल श्रीकृष्ण को लेकर रामकृष्ण परमहंस के पास पहुंचीं। वे उन्हें बहुत मानते थे। उनके पास पहुंचते ही बाल श्रीकृष्ण रामकृष्ण परमहंस की देह में समा गए। लुप्त हो गए। तब गोपाल की मां ने कहा- ओह, समझी। बाबा, तुम्ही बाल श्रीकृष्ण हो और तुम्ही रामकृष्ण परमहंस भी हो। इतने दिन तक तुमने यह बात छुपाई क्यों? तब रामकृष्ण परमहंस सरल और पवित्र हंसी के साथ बोले- जैसी तुम्हारी दृष्टि होगी, मैं तो वैसे ही दिखूंगा न गोपाल की मां। मैं तो कुछ नहीं हूं। मैं सिर्फ जगन्माता का दास हूं, उनका पुत्र हूं। बस। इसके बाद गोपाल की मां को बाल कृष्ण के अनेक बार दर्शन हुए। एक दिन वे दक्षिणेश्वर मंदिर में बैठ कर जाप कर रही थीं। तभी रामकृष्ण परमहंस आए औऱ उनसे हंस कर बोले- अब भी तुम जाप करती हो? तुम्हारा काम तो बन गया। गोपाल की मां ने पूछा- काम बन गया माने? रामकृष्ण परमहंस बोले- स्वयं श्रीकृष्ण ने तुम्हें दर्शन दिया है। अब जाप का क्या मतलब। अब तो उनसे संपर्क हो गया। इस संपर्क को जारी रखो। मन का लय श्रीकृष्ण मे हो जाए तो फिर जाप की जरूरत नहीं रहती। जैसे करेंट तार में दौड़ता रहता है, वैसे ही ईश्वर से सीधा संपर्क हो जाता है।
Saturday, June 27, 2009
रामकृष्ण परमहंस की भक्ति
रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि भक्ति ऐसी होनी चाहिए जैसी कि तेल की ऐसी धार जो कभी रुकती न हो। यानी लगातार ईश्वर में ध्यान। एक भक्त ने पूछा कि यह कैसे संभव है? तो उन्होंने कहा कि ध्यान उस समय करना चाहिए, जब आप सारे काम निपटा लें। सांसारिक लोगों के लिए यही ठीक है। सुबह- सुबह उठ कर तुरंत ध्यान करने का लाभ प्रत्यक्ष दिखता है। इसी तरह रात को सारे कामों से निश्चिंत हो कर ध्यान करें तो आनंद आता है। ध्यान करते समय सारी समस्याएं और चिंताएं दिमाग से निकाल कर फेंक देनी होती हैं। क्योंकि अगर उन्हें निकाल बाहर नहीं करेंगे तो वे ही बार- बार आपके ध्यान में आती रहेंगी। जब आप दिमागी रूप से इन समस्याओं में ही उलझे रहेंगे तो ध्यान भी इन्ही समस्याओं पर केंद्रित हो जाएगा। भगवान का ध्यान फिर कहां हुआ? इसके लिए रामकृष्ण परमहंस और परमहंस योगानंद ने एक बहुत अच्छा उपाय बताया है- हर काम और हर सोच में भगवान को शामिल किए रहिए। बस, आपका काम हो गया। यानी आप आफिस जा रहे हैं तो सोचिए कि यह ईश्वर का काम है, आफिस का काम कर रहे हैं तो सोचिए कि यह ईश्वर का काम है। किसी से मिलने जा रहे हैं तो वहां भी ईश्वर की उपस्थिति बनाए रखनी पड़ेगी। इस तरह आपके जीवन में भगवान रच- बस जाएंगे। फिर क्या है, आनंद ही आनंद है। परमहंस योगानंद ने कहा है कि ईश्वर के पास एक ही चीज नहीं है। वह है- हमारा प्यार। ईश्वर चाहते हैं कि उनकी संतानें उन्हें प्यार करें। अपने मन से। वे चाहें तो हमारे मन में उनके प्रति प्यार जगा सकते हैं, लेकिन नहीं, वे चाहते हैं कि हम लोग स्वयं अपने हृदय में वह प्यार जगाएं। तब तो प्यार का मजा है। भगवान अगर हमारे प्यार के भूखे हैं तो हम भी तो उनके बिना बेचैन ही हैं। संसार में चैन कहां है। हर जगह तो स्वार्थ लपलपा रहा है। कहीं दुख है तो कहीं संताप, कहीं असंतोष है तो कहीं कोई कचोट। हां, प्यार भी है लेकिन वह स्वार्थ में पगा हुआ है। एक ईश्वर ही तो हैं जो हमें खुला प्यार देते हैं और खुला प्यार चाहते हैं। उनका प्यार अनंत है। कभी न खत्म होने वाला। सांसारिक वस्तुओं से तो ऊब भी हो जाती है। लेकिन भगवान से कभी ऊब हो ही नहीं सकती क्योंकि वे नित नवीन आनंद हैं। और यह आनंद हमेशा बढ़ने वाला है। हर क्षण नया आनंद। ऐसे सच्चिदानंद से कोई क्यों नहीं प्यार करेगा? कम से कम रात को सोते समय तो अवश्य ही उनका ध्यान करना चाहिए।
Friday, June 26, 2009
राम में कबीर की आसक्ति
विनय बिहारी सिंह
कबीर ने एक जगह अत्यंत भक्ति के साथ लिखा है- कबीर कूता राम का......। यानी कबीर राम का दास है। कबीर की रचनाओं में राम बार- बार आए हैं। ये राम दशरथ पुत्र राम नहीं हैं। वे अनंत कोटि ब्रह्मांडों के स्वामी हैं। जिनके बारे में रामचरितमानस में भी कहा गया है-पग बिनु चलै, सुनै बिनु काना।कर बिनु कर्म करै विधि नाना।। यानी बिना पैर के वे चलते हैं, कान के बिना वे सुनते हैं, बिना हाथ के वे विभिन्न तरह के काम करते हैं। आगे की चौपाइयों में है कि बिना आंख के वे संपूर्ण ब्रह्मांड को देखते और उसे चलाते हैं। कबीर के राम अनंत हैं, अखंड हैं और उनके स्मरण मात्र से ही मनुष्य का कल्याण हो जाता है। एक प्रश्न आया है कि क्या भगवान कृष्ण या भगवान शिव के चित्रों को मन में रख कर उसी पर ध्यान करने से काम हो जाएगा। इसका उत्तर है- हां। जब तक ईश्वर का दर्शन नहीं होता, हम कैसे जानेंगे कि ईश्वर कैसे हैं? जो तस्वीरें प्रचलित हैं- राम के या कृष्ण के या भगवान शिव के या मां दुर्गा के उन्हीं पर ध्यान करने से लाभ होगा। क्या सचमुच लाभ होता है? इसका उत्तर है- हां। संतों ने ध्यान करने का यही तरीका बताया है। जिस तस्वीर पर आप ध्यान करेंगे, वही आपके प्रश्नों के उत्तर देगी। फिर वह प्रकाश में तब्दील हो जाएगी औऱ उस प्रकाश से आपका संपर्क बना रहेगा। जरूरी नहीं हर आदमी को ईश्वर का एक ही रूप दिखाई दे। संतों ने कहा है कि आप ईश्वर के जिस रूप को प्यार करते हैं, वे उसी रूप में आपके सामने प्रकट होते हैं। कुछ लोग भगवान कृष्ण के मुकुट और माला पहले, हाथ में बांसुरी लिए किशोर रूप को प्यार करते हैं। कृष्ण तो प्रेम के सर्वोच्च रूप माने जाते हैं। एक बार कृष्ण से प्यार हो जाए तो आप दिव्य प्रेम पाने के अधिकारी हो जाएंगे। दिव्य प्रेम सांसारिक प्रेम से भिन्न होता है। सांसारिक प्रेम तो स्वार्थ से भरा होता है। लेकिन दिव्य प्रेम बिना शर्त होता है। भगवान के प्रेम में कोई शर्त नहीं है। सांसारिक प्रेम में शर्त है। भगवान के प्रेम में शर्त नहीं है। कबीर का अपने राम से अत्यंत आत्मीय रिश्ता था। उनके राम ने उन्हें दिव्य प्रेम दे दिया था। क
Thursday, June 25, 2009
व्रत से सात्विकता का भाव
विनय बिहारी सिंह
हम रोज भोजन करते हैं। ठीक ही है। भोजन से हमारे शरीर को ऊर्जा मिलती है। लेकिन संतों ने बीच बीच में उपवास करने को भी कहा है। क्यों? हमारी आंतों में कई बार वर्ज्य पदार्थ इकट्ठे हो जाते हैं और कुछ तो आतों की दीवारों से चिपक जाते हैं। कई बार हमें एसिडिटी हो जाती है। कई बार कब्ज भी। इसका एकमात्र उपाय है एक वक्त का उपवास या अगर संभव हो तो २४ घंटे का उपवास। अगर आपके पेट में कोई गड़बड़ी नहीं है तो भी उपवास करके आपको लाभ ही होने वाला है। पुराने समय में लोग उपवास के दौरान पेड़ू पर (पेट के निचले हिस्से पर) मिट्टी की पट्टी भी बांधते थे। महात्मा गांधी का तो यह बहुत प्रिय काम था। इससे प्राकृतिक ढंग से पेट के विकार दूर हो जाते हैं। मिट्टी का लेप कई लोगों के लिए संभव नहीं है। इसलिए एक विकल्प है। एक या दोनों वक्त का उपवास कर सिर्फ संतरे का रस पीते रहें। परमहंस योगानंद जी के इस प्रयोग से अनेक लोगों को लाभ हुआ है। पेट स्वस्थ तो आपका मन और दिलोदिमाग स्वस्थ। हमारा शरीर सिर्फ भोजन से ही तो ऊर्जा पाता नहीं है। वायु और प्रकाश से भी ऊर्जा पाता है। लेकिन यह इतनी सूक्ष्म ऊर्जा है कि हम प्रत्यक्ष अनुभव नहीं कर पाते। ऋषियों ने एक और बात कही है- सुबह ब्रह्म मुहूर्त में प्राणायाम करें तो पूरे दिन फ्रेश रहेंगे। आपके मेरुदंड में प्राण ऊर्जा का संचार होगा और आपका मन प्रसन्न रहेगा। कई लोगों को दो वक्त का उपवास कष्टकारी लगता है। उनके लिए सिर्फ एक वक्त का ही उपवास ठीक है। रात को शरीर विश्राम करता है। तो रात को ही क्यों न उपवास किया जाए। लेकिन कुछ लोगों को बिना खाए नींद नहीं आती है। उनके लिए दिन का उपवास ठीक है। दिन भर उपवास कर रात को हल्का भोजन करना ठीक है। उपवास के बाद कभी भी भारी भोजन नहीं करना चाहिए। आमतौर पर उपवास के बाद जोर की भूख लगी होती है। लेकिन उस पर नियंत्रण रखते हुए हल्का भोजन ही अच्छा है। कुछ लोगों ने इसका अच्छा उपाय निकाल रखा है। भोजन के आधा घंटा पहले वे कुछ अधिक मात्रा में फल खा लेते हैं। उसी से पेट का ज्यादा हिस्सा भर गया। आधा घंटा बाद वे भोजन करते हैं। जाहिर है, भोजन ज्यादा नहीं कर पाएंगे। इस तरह फल के सहारे वे आनंद में रहते हैं। उपवास के दौरान अगर ईश्वर को याद करें तो फिर आनंद कई गुना बढ़ जाएगा। कुछ धार्मिक पुस्तकें जैसे- गीता पढ़ें या पूजा पाठ करें या कुछ नहीं तो कोई भजन ही सुन लें। इससे उपवास का फायदा कई गुना बढ़ जाता है। वे लोग भाग्यशाली होते हैं जो उपवास में ही नहीं, यूं भी भगवान की शरण में हमेशा रहते हैं।
Wednesday, June 24, 2009
भगवान कृष्ण की बांसुरी
विनय बिहारी सिंह
भगवान कृष्ण की बांसुरी से सृष्टि का जादुई स्वर निकलता है। इसीलिए तो सारी गोपियां पागल की तरह उनकी तरफ दौड़ जाती थीं। लेकिन आगे बढ़ने से पहले बता दें कि भगवान एक ही हैं चाहे वे शिव रूप में हों या कृष्ण रूप में। शैव उन्हें शिव कहते हैं और वैष्णव उन्हें कृष्ण। लेकिन हैं वे एक ही। हम लोग कितने भाग्यशाली हैं कि भगवान को इन दोनों रूपों में पूजा करने की सुविधा है। जब मन करे तो उन्हें मां दुर्गा या काली के रूप में भी पूजा कर लेंगे। वही मां भी हैं। जैसे हमें तरह- तरह के व्यंजन खाना अच्छा लगता है, उसी तरह भगवान की पूजा विभिन्न रूपों में करने में आनंद आता है। गीता में जब अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि आप अपनी विभूतियों के बारे में बताइए। आपको किन किन रूपों में पूजा जा सकता है तो भगवान कृष्ण कहते हैं कि रुद्रों में मैं शंकर हूं। यानी वे ही शंकर भी हैं और कृष्ण भी। तो भगवान कृष्ण की बांसुरी का स्वर मुग्धकारी है। कैसे? ऊं को सृष्टि की आदि ध्वनि कहा जाता है। ऋषि पातंजलि ने लिखा है- अगर आपने ऊं से संबंध बना लिया तो आपने ईश्वर से संबंध बना लिया। ऊं को ही प्रणव ध्वनि कहते हैं। यह ऊं इतना मीठा और शाश्वत है कि यह सात सुरों के रूप में भगवान कृष्ण की बांसुरी से निकलता है। इसीलिए गोपियां मुग्ध हो जाती हैं। भगवान के भक्त भी इस मधुर शब्द को सुन कर भाव विभोर हो जाते हैं। वे तो बल्कि प्रतीक्षा करते रहते हैं कि भगवान कृष्ण की बांसुरी कब सुनने को मिले। यह ध्वनि बिना ध्यान में उतरे नहीं सुनाई पड़ती। पिछले दिनों एक सन्यासी से एक भक्त ने पूछा- स्वामी जी, क्या है सच है कि कृष्ण आज भी हैं? वे तो त्रेता में अवतरित हुए थे। फिर आज कैसे प्रकट होंगे? सन्यासी ने कहा- हां भगवान कृष्ण आज भी हैं और हमेशा रहेंगे। आप बिल्कुल शांत हो कर ध्यान में उतरिए तो सही। सच है। हमारा मन अगर शांत हो जाए तो फिर ध्यान गहरा हो जाता है औऱ ईश्वर का आशीर्वाद मिलने लगता है। बस पांच मिनट संसार की झंझटों से मुक्त तो हो जाएं। मन- मस्तिष्क को विराम दे दें और मन को कहें आओ ईश्वर में लय हो जाएं। कुछ लोग जाप कर मन को ईश्वर में डुबा देते हैं। कुछ कोई भजन गाकर ही खुद को ईश्वर में डुबा देते हैं। कुछ लोग भजन सुन कर ही ईश्वर में डूब जाते हैं। वे कोई मनपसंद कैसेट या सीडी चला देते हैं और उसी के जरिए भगवान में डूब जाते हैं। सबका अपना- अपना तरीका है। जब आपका ईश्वर में लय हो जाए तो बस कृष्ण की बांसुरी सुनाई देने लगेगी।
Tuesday, June 23, 2009
सत्य, शिव और सुंदर
विनय बिहारी सिंह
भगवान शिव ने पार्वती जी को सृष्टि का गुप्त रहस्य बताने के लिए एकांत गुफा चुना। हिमालय में स्थित इस गुफा का नाम है- अमरनाथ। पिछले दिनों एक गांव की एक छोटी सी झील में कमल जैसा फूल खिला देख कर न जाने क्यों भगवान शिव की याद आई। कमल जैसा फूल बड़ा था और एक भौंरा उस पर मंडरा रहा था। झील का पानी मानो ठहरा हुआ था। कहीं कोई हलचल नहीं, कहीं कोई बेचैनी नहीं। वातावरण शांत था। संस्कृत में भगवान को- विमलम, अचलम कहा गया है। बिल्कुल अचल। भगवान शिव भी तो हमेशा शांत, स्थिर यानी अचल ध्यान में मग्न दिखाई पड़ते हैं। जब समुद्र मंथन में घातक विष निकलता है और उसे रखा कहां जाए, इसकी समस्या आती है। विष यूं ही छोड़ दिया जाता तो सांसारिक जीव बेहाल हो जाते। देवताओं ने शिव जी से प्रार्थना की तो वे सहज ही उसे धारण करने को तैयार ho gaye । उसे भगवान शिव ने अपने गले में ही रख लिया। नीचे उतरने नहीं दिया। इसीलिए तो उनका नाम नीलकंठ है। भगीरथ जब स्वर्ग से गंगा को धरती पर लाये तो उनका वेग इतना प्रचंड था कि लग रहा था, पूरी पृथ्वी बह जाएगी। तब वे भगवान शिव के पास गए। शिव जी उनकी प्रार्थना से पिघल गए और गंगा को अपनी जटाओं में उलझा लिया। उनका वेग कम हो गया। वे पृथ्वी पर आराम से बहने लगीं। जीवों को कष्ट से बचाने का काम भगवान शिव करते हैं। भ्रमवश कुछ लोग उन्हें मृत्यु का देवता कह देते हैं। दरअसल ऐसा है नहीं। अगर किसी को मृत्यु भय होता है तो वह महामृत्युंजय जाप करता है। यह शिव जी का ही जाप है। फ़िर वे मृत्यु देने वाले देवता कैसे हुए? शिव महापुराण में जगह- जगह शिव जी की कृपा भरी हुई है। सिद्ध महात्माओं ने कहा ही है- ओम नमः शिवाय का जाप करने से तनाव घटता है और आपके राह में आई परेशानियां नष्ट होती हैं। भगवान शिव आनंद के पर्याय हैं। एक और भ्रम है- भगवान शिव के तीसरे नेत्र को लेकर। कुछ लोग गलतफहमी में कहते हैं कि भगवान शिव का तीसरा नेत्र खुलते ही सब कुछ भस्म हो जाएगा। जबकि तीसरा नेत्र तो आध्यात्मिक नेत्र है और उसके खुलने से जीवों को कोई नुकसान कैसे हो सकता है? भगवान शिव तीसरे नेत्र से ही सबकुछ देखते हैं। वे सर्वव्यापी हैं, सर्वशक्तिमान हैं और सर्वग्य हैं।
Monday, June 22, 2009
इच्छा शक्ति का एक और ताकतवर प्रमाण
विनय बिहारी सिंह
एक बार फिर प्रमाणित हो गया कि इच्छा शक्ति अगर मजबूत हो तो आदमी कुछ भी कर सकता है। असम के महादेव डेका का २००२ में हृदय का आपरेशन हुआ। ओपेन हर्ट सर्जरी। वे शरीर सौष्ठव में नाम कमा रहे थे। तभी हृदय रोग हो गया। उनके दिल का आपरेशन हुआ। तीन महीने तक महादेव आराम करते रहे। लेकिन उनकी तमन्ना थी कि शरीर सौष्ठव में पूरे विश्व में नाम कमाएं। उनकी इच्छा शक्ति मजबूत होती गई। एक दिन उन्हें लगा कि उन्हें कोई बीमारी नहीं है। उन्होंने डाक्टरों से सलाह ली। डाक्टरों ने जांच के बाद पाया कि महादेव पूरी तरह स्वस्थ हैं। उन्होंने व्यायाम की इजाजत दे दी। बस फिर क्या था। वे कड़ी मेहनत करने लगे और विश्व चैंपियनशिप को अपनी मुट्ठी में कर लेने की ठान ली। हाल ही में फ्लोरिडा में हुए विश्व चैंपियनशिप में वे मिस्टर यूनिवर्स चुन लिए गए हैं। यह असम के लिए ही नहीं, पूरे देश के लिए सुखद है। जब महादेव से पूछा गया कि जब उनके दिल का आपरेशन हुआ तो क्या उन्होंने अपने कैरियर का अंत समझ लिया था, क्या वे निराश हो गए थे? महादेव ने कहा- नहीं। मैंने ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, मुझे मिस्टर यूनिवर्स बनना है। जब आप किसी चीज के लिए दीवाने हो जाते हैं तब फिर आपको दिन रात वही चीज दिखाई देती है। महादेव ने कहा- मैं खूब पौष्टिक भोजन करता था और जम कर व्यायाम करता था। मेरे शरीर की मांसपेशियां जब फुलाने पर पूरी तरह फूलने लगीं तो मुझे लगा कि अब मुझे कोई रोक नहीं सकता। मैं बहुत खुश और आत्मविश्वास से भरा हुआ था। मेरे मन में एक ही बात बार- बार घूम रही थी- मैं मिस्टर यूनिवर्स होने जा रहा हूं। और मेरे आत्मविश्वास ने यह कमाल कर दिखाया। दरअसल अभ्यास के साथ आत्मविश्वास बहुत जरूरी है। यह तभी पैदा हो सकता है जब आपकी इच्छा शक्ति मजबूत हो। इच्छा शक्ति यानी विल पावर। विल पावर कमजोर हो तो मनुष्य किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता। एक अन्य खिलाड़ी ने आगे बढ़ कर कहा- ईश्वर में भरोसा हो तो विल पावर बढ़ता है। यह सच भी है। अगर ईश्वर आपके साथ हैं तो आपका विल पावर बढ़ेगा। ईश्वर सर्वशक्तिमान हैं। उन पर भरोसा न करें तो और किस पर करें।
Saturday, June 20, 2009
स्टेम सेल चिकित्सा से उम्मीद की किरण
विनय बिहारी सिंह
मल्टीपल स्क्लेरोसिस के मरीजों के लिए ईश्वर ने एक नई चिकित्सा पद्धति का सहारा दे दिया है। निराश हो चुके रोगियों की कोशिकाओं को फिर से ऊर्जा से भरा जा रहा है। मल्टीपल स्क्लेरोसिस (एमएस) का इलाज मुंबई के सियान हास्पिटल में संभव है। सिर्फ स्टेम सेल पद्धति से। इसमें मरीजों के स्टेम सेल का ही प्रयोग किया जाता है। आखिर यह मल्टीपल स्क्लेरोसिस है क्या? इस रोग में पूरा नर्वस सिस्टम प्रभावित हो जाता है औऱ दिमाग और रीढ़ क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। मरीज को साफ दिखाई नहीं देता, मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं, ठीक से चला नहीं जाता, शरीर के हिस्से जहां- तहां सुन्न हो जाते हैं या सुई चुभोने जैसी पीड़ा होती है, कुछ याद नहीं रहता। यानी सोचने समझने की शक्ति कमजोर हो जाती है। इस रोग का कारण क्या है? विशेषग्यों का कहना है कि कोई खास कारण अब तक समझ में नहीं आ सका है। यह एक तरह के वाइरल इंफेक्शन से होता है। बहरहाल, यह चिकित्सा पद्धति इक्कीसवीं शताब्दी की अद्भुत खोज है। पहले नैनो टेक्नालाजी का इस्तेमाल कर चिकित्सा करने की बात कही जा रही थी। लेकिन लगता है कि अभी नैनो शोध में समय लगेगा। इसीलिए स्टेम सेल चिकित्सा से चमत्कारिक लाभ हो रहा है। कहा जा रहा है कि नए नए रोग पैदा हो रहे हैं। लेकिन नई- नई चिकित्सा पद्धतियां भी सामने आ रही हैं, यह मरीजों के लिए उम्मीद की किरण है। लेकिन यह भी सच है कि आज चिकित्सा पद्धति बहुत खर्चीली हो गई है। सभी डाक्टर तो नहीं लेकिन कई डाक्टर सेवा भाव से नहीं, बल्कि मरीज को बिजनेस आब्जेक्ट या पैसे का स्रोत समझ कर चल रहे हैं। इससे मनुष्यता का अपमान ही हो रहा है। वे पैसा कमाएं लेकिन नजरिया में बदल कर। हंस कर या मुस्करा कर मरीज को सांत्वना देने से ही उसका आधा रोग ठीक हो जाता है। इसलिए दुनिया के जो मानवतावादी हैं, उन्हें इस दिशा में पहल करना चाहिए। भारत की आबादी एक अरब से ज्यादा है, लेकिन एकमात्र दिल्ली में ही एम्स अस्पताल है। जबकि होना यह चाहिए कि हर राज्य में कम से कम दो- दो ऐसे अस्पताल हों।
Friday, June 19, 2009
कैसे मारें तनाव, टीस और दुख को
कई बार जब आप ध्यान करने बैठते हैं तो कोई पुरानी घटना या कोई टीस या कोई दुख आकर आपको मानसिक रूप से हिलाने लगता है। ऐसे में कोई कैसे शांत हो कर कैसे ध्यान करे? एक उच्च कोटि की साध्वी ने इस संबंध में बहुत अच्छी बात कही है- जैसे जूते या चप्पल को आप बाहर खोल कर ध्यान के कमरे में आते हैं, ठीक उसी तरह तनाव, टीस या दुख वगैरह आप बाहर फेंक कर अंदर आ जाइए। फिर आपका ध्यान बहुत अच्छा होगा। एक साधक ने कहा- शुरू में तनाव या कोई घटना ठीक उसी समय मथने लगती है जब आप ध्यान करने बैठते हैं। हम बार- बार उसे दिमाग से हटाते हैं और वह बार- बार हमारे ध्यान को भंग करने ये विचार आ जाते हैं। मानों कोई ताकतवर गोंद हों, हटाए नहीं हटते हैं। इस संबंध में हमें गीता का एक संदर्भ याद करना चाहिए। भगवान कृष्ण से अर्जुन पूछते हैं- मन तो बड़ा चंचल और मथने वाला है, उसे नियंत्रित करना वायु को नियंत्रित करने जैसा दुष्कर है। इसे कैसे वश में करें? तो भगवान कृष्ण कहते हैं- हां, यह सच है कि मन को वश में करना बड़ा ही कठिन है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है। अभ्यास से यानी बार- बार मन को खींच कर भगवान के पास ले आया जाए। चाहे जितनी बार वह चकमा दे, उसे हर बार भगवान की शरण में ले आना चाहिए। यह हुआ अभ्यास। और वैराग्य? यानी यह महसूस करना कि आपसे निःस्वार्थ प्रेम कोई नहीं करता। अनकंडीशनल प्यार कोई नहीं करता। सभी कंडीशनल प्यार करते हैं। किसी न किसी मतलब से। और जिन्हें हम प्रेम करते हैं, वे भी इस दुनिया में स्थाई नहीं हैं। स्थाई तो हमारी देह भी नहीं है। तो स्थाई कौन है? अगर कोई स्थाई रूप से हमारा अपना है तो वह- एकमात्र भगवान हैं। सब एक न एक दिन यह दुनिया छोड़ कर चले जाएंगे। मैं भी एक दिन दुनिया छोड़ कर चला जाऊंगा। माता- पिता, बाल- बच्चे, पत्नी और दुनिया जहान सब धरे रह जाएंगे। जब सारी दुनिया हमें श्मशान पर छोड़ कर चली आएगी तो अंत में हमारे साथ भगवान ही रहेंगे। इसलिए क्यों न हम उनसे अभी से दोस्ती कर लें, उन्हीं से प्यार करें- त्वमेव माता, च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्चसखा त्वमेव। .......... त्वमेव सर्वं, मम देव देव।। इसीलिए ध्यान में जब आपको तरह तरह के विचार सताने लगें तो आप दिमाग या मन से कहिए कि शांत रहो। तुम्हारा एक ही सच्चा ठिकाना है- भगवान। इसके अलावा तुम जहां भी भटकोगे, व्यर्थ है। हर आदमी सार्थक काम करता है। तुम्हारी सार्थकता ईश्वर में है। वही सत्य है, बाकी मिथ्या।
Thursday, June 18, 2009
शांति और मौन
विनय बिहारी सिंह
हमारी आदत होती है कि घर में चैन से बैठते ही टीवी खोल देते हैं। गांवों में बिजली नहीं रहती तो लोग रेडियो सुनने लगते हैं। लेकिन चुप बैठना उन्हें अच्छा नहीं लगता। कुछ लोगों का कहना है कि चुप बैठे रहने से बोरियत होती है। कुछ लोग सवाल उठाते हैं कि चुप बैठने से फायदा क्या है? लेकिन मौन का महत्व समझना भी रोचक है। अनेक महात्मा मौन का एक दिन तय करते थे। उस दिन वे कुछ कहना होता था तो लिख कर कहते थे। लेकिन वे चाहते थे कि लिखना भी न पड़े। कुछ लिखना भी तो संवाद ही है। उससे बचा जाए। आखिर वे ऐसा क्यों करते थे? मौन भीतर झांकने का श्रेष्ठ माध्यम है। आप शांत हो कर ईश्वर का चिंतन कीजिए। यह भी मौन है। लेकिन आप मौन हैं औऱ आपके दिमाग में बवंडर चल रहा है तो इस मौन का कोई फायदा नहीं है। मौन का फायदा तो तब है, जब आपका दिमाग वश में हो। हमारे हाथ, पैर तो हमारे वश में रहते हैं, लेकिन हमारा दिमाग हमारे वश में नहीं रहता। आपने सोचा कि आप भगवान के बारे में लगातार सोचेंगे, ठीक है- दिमाग कुछ देर भगवान के बारे में सोचेगा, लेकिन चुपके से वह रास्ता बदल देगा और कुछ अन्य बातें सोचने लगेगा। आपको फिर उसे खींच कर भगवान पर केंद्रित करना होता है। लेकिन फिर दिमाग आपको चकमा देता है। यानी वह पागल व्यक्ति जैसा काम करता है। इसीलिए साधु- संतों ने कहा है कि ध्यान करने के पहले जाप करना चाहिए। कोई पवित्र धर्मग्रंथ पढ़ना चाहिए या किसी सिद्ध संत- महात्मा के बारे में सोचना चाहिए। जैसे- रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद वगैरह। इससे मन में अच्छी तरंगें उठती हैं। फिर धीरे- धीरे आपका ध्यान लगना शुरू हो जाएगा। कुछ दिनों बाद ही आपको ध्यान का आनंद भी मिलना शुरू हो जाएगा। बस, आपका काम हो गया। अब आपको ध्यान के लिए ज्यादा लड़ाई नहीं करनी पडेगी। बाद में तो अभ्यास से आप इस योग्य हो जाएंगे कि जब चाहे तब आप ध्यान लगा सकते हैं। आपको मौका मिलने की देर है। यही आदर्श स्थिति है। फिर आप लगातार ईश्वर के संपर्क में रहेंगे। आनंद ही आनंद। ईश्वर का अर्थ ही है आनंद। लेकिन जितनी देर आप ध्यान करें कृपा कर मन में कोई कामना न लाएं। धन की या घर की या कार की या और किसी चीज की। ध्यान के समय मन कामना रहित होना चाहिए। अन्यथा वह ईश्वर का ध्यान नहीं होगा, मकान या कार का ध्यान हो जाएगा। कृपया इसे ईश्वर का ध्यान ही बनाए रखें। बस ईश्वर या आप। कुछ लोगों का ढंग तो औऱ भी मजेदार होता है। वे कल्पना करते हैं कि वे ईश्वर की गोद में जाकर बैठ गए और बस निश्चिंत बैठे हैं औऱ आनंद में मग्न हैं। ऐसे लोग अत्यंत भाग्यशाली होते हैं। वे कल्पना करते हैं कि ईश्वर की बाहें उनके चारो तरफ लिपटी हैं। उनके ध्यान का यह तरीका उन्हें ईश्वर से संपर्क करा देता है। लेकिन आप कोई और तरीका भी निकाल सकते हैं। कई लोग तो जाप करते करते ही आनंद में डूब जाते हैं। सबका अपना अपना तरीका है।
Wednesday, June 17, 2009
अपने में सिमटे रहना यानी खुद को बांधे रहना
विनय बिहारी सिंह
कई लोग सिर्फ अपने बारे में ही सोचते रहते हैं और परेशान रहते हैं। इसीलिए ऋषियों ने कहा है कि खुद का विस्तार कीजिए। हम जितने सीमित होते हैं, परेशानियां उतनी ही बड़ी दिखती हैं। मान लीजिए हम आर्थिक तंगी से गुजर रहे हैं। तो सिर्फ अपनी तंगहाली के बारे में सोचते रहेंगे तो व्यर्थ के तनाव में उबलेंगे। लेकिन जैसे ही दिमाग अपने जैसे तंगहाल लोगों पर जाएगा तो मन कहेगा- मैं तो अकेले इस हालत में नहीं हूं। हजारों लोग मेरी ही जैसी परिस्थिति में जी रहे हैं। जब उनमें अपनी परिस्थिति को सुधारने की हिम्मत है तो फिर मैं क्यों परेशान हूं। यह सोचते ही आपके मन में हिम्मत बंधती है। खुद का विस्तार जरूरी है। तब परेशानियां छोटी हो जाती हैं। शादी ब्याह की परंपरा खुद का विस्तार करने की ही व्यवस्था है। पहले आदमी अकेले होता है। फिर शादी होती है औऱ परिवार बढ़ता है। तब मनुष्य खुद के अलावा पत्नी और बच्चों के बारे में सोचने लगता है। उसका दायरा थोड़ा सा बढ़ता है। लेकिन अगर वह अपने परिवार के लिए ही चक्की की तरह चलता रहा तो अंत में बूढ़ा हो जाएगा औऱ सुख- सुविधाएं जुटा कर इस दुनिया को छोड़ कर चला जाएगा। लेकिन वह जब सामाजिक सरोकारों से जुड़ता है तो उसे और भी आनंद आता है। इसीलिए संतों ने कहा है कि दूसरों की मदद कीजिए। जरूरी नहीं कि आप धन देकर ही किसी की मदद कर सकते हैं। नहीं। आप किसी जरूरतमंद आदमी को अपना एक पुराना कपड़ा ही दे सकते हैं। मान लीजिए आपकी कोई कमीज पुरानी पड़ गई है। आप उसे अब नहीं पहनते। तो उसे किसी ऐसे भिखारी या जरूरतमंद को दे दीजिए जो नंगे बदन हो। इसमें आपका कोई नुकसान नहीं हुआ और किसी गरीब को खुशी मिल गई। छोटी- छोटी चीजें किसी को बड़ी खुशी भी दे सकती हैं, यह हम सोच नहीं पाते। एक सामान्य सा कदम, किसी के जीवन में खुशी ला सकता है। आपके कारण अगर किसी का चेहरा खिल जाए तो आपको कितना सुख मिलेगा? लेकिन एक परिचित कह रहे थे कि आखिर किस किस की मदद करें। गरीबों की कोई कमी है? इस तरह सोचने से काम नहीं चलेगा। आप जिसे जरूरी समझते हैं, उसी की मदद कीजिए। लेकिन अगर आपको मदद बोझ लगता है तो फिर कोई बात नहीं। आप इसके बारे में बिल्कुल मत सोचिए। सचमुच खुद का विस्तार बहुत जरूरी है। आप एक वृहत्तर संसार से जुड़ जाते हैं। लगता है कि पूरी दुनिया आपकी है। लेकिन जब ईश्वर से भी जुड़ जाते हैं तब तो और भी आनंद आ जाता है। तब तो समूचा ब्रह्मांड ही आपको अपना लगने लगता है। हर पेड़, हर पौधा, प्रकृति का सौंदर्य, सूर्योदय औऱ सूर्यास्त सब के सब आपको प्यार करते से लगते हैं। कहावत है कि सौंदर्य तो देखने वाले की आंखों में होता है। यह सच है। अगर आपकी सोच व्यापक है तो आप सौंदर्य का पूरा- पूरा लाभ उठा सकते हैं। लगता है ओस की बूंद आपके लिए ही टपकी है। कोयल आपके लिए ही कूकी है और कोई फूल आपको ही लुभाने के लिए खिला है। यह है ईश्वर से प्रेम का आनंद। एक बार ईश्वर से प्रेम करके तो देखिए। आपका विस्तार हो जाएगा।
Tuesday, June 16, 2009
जब साधु ने मरीज की सेवा की
विनय बिहारी सिंह
एक मरीज गांव से शहर डाक्टर के पास अपना इलाज कराने आया। उसे बुखार था। संयोग से जिस डाक्टर को वे दिखाने आए थे, वे शहर से बाहर गए हुए थे। अब क्या हो। शहर में रहने का कोई ठिकाना नहीं था। मरीज के साथ उसकी पत्नी थी। दोनों गांव के पास तक जाने वाली बस में बैठ गए। बस में मरीज का बुखार बहुत तेज हो गया। तीन घंटे बाद जब मरीज बस से उतरा तो उससे बुखार के मारे चला नहीं जा रहा था। गांव अब भी तीन किलोमीटर दूर था। अंधेरी रात थी। अचानक झमाझम बारिश होने लगी। तभी पत्नी की नजर पास की एक साधु की कुटिया पर पड़ी। दोनों वहां गए और दरवाजा खटखटाया। एक वृद्ध साधु ने दरवाजा खोला। मरीज की पत्नी ने अपनी समस्या बताई। साधु ने हंस कर दोनों को अंदर बुलाया। मरीज कुटिया में बिछी चटाई पर लेट गया। साधु ने उन्हें प्रसाद के रूप में बताशा खिलाया और मरीज की सेवा करने लगे। साधु कपड़े की पट्टी को पानी में भिंगो कर मरीज के ललाट पर रखना शुरू किया। बीच- बीच में वे एक जड़ी का रस पिला देते थे। रात भर साधु नहीं सोए और मरीज की सेवा करते रहे। भोर में मरीज का बुखार उतर गया। पत्नी को राहत मिली। उसने साधु के चरण छुए। कहा- महाराज, आपने इतनी कृपा की कि हम तो आपके ऋणी हो गए। कोई जान न पहचान और हमें अपनी कुटिया में शऱण दी और रात भर सेवा की। आपने रात में खाना नहीं खाया और हमें तो खाने की इच्छा ही नहीं थी। साधु ने कहा- बेटी, मैं रात को खाना नहीं खाता। तुम लोगों को खिलाने के लिए मेरे पास कुछ था नहीं। इसलिए मैं दवा पिला कर और बुखार उतारने में मदद कर तुम्हारी सेवा कर रहा था। यह तो मेरा सौभाग्य है कि मैं तुम लोगों की सेवा कर सका। पत्नी को आश्चर्य हो रहा था। वह बोली- बाबा, इसमें सौभाग्य की क्या बात है। मरीज को तो कोई शरण नहीं देना चाहता। सभी उससे घृणा करते हैं। आपने तो बिना किसी संकोच या घृणा के सेवा की। साधु बोले- बेटी, पहली बात- इस मरीज में भी तो भगवान है। सौभाग्य इसलिए कि भगवान ने तुम लोगों को मेरी कुटिया में सेवा के लिए ही भेजा। मैं इसे भगवान को खुश करने का एक मौका मानता हूं। मेरा प्रिय भगवान मेरी सांसों में बसा है। भगवान खुश, तो मैं खुश। मैं तो भगवान से कुछ नहीं मांगता। मैं कहता हूं- भगवान, तुम्हारी जो इच्छा हो, वही करो। मैं उसी में खुश हूं। तुम्हारी जो मर्जी वही करो। इसी में मुझे आनंद है। तुम तो सब जानते हो, मुझे क्या चाहिए यह क्या तुमसे छुपा है? हे अंतर्यामी मुझे तो बस तुम्हारा प्रेम चाहिए। तुम्हारा प्रेम ही तो दुर्लभ है।
Monday, June 15, 2009
ईश्वर से संपर्क यानी सभी दुखों का अंत
विनय बिहारी सिंह
परमहंस योगानंद जी कहते थे- ईश्वर से संपर्क यानी सभी दुखों का अंत। उनके कहने का अर्थ था- ईश्वर सारी बुराइयों को नष्ट कर डालते हैं। कब? जब आपका ईश्वर से संपर्क पुष्ट हो जाए। संपर्क कब पुष्ट होगा? जब आपको लगने लगेगा कि आप ईश्वर से जुदा हो कर रह ही नहीं सकते। यह कैसे संभव है? हां संभव है। हम अपनी इच्छा से तो पैदा हुए नहीं हैं। अपनी इच्छा से तो माता- पिता चुना नहीं है। यह सब ईश्वर ने किया है। अगर यह ईश्वर ने किया है तो जरूर वे हमारे मां-बाप हैं, आश्रयदाता हैं। इस पर कई मित्र सवाल करते हैं कि ईश्वर हैं या नहीं यह हम कैसे मानें। हमारा वजूद ही ईश्वर के होने को प्रमाणित कर देता है। और हमारे पुराने ऋषि- मुनियों ने झूठ नहीं कहा है कि ईश्वर से संपर्क करना ही मनुष्य के जीवन का मुख्य उद्देश्य है। उन्होंने अपने गहरे ग्यान को हमसे बता दिया है। अगर हम उस पर अमल नहीं करते औऱ सांसारिक माया- जाल में उलझे रहते हैं तो कष्ट, तनाव और उलझनें मिलेंगी ही। बड़ा सीधा रास्ता है। ईश्वर में गहरा विश्वास हो और बल्कि विश्वास ही नहीं हो, ईश्वर का भीतर अहसास भी हो। क्योंकि विश्वास तो हिल भी सकता है, लेकिन अगर आपको ईश्वर का अहसास हो रहा है, तो फिर आप आंख मूंद कर ईश्वर और उसकी सत्ता में भरोसा करेंगे, उसके सामने नतमस्तक होंगे औऱ वह आप पर कृपा करेंगे, आपको प्यार करेंगे। ईश्वर का अहसास कैसे हो? लगातार उनसे प्रार्थना करने पर यह अहसास होता है। यदि आप लगातार प्रार्थना करते हैं- हे ईश्वर, मैं नहीं जानता कि आप कैसे हैं, कृपा कर बताइए कि आप कैसे हैं। मैं कुछ नहीं जानता, आप खुद ही बताइए। बस आप देखेंगे कि एक दिन ईश्वर ने आपसे संपर्क साध लिया। फिर आपको कोई चिंता नहीं। सब कुछ आपका है। जो ईश्वर का वह आपका। एक बार उससे संपर्क तो हो जाए।
Friday, June 12, 2009
आपके मन की भावनाएं समझने वाला रोबोट
विनय बिहारी सिंह
तो आखिर इंग्लैंड के विशेषग्यों ने वह रोबोट तैयार कर ही दिया जो सामने पड़ते ही यह बता देगा कि अमुक व्यक्ति के मन में क्या चल रहा है। इसे सुरक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। अगर किसी कक्ष में मीटिंग चल रही है और रोबोट अचानक वहां आकर सभी लोगों के मन के विचार पढ़ ले तो इससे मीटिंग करने वालों को सुविधा होगी। रोबोट सिर्फ विचार नोट ही नहीं करता बल्कि वह उसे कंप्यूटर में फीड भी कर देता है। वह ऐसे तमाम तरह के डाटा कंप्यूटर में स्टोर करता रहता है जिससे कंपनी या संस्थान के लोगों को काफी मदद मिलती रहती है। कई कंपनियां तो यह भी सोच रही हैं कि वे अपने आफिसों के रिसेप्शन में ही एक रोबोट बैठा दें ताकि हर आने- जाने वालों का दिमाग स्कैन होता रहे। कुछ लोगों का विचार है कि इन रोबोटों को अपने घर में रखना चाहिए ताकि हर आने- जाने वालों के दिमाग को पढ़ कर हमें बता सके। मान लीजिए कोई आदमी घर में आया और आपके गेस्ट रूम में बैठा। इसी बीच आपने उस व्यक्ति को पानी इत्यादि पिला कर अपने कंप्यूटर पर बैठे और देख लिया कि रोबोट ने इस आदमी के बारे में आपको क्या बताया है। अब जब आपने इस आदमी के मन की बात जान ली तो आपको उससे बातचीत करने में सुविधा होगी। अगर उसके दिमाग में कोई विध्वंसक विचार चल रहे हैं तो आप उसे तुरंत अपने घर से चलता कर देंगे और उसे संकेत भी दे देंगे कि उसे दुबारा आपके घर आने की जरूरत नहीं है। इतना तक तो ठीक है लेकिन विशेषग्यों ने कहा है कि इस रोबोट को और ज्यादा विकसित करना है। उनका कहना है कि जब तक रोबोट इस लायक नहीं बनाया जाता कि वह किसी आदमी के बारे में बता सके कि वह पूरे दिन क्या- क्या करने वाला है, तब तक यह सफलता अधूरी ही कही जाएगी। लेकिन लोगों का कहना है कि वह सिर्फ दिमाग पढ़ कर ही बता दे कि कि सामने वाला आदमी क्या करने की सोच रहा है, बस काम बन जाएगा। आखिर यह रोबोट काम कैसे करता है? दरअसल इस रोबोट में इस तरह का प्रोग्रामिंग फीड किया गया है जो मनुष्य की तमाम सोच प्रणालियों को संवेदनशील ढंग से पकड़ लेता है। मन में चल रहे पैटर्न से ही वह रोबोट जान लेता है कि इस आदमी की मंशा क्या है। वह तुरंत कंप्यूटर में इस बात को फीड कर देता है। रोबोट का मालिक कंप्यूटर के जरिए चुपचाप किसी व्यक्ति के बारे में जान लेता है। यह इतने गुपचुप तरीके से होता है कि जिसके बारे में जासूसी की जा रही है, वह शक भी नहीं करता औऱ उसके बारे में सारी जानकारी मिल जाती है। हमारे ऋषियों को तो यूं ही मालूम हो जाता था कि अमुक व्यक्ति के मन में क्या चल रहा है। उनकी चेतना इतनी विकसित होती थी कि उन्हें किसी रोबोट की जरूरत नहीं पड़ती थी। आज भी तमाम माइंड रीडर अपना व्यवसाय चला ही रहे हैं। लेकिन उनकी माइंड रीडिंग कई बार गलत हो जाती है। हमारे ऋषियों से लेकिन गलती नहीं होती थी क्योंकि उनका दिमाग इतना केंद्रित होता था कि वे सेकेंड भर में सामने खड़े या बैठे व्यक्ति का दिमाग पढ़ लेते थे। यही नहीं वे तो सुदूर बैठे किसी व्यक्ति का दिमाग भी पढ़ लेते थे। उनकी एकाग्रता बेजोड़ थी। वे कहते थे कि जो भी एकाग्रचित्त होगा, यह गुण उसमें आ जाएगा। इसे कई लोग सिद्धि भी कहते हैं। आज भी बहुत कम सही, लेकिन लोग हैं जो गहरे ध्यान में उतरते हैं और आगम का ग्यान उन्हें स्वतः ही हो जाता है। मुख्य बात है मन की गहरी एकाग्रता।
Thursday, June 11, 2009
जाग्रत, निद्रा और स्वप्न अवस्थाएं
हम सभी तीन अवस्थाओं से रोज गुजरते हैं- हालांकि यह चक्र है। अगर जाग्रत अवस्था को पहला मानेंगे तो फिर सवाल उठ सकता है कि निद्रा अवस्था को ही पहला क्यों न मानें क्योंकि गर्भ में तो एक तरह से हम सब निद्रा अवस्था में ही रहते हैं। आइए इस तर्क से हट कर हम जाग्रत अवस्था से ही शुरू करते हैं। जाग्रत अवस्था मे हमारा कांशस माइंड काम करता रहता है और जो भी काम हम करते हैं उसी के माध्यम से होता है। फिर रात होती है और हम खा- पी कर सो जाते हैं। यह निद्रा अवस्था है। नींद में तो हमें पता ही नहीं रहता कि हम कहां हैं। नींद मे तो यह भी पता नहीं चलता कि हमारी कौन सी समस्याएं हैं। हमारे एक मित्र मजाक करते हैं कि नींद में तो यह भी नहीं पता चलता कि हम स्त्री हैं या पुरुष। इस स्थिति को सबकांशस माइंड नियंत्रित करता है। इस अवस्था में हमारी सारी इंद्रियां शिथिल पड़ जाती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि रात में हल्का भोजन करना चाहिए। क्योंकि शिथिल अंगों को भारी मेहनत नहीं सुहाता और अगर भारी भोजन करने के बाद सुबह उठते हैं तो हमारा मन और शरीर भारी- भारी लगते हैं। नींद में हम गहरे आराम में होते हैं। इसीलिए जब सो कर उठते हैं तो तरोताजा महसूस करते हैं। हम खूब रुचि से चाय पीते हैं या जो चाय नहीं पीते वे रुचिपूर्वक पानी पीते हैं औऱ आनंद अनुभव करते हैं। संतों ने कहा है यह ध्यान जैसी अवस्था है। ध्यान में औऱ नींद में अंतर यह है कि ध्यान में सुपरकांशस माइंड काम करता है और नींद में सब कांशस माइंड़ काम करता है। है न रुचिकर बात? नींद में आप ईश्वर के संपर्क में नहीं रह सकते लेकिन ध्यान अगर गहरा हो गया तो आप ईश्वर के संपर्क में आ सकते हैं और ईश्वरीय आनंद से सराबोर हो सकते हैं। अब आइए स्वप्न वाली अवस्था पर गौर करें। स्वप्न में जो भी घटना घटती जाती है वह बिल्कुल सही लगती है। कुछ लोगों का दिल तो स्वपन से अचानक जगा देने पर भी जोर- जोर से धड़कता है। यह स्वप्न के साथ तादात्म्य स्थापित करने के कारण होता है। हम कई लोगों को स्वप्न देखते समय कई बार प्रत्यक्ष चीखते- चिल्लाते हुए भी पाते हैं। लेकिन जब आदमी जागता है तो उसे लगता है- हे भगवान, यह तो स्वप्न था। कोरा सपना, जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है। संत कहते हैं यह दुनिया भी एक तरह का स्वप्न ही है। आप अपने जीवन की बीती हुई घटनाएं याद करके देखिए- लगता है वह सब स्वप्न जैसा ही था जो बीत गया। संतों की बात तभी सच लगती है। अपने जीवन की कई घटनाएं तो हम भूल भी जाते हैं। यह क्या है? इसीलिए ईश्वर को ही सत्य कहा गया है। सब कुछ मिथ्या और ईश्वर ही सत्य। लेकिन सांसारिक काम भी जरूरी हैं। जब हमारा कर्तव्य पूरा हो जाए तो बस ईश्वर की गोद जा कर बैठ जाएं। सबको प्रेम करने वाले प्रिय भगवान। वे सिर्फ हमारी बाट जोहते रहते हैं। हमारा प्यार चाहते हैं। और हम उधर ध्यान नहीं देते- कहते हैं यह काम कर लें तो भगवान को इत्मीनान से याद करेंगे। लेकिन वह समय कभी नहीं आता। अगर भगवान को याद करना है तो इसी व्यस्तता में ही समय निकालना पडेगा। समय को हासिल करना होगा। वरना दिन पर दिन बीतता जाएगा औऱ भगवान को हम प्रेम से याद नहीं कर पाएंगे।
Wednesday, June 10, 2009
टेलीफोन की तरंगें और मनुष्य के मन की तरंगें
अगर आपने अपने कंप्यूटर (खासकर कैथोड रे ट्यूब मानीटर या सीआरटी) के पास अपना मोबाइल रखा है तो फोन आते ही कंप्यूटर स्क्रीन या कहें मानीटर स्क्रीन बुरी तरह कांपने लगता है। बल्कि फोन आने के कुछ सेंकेंड पहले ही कांपने लगता है। इसे हम स्वाभाविक मान कर मोबाइल फोन उठाते हैं और बात करने लगते हैं। लेकिन क्या टेलीफोन की तरंगे अत्यंत शक्तिशाली नहीं हैं? अगर नहीं होतीं तो कंप्यूटर स्क्रीन कांपता ही क्यों। हमारे ऋषियों ने कहा है कि मन की तरंगें इन तरंगों से और भी ज्यादा शक्तिशाली हैं। जैसे कंप्यूटर स्क्रीन मोबाइल फोन की तरंगों को पकड़ लेता है, उस तरह मन की तरंगों को पकड़ने वाला सूक्ष्म यंत्र आम घरों में उपलब्ध नहीं है। कंप्यूटर तो फिर भी घरों या कार्यालयों में उपलब्ध है। मन की तरंगें जैसी होंगी, आपका व्यक्तित्व भी वैसा ही होता जाएगा। मान लीजिए आपने अपनी जिंदगी को बोरियत भरा मान लिया है या यह मान लिया है कि मैं तो भाग्यशाली नहीं हूं, अमुक अमुक लोग भाग्यशाली हैं। तो बस, ये तरंगे निकल रही हैं और आपका लगातार नुकसान हो रहा है। लेकिन आपको इसका पता नहीं है। इसलिए कभी यह मान कर मत चलिए कि आप भाग्य के कमजोर हैं। बल्कि आप अपना भाग्य बदल सकते हैं, अगर लगातार कोशिश करें। मन की तरंगें काफी शक्तिशाली होती हैं। संतों ने कहा है कि आप कभी भी नकारात्मक सोच के शिकार न बनें। जब भी आपको नकारात्मक सोच घेरने लगे, तुरंत उसको मन से झटक दें और कोई अच्छी बात सोचने लगें। इससे आपके व्यक्तित्व में भारी परिवर्तन होगा और आपके भीतर रचनात्मक शक्तियां पैदा होंगी। फिर आप अपने लिए ही नहीं अपने परिवार औऱ समाज के लिए भी अच्छा काम करेंगे। किसी घटना पर अफसोस करने के बजाय आप तय कर लें कि जो गलतियां हुई हैं अब मैं उन्हें नहीं दोहराऊंगा। बस उसी पर अमल कीजिए। अफसोस करने से आप खुद को दोष देंगे और यह सिलसिला चलता रहेगा। ठीक है एक बार आपने अफसोस कर लिया और पछतावा कर लिया। लेकिन दिन- रात पछताने का तो कोई अर्थ नहीं है। उसे सुधारना ही एकमात्र उपाय है। यदि संभव हो तो आप संबंधित व्यक्ति को पत्र लिख कर कह सकते हैं कि आपको अमुक बात का बहुत अफसोस है- मैंने तो गुस्से में यह बात कह दी थी। लेकिन बाद में बहुत अफसोस हुआ कि आखिर मैंने यह कहा ही क्यों। बस, वह आदमी अगर समझदार है तो आपकी साफगोई की प्रशंसा करेगा। लेकिन अगर वह आदमी साफ दिल का नहीं है तो पत्र न लिख कर ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि उसके दिल में आपके प्रति कोई बुरी बात न आए। साधु- संतों ने तो यह भी कहा है कि अगर आप ईश्वर के बारे में सोचेंगे, उनका ध्यान करेंगे तो आपके मन में अच्छी भावनाएं और तरंगें पैदा होंगी। ये तरंगें आपके और आपके परिवार या मित्रों के लिए शुभ फल देने वाली होती हैं। इसीलिए हमारे समाज में कहा जाता है कि जो सुबह शाम पांच मिनट के लिए भी भगवान को याद नहीं करता, वह दिन रात बेचैनी में ही जीवन गुजार देता है। उसका जीवन सुख औऱ शांति से दूर रहता है। लेकिन ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो ईश्वर का नाम लिए बिना भोजन नहीं करते। कुछ ऐसे हैं जो नहाते वक्त ही भगवान का नाम लेते रहते हैं। ईश्वर का नाम लेने में किसी वक्त की पाबंदी नहीं है। जब चाहे ईश्वर का नाम लीजिए और आनंद में रहिए।
Tuesday, June 9, 2009
भावनात्मक मुक्ति कैसे पाएं
विनय बिहारी सिंह
भावनात्मक मुक्ति यानी इमोशनल फ्रीडम टेक्नीक। यह क्या है? मान लीजिए किसी के दिमाग में कोई डर बैठ गया है। उदाहरण के लिए अंधेरे में भूत का डर। अब वह अंधेरे से आतंकित रहेगा और उसका जीवन भय में डूबता- उतराता रहेगा। या किसी ने किसी की मृत्यु देखी है और वह उसके दिमाग में इस कदर बैठ गई है कि वह सपने भी मृत लोगों के ही देखता है। या किसी के प्रति मन में इतनी घृणा बैठ गई है कि वह निकलने का नाम नहीं ले रही है। मनोचिकित्सकों ने इसे मानसिक रोग कहा है और इससे मुक्ति के कई उपाय बताए हैं। उनका कहना है कि जैसे टार्च में आप बैटरी भरते हैं तो एक बैटरी का धनात्मक सिरा, दूसरे के ऋणात्मक सिरे से जोड़ते हैं तब जाकर टार्च जलता है। उसी तरह जब तक आपका दिमाग शांत और क्रमबद्ध चिंतन नहीं करता आपकी दिमागी हालत गड़बड़ी का शिकार रहेगी। भय, चिंता और तनाव का अधिकार उस पर बना रहेगा। मनोचिकित्सकों का कहना है कि तनाव या डर झेल रहे लोग, अपने दिमाग की बैटरियों के ऋणात्मक सिरे को धनात्मक सिरे से न जोड़ कर ऋणात्मकऋ को ऋणात्मक सिरे से ही जोड़ देते हैं। यानी- जब कोई तनाव होता है तो उसी के बारे में ज्यादा तनाव के साथ लगातार सोचते रहते हैं और आग में घी डालते रहते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि समस्या सुलझने के बजाय उलझती जाती है और आप गहरे तनाव के शिकार बनते जाते हैं। इसका उपाय यह है कि इस ऋणात्मक स्थिति को किसी धनात्मक यानी अच्छी घटना या उपाय से जोड़ दीजिए। पूरी स्थिति ही बदल जाएगी। आपके मन से उस तनाव का बोझ उतर जाएगा औऱ आप राहत की सांस लेंगे। यह कैसे संभव है? मान लीजिए कि आपका व्यवसाय घाटे में चल रहा है। आप इसे लेकर भारी तनाव में हैं। तो आप दिन रात यही सोचते रहेंगे कि अब तो मेरा व्यवसाय डूब जाएगा तो फिर आप अवसाद से घिरते जाएंगे। लेकिन इसके बजाय आप लगातार नई योजनाएं, नए प्लान बना कर अपने व्यवसाय को उबारने का प्रयास करते रहेंगे तो लगातार प्रयास का फल आपको जल्दी ही मिलेगा और आपका व्यवसाय पटरी पर आ जाएगा। बल्कि आपका लाभ दिनों दिन बढ़ता जाएगा। हमेशा धनात्मक बातें सोचने की बात हमारे ऋषियों ने भी कहा है। उनका कहना है कि सबके जीवन में दुख और परेशानियां आती हैं। लेकिन स्थायी नहीं होतीं। वे आती हैं और फिर चली भी जाती हैं। मनुष्य का काम है कि दृढ़ता के साथ जीवन में आगे बढने के उपाय करता रहे। ऋषियों ने यह भी कहा है कि उन लोगों के जीवन में परेशानियां कम आती हैं जो ईश्वर की शरण में रहते हैं। जो खुद को ईश्वर की संतान मानते हैं औऱ ईश्वर का नाम लिए बिना कोई काम नहीं करते उनके जीवन में परेशानियां बहुत कम आती हैं। लेकिन कितने ऐसे भाग्यशाली लोग हैं जो ईश्वर को ही अपना मालिक मानते हैं? रामकृष्ण परमहंस कहते थे- मां काली ही ईश्वर हैं। उनके मुताबिक- मां मैं घर हूं, तू घरणी है। मैं रथ हूं, तू रथी है। मैं यंत्र हूं, तू यंत्री है। मां मुझे कुछ नहीं चाहिए। बस मुझे शुद्धा भक्ति दे दो।
Monday, June 8, 2009
तनाव से बचने के लिए एक बैठक
विनय बिहारी सिंह
कहने की जरूरत नहीं कि पहले की तुलना में आजकल मानसिक तनाव ज्यादा हावी होने लगा है। वजह है कि बहुसंख्यक लोगों का जीवन पटरी पर नहीं है। आर्थिक तनाव तो मुख्य कारण है ही, असुरक्षा का भय भी एक कारण है। भय यह कि क्या पता नौकरी कब चली जाए। आर्थिक मंदी के नाम पर कई कंपनियों अपने अनेत कर्मचारियों की छंटनी कर दी है। जो बचे हैं उनकी नौकरी भी कितनी सुरक्षित है, कहा नहीं जा सकता। इसके अलावा कुछ कंपनियों ने अपने कर्मचारियों का वेतन घटा दिया है। जो २० हजार रुपए प्रति माह वेतन पाते थे, उन्हें सिर्फ १२ हजार रुपए प्रति महीने वेतन दिया जा रहा है। इसके अलावा भी जीवन की हजार हजार समस्याएं हैं। इसे ही लेकर एक प्रबंधन ने कुछ चुने हुए लोगों की बैठक बुलाई थी। उसमें मुझे भी हिस्सा लेने का मौका मिला था। प्रबंधन ने हम सबसे पूछा था कि ऐसा क्या किया जाना चाहिए कि कर्मचारियों में जोश भरा जा सके और उनकी घट रही कार्य क्षमता को बूस्ट किया जा सके (बढ़ाया जा सके)। कई तरह के सुझाव आए। एक सुझाव यह आया कि कर्मचारियों की छंटनी से बाकी बचे कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ता है। वे १० घंटे के बजाय १४ घंटे काम करते हैं। उनका वेतन भी कम कर दिया गया है। इसलिए उनके दिमाग में यह बात डाली जानी चाहिए कि उनकी नौकरी सुरक्षित है औऱ जैसे ही आर्थिक मंदी खत्म होगी, उनका वेतन तत्काल बढ़ा दिया जाएगा। दूसरा सुझाव यह आया कि आदमी को मशीन बना कर उसे बहुत दिनों तक फैक्ट्री की तरह चलाया नहीं जा सकता। अगर उससे रचनात्मक काम करवाना है तो उसे थोड़ी सी राहत देनी होगी। मेरा सुझाव था कि कर्मचारियों के लिए कार्यालय में ही एक घंटे का योग और ध्यान का कार्यक्रम रखा जाए। इस सुझाव को सबने पसंद किया औऱ प्रबंधन ने इस काम को अगले हफ्ते से लागू करने का फैसला किया है। हमारे ऋषि मुनियों ने कहा है कि जब तक हम भौतिकता की दौड़ में भगवान को छोड़ कर दौड़ते रहेंगे, हमारा जीवन तनाव से भरा रहेगा। एक बार अपनी समस्याएं भगवान को सौंप कर शुद्ध मन से ईश्वर का हाथ पकड़िए औऱ जम कर मेहनत कीजिए। आपकी सफलता को कोई रोक नहीं सकता। आपका तनाव तत्काल खत्म हो जाएगा क्योंकि आप जानते हैं कि आपकी रक्षा भगवान कर रहे हैं। लेकिन यह समर्पण या ध्यान या जाप आधे मन से नहीं होना चाहिए। बस जब पूजा कर रहे हैं तो उसी में डूब जाइए। जाप कर रहे हैं तो उसी में डूब जाइए। उतनी देर तक भगवान के सिवा कोई सुधि न रहे। तब देखिए कैसे तनाव धीरे- धीरे आपसे दूर होता जाएगा।
Saturday, June 6, 2009
रात को सोने से पहले आत्मविश्लेषण
विनय बिहारी सिंह
कभी कभी जब मनुष्य की मनचाही प्रगति नहीं होती, या कोई काम बिगड़ जाता है तो वह अक्सर भाग्य को दोष दे कर खुद को कोसने लगता है। या अक्सर कुछ लोग ऐसा कहते पाए जाते हैं कि क्या करें भाग्य ही साथ नहीं देता। जबकि हमारे ऋषि- मुनियों ने बार- बार कहा है कि आप खुद अपने भाग्य को बदल सकते हैं। इसमें सिर्फ भगवान से प्रार्थना और सही दिशा में प्रयत्न जरूरी है। यह कैसे होगा? जब आपका काम आगे नहीं बढ़ पा रहा है या आप बार- बार असफल हो रहे हैं तो सबसे पहले जरूरी है कि आप रोज रात को सोने से पहले आत्मविश्लेषण करें- आज मैंने कौन सा अच्छा और गड़बड़ काम किया। इस तरह एक लिस्ट बनाते जाइए। आप पाएंगे कि जाने- अनजाने कई चीजें आपके सामने आएंगी जिन्हें आप सुधार लें तो सफलता आपके कदम चूमेगी। दूसरी सावधानी यह है कि जिस काम में आप सफल नहीं हो रहे हैं उसके करने के तरीके को बदल दीजिए। हर चीज को बेहतर करते रहने की ललक से ही व्यक्ति आगे बढ़ता है। जो लोग अपने जीवन के तरीके ऊब गए हैं, वे आत्मविश्लेषण नहीं करते। क्योंकि हमारे जीवन में अनंत संभावनाएं हैं। बस धैर्य और सही दिशा में परिश्रम जरूरी है। अब आइए ईश्वर से प्रार्थना वाले प्रसंग पर। सही दिशा में कारगर मेहनत तभी सफल होगी जब आप ईश्वर से लगातार प्रार्थना करेंगे कि हे प्रभु, मुझे सही ग्यान और बुद्धि दीजिए, मेरी मदद कीजिए। अगर आप सच्चे दिल से ईश्वर से प्रार्थना करेंगे तो वे इसका जवाब जरूर देंगे। यह कोई नई बात नहीं है। इसे युगों- युगों से अनेक लोग आजमाते आए हैं। हर आदमी आगे बढ़ना चाहता है और सुखी रहना चाहता है। लेकिन सभी सुखी नहीं हो पाते। इसके लिए ईश्वर से प्रार्थना और मन को शुद्ध रख कर जाप इत्यादि करते रहना चाहिए। धीरे- धीरे आप पाएंगे कि भगवान आपको उन कठिनाइयों से भी उबार रहे हैं जिनकी तरफ आपका ध्यान नहीं था। आपका रास्ता निष्कंटक, सुखमय और प्रेम की हवाओं से सुगंधित हो जाएगा। लेकिन यह एक दिन में नहीं होगा। मेहनत के साथ भगवान की प्रार्थना बहुत जरूरी है। भगवान हमारा प्यार चाहते हैं औऱ हम यह प्यार आसानी से उन्हें दे सकते हैं। क्यों न यह काम आज से ही करना शुरू करें।
Friday, June 5, 2009
हनुमान जी का मच्छर के आकार का बनना कोरी कल्पना नहीं
विनय बिहारी सिंह
जी नहीं हनुमान जी की कहानी कोरी कल्पना नहीं। सभी जानते हैं कि वे अष्ट सिद्धि और नौ निधियों के स्वामी हैं। ये अष्ट सिद्धियां क्या हैं? आइए जानें-पहली सिद्धि है अणिमा- परमाणु के बराबर छोटा बन जाने की शक्ति। दूसरी सिद्धि है- महिमा- चाहे जितने बड़े आकार का बन जाने की शक्ति। याद कीजिए- हनुमान जी विशाल पहाड़ के बराबर बन गए थे। तीसरी सिद्धि है लघिमा- शून्य के बराबर हल्का हो जाने की शक्ति। चौथी सिद्धि है गरिमा- जितनी इच्छा हो भारी हो जाने की शक्ति। पांचवीं सिद्धि है- मनचाही वस्तु पा लेने की शक्ति। छठवीं सिद्धि है- स्वामित्व का अधिकार पा लेने की शक्ति। सातवीं सिद्धि है- चाहे जो भोग करना हो, उसे प्राप्त कर लेने की शक्ति। आठवीं सिद्धि है- काल को पार करने की शक्ति। क्या जिसके पास ये शक्तियां होंगी, वह उड़ कर समुद्र नहीं पार कर जाएगा? क्या वह परछाईं को पकड़ कर खा जाने वाली राक्षसी का वध नहीं कर देगा। क्या वह मच्छर का रूप नहीं धारण कर सकता? क्या वह पहाड़ सदृश आकार का नहीं बन सकता? क्या वह सुमेरु पर्वत को उखाड़ कर उसे सुषेण वैद्य के पास ले कर नहीं जा सकता? क्या वह लंका को जला कर नष्टप्राय नहीं कर सकता? क्या वह रावण के पुत्र अक्षय कुमार का वध नहीं कर सकता? क्या वह ब्राह्मण का रूप धारण कर लंका में विभीषण से नहीं मिल सकता? क्या असंभव है हनुमान जी के लिए? जिनके पास अष्ठ सिद्धियां हैं। आज सौर ऊर्जा की बात हो रही है। पुराने जमाने में इस ऊर्जा को पाने के लिए हनुमान जी ने सूर्य को ही निगल लिया था ( यह प्रतीक मात्र है)। उन्हें भूख लगी थी। यानी उन्हें ऊर्जा की जरूरत थी। तो वे करते क्या? हमारे ऋषियों ने तो हवा और सूर्य के प्रकाश से ही भोजन प्राप्त करने की विधि प्राप्त कर ली थी। हर बात को गौर से देखिए तो पता चलेगा कि हमारे देश में आध्यात्म बहुत उन्नत था।
Thursday, June 4, 2009
परछाईं पकड़ कर खा लेने वाली शक्ति
तुलसीदास के रामायण या रामचरितमानस के सुंदरकांड में एक प्रसंग आता है। हनुमान जी जब सीता जी की खोज में लंका जाते हैं तो वे समुद्र के ऊपर से उड़ रहे होते हैं। उस समुद्र में एक ऐसी राक्षसी रहती थी जो आकाश में उड़ते पक्षियों या अन्य जंतुओं की छाया पकड़ कर उन्हें अपने पास खींच लेती थी और उन्हें खा लेती थी। उसने अपनी आकर्षण शक्ति का प्रयोग हनुमान जी पर भी किया। उन्होंने उस राक्षसी का तुरंत वध कर दिया। फिर जब वे लंका पहुंचे तो नगर के प्रवेश द्वार पर ही लंकिनी नाम की राक्षसी मिल गई। हालांकि हनुमान जी मच्छर जितने छोटे आकार के हो कर लंका में घुस रहे थे। लेकिन फिर भी लंकिनी ने उन्हें देख लिया और कहा कि चोर ही तो मेरे भोजन हैं (यानी आप चोर की तरह जा रहे हैं, मेरा भोजन बनिए)। तब हनुमान जी ने उसे एक मुक्का मारा और वह खून फेंकती हुई ढह गई। फिर किसी तरह शक्ति बटोर कर उठ खड़ी हुई और कहा- ब्रह्मा जी ने जब लंकेश रावण को वर दिया तो मुझे भी कहा था - जब तुम किसी बंदर के मारने से बेचैन हो जाओ तो समझ लेना राक्षसों के विनाश का समय आ गया है। लंकिनी दरअसल रामभक्त थी। लंकिनी ने ही हनुमान जी से कहा- प्रविसि नगर कीजै सब काजा। हृदय राखि कौसल पुर राजा।।
छाया को पकड़ कर अपने पास खींच लेने वाले प्रसंग से यह बात साफ हो जाती है कि यह कला या सिद्धि, प्राचीन काल में भी थी। आज जासूस हवाई जहाजों के लिए उन्नत देशों ने अपनी सीमाओं पर जो संवेदनशील यंत्र लगाए हैं, वे भी तो इन जहाजों को पकड़ कर खींच ही लेते हैं। या उनमें कुछ ऐसी खराबी पैदा कर देते हैं ताकि मजबूरन उन्हें उस आकर्षण कर रहे टावर के क्षेत्र में उतरना पड़े। लेकिन याद रहे हमारे ऋषियों में यह शक्ति होती थी कि उन्हें जिसे बुलाना होता था, वे अपनी आकर्षण शक्ति से ही उसे बुला लेते थे। उनका सारा काम आकर्षण शक्ति से ही होता था। लेकिन वे इस शक्ति का दुरुपयोग नहीं करते थे। लेकिन अगर किसी दुष्ट व्यक्ति या राक्षस के हाथ यह विद्या पड़ गई तो उसका दुरुपयोग होने लगता था। राक्षसी का प्रसंग ही इसका प्रमाण है। ऋषि जनकल्याण के लिए अपनी शक्तियों का प्रयोग करते थे। आज भी ऐसे अनेक लोग आपको मिल जाएंगे जो चुपचाप जनकल्याण का काम कर रहे हैं। लेकिन उन्हें कोई नहीं जानता। वे नाम के भूखे भी नहीं हैं। उन्हें तो बस सेवा करके ही सुख मिल रहा है। ऐसे लोगों के सामने श्रद्धा से सिर झुक जाता है।
Wednesday, June 3, 2009
आखिर अष्ठपाश हैं क्या
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विनय बिहारी सिंह
पाश यानी बंधन। जो हमें बांध कर रखते हैं। ये आठ हैं- घृणा, लज्जा, भय, शोक, जुगुप्सा, जाति का अभिमान, कुल का अभिमान, आत्म अभिमान। जब तक इनसे मुक्ति नहीं मिलती, हम इनके जाल में तड़पते रहेंगे। कभी मानसिक तनाव तो कभी क्रोध तो कभी घुट- घुट कर जीना तो कभी मन में भारी असंतोष और बेचैनी। किसी से घृणा है तो कहीं लज्जा रास्ता रोके बैठी है, किसी बात का डर है तो किसी बात का शोक, पर निंदा कई लोगों के लिए नशा है, और किसी को जाति का घमंड है तो किसी को अपने खानदान का घमंड, किसी को खुद अपने पर ही घमंड है- मैं सुंदर हूं, या मेरा इतना बड़ा घर है, मैं पैसे वाला हूं, या इतना बड़ा अधिकारी हूं या इतना नाम और इज्जत है मेरी वगैरह वगैरह। लेकिन संतों ने कहा है अष्ठपाशों में से एक पाश भी हमारे भीतर रह गया तो वह आपको नचा कर रख देगा। आप स्वतंत्र नहीं रह पाएंगे। वह सपने में भी आपको नचाता रहेगा। आइए देखें कि इन अष्टपाशों में से कितने ऐसे हैं जो हमारे भीतर नहीं हैं। क्या हम किसी से घृणा नहीं करते हैं? अगर नहीं, तो बहुत अच्छा। क्या हमारे मन में कोई काम करते लज्जा नहीं आती? अगर नहीं तो बहुत अच्छा। आखिर हम लज्जा वाले काम करें ही क्यों। और भय? कहीं ऐसा न हो जाए, कहीं वैसा न हो जाए। तरह- तरह का भय। और कुछ नहीं तो मृत्यु का भय। किसी भयंकर बीमारी का भय। और शोक? पदोन्नति नहीं मिली तो शोक, कोई प्रियजन दुनिया छोड़ कर चला गया तो शोक, कोई ऐसी वस्तु नहीं मिली जिसके लिए ललक थी तो भी शोक। अब आइए देखें कि जाति का अभिमान और कुल का अभिमान क्या है? मेरे परिवार की बड़ी ताकत है, मेरे परिवार में अमुक अमुक बड़े पदों पर हैं। घमंड। कुछ नहीं तो अपने ही किसी बात का घमंड। ऋषियों ने कहा है- अष्टपाश एक साथ नहीं छूटते। धीरे- धीरे एक- एक करके छोड़िए। जब इन पाशों से मुक्त हो जाएंगे तो उद्धार निश्चित है। तब आप पाएंगे कि न कोई तनाव है और न ही कोई बेचैनी। बस आप शांति औऱ आनंद में मग्न हैं। आपको ईश्वर का नित नवीन आनंद मिलता रहेगा।